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गुजरात मॉडल बनाम रोज़गार मॉडल: किस ओर है जनता का समर्थन?

अनीता भील गुजरात में अहमदाबाद से 200 किलोमीटर दूर मोरबी सिरेमिक उद्योग की एक टाइल फैक्ट्री में बतौर सफ़ाई कर्मचारी काम करती हैं. 800 से ज़्यादा इकाइयों वाले इस विनिर्माण उद्योग में फ़र्श व दीवार की टाइल्स के साथ-साथ सेनेटरी वेयर का निर्माण किया जाता है. उनके पति रमेश भील भी उसी फैक्ट्री में हेल्पर का काम करते हैं.

प्राकृतिक गैस की बजाय कोयले का इस्तेमाल करने की वजह से कई फैक्ट्रियां बंद हो चुकी हैं. भारत में बड़े पैमाने पर टाइल्स का निर्माण व निर्यात गुजरात के मोरबी से ही होता है.

टाइल फैक्ट्री में कोयले की भट्ठी में 24 घंटे आग जलती रहती है, जिससे तापमान 1100 डिग्री सेल्सियस बना रहता है. इतने अधिक तापमान में भील दंपत्ति भट्ठी से लगभग 50 फीट की दूरी पर अन्य 80 प्रवासी मज़दूरों के साथ-साथ काम करते हैं. उसी फैक्ट्री में लगभग एक दशक से काम करते हुए मध्य प्रदेश के झबुआ से आया यह आदिवासी दंपत्ति दिन भर का 300 रुपये कमा लेता है. यहां काम करते हुए उन्हें न तो सामाजिक सुरक्षा हासिल है, न उन्हें प्रोविडेंट फंड जैसी कोई चीज़ मुहैया है, न ही स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं बल्कि उन्हें हफ़्ता दर हफ़्ता बिना छुट्टी के काम करना पड़ता है.

भले ही एनडीए दुबारा चुनाव जीतकर सत्ता की कुंजी अपने हाथ में ही वापस चाहता हो, एक बड़ा सच यह है कि रोज़गार के मोर्चे पर एनडीए सरकार बुरी तरह असफल रही है. भारत के सर्वाधिक औद्योगीकृत प्रदेशों में से एक व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह-राज्य गुजरात के मोरबी जैसे औद्योगिक केंद्रों के कामगारों के बीच चुनाव के वक़्त में रोजी-रोटी के सवाल व रोज़गार के उपयुक्त हालात पर न के बराबर चर्चा होती है, क्योंकि ग़रीबी की सबसे ज़्यादा मार झेल रहे कामगार राजनीतिक अधिकारों से वंचित हैं.

पलायन के बाद अनीता भील और उनके पति जबसे यहां आये हैं, गुजरात में रहते हुए पिछले दस सालों में किसी भी चुनाव में वे अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सके हैं. अपने एक कमरे के घर में बातचीत के दौरान विस्थापितों की बड़ी आबादी का ज़िक्र करते हुए, जिनके होने से अधिकतर औद्योगिक केंद्रों की तरह मोरबी का उद्योग भी पटरी पर है, अनीता कहती हैं- “आधे से ज़्यादा मध्य प्रदेश इस वक़्त गुजरात में रहता है और काम करता है. लेकिन सालों बाद भी हमें यहां वोट देने का अधिकार हासिल नहीं है.”

आदिवासी मज़दूर अनीता व रमेश ने लगभग 10 साल तक बिना किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा के काम किया है. गुजरात में सालों से रहते हुए भी उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं मिल पाया है.

उनके आसपास के कमरों में राजस्थान, ओड़िशा और दक्षिण गुजरात से आये हुए आदिवासी मज़दूर रहते हैं.

वे कहते हैं कि फ़र्म उन्हें बहुत अधिक भुगतान तो न करती, लेकिन उसकी वजह से कामगारों के रहन-सहन में किराये का खर्च बच जाता है और फिर उनके पास ईंधन (हफ़्ते में लगभग 20 किलो), पीने का पानी आदि लेने के लिए पर्याप्त बचत रहती है. मध्य प्रदेश की सीमा से सटे गुजरात के छोटा उदयपुर के आदिवासी श्रमिक शैलेश रथुआ कहते हैं- “कंपनी या सरकार के पास देने के लिए है ही क्या? कुछ भी पाने के लिए जूझना ही पड़ता है.” वो आगे कहते हैं कि चुनाव में वो वोट देने नहीं जायेंगे, क्योंकि वोट डालने के लिए उन्हें गांव जाने की छुट्टी नहीं मिल सकती.

