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न तो यह 1993 है न ही यह ‘वो’ वाला गठबंधन है
बीते रविवार को लखनऊ में जो हुआ, तमाम लोग उसे ऐतिहासिक मान रहे हैं. सियासत में घटित होने वाले हर घटनाक्रम में ऐतिहासिक होने की संभावना मौजूद होती ही है. न भी हो तो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता जबरन इसे ऐतिहासिक बताकर काम पूरा कर देते हैं. ऐसे ही एक इतिहास लखनऊ के वीआईपी गेस्टहाउस में रचा गया था. और उस वक्त जिसे इतिहास बनाना था (सपा-बसपा गठबंधन) वह इतिहास बनाने से चूक गया था.
इसलिए रविवार को हुए ताज़ा सपा-बसपा के गठबंधन को ऐतिहासिक घोषित करने से पहले थोड़ा संभल कर इसे आंक लें. 1995 के बरक्स आज जो चीजें बदली हुई हैं उन पर नज़र बनाए रखें. यह महागठबंधन नहीं है, क्योंकि कथित ही सही सेक्युलर ब्लॉक का एक बड़ा खंभा- कांग्रेस – इसमें शामिल नहीं है. सियासत का एरिथमेटिक हमेशा इस सिंपल फार्मूले से संचालित नहीं होता कि सपा का 22 प्रतिशत और बसपा का 21 प्रतिशत वोट मिलकर 43 प्रतिशत का चुनाव जिताऊ समीकरण बना लेंगे. इसलिए हम इन जातिगत आंकड़ों को इस लेख से पूरी तरह अलग रखेंगे. इस तरह के समीकरणों से भाजपा को हराने या खुद के जीतने की जमीन तैयार नहीं होती, न ही इस तरह से पार्टियों के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर होते हैं.
सपा-बसपा का ताजा गठबंधन 1993 से 95 तक चले गठबंधन से अलग क्यों और कैसे है इसे समझ कर इसके ऐतिहासिक होने या न होने की धारणा को पुख्ता किया जाना चाहिए. 1993 में जब सपा-बसपा साथ मिलकर लड़े थे उस समय इस गठबंधन की कुल 176 सीटें आई थीं. 67 बसपा की और 109 सपा की. उस चुनाव में सपा 260 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जबकि बसपा 163. तब सपा सीनियर पार्टनर थी, बसपा जूनियर. तब गठबंधन की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी.
मौजूदा गठबंधन के भविष्य को लेकर कोई राय बनाने के लिए यह समझना जरूरी है कि यह गठबंधन 1993 से पूरी तरह अलग है. उत्तर प्रदेश के कोई भी दो चुनाव आपस में एक जैसे नहीं हुए हैं. यह पिछले ढाई दशकों का इतिहास बताता है. आज़मगढ़ की लोकसभा सीट लें, 1998 में लहर आई तो अकबर अहमद डंपी सांसद बन गए. आज वे राजनीतिक परिदृश्य से ही लापता हैं. 2007 में मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो 2012 में अखिलेश यादव ने और 2017 में भाजपा ने यही कारनामा किया. राजनीति के फार्मूले भले ही एक रहे हों लेकिन जनता ने इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर किसी को रिपीट नहीं किया है. 2009 में कांग्रेस लोकसभा में 21 सीटें जीतने में कामयाब हुई तो 2014 में 2 सीटों पर सिमट गई. यानी किसी भी दो चुनाव को आपस में जोड़कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन हम ऐसा करते हैं क्योंकि इससे हमारा काम आसान हो जाता है. कुछ चीजों की हम सरसरी तौर पर तुलना करें तो पाएंगे कि इस गठबंधन को एकदम अगल नजरिए से देखने की जरूरत है.
सबसे पहली बात कि यह पूरी तरह से बराबरी का गठबंधन है. इसमें न कोई जूनियर पार्टनर है न सीनियर. यह बेहद सुचिंतित पहल है. वरना एकाधिक मौके आए जब अखिलेश यादव, बसपा से कम सीटों पर भी चुनाव लड़ने के हामी थे. लेकिन एक मैजिक नंबर चुना गया 38-38 सीटों का.
