Newslaundry Hindi
क्यों सार्क से परहेज भारत के लिए ग़ैरज़रूरी और हास्यास्पद है
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बड़े कठोर शब्दों में कहा कि जब तक पाकिस्तान भारत के विरूद्ध आतंकी गतिविधियां बंद नहीं करेगा, बातचीत होना संभव नहीं है और न ही भारत सार्क सम्मेलन में शामिल होगा. करतारपुर गलियारे पर भारत और पाकिस्तान की सरकारों की पहल से भविष्य के लिए उम्मीदें बंधी थी, लेकिन तनातनी के मौजूदा माहौल में नरमी की संभावना नहीं दिखती है. भारत ने पाकिस्तान में होने वाली दक्षिण एशियाई देशों के संगठन सार्क की बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया है.
सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने तो यहां तक कह दिया है कि भारत से बेहतर संबंध बनाने के लिए पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष होना होगा. उन्होंने भी कहा कि भारत की नीति स्पष्ट है, आतंक और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते. ये दोनों बयान करतारपुर गलियारे के शिलान्यास के अवसर पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के भाषण के बाद आए हैं जिसमें उन्होंने कश्मीर का उल्लेख करने के साथ बातचीत का इरादा ज़ाहिर किया था.
कूटनीति में बयानों के मतलब उनके विभिन्न संदर्भों से निकाले जाते हैं. अमेरिका के विद्वान कूटनीतिज्ञ रिचर्ड होल्ब्रूक कहते थे कि कूटनीति जैज़ संगीत की तरह की तरह है, जिसमें एक ही धुन को बेशुमार तरीक़ों से बजाया जा सकता है. लेकिन भारत और पाकिस्तान के इतिहास, ख़ासकर हालिया सालों, को देखें, तो एक ही धुन एक ही अन्दाज़ में लगातार बजायी जा रही है. सुर और ताल की परवाह किसी को नहीं है. एक तरफ कहा जा रहा है कि बातचीत नहीं होगी, पर बातचीत हो भी रही है. करतारपुर गलियारे के शिलान्यास के अवसर पर दो केंद्रीय मंत्रियों को भेजा गया. पिछले साल दिसम्बर के आख़िरी हफ़्ते में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थाईलैंड में चुपके-चुपके मिल रहे थे. जब इस मुलाक़ात की ख़बरें मीडिया में आ गयीं, तब एक पखवाड़े बाद भारतीय विदश मंत्रालय ने माना कि हां, ऐसी मुलाक़ात हुई थी.
साल 2016 में पाकिस्तान में होने वाली सार्क की बैठक में शामिल होने से इनकार करने से पहले दिसम्बर, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी काबुल से लौटते हुए तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के घर उनके जन्मदिन और पोती की शादी की बधाई देने पहुंच गए थे, जबकि इस यात्रा का पहले से कोई कार्यक्रम तय नहीं था. दस सालों से ज़्यादा अरसे में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली पाकिस्तान यात्रा थी. इसके क़रीब एक पखवाड़े पहले दोनों नेता पेरिस जलवायु सम्मेलन के दौरान मिल चुके थे. प्रधानमंत्री मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह में भी अन्य दक्षिण एशियाई नेताओं के साथ नवाज़ शरीफ़ 2014 में दिल्ली आए थे.
जून, 2017 में कज़ाख़िस्तान में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भी मोदी और शरीफ़ की मुलाक़ात हुई थी. बीते सालों में सार्क को लेकर भारत का जो रवैया रहा है, उस संदर्भ में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कज़ाख़िस्तान की बैठक में ही रूस और चीन द्वारा शुरू किए गए इस संगठन में भारत और पाकिस्तान पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल किए गए थे. अब यह सवाल तो उचित ही है कि यदि दोनों देश शंघाई सहयोग संगठन में साथ बैठ सकते हैं, तो फिर सार्क से परहेज़ क्यों होना चाहिए.
इससे पहले 2015 में रूस में इसी संगठन की बैठक के दौरान मोदी और शरीफ़ ने तय किया था कि दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकार मुलाक़ात करेंगे. उसी साल दिसम्बर में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अफ़ग़ानिस्तान पर होने वाली ‘हार्ट ऑफ़ एशिया’ बैठक के लिए पाकिस्तान गई थीं. साल 2016 में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी पाकिस्तान दौरा किया था. इन मुलाक़ातों और दौरों के अलावा विभिन्न अंतरराष्ट्रीय बैठकों में दोनों देशों के प्रतिनिधि अनौपचारिक तौर पर ही सही, मिलते रहे हैं.