मोरबी की फैक्ट्रियों में काम कर रहे अधिकांश विस्थापित आदिवासी कमोबेश एक ही बात कहते हैं कि ईंधन, पानी और खाने का खर्च वे खुद वहन करते हैं, जबकि कंपनी आवास की सुविधा मुहैया करवाती है.

अमीरों का हितैषी मॉडल

इस बार भले ही इसका कोई ज़िक्र नहीं है, लेकिन 2014 के चुनावों में विकास का “गुजरात मॉडल” भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान का सबसे लुभावना वायदा था कि “अगर जनता नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री चुनती है, तो मोदी गुजरात के विकास मॉडल को पूरे देश में लागू कर दिखायेंगे और देश की जनता के अच्छे दिन आयेंगे.

इस बार के चुनाव अभियान में इस जुमले से बचने का कारण शायद यह रहा हो कि गुजरात मॉडल का तिलिस्म जुलाई 2015 से ही टूटने लगा था, जब ठीक-ठाक हैसियत वाले पाटीदार समुदाय के लाखों युवाओं ने ज़मीनी आंदोलन छेड़ दिया कि सरकारी नौकरियों व कॉलेजों में उन्हें आरक्षण दिया जाये.

दूसरी बार लोगों में उबाल अक्टूबर 2018 में देखने को मिला, जब गुजरात में रह रहे विस्थापितों के ख़िलाफ़ उग्र आंदोलन छिड़ गया था और यह बात आग की तरह फैल गयी थी कि किसी बिहारी ने साबरकांठा जिले में 14 साल की बच्ची का कथित रूप से बलात्कार किया है. बेकाबू होती भीड़ ने गुजरात के 6 जिलों में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश से आये व फैक्ट्रियों, कपास फ़र्मों में काम करके या सड़क पर रेहड़ी लगाकर जीविका चला रहे विस्थापितों को निशाने पर लिया. उन्होंने फैक्ट्रियों में इस मांग के साथ तोड़-फोड़ की कि ख़ास नियम बनाकर 80 फ़ीसदी स्थानीय लोगों को ही काम पर रखा जाये. पुलिस ने 342 से ज़्यादा लोगों को हिंसा के आरोप में गिरफ़्तार भी किया था.

मज़दूर संघ से जुड़े हुए लोग कहते हैं कि इन विरोध-प्रदर्शनों से न केवल लोगों में व्याप्त आर्थिक असुरक्षा की भावना उजागर होती है, बल्कि बेहद कम मज़दूरी के ख़िलाफ़ उनके गुस्से को भी इसमें देखा जा सकता है. इस वजह से कम आय वाले प्रवासी मेहनतकश मज़दूर निशाना बन जाते हैं. 70 फ़ीसदी से भी ज़्यादा के आंकड़े के साथ गुजरात में मेहनत-मज़दूरी करके जीविका चलाने वालों की तादाद देश में सबसे ज़्यादा है. हालांकि, उनमें भी 94 फ़ीसदी काम अस्थायी है जिसके लिए दिया जाने वाला मेहनताना राष्ट्रीय औसत से भी कम है.

गुजरात में खेतिहर मजदूरों की दिहाड़ी (चाहे वह आदमी हो या औरत) बिहार, असम, पश्चिम बंगाल के खेतिहर मज़दूरों की तुलना में बेहद कम है. इसके बावजूद कि गुजरात में प्रति व्यक्ति आय एक लाख रुपये से ज़्यादा है, यहां शहरी मज़दूरों की दिहाड़ी औसत से भी कम है. अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ की साल 2018 की रिपोर्ट में दिये गये  भारत में मज़दूरी से संबंधित आंकड़ों पर गौर करें, तो तमिलनाडु व हरियाणा के क्रमशः 380 व 780 रुपये की तुलना में गुजरात में शहरी मज़दूरों की दिहाड़ी 320 रुपये है.

गुजरात के ईंट भट्ठा व विनिर्माण क्षेत्र के मज़दूरों के लिए काम कर रहे ‘प्रयास: सेंटर फॉर लेबर एंड एक्शन’ के प्रमुख सुधीर कटियार कहते हैं कि मज़दूरों की हालत साल-दर-साल बदतर होती गयी है. वो कहते हैं- “मेहनताना कम है या बहुत दिनों से उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है. किसी तरह की राहत देने की जगह सरकार ने बीते साल अक्टूबर में यह कहते हुए मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी और कम कर दी थी कि पिछले छः महीनों में मूल्य सूचकांक में गिरावट देखी गयी है.

