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’72 दिनों के लिए विपक्ष करे मीडिया का बहिष्कार’
मीडिया हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं का एक अग्रणी चेहरा है. इन पांच सालों में गोदी मीडिया बनने की प्रक्रिया तेज़ ही हुई है, कम नहीं हुई. एक मालिक के हाथों में पचासों चैनल आ गए हैं और पुराने मालिकों पर दबाव डालकर उनके सारे चैनलों के सुर बदल दिए गए हैं. राजनीति और कारोबारी पैसे के घाल-मेल से रातों-रात चैनल खड़े किए जा रहे हैं. अगर सारे चैनल या 90 फीसदी चैनल एक ही मालिक के हो गए और वह किसी सरकार से झुक गया तब क्या होगा. इसलिए ज़रूरी है कि विपक्ष से भी सवाल पूछा जाए कि मीडिया को लेकर उसने क्या सोचा है. चैनलों के मालिकाना हक के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है.
विपक्ष को गोदी मीडिया की खास समझ नहीं है. उसे लगता है कि इस मंच का वह भी इस्तेमाल कर सकता है और इस चक्कर में वह मीडिया को सरकार के तलुए चाटते रहने की मान्यता देता आया है. गोदी मीडिया के कारख़ाने में विपक्ष की ख़बरों को प्रोसेस किया जाता है. सरकार की ख़बरों को मात्र सूत्र लगा देने से चला दिया जाता है. यह पहले भी होता था मगर चैनलों के बीच की घोर प्रतिस्पर्धा के कारण भांडा फूट जाता था. अब यह प्रतिस्पर्धा समाप्त है. अलग-अलग चैनलों पर एक ही प्रोपेगैंडा है. केवल एक ही कंपटीशन है. बेशर्मी का कंपटीशन. विपक्ष के सही सवाल भी प्रमुखता नहीं पा सकते हैं.
चैनलों में ऐसे राजनीतिक संपादक और एंकर पैदा किए गए हैं जो पूरी निर्लज्जता के साथ सरकार की वकालत कर रहे हैं. उन्हें सरकार की नीतियों में कमी नज़र नहीं आती. वे प्रधानमंत्री के बयानों और नीतियों का स्वागत करने की जल्दी में रहते हैं. कई चैनलों में यही मुख्य चेहरा और आवाज़ हैं. कुछ जगहों पर इन्हें वैकल्पिक आवाज़ और चेहरे के रूप में मान्यता दी गई है. कुछ चालाक चैनलों ने इस विविधता को लेकर विज्ञापन भी बना दिया है मगर यह विविधता नहीं है. बल्कि विविधता के नाम पर व्यापक रूप से प्रोपेगैंडा की एकरूपता को ही कायम करना है. जो अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ललाट से लेकर चरणों तक में समर्पित होता है.
संतुलन के नाम पर विपक्ष को प्रोपेगैंडा के मंच पर बिठाया जाता है. सवाल बीजेपी के होते हैं. उसके तेवर और तर्क बीजेपी के होते हैं. डिबेट कराने के लिए चैनलों के पास सरकार से अपने कोई सवाल नहीं होते हैं. विपक्ष का प्रवक्ता अपराधी की तरह सफाई देने के लिए बुलाया जाता है. चैनलों के एंकर और बीजेपी प्रवक्ता में कोई अंतर नहीं होता है. जल्दी ही बीजेपी एंकरों को प्रवक्ता रखेगी और प्रवक्ताओं से वापस दरी बिछवाएगी जो वे खुशी-खुशी कर भी लेंगे. पार्टी के लिए करना भी चाहिए.
डिबेट के समय स्क्रीन पर फ्लैश की जो पट्टिआं चलती हैं उनकी भाषा प्रोपेगैंडा की होती है. ऐसी पट्टियों से स्क्रीन को भर दिया जाता है. दर्शक सुनने से ज़्यादा जो देखता है उसमें कोई तथ्य नहीं होता है. चैनल अपन तरफ से रिसर्च कर बीजेपी के सवालों के समक्ष अपने तथ्य नहीं रखते हैं. वर्ना प्रोपेगैंडा मास्टर संपादक को ही चैनल से बाहर करवा देगा. आप खुद बताएं कि पिछले चार महीने में विपक्ष के उठाए हुए सवाल पर कितनी बहसों में आपके नेता या प्रवक्ता गए हैं.
कई चैनलों में स्ट्रिंगरों को यहां तक निर्देश दिए जाते हैं कि विपक्ष का नेता मतदान भी करे तो ऐसे सामान्य फुटेज नहीं दिखाने हैं. न्यूज़ रूमों में न्यूज़ एजेंसी के ज़रिए जो वीडियो फुटेज पहुंचता है, उसमें विपक्ष की रैलियों का हिस्सा कम होता है. विपक्ष के नेताओं के भाषण या तो नहीं होते हैं या बहुत कम होते हैं. आज बहुत से चैनल वीडियो फुटेज भेजने वाली न्यूज़ एजेंसी पर निर्भर होते हैं. आप खुद मॉनिटर कर लें. उस न्यूज़ एजेंसी का फीड अपने मुख्यालय में किराये पर ले लें. आपको पता चलेगा कि केवल और केवल बीजेपी की रैलियों के फुटेज न्यूज़ रूप में आते हैं. चार दिनों की रैली निकालिए. मोदी और राहुल की. आप खुद देख लेंगे कि किसकी रैली को कितना समय मिला है.
