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क्या कारपोरेट जगत मोदी की सत्ता में वापसी की जमीन तैयार कर रहा है?

‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ नाम की एक संस्था है. इस संस्था का काम है तमाम राजनीतिक दलों को वो चंदा देना जो ये संस्था देश भर के पूंजीपतियों से इकट्ठा करती है. यानी देश की तमाम बड़ी कंपनियां पहले इस संस्था को चंदा देती हैं और फिर ये संस्था उस पूरे चंदे को राजनीतिक दलों में बांट देती है.   

ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल ये उठता है कि जब चंदा पूंजीपतियों से आता है और राजनीतिक दलों में चला जाता है तो बीच में इस संस्था का क्या काम? ये काम पूंजीपति सीधे ही कर सकते हैं, राजनीतिक दलों को चंदा देकर? इस सवाल पर आगे चर्चा करेंगे. पहले इस संस्था और इसकी कार्यशैली के बारे में जान लेते हैं. 

‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ हमेशा से भाजपा पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रही है. इतना ज्यादा कि इस संस्था ने जो भी चंदा अलग-अलग कंपनियों से लिया, वो लगभग पूरा ही भाजपा को दान कर दिया. उदाहरण के लिए, इस साल मिले कुल 169 करोड़ रुपए के चंदे में से 144 करोड़ इस संस्था ने भाजपा को दिए. जबकि कांग्रेस को सिर्फ दस करोड़ और बीजू जनता दल को पांच करोड़ रुपए दिए गए. 

चंदे के बंटवारे में दिखने वाले इस भारी अंतर के क्या कुछ छिपे हुए संकेत भी हो सकते हैं? अमूमन माना जाता है कि देश का कारपोरेट और उद्योग जगत सत्ता की चाल के साथ तालमेल बिठाकर चलता है. आमतौर पर सत्ता में संभावित किसी भी बदलाव की आहट भी कारपोरेट को मिल जाती है. लेकिन जिस तरीके से प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट का मोटा हिस्सा भाजपा के खाते में जा रहा है, उसके छिपे संकेत यह भी हो सकते हैं कि कारपोरेट जगत का भरोसा भाजपा में बना हुआ है और उसे भरोसा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा वापस आ सकती है. हालांकि चुनावी नतीजों के बारे में कोई अटकलबाजी की बजाय अंतिम नतीजों का इंतजार करना बेहतर रहेगा.        

एडीआर के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर के शब्दों में, “सिर्फ ट्रस्ट के पैसे के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि पूंजीपति भाजपा के पक्ष में हैं या उन्हें भाजपा के ही जीतने उम्मीद है, इसलिए वो भाजपा को ही पैसा दे रहे हैं. बड़े पूंजीपति किसे कितना पैसा दे रहे हैं, ये हमारी मौजूदा व्यवस्था में सामने ही नहीं आता क्योंकि दलों को मिलने वाले चंदे का 90 फीसदी हिस्सा कालेधन के रूप में आता है.”

क्या है प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्स्ट?

‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ की शुरुआत पिछले लोकसभा चुनावों से ठीक पहले हुई थी. उस दौर में इस संस्था का नाम ‘सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट’ हुआ करता था और इसकी स्थापना के पीछे भारती समूह की 33 कंपनियों का हाथ था. इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार उस दौर में यह संस्था भारती समूह के ही वसंत कुंज (दिल्ली) स्थित कार्यालय से चला करती थी. लेकिन कुछ समय बाद इस संस्था का नाम ‘सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट’ से बदल कर ‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ कर दिया गया और इसका कार्यालय भी वसंत कुंज से बदल कर हंस भवन, बहादुर शाह ज़फर मार्ग हो गया. 

देश में ऐसी लगभग दो दर्जन संस्थाएं हैं जो ‘इलेक्टोरल ट्रस्ट’ के रूप में पंजीकृत हैं और राजनीतिक दलों को चंदा देने का काम करती हैं. इनमें से अधिकतर ‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ से ज्यादा पुरानी हैं लेकिन प्रूडेंट ने आते ही बाकी सबको पछाड़ दिया है. आज स्थिति ये है कि तमाम इलेक्टोरल ट्रस्ट को मिलने वाले कुल चंदे का लगभग 90 फ़ीसदी अकेले प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट को ही मिल रहा है. 

जगदीप छोकर बताते हैं, “पहले कहा जाता था कि बड़े पूंजीपति राजनीतिक दलों को पैसा देते हैं और उन पर अपने हित में काम करवाने का दबाव बनाते हैं. इससे निजात पाने के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट का विचार आया ताकि कोई पूंजीपति सीधा राजनीतिक दलों को पैसा देने की जगह इन ट्रस्टों को दें और फिर ट्रस्ट इस पैसे को राजनीतिक दलों में बाटें. लेकिन ट्रस्ट जिस तरह पैसा बांट रहे हैं, उससे कोई भी समझ सकता है कि इसे बनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ.”

