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पूरी तटस्थता के साथ बनी है ‘मोहल्ला अस्सी’: डॉ. काशीनाथ सिंह

डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ डॉ. काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित है. लम्बे इंतजार और संघर्ष के बाद यह फिल्म पिछले हफ्ते रिलीज हुई. हिंदी फिल्मों के इतिहास में साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में लंबे समय से बनती रही हैं. इन फिल्मों को लेकर अधिकांश अवसरों पर विवाद होते रहे हैं. साहित्यकारों की आम शिकायत रहती है कि फिल्म में कृति का मूल भाव बदल गया. कृति की ‘रूह’ फिल्म में नहीं आ सकी. इस सन्दर्भ में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ‘मोहल्ला अस्सी’ के बारे में डॉ. काशीनाथ सिंह की प्रतिक्रिया और विचार खासा महत्व रखते हैं. डॉ. काशीनाथ सिंह ने फिल्म देखने के अगले दिन फिल्म के ऊपर विस्तार से बातचीत की.

नमस्कार, कल हम लोगों ने मोहल्ला अस्सी साथ ही देखी. यह फिल्म आप के उपन्यास काशी का अस्सी पर आधारित है. फिल्म देखते समय किस तरह की अनुभूति और विचार मन में आ रहे थे?

एक तो मैं अपने शब्दों को आकार लेते हुए देख रहा था. शब्द मूर्त हो रहे थे और मूर्त होने पर उनका क्या होता है? एक अजीब तरह की सनसनी सी मेरे भीतर हो रही थी कि इसका इतना अच्छा अर्थ निकल सकता है, जो पर्दे पर मैं देख रहा हूं. एक तो यह अनुभूति थी. दूसरे, डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी उन दुर्लभ फिल्मकारों में होंगे, जो साहित्य का इतना सम्मान करते हैं कि उसके विकल्प के रूप में कुछ और नहीं देखते. शब्दों का उन्हीं रूपों में, उसी अर्थ में इस्तेमाल… यह बड़ी चीज दिखाई पड़ी. फिल्म देखने के बाद अंत में किया गया बदलाव सार्थक लगा. हमारे दिमाग में प्रश्न था कि क्या करें विदेशी का? उसे जगह दें या ना दें धर्मनाथ पांडे? क्योंकि उनकी पत्नी के भीतर अलग और उनके भीतर अलग द्वंद्व चल रहा है. दोनों असमंजस में है. पत्नी को लगता है कि वह नौकरानी बन कर रह जाएगी. रसोई बनाएगी कपड़े-लत्ते साफ करेगी. उसकी हर इच्छा पूरी करने में ही उसका दिन निकल जाएगा. फिर तो वह रामदेई जैसी हो जाएगी. पैसों की वजह से वह उसे रखना भी चाहती है, लेकिन इस बात को लेकर परेशान भी है.

धर्मनाथ का द्वंद्व है कि अकेले हम ही पूजा नहीं करते हैं. मोहल्ले के लोग भी आते-जाते हैं. और फिर किस मुंह से हम लोगों को बताएंगे जबकि हम ही रोक रहे थे लोगों को. इन सारे प्रश्नों की वजह से मैंने प्रश्नचिन्न लगा कर छोड़ दिया था. डॉ. दिवेदी ने उसका हल निकाला है कि शिव मंदिर भी अपनी जगह रह सकता है और वह भी अपनी तरह रह सकती है. इस ग्लोबलाइजेशन के दौर में कहीं न कहीं भारत की यही नियति मुझे दिखाई पड़ रही है. विदेशी आ-जा रहे हैं. उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते. उन्हें अपनी कमाई का जरिया बना सकते हैं. पूरी फिल्म मुझे बहुत अच्छी लगी.

आपने उपन्यास का नाट्य रूपांतर भी देखा है और अभी फिल्म देखी. दोनों रूपांतर मुख्य रूप से ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागी’ पर आधारित हैं. नाटक और फिल्म में कोई फर्क है क्या? क्या फिल्म से उपन्यास को कोई नया आयाम मिला?

फिल्म से उपन्यास का नया आयाम खुला है. नाटक में पप्पू की दुकान उभर कर नहीं आती है. वह सड़क के किनारे की एक दुकान के दृश्य जैसा होता है, जिसमें सारे लोग एक साथ नहीं आ पाते एक साथ. उनके संवाद भी नहीं आ पाते. और उनका उल्लेख भी नहीं किया जाता. फिल्म में यह सब कुछ था. दूसरा कि नाटक में पांडे की पत्नी के लिए सपने का दृश्य रचा जाता है. सपने में वह अपने दुख को गाती है. बताती है कि उसके आगे क्या परेशानी है? नाटक का अंत देखने के बाद बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुझसे पूछा था कि यह नाटक आप उत्तर प्रदेश या किसी और जगह कैसे दिखा सकते हैं, क्योंकि उसमें सांप्रदायिकता पर प्रहार था थोड़ा.