लखनऊ में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस का बारीकी से मुआयना करने पर जो दिखा वो था ‘प्रेस’ का रंग लाल, ‘कॉन्फ्रेंस’ का रंग नीला था. कॉन्फ्रेंस की सूचना सपा के राष्ट्रीय सचिव राजेंद्र चौधरी और बसपा के महासचिव सतीश मिश्रा के साझा दस्तख़त से जारी हुई. यानी 1993 के मुकाबले सारे प्रतीक ही बदल गए हैं. उस दौर की सबसे लोकप्रिय फोटो थी मुलायम सिंह और कांशीराम के गले मिलने की. लेकिन ताजा गठबंधन के प्रतीक के तौर पर आंबेडकर और लोहिया को चुना गया है. सामने जो चेहरे हैं वो मायावती और अखिलेश के हैं. मुलायम सिंह के कुनबे में बंटवारा हो चुका है. शिवपाल यादव अलग पार्टी बनाकर किस्मत आजमा रहे हैं.
प्रतीकों का बड़ा महत्व राजनीति में होता है. लखनऊ की प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहले अखिलेश यादव पहुंचे, थोड़ी ही देर में मायावती पहुंची. मायावती ने अखिलेश यादव को नीले कागज में लिपटा पीला गुलाब का फूल भेंट किया तो बदले में अखिलेश यादव ने लाल कागज में लिपटा पीला गुलाब मायावती को भेंट किया. यह अपनी-अपनी राजनीतिक विरासतों का एक-दूसरे से आदान-प्रदान हो रहा था, सांकेतिक रूप से.
ये सब छोटी-छोटी बातें लगती हैं. लेकिन ध्यान देने पर आप पाएंगे कि इन सब बातों को बहुत बारीकी और मेहनत से रचा गया था. बैकग्राउंड में भी दोनों पार्टियों का रंग मौजूद था. 1993 में इन बातों पर न तो किसी का ध्यान था न ही परवाह थी.
38-38 सीटें बराबर रखने का भी एक खास संदेश है. जैसा कि पहले भी जिक्र आया कि अखिलेश यादव कुछ कम सीटों पर भी चुनाव लड़ने को तैयार थे. लेकिन एक पार्टनर के कम या ज्यादा सीटों पर लड़ने की स्थिति में अनायास विपक्ष के हाथों में तंज करने का एक अवसर लग जाता. विपक्ष को इस तरह के किसी भी अवसर से वंचित करना भी इसके पीछे एक सोच रही जिससे कि गठबंधन की चर्चा में गैरजरूरी बातें शामिल न हों और मूल मुद्दा भटकने न पाए. कार्यकर्ताओं, आम जनता और विपक्ष के बीच यह संदेश सफलता से चला गया कि गठबंधन बराबरी का है. वरना विपक्ष कहता कि फलाने पिछलग्गू हैं. लखनऊ के लोहियापथ पर दोनों दलों के जो पोस्टर लगाए गए उनमें भी एक सुनियोजित योजनाबद्ध तरीका नज़र आया. एक सपा का पोस्टर, तो दूसरा बसपा का पोस्टर सिलसिलेवार लगाए गए थे.
93 की तुलना में इस बार के गठबंधन को एक बात और सिरे से अलग करती है, वो है इसे निचले स्तर के कार्यकर्ता का समर्थन. 93 में यह कार्यकर्ताओं से ज्यादा दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं का एक रणनीतिक निर्णय था. एक साल पहले ही बनी समाजवादी पार्टी या पहली बार उत्तर प्रदेश में बड़ी ताकत बन रही बसपा के सामने उस समय खुद को स्थापित करने की चुनौती थी. जबकि इस समय दोनों पार्टियों के सामने चुनौती अस्तित्व बचाने की है, खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की है.