सुधीर कहते हैं- “लोग पहले से ही तकलीफ़ों से जूझते हुए किसी तरह जी रहे हैं, ऐसे में इस तरह के फैसलों से लोग और ज़्यादा हताश-निराशा होते हैं, फलस्वरूप विस्थापित या प्रवासी मज़दूरों को अपने हालात के लिए कसूरवार ठहराने लगते हैं.”

अर्थशास्त्रियों ने स्पष्ट किया है कि गुजरात में उच्च विकास दर दिखने के बावजूद, ठीक-ठाक आमदनी वाले किसी भी रोज़गार में कोई बढ़ोतरी नहीं दर्ज़ की गयी है. राज्य सरकार ने सड़कों, एयरपोर्ट के निर्माण, ऊर्जा आदि से जुड़े उद्योगों की स्थापना और कॉर्पोरेट घरानों के निवेश को सब्सिडी देकर, कम कीमत पर खेती-किसानी की ज़मीन, चारागाह आदि मुहैया करके प्रोत्साहित करते हुए 2002-03 से 2013-14 के दौरान उच्च विकास दर प्राप्त की. इसमें सोशल सेक्टर के लिए, मसलन शिक्षा के क्षेत्र के लिए भी थोड़ा फंड दिया गया था. ‘सेंटर फॉर डेवलपमेंट अल्टरनेटिव’ की निदेशक व अर्थशास्त्र की प्रोफेसर इंदिरा हिरवे के अनुसार बड़े पैमाने पर कैपिटल इंटेंसिव तकनीकों के इस्तेमाल से यह साफ़ झलकता है कि असल रोज़गार की उपलब्धता न के बराबर है.

डॉ. हिरवे ने उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों का विश्लेषण यह बताने के लिए किया कि प्रति करोड़ पूंजी के निवेश से पैदा होने वाले रोज़गार व औद्योगिक क्षेत्र के आउटपुट में लगातार गिरावट हो रही है. डॉ. हिरवे कहती हैं- “1998 से 2008 तक पूंजी के कुल निवेश में 9.1 फ़ीसदी का उछाल देखा गया, लेकिन कामगारों की संख्या में महज़ 2.8 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई. औद्योगिक विकास में कामगारों की हिस्सेदारी घट गयी. कुल निवेश में मजूरी की हिस्सेदारी 1998-2000 के 11.8 फ़ीसदी से घटकर 2007-08 में 8.5 फ़ीसदी रह गयी.”

सीधे-सीधे कहें, तो ऊंची जीडीपी दर होने के बावजूद न तो राज्य में रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो पाये, न ही विनिर्माण उद्योगों से होने वाले मुनाफ़े में से मज़दूर-कामगारों को ग़रीबी या भुखमरी से लड़ने के लिए समुचित हिस्सेदारी ही दी गयी.

गुजरात बीजेपी के प्रवक्ता व सेक्रेटरी भरत पांड्या अहमदाबाद स्थित अपने दफ़्तर में बातचीत के दौरान रोज़गार के मामले में सरकार के रिकॉर्ड को लेकर सुरक्षात्मक हो जाते हैं. वो कहते हैं- “क्या रोज़गार की समस्या इन्हीं पांच सालों में ही पैदा हुई है? क्या पहले बेरोज़गारी न थी?”

हालांकि, पांड्या इस बात से सहमत थे कि रोज़गार को लेकर इतना शोर-शराबा रोज़गार के क्षेत्र में समुचित सामाजिक सुरक्षा के अभाव की वजह से है, यहां तक कि बड़ी फैक्ट्रियों में भी यही आलम है. वो आगे कहते हैं- “जब मोदी जी मार्च में यहां आये थे, हमने इस मामले में पहल करते हुए केंद्र के सहयोग से असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए एक पेंशन योजना शुरू करने की घोषणा की थी. अब बात मज़दूरों की दिन-ब-दिन बढ़ती आबादी की अपनी जागरूकता की है और जहां तक हमारा सवाल है, हम तमाम एजेंसियों की मदद से उनके बीच इसकी जानकारी पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं.”

वह आगे कहते हैं- “यह सही है कि हर कोई सरकारी नौकरी के पीछे भागता है, लेकिन यह तो संभव नहीं कि सबको सरकारी नौकरी मिल पाये. हम चाहते हैं कि सरकारी व निजी उद्योगों, दोनों ही जगहों पर काम करने को एक ही नज़र से देखा जाये. इसीलिए हमने ‘मुद्रा योजना’ के तहत आर्थिक मदद देकर स्व-रोज़गार को बढ़ावा देने का प्रयास किया है.”

