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जनवरी में बीजेपी का संविधान संशोधन होगा या अमित शाह को एक्सटेंशन मिलेगा ?

गुजरात में कांग्रेस नाक के करीब पहुंच गई. कर्नाटक में बीजेपी जीत नहीं पाई. कांग्रेस को देवगौड़ा का साथ मिल गया. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 बरस की सत्ता बीजेपी ने गंवा दी. राजस्थान में बीजेपी हार गई. तेलगाना में हिन्दुत्व की छतरी तले भी बीजेपी की कोई पहचान नहीं बनी और नार्थ ईस्ट में संघ की शाखाओं के विस्तार के बावजूद मिजोरम में बीजेपी की कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं उभरी.

तो फिर पन्ने-पन्ने थमा कर पन्ना प्रमुख बनाना, या बूथ-बूथ बांट कर रणनीति की सोचना, या मोटरसाईकिल थमा कर कार्यकर्ता में रफ्तार ला देना. या फिर संगठन के लिये अथाह पूंजी खर्च कर हर रैली को सफल बना देना. और बेरोजगारी के दौर में नारों के शोर को ही रोजगार में बदलने का खेल कर देना. फिर भी जीत ना मिले तो क्या माना जाय, बीजेपी के चाणक्य फेल हो गए हैं?  या जिस रणनीति को साध कर लोकतंत्र को ही अपनी हथेलियों पर नचाने का सपना अपनों में बांटा अब उसके दिन पूरे हो गए हैं ?

अरसे बाद संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने में भी ये सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित शाह को स्वत: ही अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए.

यानी अब अगर बीजेपी के संविधान में संशोधन कर अमित शाह अध्यक्ष बने रहे तो फिर बीजेपी में अनुशासन, संघ के राजनीतिक शुद्धिकरण की ही धज्जियां उड़ती चली जाएंगी. जो सवाल 2015 में बिहार के चुनाव में हार के बाद उठा था और तब अमित शाह ने हार पर ना बोलने की कसम खाकर खामोशी बरत ली थी. तब राजनाथ सिंह ने मोदी-शाह की उड़ान को देखते हुए कहा था कि अगले छह बरस तक शाह बीजेपी अध्यक्ष बने रहेंगे.

लेकिन संयोग दखिए कि 2014 में 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी के पर उसकी अपनी रणनीति के तहत अमित शाह ने ही कतर कर 17 सीटों पर समझौता कर लिया. तो संकेत साफ उभरे हैं कि अमित शाह के वक्त में ही रणनीति के साथ ही बिसात भी कमजोर हो चली है. रामविलास पासवान से कहीं ज्यादा बडा दांव खेल कर अमित शाह किसी तरह गठबंधन के साथियों को साथ खड़ा रखना चाहते हैं.

हार का ठीकरा समूह के बीच फूटेगा तो दोष किसे दिया जाय इस पर तर्क गढ़े जा सकते हैं लेकिन अपने बूते चुनाव लड़ना, अपने बूते चुनाव लड़कर जीतने का दावा करना और हार होने पर खामोशी बरत कर अगली रणनीति में जुट जाना. ये सब 2014 की सबसे बड़ी मोदी जीत के साथ 2018 तक तो चलता रहा. लेकिन 2019 में इससे बेड़ा पार कैसे होगा.

इस पर अब संघ में चिंतन मनन तो बीजेपी के भीतर कंकड़ों की आवाज़ सुनाई देने लगी है. और साथी सहयोगी तो खुल कर बीजेपी के ही एजेंडे की बोली लगाने लगे है. शिवसेना को लगने लगा है कि जब बीजेपी की धार ही कुंद हो चली है तो बीजेपी हिन्दुत्व का बोझ भी नहीं उठा पायेगी और राम मंदिर तो उसके कंधों को झुका ही देगा. शिवसेना खुद को अयोध्या का द्वारपाल बताने से चूक नहीं रही है. और खुद को ही राममंदिर का सबसे बड़ा हिमायती बताते हुए ये ध्यान दे रही है कि बीजेपी का बंटाधार हिन्दुत्व तले ही हो जाय.