नाटक का अंत फिल्म से अलग था. मुख्य रूप से ये दो फर्क मुझे दिखाई पड़े. नाटक में जिसने धर्म नाथ पांडे की भूमिका निभाई थी, चूंकि वह हिंदीभाषी प्रदेश का था और वह सारी चीजों को जानता था, इसलिए उसके अभिनय में भी एक आत्मविश्वास था. वह आत्मविश्वास यहां नहीं है. उसके पूरे व्यक्तित्व में एक दबंगई थी. फिल्म में ऐसा लगता है कि ब्राह्मण समाज का पूरा दायित्व धर्मनाथ पांडे के सिर पर है और वे उससे दबे दिखाई पड़ते हैं.

कह सकते हैं नाटक और फिल्म में धर्मनाथ पांडे के चरित्र का गठन और निर्वाह अलग है?

दोनों माध्यमों में धर्मनाथ पांडे के चरित्र अलग हैं. अभिनेताओं ने उन्हें अलग तरीके से निभाया है. सनी देओल को अलग चरित्र मिला था. उन्होंने उसे उस तरीके से निभाया है. नाटक के अभिनेता को अलग धर्मनाथ पांडे मिले थे.

साहित्य के फ़िल्मी रूपांतरण में एक असंतुष्टि रहती है कि कृति की ‘रूह’ फिल्म में नहीं आ सकी. इस संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे?

मैं बहुत संतुष्ट हूं. अभी-अभी मुझे दो तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं. सनातनी किस्म के पंडित और आधुनिक दोनों लोगों की प्रतिक्रिया मिली. सनातनी किस्म के लोगों ने कहा कि फिल्म आप की कहानी से बेहतर है. उनका कहना था कि ब्राह्मण हम भी हैं और काशी में 47 सालों से हैं, लेकिन ब्राह्मणों की यह दशा मैं फिल्म से जान पाया. बहुत सारी बातें मुझे नहीं मालूम थी. इस फिल्म में उन्हें मैं देख गया. फिल्म में कारण बताया गया है कि वह विदेशी को रखने के लिए क्यों मजबूर होता है. गरीबी और जहालत के कारण वह बाजारवाद को समर्पित होता है. फिल्म मैं उसकी मजबूरी दिखाई पड़ती है. आधुनिक किस्म के लोगों का कहना था कि फिल्म तो बहुत अच्छी है. फिल्म चलनी भी चाहिए, लेकिन अंत में धार्मिकता पर ज्यादा जोर दिया गया है. डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी आईडियोलॉजी ले आते हैं. हर हर महादेव बहुत ज्यादा हो जाता है. उसे कम किया जा सकता था.

लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह की क्या प्रतिक्रिया है?

निर्माण कि जिस निरपेक्षता और तटस्थता की उम्मीद मुझे नहीं थी, वह डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने दिखाई है. हमें डर था कि वे जिस सोच के आदमी हैं. कहीं फिल्म को उस तरफ न ले जाएं? उन्होंने ऐसा बिल्कुल नहीं किया. एक बड़े और समझदार फिल्मकार की तरह उन्होंने पूरे ट्रीटमेंट को दिखाया है.

यह अनोखा और एकमात्र अनुभव था जब मैं किसी फिल्म के मूल किरदारों के साथ फिल्म देख रहा था. आप भी अपने किरदारों को सजीव बोलते हुए साकार देख रहे थे.

सभी की यही राय थी की फिल्म के कलाकारों ने मेरे उपन्यास के किरदारों को यूं सजीव और साकार कर दिया था. मेरे उपन्यास के किरदारों ने भी स्वीकार किया कि वे स्वयं फिल्म के कलाकारों के प्रभाव के साथ नहीं बोल सकते. वह हमारे बस की बात नहीं थी. विरेंद्र श्रीवास्तव ने कहा मेरे चेहरे से मिलता जुलता राजेंद्र गुप्ता का चेहरा है. गया सिंह का कहना था कि मुझे निभाने वाले कलाकार का चेहरा थोड़ा लंबा था और वह थोडा झुक कर चल रहा था. बाकी उनकी संवाद अदायगी लाजवाब थी.