पांड्या बताते हैं- “हम महारोज़गार मेले का आयोजन करते रहे हैं, जहां जॉब सर्टिफिकेट भी दिया जाता है. हमने लगभग 25000 औरतों को अलग-अलग कंपनियों में अस्थायी रूप से काम पर रखा है.”

आजीविका की मांग नहीं, सुरक्षा की चिंता

एक तरफ़ जहां मोरबी जैसे दूर-दराज़ के आद्योगिक क्षेत्रों में काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों को वोट देने का हक़ नहीं है, वहीं गुजरात औद्योगिक विकास निगम के पुराने औद्योगिक घरानों के फैक्ट्री मज़दूर कहते हैं कि उन्हें हाल के विधानसभा चुनाव में ही वोटर कार्ड मिले हैं. यहां अधिकांश निवासियों के पास अस्थायी रोज़गार ही है.

राजकोट शहर के सीमावर्ती इलाके में दूधसागर रोड पर ही जय हिंद नगर है. स्थानीय लोग इसे “भइयाबाड़ी” कहते हैं, क्योंकि यहां रहने वाले अधिकांश लोग नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश या बिहार से विस्थापित होकर आये थे. इन्हीं में से एक, शेषनाथ बताते हैं कि दसवीं में पढ़ाई छोड़ने के बाद युवावस्था में वो कुछ साल ऑटोमोबाइल गियर के कल-पुर्जे बनाने वाली वर्कशॉप में काम कर चुके हैं. उनके पिता उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से 30 साल पहले विस्थापित होकर आये थे. शेषनाथ का काम थकाऊ व तनिक रूटीन में बंधा हुआ था. गियर का एक पुर्जा मशीन में डालना और उसे वैसे ही पकड़े हुए कुछ-कुछ देर पर घुमाते रहना पड़ता था. अपनी आपबीती बताते हुए वो कहते हैं- “मैं तक़रीबन 9-10 घंटे लगातार खड़ा रहता था और दिन भर में लगभग 1050 पुर्जे तैयार करता था. दिन का काम ख़त्म होने के बाद मुझे 52 पैसे प्रति पुर्जे के हिसाब से पैसे मिलते थे.” इसी कड़ी में वह आगे बताते हैं कि अगर उन्होंने हज़ार के आसपास प्रतियां तैयार कर लीं तो ठीक-ठाक पैसे मिल जाते थे, लेकिन यह उतना आसान नहीं था क्योंकि लगातार 50-60 डिग्री तापमान में काम कर पाना मुश्किल भरा होता था. इसलिए वो यहां काम जारी न रख सके. अब उन्होंने गियर बनाने वाली फैक्ट्री ‘एच जे स्टील’ में काम पा लिया है, जहां काम के बदले उन्हें 300 रुपये की दिहाड़ी मिलती है.

24 वर्षीय शेषनाथ कहते हैं कि पाटीदारों ने रोज़गार के लिए आवाज़ बुलंद की, क्योंकि वे (पाटीदार) उस तरह का मेहनत-मज़दूरी का काम करने को तैयार न थे, जैसा काम उन्होंने (शेषनाथ) ने राजकोट में रहते हुए किया है.

राजकोट 2015 के पाटीदार रोज़गार आंदोलन के कुछेक प्रमुख जगहों में से है और शेषनाथ ने लगातार इससे जुड़ी खबरों पर नज़र बनायी रखी. वो आंदोलन को उपलब्ध रोज़गार के सूरते-हाल से जोड़कर देखते हैं. वो चुटकी लेने के अंदाज़ में कहते हैं- “पाटीदार समुदाय के युवा पढ़े-लिखे हैं. जिस आदमी ने कॉलेज की पढ़ाई की हो, भाव-ताव के लिए चश्मा लगाता हो, उसे शारीरिक श्रम करने में झिझक होगी ही. काम तो मिल ही सकता है, लेकिन उन्हें हमारी तरह मेहनत-मज़दूरी का काम नहीं करना. इसीलिए उन्हें आरक्षण चाहिए.”

जय हिंद नगर के अधिकांश परिवारों ने यही कहा कि शहर में 300 रुपये रोजाना के मेहनताने पर बड़ी मुश्किल से गुजर-बसर कर हो पाती है. बहुतों ने इस तरह की आर्थिक तंगी से निपटने के लिए फैक्ट्रियों में तमाम तरह के लघु-कुटीर उद्योग शुरू किये, जिसमें बड़े उद्योगों के लिए प्रोडक्ट तैयार किये जाते हैं और एक-एक के हिसाब से आमदनी होती है.