इस हमले से एक वक्त शिवसेना को वसूली पार्टी कहने वाले गुजरातियों को वह दो तरफा मार दे सकते हैं. एक तरफ मुबंई में रहने वाले गुजरातियों को बता सकेंगे कि अब मोदी-शाह की जोड़ी चलेगी नहीं तो शिवसेना की छांव तले सभी को आना होगा और दूसरा धारा-370 से लेकर अयोध्या तक के मुद्दे को जब शिवसेना ज्यादा तेवर के साथ उठा सकने में सक्षम है तो फिर सर संघचालक मोहन भागवत प्रणव मुखर्जी पर प्रेम दिखाकर अपना विस्तार क्यों कर रहे है. उनसे तो बेहतर है कि शिवसेना के साथ संघ भी खड़ा हो जाय.

शिवसेना की चाहत है कि अमित शाह का बोरिया बिस्तर बांध कर उनकी जगह नितिन गडकरी को ले आये. जिनकी ना सिर्फ शिवसेना से बल्कि राज ठाकरे से भी पटती है और भगोड़े कारपोरेट को भी समेटने में गडकरी कहीं ज्यादा माहिर हैं. गडकरी की चाल से फड़नवीस को भी पटरी पर लाया जा सकता है, जो फिलहाल मोदी-शाह की शह पर गडकरी को टिकने नहीं देते और लड़ाई मुबंई से नागपुर तक खुले तौर पर नज़र आती है.

ये सवाल संघ के भीतर ही नहीं बीजेपी के अंदरखाने में भी कुलाचे मारने लगा है कि मोदी-शाह की जोड़ी चेहरे और आइने वाली है. यानी कभी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक तौर पर भी बैलेंस करने की जरुरत आ पड़ी तो हालात संभलेंगे नहीं. लेकिन अब अगर अमित शाह की जगह गडकरी को अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी जाती है तो उससे एनडीए के पुराने साथियो में भी अच्छा मैसेज जायेगा.

जिस तरह कांग्रेस तीन राज्यो में जीत के बाद समूचे विपक्ष को एकजुट कर रही है और विपक्ष जो क्षत्रपों का समूह है वह भी हर हाल में मोदी-शाह को हराने के लिए कांग्रेस से अपने अंतर्विरोधों को दरकिनार कर कांग्रेस के पीछ खड़ा हो रहा है. उसे अगर साधा जा सकता है तो शाह की जगह गडकरी को लाने का वक्त यही है. क्योंकि ममता बनर्जी हों या चन्द्रबाबू नायडू, डीएमके हो या टीआरएस या बीजू जनता दल. सभी वाजपेयी-आडवाानी-जोशी के दौर में बीजेपी के साथ इसलिये गये क्योंकि बीजेपी ने इन्हें साथ लिया और इन्होंने साथ इसलिये दिया क्योंकि सभी को कांग्रेस से अपनी राजनीतिक जमीन छिनने का खतरा था. लेकिन मोदी-शाह की राजनाीतिक सोच ने तो क्षत्रपों को ही खत्म करने की ठान ली है. पैसा, जांच एंजेसी, कानूनी कार्रवाई के जरिए क्षत्रपों का हुक्का-पानी तक बंद कर दिया है.

पासवान भी अपने अंतरविरोधों की गठरी उठाये बीजेपी के साथ खड़े हैं. सत्ता से हटते ही कानूनी कार्रवाई के ख़तरे उन्हें भी हैं. और सत्ता छोड़ने के बाद सत्ता में भागीदारी की उम्मीद सुई की नोंक से भी कम है. यहां सवाल सत्ता के लिए बिक कर राजनीति करने वाले क्षत्रपों की कतार भी कितनी पाररदर्शी हो चुकी है और वोटर भी इस हकीकत को समझ चुका है. यह मायावती के सिमटते आधार तले मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में बखूबी उभर कर सामने आया.

आखिरी सवाल यही है कि क्या नए बरस में बीजेपी और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है, उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखती है या नहीं. उहापोह इस बात को लेकर है कि शाह हटते हैं तो नैतिक तौर पर बीजेपी कार्यकर्ता इसे बीजेपी की हार मान लेगा या रणनीति बदलने को जश्न के तौर पर लेगा. क्योंकि यह तो हर कोई जान रहा है कि 2019 में जीत के लिये बिसात बदलने की जरुरत आ चुकी है. अन्यथा मोदी की हार बीजेपी को बीस बरस पीछे ले जायेगी.