इमरान ख़ान 2016 में अपनी भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाक़ात कर चुके हैं. उसी साल पठानकोट आतंकी हमले की जांच के लिए पाकिस्तान से एक टीम भी भारत आयी थी, जिसमें आईएसआई का भी एक अधिकारी शामिल था. हाल में भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दूलत ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उनकी जानकारी में आइएसआई और रॉ के प्रमुख और अधिकारियों के बीच संपर्क कायम है और वे मिल रहे हैं.
पिछले दिनों कश्मीर को लेकर एक ऐसी घटना हुई है, जो इस बात को पूरी तरह से ज़ाहिर करती है कि मोदी सरकार कश्मीर को लेकर पूरी तरह से भ्रमित है और इस भ्रम से निकलने का उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. यूं तो मोदी सरकार कहती रही है कि वह कश्मीर पर किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता या भागीदारी स्वीकार नहीं करेगी, लेकिन अभी नॉर्वे के पूर्व प्रधानमंत्री बोंदेविक कश्मीर आए और हुर्रियत नेताओं से मिलकर बातचीत की. इसके बाद वे पाक-अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान भी गए.
ओस्लो सेंटर ऑफ़ पीस एंड रिकंसिलिएशन के प्रमुख बोंदेविक ने जो बयान दिया है, उससे साफ़ है कि वे बड़ी पहल के तहत यह कर रहे हैं. बीते छह सालों में हुर्रियत नेताओं से किसी प्रमुख विदेशी नेता से यह पहली मुलाक़ात थी. यह भी समझ से परे है कि हुर्रियत के ख़िलाफ़ लगातार बोलने वाली मोदी सरकार ने इस पहल को मंज़ूरी क्यों दी.
यही हाल मास्को में रूस की पहल पर तालिबान के साथ बैठक में भारत की भागीदारी का रहा है. बातचीत ज़रूरी है, तो फिर बातचीत से परहेज़ का नाटक क्यों? बहरहाल, इस संदर्भ में आगे चर्चा करने से पहले दो बातें रेखांकित करना ज़रूरी है. पहली बात यह है कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़ आतंकवाद और अलगाववाद का इस्तेमाल पाकिस्तानी विदेश और रक्षा नीति का अहम हिस्सा है. किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री या सेनाध्यक्ष के लिए इससे एक झटके में मुक्त हो पाना संभव नहीं है.
दूसरी बात यह कि भारतीय कूटनीति को भी इसका अहसास है और उसे यह भी पता है कि पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र में ऐसे तत्व भी हैं, जो भारत के साथ बेहतर संबंध चाहते हैं. तो, फिर मसले में पेंच क्या है? इसी सवाल के जवाब से सार्क जैसी संभावनाओं से भरपूर संस्था के ख़ात्मे की वज़हों को भी समझा जा सकता है.
कश्मीर, पाकिस्तान और आतंक के मसले पर दोनों देशों में सियासत हमेशा गर्म रहती है. दोनों ही देशों में पार्टियां एक-दूसरे पर भारत या पाकिस्तान के साथ होने की तोहमत लगाती रहती हैं. पाकिस्तान के इशारे पर यह हो रहा है, वह हो रहा है, पाकिस्तान चले जाओ, पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे आदि जुमले तो भारतीय जनता पार्टी, केंद्र सरकार के मंत्रियों और उनके वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए तो मंत्र बन गए हैं. इनका उच्चारण टेलीविज़न की बहसों से लेकर चुनावी सभाओं में धड़ल्ले से किया जाता है.
विपक्षी पार्टियां भी मोदी-शरीफ़ दोस्ती पर तंज़ करने से नहीं चूकती हैं. चूंकि यह पूरा मसला इतना संवेदनशील बना दिया गया है कि लोकवृत्त में कोई क़ायदे की बहस भी संभव नहीं है. यही हाल पाकिस्तान में भी है. वहां के हालिया संसदीय चुनाव में इमरान ख़ान ने नवाज़ शरीफ़ पर मोदी से सांठगांठ का आरोप लगाया था, तो पीपुल्स पार्टी के बिलावल भुट्टो कश्मीर को लेकर आक्रामक रहे थे.