महिलाएं और समुदाय के वरिष्ठ सदस्य इस तरह के उद्यमों में काम करते हैं. वे एक आभूषण फैक्ट्री के लिए 1 रुपये प्रति पीस के हिसाब से पीतल की चूड़ियां बनाते हैं.

राइमा गुप्ता जिनके पति तक़रीबन 15 साल पहले यूपी के महू से राजकोट आये और एक फैक्ट्री में काम करने लगे, बताती हैं कि जब घर में तीन-तीन बच्चे स्कूल जाने वाले हों तो महज़ 9000 रुपये की कमायी से घर नहीं चल सकता. खाना बनाने व घर की सफ़ाई-दफाई के अलावा जीआईडीसी द्वारा दिये हुए ब्लेड की मदद से वाशिंग मशीन के नोज़ल कैप की सफ़ाई करते हुए वो प्रति मशीन कुछ कमायी कर लेती हैं. हर मशीन के हिसाब से उन्हें कंपनी की तरफ़ से 50 पैसे मिलते हैं. तेज़ धार से कभी-कभी उनकी उंगलियां ज़ख्मी हो जाती हैं और फिर काम करना दूभर हो जाता है. वो कहती हैं- “ मेरा बड़ा बेटा सूरज अभी दसवीं में है और हमें अधिक पैसों की ज़रूरत है.”

राइमा गुप्ता पारिवारिक आमदनी में योगदान देने के लिए वाशिंग मशीन की सफ़ाई-दफाई का काम करती हैं. इसके लिए वो 1 रुपये प्रति मशीन का मेहनताना लेती हैं. राइमा के पास अपना वोटर कार्ड है और इस बार वो दूसरी दफ़ा वोट देंगी. उन्हें यह बिल्कुल भी नहीं लगता कि सरकारें रोज़गार या मेहनत-मज़दूरी के मोर्चे पर कुछ सुधार लायेंगी. उनके मुताबिक़ जय हिंद नगर में सड़क व आवागमन की समस्या एक बड़ा मसला है, जिसे दूर किया जाना चाहिए.

छः महीने पहले जब विस्थापितों पर हमले की वारदात हुई थी, तब राइमा किसी सगे-संबंधी के अंतिम संस्कार में शामिल होने यूपी गयी हुई थीं. केवल उनका बड़ा बेटा ही घर पर था. वो इस बात पर राहत की सांस लेती हैं कि उसे कुछ हुआ नहीं. हिंसा की वारदात के दौरान हर दूसरे दिन पुलिस जय हिंद नगर का मुआयना करने आती थी.

उन्होंने कहा कि वोट भाजपा को ही देंगी, क्योंकि मोदी और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने राज्य में सुरक्षा का माहौल बनाया है.

उनका कहना है- “लगभग 6 साल पहले जब हम पहली बार यहां आये, हमारे स्थानीय वार्ड में कांग्रेस प्रभावी थी, तब मुस्लिम लोग चाकू दिखाकर यहां से खटिया चुरा ले जाते थे. लेकिन जबसे भाजपा ने वार्ड काउंसिल का चुनाव जीत लिया है, वे ऐसा करने से बचते हैं.”

जब उनसे यह पूछा गया कि आप ये कैसे कह सकती हैं कि खाट चुराने वाले मुसलमान थे, उन्होंने कहा कि यह बात उतनी निश्चितता से नहीं कही जा सकती कि यह सच है या अफ़वाह है. उन्होंने कहा- “यह भी सच है कि बहुत से गुजराती कहते हैं कि चोर दरअसल यूपी-बिहार से आये लोग होते हैं. यहां तक कि शाहपुर में यूपी से आये दो आदमियों की हत्या हो गयी और हम ही शक के दायरे में रहे. यह कहना मुश्किल है कि क्या सही है, क्या नहीं, फिर भी हम मोदी का ही समर्थन करते हैं.”

फ़र्नीचर फैक्ट्री में काम करने वाले 24 वर्षीय दीना नाथ शाह बताते हैं कि उनके पिता लगभग 40 साल पहले उत्तर प्रदेश के देवरिया से विस्थापित होकर यहां आये थे. उन्होंने अबतक दो बार (2014 लोकसभा चुनावों में बीजेपी व स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस को) वोट दिया है. उन्होंने कहा कि इस बार भी वोट बीजेपी को ही देंगे और ऐसा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की वजह से नहीं है.