सपा-बसपा एक परिवार, एक व्यक्ति के आकर्षण और चमत्कार के इर्द-गिर्द खड़ी पार्टियां हैं. इस तरह की पार्टियों के सामने एक चुनौती हमेशा रहती है कि जैसे ही किसी तरह के गठबंधन या साझेदारी की घोषणा होती है, यह पता चलता है कि पार्टी आधी सीटों पर ही चुनाव लड़ेगी, स्थानीय इकाइयों में इस्तीफे, भितरघात की शुरुआत हो जाती है. स्थानीय नेता जिन्हें लगता है कि वे चुनाव नहीं लड़े पाएंगे, वे दूसरे दलों में ठिकाना खोजने लगते हैं. लेकिन इस बार यह अस्तित्व को मिल रही चुनौती का ही नतीजा है कि दोनों दलों के स्थानीय इकाइयों से न तो कोई बयान आया, न कोई नाराजगी दिखी, न ही किसी ने इस्तीफे की घोषणा की.
इस लिहाज से इस बार गठबंधन की मांग नीचे से शुरू होकर ऊपर तक गई है. वरना यह सच्चाई हमेशा कायम रहेगी कि ऊपर के नेता चाहे जिससे गठबंधन कर लें, अगर उसे निचले स्तर के कार्यकर्ता का समर्थन नहीं है तो इसका असफल होना तय है. उदाहरण के तौर पर 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल-अखिलेश के बीच हुए गठबंधन को ही ले लें.
इस गठबंधन में आवाज़ नेताओं कि तरफ से नहीं बल्कि कार्यकर्ताओं की तरफ से उठी है. आप देखेंगे कि गठबंधन की घोषणा रविवार को हुई लेकिन उत्तर प्रदेश के जिले-जिले में स्थानीय नेता काफी पहले से ही अपनी गाड़ियों पर दो-दो झंडे लगाकर चलने लगे थे. एक तरफ सपा का, दूरी तरफ बसपा का. मुलायम सिंह यादव के गृह जिले इटावा में तो बाकायदा सपा-बसपा के लोगों ने साथ में बैठकर वीडियो बनाए. जिसमें सपा-बसपा के कार्यकर्ता साथ एक-दूसरे के रंगों का अंगोछा डाले नज़र आए.
यह बात दोनों दलों के कार्यकर्ताओं को समझ आ गई थी कि भाजपा को सत्ता से हटाना जरूरी है. यह सपा-बसपा दोनों के लिए जरूरी है, इसके लिए दोनों दलों को सत्ता चाहिए. भाजपा अपनी राजनीति में इस कदर सफल रही है कि दलितों की नुमाइंदगी करने वाली बसपा के पास कायदे से सिर्फ चमार-जाटव रह गए थे और पिछड़ा-ओबीसी की सियासत करने वाली सपा के पास सिर्फ यादव शेष रह गए थे.
इस वोटबैंक को बढ़ाने का एक ही जरिया था दोनों के कार्यकर्ताओं का साथ आना. मुसलमानों की जो गति भाजपा ने की है इन पांच सालों में वह तो इस गठबंधन के पक्ष में है ही. इस बात का अहसास दोनों को है कि इस बार हारे तो खैर नहीं. इस वजह यह कमेस्ट्री काम कर रही है. इसकी वजह से ही रविवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस की घोषणा होते ही रातोरात प्रदेश के तमाम जिले से सपा और बसपा के कार्यकर्ता लखनऊ पहुंचने लगे. रविवार की सुबह से ही ताज होटल के बाहर जाम लग गया था.
कांग्रेस के नजरिए से भी इस गठबंधन को समझना अहम है. हालांकि कांग्रेस की रणनीति अभी तक साफ नहीं है. पर सपा-बसपा ने दो सीटें (अमेठी और रायबरेली) कांग्रेस के लिए छोड़कर अपना रास्ता तय कर लिया है. ऐसे में कांग्रेस के सामने उत्तर प्रदेश में खुद को तीसरी ताकत के रूप में स्थापित करने का एक मौका है. हालांकि विगत कुछ दशकों के दौरान कांग्रेस के वोटबैंक में लगातार गिरावट आई है लेकिन वह तमाम छोटी-मोटी पार्टियों के साथ एक तीसरा मोर्चा अगर खड़ा कर लेती है और 2019 के चुनावों में कुछ बेहतर नतीजे दे पाती है तो एक बार फिर से सपा-बसपा गठबंधन को अपनी राजनीति नए सिरे से परिभाषित करनी होगी.
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