चुनाव के दौरान झांसा देने के लिए पत्रकारों से कहा जा रहा है कि आप सभी दलों के ट्वीट करें. असल बात है चैनलों पर वह बराबरी दिखती है या नहीं. क्यों सभी दलों का ट्वीट करे, वह पत्रकार है, पहले तो सरकार के हर दावे पर अपने तथ्यों को ट्वीट करने का साहस दिखा दे यही बहुत है. केवल मोदी और राहुल के बयानों को ट्वीट कर देने से पत्रकारिता में संतुलन नहीं आता है.
सारा संसाधन प्रधानमंत्री की दिन की चार-चार रैलियों में लगा दिया जाता है. प्रधानमंत्री के महत्व के नाम पर बहस किया जाता है. जबकि आचार संहिता लागू होने के बाद सब बराबर हो जाने चाहिए.
एंकर स्टुडियों की बहसों में भारत माता की जय के नारे लगा रहे हैं और आग लगवा रहे हैं. भारत माता की जय का नारा राजनीतिक नारे के विकल्प के रूप में लगाया जा रहा है. कोई बीजेपी ज़िंदाबाद बोले तो यह बिल्कुल ठीक है. मगर तब दर्शक समझ जाएंगे कि स्टुडियो में केवल बीजेपी के समर्थक भरे हैं. भारत माता की जय के नारे लगाएंगे तो लगेगा कि आम लोग बैठे हैं और यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. इस तरह की कई चालाकियां रोज़ की जा रही हैं.
मीडिया में अब ज़मीन की रिपोर्ट नहीं दिखती है. सब कुछ सर्वे के नंबर में बदल गया है. लोगों को संतुष्ठ और असंतुष्ठ खेमे में बांट कर दिखाया जाता है. फसल बीमा योजना में किसान कैसे लुटे हैं और बिना डाक्टर और अस्पताल के आयुष्मान योजना के तहत इलाज कैसे हो रहा है, इसे अब ज़मीन से की गई रिपोर्ट के आधार पर बताने की प्रक्रिया मिटा दी गई है. इन बातों को चर्चाओं में कामयाब बता कर सर्वे के नंबरों से पुष्टि कराई जाती है. ये एंकर नहीं हैं, मोदी के ठठेरे हैं जो उनके दिए गए सांचे में दर्शकों को ढाल रहे हैं. हिन्दी वर्णमाला की किताब में आपने ठ से ठठेरा पढ़ा ही होगा।
बेरोज़गारों के चेहरे चैनलों से ग़ायब हैं. बेरोज़गारी के सवाल को अब नए शब्द जॉब से बदल दिया गया है. जॉब की बात को सर्वे के डेटा में बदल दिया गया है.
स्वास्थ्य से लेकर किसानों के सवाल गायब हैं. हर तरफ वाह-वाही के बयान और बाइट खोजने के आदेश दिए गए हैं. आलोचना आती है तो उसे मोदी विरोधी बोलकर किनारे कर दिया जाता है. तारीफ के दस बाइट लगा दें कोई दिक्कत नहीं. जैसे ही आलोचना आती है संतुलन के लिए तारीफ की बाइट खोजी जाने लगती है.
आपने चुनाव के समय जगह-जगह डिबेट के कार्यक्रम देखे होंगे. मेरठ से लाइव तो शोलापुर से लाइव. इन बहसों पर बीजेपी और संघ का कब्ज़ा हो गया है.पूरी तरह से उनके ही मुद्दों और उनके लोगों के बीच ये डिबेट होते हैं. किसी शहर में रानी सर्कस की तरह डिबेट आता है तो वहां इनके लोग पहुंच कर जगह भर देते हैं. चैनलों का भीड़ पर कोई नियंत्रण नहीं होता, हो भी नहीं सकता है. एंकर कोई रिसर्च करके नहीं जाता. सवाल पूछने की जगह आपके प्रवक्ता से उसे भिड़ा देता है और बाकी सब हंगामे के शोर में खो जाता है. आपने देखा होगा कि मुज़फ्फरनगर में एक टीवी डिबेट के दौरान 12 वीं के छात्र की आलोचना करने पर पिटाई कर दी गई. यही हाल ग्राउंड रिपोर्टिंग की हो गई है. आम लोगों से सवाल पूछना मुश्किल हो गया है. पब्लिक स्पेस में सवालों की निगरानी हो रही है.
इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि इन चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद में मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या रणनीति और नीति है?
मालिकाना हक से लेकर विज्ञापन की नीतियों तक उसने मीडिया के बारे में क्या सोचा है जिससे लगे कि जहां उसकी सरकार है, और अगर दिल्ली में बनी तो वहां भी विपक्ष की तरफ से मीडिया को नियंत्रित करने का काम नहीं किया जाएगा. इस मामले में विपक्ष का रिकॉर्ड पाक-साफ है. इसलिए अगर विपक्ष अब से सुधरना चाहता है तो मैं जानना चाहूंगा कि मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या नीतियां हैं? पार्टी के हिसाब से और गठबंधन के हिसाब से भी.
जनता के पैसे से किए जाने वाले विज्ञापन की नीतियों में पारदर्शिता ज़रूरी है. उसका हर महीने प्रदर्शन होना चाहिए कि किस चैनल और अखबार को कितने करोड़ या लाख का विज्ञापन मिला है. जनता को यह जानने का हक होना चाहिए. हमें नहीं मालूम कि पांच हज़ार करोड़ से अधिक का पैसा किन चैनलों और अखबारों के पास सबसे अधिक गया है और किनके पास नहीं गया है. दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन अखबारों में भी विज्ञापन दिए हैं जो सांप्रदायिकता और प्रोपेगैंडा फैलाते हैं. आज जिन मुद्दों से लड़ रहे हैं उसमें जनता के पैसे से कैसे खाद-पानी डाल सकते हैं. इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि विज्ञापन की सरकारी नीतियों का क्या पैमान है और क्या होगा?
आप सभी जानते हैं कि मैंने चुनावों के दौरान ढाई महीने न्यूज़ चैनल नहीं देखने की अपील की है. मैं यह नहीं कह रहा कि आप मुझे सपोर्ट करें. वैसे बीजेपी ने 2016 से मेरे शो का बहिष्कार किया है. दुनिया की इतनी बड़ी पार्टी के प्रवक्ता और नेता मेरा सामने करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. यह पांच साल मेरे जीवन का गौरव का साल है. भारत का सबसे ताकतवर नेता मेरे शो में अपने प्रवक्ताओं को भेजने का साहस नहीं जुटा सका. विपक्ष के नेताओं ने भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग चैनलों का बहिष्कार किया है. इसलिए बहिष्कार अब सामान्य है. आपको डिबेट शो का बहिष्कार कर देना चाहिए और प्रवक्ता से कहना चाहिए दिन में बीस छोटी छोटी सभाएं करें.
गोदी मीडिया के बारे में अपनी हर सभा में बताएं. अपने प्रचार पोस्टरों में उसके बारे में लिखें. लोगों को जागरूक करें. बगैर गोदी मीडिया से लड़े आप लोकतंत्र की कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते औऱ आप गोदी मीडिया से नहीं लड़ सकते तो घंटा आप से कुछ होगा. जनता को बताएं कि विपक्ष का मतलब आप नेता नहीं बल्कि वह भी है. आप भी बेहतर विपक्ष बनने का प्रयास करें. जनता यह भी चाहती है.
आपको तय करना है कि गोदी मीडिया की बहसों में जाकर उसके प्रोपेगैंडा को मान्यता देनी है या नहीं. मेरे हिसाब से तो आपको इन बहसों में नहीं जाना चाहिए. अगर ऐसा कोई फैसला करें तो किसी भी चैनल पर न जाएं. सौ प्रतिशत बहिष्कार करें. ऐसा करने से चैनलों में बहस का स्पेस कम होगा और ग्राउंड रिपोर्टिंग का स्पेस बढ़ेगा. आपके इतना भर कर देने से लोकतंत्र और जनता का भला हो जाएगा क्योंकि तब उसकी आवाज़ को जगह मिलने लगेगी.
चुनावों के दौरान या तो चुनाव आयोग बनाए या फिर विपक्ष की तरफ़ से मीडिया रिसर्च सेंटर बने जो हर भाषा के अख़बारों और कई सौ चैनलों को मॉनिटर करे. उसकी रिपोर्ट हर दिन प्रकाशित करे. चुनाव आयोग को बाध्य करे कि इस रिपोर्ट को उन्हीं अखबारों और चैनलों से प्रसारित करवाया जाए. अपनी सभाओं और पोस्टरों के विज्ञापन में शामिल कीजिए. बताइये कि मीडिया ने बीजेपी को कितनी जगह दी है और विपक्ष को कितनी जगह दी है. खासकर हिन्दी के अखबारों और चैनलों को लेकर जनता को सावधान करना बहुत ज़रूरी है.
आपका फैसला साफ करेगा कि आप लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त करने के अपने पुराने पापों से मुक्त होने, मौजूदा दौर के पापों को मिटाने के लिए कितने ईमानदार हैं. इससे यह भी साबित होगा कि आपमें लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए लड़ने का नैतिक बल है या नहीं.
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