एक और चीज मुझे लगी. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ पर एक फिल्म बनी है, गोदान पर बनी है, राय ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाई है. भगवती चरण वर्मा के उपन्यास पर ‘चित्रलेखा’ फिल्म बनी है. फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर बनी ‘तीसरी कसम’ भी मैंने देखी है. इन सभी फिल्मों में साहित्य को फिल्मा भर दिया गया है. मैं मानकर चलता हूं कि फिल्म रचना का अनुवाद नहीं होती है. संभव भी नहीं है. डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने जिस तरीके से टेक्स्ट को लगभग ज्यों का त्यों रखा है वह दूसरे फिल्मकारों के लिए मिसाल हो सकती है. साहित्य पर फिल्में बनाने वाले फिल्मकार ‘मोहल्ला अस्सी’ का उदाहरण रख सकते हैं. टेक्स्ट का डिस्टॉर्शन ना हो. मनोरंजक बनाने के लिए या दर्शकों को लुभाने के लिए अपनी तरफ से सीन न क्रिएट करें. इस मामले में ‘मोहल्ला अस्सी’ मॉडल है.

पहले तो काशी का अस्सी और फिर मोहल्ला अस्सी रचनात्मक प्रक्रिया का अनोखा अनुभव है आपने जिंदा व्यक्तियों को उपन्यास का पात्र बनाया. उन पात्रों को फिल्म में लाने के लिए फिर से गढ़ा गया. उन गढ़े चरित्रों को कुछ कलाकारों ने निभाया. फिल्म उन कलाकारों को जिंदा व्यक्तियों ने देखा. साहित्य और फिल्म के इतिहास में ऐसी दूसरी कोई घटना नहीं मिलती.

सचमुच ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. लिखते समय मेरे सामने भी चुनौतियां थीं. भाषा से लेकर चरित्रों के गठन तक. शैली और शिल्प की चुनौतियां रहीं. पप्पू की दुकान में मिले व्यक्ति लस्टम-पस्टम तरीके से बोला करते थे. उनकी बातों को ही मैंने एक फॉर्म दिया. मैंने उनके संवादों को धार दी. किताब छपने के बाद उन्हें लगा कि वे सारे संवाद उन्होंने ही बोले हैं. यह सुनकर मुझे अच्छा भी लगा. मैंने इंकार नहीं किया.

किन कलाकारों ने अपने किरदारों को अच्छी तरह से निभाया?

लगभग सभी ने. सनी देओल को लेकर मैं सशंकित था. वे जिस तरह की भूमिकाएं निभाते रहे है, उसे बिलकुल अलग था धर्मनाथ पांडे. यहां ढाई किलो का मुक्का नहीं था. उनसे उम्मीद नहीं करता था कि इतना अच्छा अभिनय कर जायेंगे. उच्चारण में भरसक सही बोल जायेंगे. कोई गौर करे तो देख सकता है कि उन्हें कहां असुविधा हो रही है. वर्ना ऐसे नहीं मालूम होता, इतने अच्छे अभिनय का अनुमान नहीं था सनी देओल से. अंतिम दृश्यों में तो वे बेचैन कर देते हैं. कुछ लोगों की आंखों में आंसू भी आ गए थे उन्हें देख कर. बाकी सभी ने अपना सर्वोत्तम दिया.

आप बता रहे थे कि आप फोटोग्राफी से प्रभावित थे.

बिलकुल, विजय अरोड़ा की फोटोग्राफी मनोहर है. उन्होंने गंगा, घाट, पार, नाव और पप्पू की दुकान के अद्भुत दृश्य उतारे हैं.

पांड़े और पंडिताइन के घरेलू दृश्य भावुक और प्रभावशाली हैं. क्या वे दृश्य उपन्यास से ही लिए गए हैं?

उपन्यास में संकेत भर है. निर्देशक ने उन्हें विस्तार और आकर दिया है. आंगन, रसोई, बरामदा आदि निर्देशक की कल्पना है. पति-पत्नी के संवाद निर्देशक के हैं. इस विस्तार ने पारिवारिक दृश्य को अद्भुत बना दिया है.

आप का प्रिय किरदार कौन है?

धर्मनाथ पांडे… वह मेरा रचा हुआ है. उस किरदार में मैं हूं और डॉ. द्विवेदी भी हैं. लेखक और निर्देशक दोनों ही धर्मनाथ पांडे में हैं.

सुना है इसकी अगली कड़ी (सिक्वल) लिखी जा चुकी है. क्या आप चाहेंगे कि ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित एक ओर फिल्म?

मैंने भी सुना है कि ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ की स्क्रिप्ट तैयार है. अब मैं निश्चिन्त हूं कि वह भी अच्छी होगी. अगर डॉ. द्विवेदी उसे बनाते हैं तो मुझे ख़ुशी होगी. वे सक्षम हैं. मोहल्ला अस्सी ने मेरी राय बदल दी है.