ऐसे में दोनों तरफ़ से वही बातें बार-बार कही जा रही हैं, जो बीते अनेक दशकों से कही जाती रही हैं. दोस्ती और रिश्तों की बेहतरी के साथ कश्मीर और आतंक पर भी बोला जाता रहा है. अभी विधानसभा के चुनाव और आगामी लोकसभा के चुनाव के मद्देनज़र मोदी सरकार और भाजपा के पास इमरान सरकार से बातचीत का विकल्प नहीं है. पाकिस्तान उनके लिए एक बड़ा मुद्दा हमेशा से रहा है.
दूसरी ओर, इमरान ख़ान क़दम बढ़ाने और बात करने की बातें कहकर ख़ुद को मज़बूत करना चाहते हैं. चूंकि अभी उन्होंने पारी शुरू ही की है, तो इसका मौक़ा भी है. ऐसा कर वे भारतीय प्रधानमंत्री की तुलना में दुनिया की नज़र में उदारवादी और अमनपसंद छवि बनाना चाहते हैं. हालिया सियासी संकटों से निपटने में भी इससे उन्हें मदद मिल सकती है. तो, हालात अभी ऐसे हैं कि भारत-पाकिस्तान मसले पर कोई भी पहल 2019 में अगली सरकार के गठन के बाद ही होगी. आगामी छह महीने बड़बोले बयान ही गूंजते रहेंगे. यह भी दिलचस्प है कि अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में मोदी सरकार ने रक्षा योजना समिति की स्थापना की है और सामरिक नीति समूह को सक्रिय करने का निर्णय लिया है. कश्मीर और पाकिस्तान नीति का हाल ऐसा है कि पिछले साल नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम के उल्लंघन की घटनाएं बीते 14 सालों में सबसे ज़्यादा हुईं. इस साल भी लगातार ऐसा हो रहा है.
कश्मीर में अमन-चैन तितर-बितर हो चुका है. राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है. संसदीय समिति ने भी कह दिया है कि सरकार की कश्मीर, रक्षा और पाकिस्तान नीति स्पष्ट नहीं है. दरअसल, न सिर्फ़ पाकिस्तान के संबंध में, बल्कि दक्षिण एशिया के अन्य पड़ोसी देशों के साथ भी भारत के रिश्ते पिछले सालों में लगातार ख़राब हुए हैं.
ऐसे में सार्क में न जाने का मामला सिर्फ़ सियासी है, न कि किसी नीतिगत सोच का नतीज़ा. सार्क में हम पाकिस्तान के साथ नहीं बैठेंगे, पर शंघाई सहयोग संगठन में बैठेंगे. तालिबान के साथ बैठक में पाकिस्तान के साथ हिस्सा लेंगे. कई देशों के बीच चीन की पहल पर हो रहे मुक्त व्यापार समझौते में पाकिस्तान के साथ होने से हमें कोई ऐतराज़ नहीं है.
आज जो स्थिति है, इसमें मोदी सरकार को कूटनीतिक पहल के साथ कारोबारी रिश्तों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. ख़ुद प्रधानमंत्री कहते रहे हैं कि आज के दौर में विदेश नीति का मतलब व्यापार है. भारत को सार्क में शामिल होना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि यह संस्था फिर से सक्रिय हो, न कि ब्रिक्स की तरह ही अप्रासंगिक होकर रह जाए.
वैसे भी सार्क का गठन बहुपक्षीय संबंधों के लिए हुआ था, लेकिन भारत और पाकिस्तान ने इसे अपनी खींचतान का अखाड़ा बना दिया. पाकिस्तान से सीधे बातचीत कर तथा रूस, चीन और अमेरिका के ज़रिये दबाव डाल कर कश्मीर और आतंक के मसलों पर आगे बढ़ा जा सकता है. अगर प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान को लेकर अपनी बोझिल वैचारिक गठरी को छोड़ दें और प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र के आतंकवाद और अलगाववाद के मोह से मुक्त हो जाएं, तो इस ख़ित्ते के दिन निश्चित ही बहुरेंगे. पर, अफ़सोस, ऐसा होने की गुंजाइश न के बराबर है.
Also Read
-
TV Newsance 250: Fact-checking Modi’s speech, Godi media’s Modi bhakti at Surya Tilak ceremony
-
What’s Your Ism? Ep 8 feat. Sumeet Mhasker on caste, reservation, Hindutva
-
‘1 lakh suicides; both state, central govts neglect farmers’: TN farmers protest in Delhi
-
10 years of Modi: A report card from Young India
-
Reporters Without Orders Ep 319: The state of the BSP, BJP-RSS links to Sainik schools