इस साल प्रूडेंट को चंदा देने वालों में सबसे आगे डीएलएफ ग्रुप रहा जिसने अकेले ही इस संस्था को 52 करोड़ रुपए का चंदा दिया. इसके अलावा भारती समूह ने इसे 33 करोड़, श्रॉफ ग्रुप ने 22 करोड़, गुजरात के टोरेंट ग्रुप ने 20 करोड़, डीसीएम श्रीराम ने 13 करोड़, कैडिला ग्रुप ने दस करोड़ और हल्दिया एनर्जी ने आठ करोड़ रुपए का चंदा दिया. इस तरह कुल 169 करोड़ रुपए प्रूडेंट को मिले जिसका 85 फ़ीसदी हिस्सा इसने भाजपा को दिया और बाकी बचा 15 फ़ीसदी देश की अन्य राजनीतिक दलों में बांट दिया. 

‘प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट’ का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि यह हमेशा से ही अपने कुल चंदे का सबसे बड़ा हिस्सा भाजपा को देता रहा है. साल 2014 में इस संस्था को कुल 85.4 करोड़ रुपए मिले थे जिसमें से 41.37 करोड़ (48%) इसने भाजपा को दिए. इसके बाद साल 2015 में प्रूडेंट ने कुल 141 करोड़ में से 106 करोड़ भाजपा को दिए, 2016 में कुल 47 करोड़ में से 45 करोड़ (96%) भाजपा को दिए और 2017 में कुल 284 करोड़ में से 252 करोड़ रुपए भाजपा को दिए. भाजपा पर लगातार मेहरबान रहे इस ट्रस्ट को जो कंपनियां हर साल सबसे ज्यादा पैसा देती हैं उनमें डीएलएफ, भारती ग्रुप, टोरेंट और यूपीएल सबसे प्रमुख हैं. 

वैसे प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट के अलावा इस श्रेणी के बाकी ट्रस्ट भी भाजपा पर ही ज्यादा मेहरबान दिखते हैं. 17-18 में इस तरह के सभी इलेक्टोरल ट्रस्ट को मिलने वाले चंदे को यदि जोड़ कर देखें तो इसका भी लगभग 85% हिस्सा भाजपा के खाते में ही जाता दिखता है. आदित्य बिरला ग्रुप के ट्रस्ट ने भी इस साल कुल 21 करोड़ रुपए में से 12.5 करोड़ भाजपा को दिए जबकि एक करोड़ कांग्रेस को और आठ करोड़ बीजू जनता दल को. कुछ इलेक्टोरल ट्रस्ट ऐसे भी हैं जो अपना सारा चंदा किसी एक ही पार्टी को सौंप देते हैं. लेकिन ऐसे ट्रस्ट को मिलने वाली रकम प्रूडेंट जैसे बड़े ट्रस्ट के आगे नगण्य है.

साल 2013 से 2017 के बीच अलग-अलग इलेक्टोरल ट्रस्ट को कुल मिलाकर कारपोरेट कंपनियों की तरफ से लगभग 638 करोड़ मिले हैं जिनमें से 489 करोड़ भाजपा के खाते में गए हैं और 87 करोड़ कांग्रेस के खाते में. संख्याओं के इस मायाजाल से निकलकर अब कुछ मूल सवाल पर चर्चा करते हैं. पहला सवाल तो यही है कि जब पूंजीपति का पैसा सीधे राजनीतिक दलों को ही जाना है तो बीच में ऐसे किसी इलेक्टोरल ट्रस्ट की जरूरत क्यों है?

इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, “ऐसा मूलतः उन खामियों के चलते किया जाता है जो हमारे कानूनों में मौजूद हैं. चुनाव से संबंधित, आयकर से संबंधित और विदेशों से आने वाले पैसे से संबंधित हमारे जो कानून हैं, उनमें कई कमियां हैं. इन्हीं कमियों का फायदा उठाने के लिए ट्रस्ट का रास्ता अपनाया जाता है.” 

एक सवाल ये भी उठता है कि तमाम इलेक्टोरल ट्रस्ट भाजपा पर इतना मेहरबान क्यों दिखते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए ठाकुरता कहते हैं, “ये पहली बार नहीं है. 2014 से पहले जब भाजपा सत्ता में नहीं थी, तब भी पूंजीपति उसे सत्ताधारी दलों से ज्यादा पैसा दे रहे थे. अब तो भाजपा केंद्र के साथ ही तमाम राज्यों में भी है तो यह समझा जा सकता है.”

ठाकुरता आगे कहते हैं, “हमें ये भी देखना जरूरी है कि जितना पैसा इन दलों को ट्रस्ट के जरिये मिलता है, उससे कहीं ज्यादा सिर्फ चुनावों में ही खर्च हो जाता है. चुनाव में लगने वाले इस पैसे का कोई हिसाब नहीं होता और ये पूरी तरह से कालाधन होता है. हमारी व्यवस्था इस पर लगाम लगाने में पूरी तरह विफल है. अब इलेक्टोरल बांड जैसी व्यवस्था चीज़ों को और भी ज्यादा बदतर बना देंगी.” 

इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों तक चंदा पहुंचाने की एक नई व्यवस्था है. माना जा रहा है कि इस व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद इलेक्टोरल ट्रस्ट की अहमियत पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगी. लेकिन परंजॉय गुहा ठाकुरता की ही तरह तमाम जानकार इस नई व्यवस्था को कहीं ज्यादा खतरनाक ही मानते हैं. एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) से जुड़े आईआईटी के प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं, “मौजूदा व्यवस्था में तुलनात्मक रूप से पारदर्शिता है. इलेक्टोरल बांड इस पारदर्शिता को कमज़ोर करेंगे. क्योंकि तब सरकार के पास तो इसकी जानकारी होगी कि कौन पूंजीपति किस दल को पैसा दे रहे हैं लेकिन बाकियों के पास यह जानकारी नहीं होगी.” 

चुनावी चंदे की व्यवस्था में पारदर्शिता का सवाल लंबे समय से अटका हुआ है. परेशानी यह है कि इस मामले में जिसे कानून बनाना है वही लोग इस अपारदर्शी व्यवस्था के लाभार्थी हैं. तो फिर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता कैसे आए. इस सवाल के जवाब में छोकर बताते हैं, “इसका एकमात्र आदर्श तरीक़ा वही है जो ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के बाद पूरे देश को सुझाया था. वह था पैसे का डिजिटल लेन-देन. मोदीजी कहते हैं रिक्शे वाले से लेकर सब्ज़ी वाले तक को पैसे पेटीएम से दिए जाएं. तो फिर राजनीतिक दलों को डिजिटल पेमेंट क्यों न हो? राजनीतिक दल अपना हर चंदा डिजिटल तरीक़े से लें, यही सबसे सीधा और आदर्श तरीक़ा है.”

इलेक्टोरल ट्रस्ट की कार्यशैली

इलेक्टोरल ट्रस्ट की व्यवस्था को मोटे तौर पर देखने से लगता है कि ऐसे ट्रस्ट देश भर की बड़ी कंपनियों से पैसे लेते हैं और उसे राजनीतिक दलों में बांट देते हैं. लेकिन ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि ट्रस्ट ये किस आधार पर तय करते हैं कि किस राजनीतिक दल को कितना चंदा देना है? क्या कंपनियां ट्रस्ट को पैसे देते वक्त उन्हें ये भी बताती हैं कि ये पैसा किस राजनीतिक पार्टी तक पहुंचना चाहिए? या ट्रस्ट ये अपने विवेक से ही तय करते हैं?

ये सवाल इसलिए भी उठते हैं क्योंकि इन ट्रस्ट के पीछे जिन कंपनियों का हाथ होता है, वह अक्सर ये कहते दिखती हैं कि “ट्रस्ट एक स्वायत्त संस्था है और कंपनी का इसमें हस्तक्षेप नहीं है.” देश के सबसे बड़े इलेक्टोरल ट्रस्ट प्रूडेंट का ही उदाहरण लें तो भारतीय  ग्रुप इसके बारे में बिलकुल यही बातें कहता है. लेकिन अगर ऐसा है तो ये ट्रस्ट क्यों सिर्फ भाजपा को ही लगातार चंदे का मोटा हिस्सा सौंप देता है? 

इन सवालों के जवाब लेने के लिए न्यूज़लांड्री ने प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट से संपर्क किया लेकिन उनके निदेशक मुकुल गोयल से संपर्क नहीं हो सका. उनकी ओर से कोई भी जवाब आने की स्थिति में हम इस रिपोर्ट में उसे शामिल करेंगे.

प्रूडेंट ने भले ही कोई जवाब नहीं दिया हो लेकिन छोकर का इस बारे में साफ मानना है कि भाजपा और अन्य दलों के चंदे में भारी अंतर का संबंध सत्ता से है. छोकर बताते हैं, “वो सत्ता में हैं तो स्वाभाविक है कि उन्हें ज़्यादा चंदा मिल रहा है. लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जो चंदा हमें दिख रहा है वह राजनीतिक दलों को मिलने वाले कुल चंदे का सिर्फ़ दस प्रतिशत है. इन्हें ज़्यादातर चंदा तो कालेधन के रूप में मिलता है जिसका कभी पता ही नहीं चलता.”

बहरहाल देश का सबसे बड़ा इलेक्टोरल ट्रस्ट जो चंदा देश भर की कंपनियों से जमा करता है, वह लगभग पूरा चंदा सिर्फ भाजपा को ही क्यों भेंट कर देता है? यह समझना ज्यादा मुश्किल भी नहीं है.