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ग्यारहवें और बारहवें आम चुनाव भाजपा ने जीते तो सही, पर तेरह की संख्या ने सब मटियामेट कर दिया

ग्यारहवें और बारहवें आम चुनाव 1996 और उसके दो साल बाद यानी 1998 में हुए थे. 1996 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस की सरकार थी जो पूरी तरह से घोटालों के दलदल में फंसी हुई थी. पर जिस बात के लिए नरसिंहा राव की कांग्रेस सरकार को याद किया जाता है, वो उसके द्वारा शुरू की गयी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की प्रक्रिया थी. आइये, इन चुनावों से पहले के हालात पर नज़र डालें.

अर्थव्यवस्था का उदारीकरण

सरकार को आते ही ‘क्राइसिस ऑफ़ पेमेंट’ यानी भुगतान के संकट से जूझना पड़ा. आरबीआई के पास कुल दो या तीन हफ़्तों की विदेशी मुद्रा बची थी. लिहाज़ा, तेल आयात करने के भी पैसे नहीं बचे थे. हारकर, सरकार को आरबीआई में रखा सोना विदेशी बैंकों को गिरवी रखना पड़ा. जब उन बैंकों ने सरकार से पूछा कि वो उधार कैसे चुकायेगी, तो तत्कालीन वित्त मंत्री श्री मनमोहन सिंह बोले कि अर्थव्यवस्था के कपाट खोल दिये जायेंगे, इंपोर्ट ड्यूटी कम कर दी जायेगी, विदेशी कंपनियां आकर देश में निवेश कर सकती हैं. इससे नौकरियां पैदा होंगी, उत्पादन और खपत बढ़ेगी जो सकल घरेलु उत्पाद(जीडीपी) को बढ़ायेगा. हुआ भी यही, पर साथ ही क्रोनी कैपिटलिज़्म, यानी राजनीतिक साठ-गांठ से चलने वाले पूंजीवाद, का क्रूरतम रूप देखने में आया. एक के बाद एक कई घोटाले हुए.

घोटालों की गठरी

बड़ी लंबी फ़ेहरिस्त है यह. टेलीकॉम घोटाला, हवाला कांड, अचार वाले लखुभाई पाठक और चंद्रास्वामी केस, सेंट किट्ट्स अफ़ेयर, चीनी घोटाला, हाउसिंग स्कैम, प्रतिभूति घोटाला (हर्षद मेहता कांड). और तो और, काग्रेस नेता कल्पनाथ राय को सीबीआई ने दाऊद इब्राहिम के गुर्गों को शरण देने के आरोप में गिरफ़्तार किया था. कल्पनाथ के मुताबिक़ नरसिंहा राव ने चीनी घोटाले में फंसे अपने बेटे प्रभाकर राव को बचाने के लिए उन्हें बलि का बकरा बनाया था. दरअसल, जानकार ये भी कहते हैं कि इनमें से कुछ घोटालों में उछलने वाले नाम तो ख़ुद नरसिंहा राव के इशारे पर घसीटे गये थे, ताकि पार्टी के बाहर और भीतर उठ रहे असंतोष को दबाया जा सके.

नरसिंहा राव की समस्या थी कि कांग्रेस पार्टी के भीतर भी उनके समर्थक नहीं थे पर विकल्प न होने की वजह से उन्हें प्रधानमंत्री चुना गया था. वे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे. उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद अपनाकर प्रतिद्वदियों को हटाया और अपना रास्ता निष्कंटक बनाया. पर प्रकरणों में सरकार की ऐसी-तैसी हो गयी.

बाबरी मस्जिद कांड

इसकी शुरुआत तो 1990 में हो गयी थी. फिर, दिसंबर 1991 में कारसेवकों ने अयोध्या पंहुचकर बाबरी मस्जिद ढहा दी. हमेशा की तरह, राव किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहे, या शातिर खिलाड़ी की मानिंद घटना के उभार में ही उसके अवसान की राह देखते रहे.

ऐसा लगता है राव दोहरी चाल चल रहे थे. पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी क़िताब ‘बियॉन्ड दी लाइन्स’ में लिखा है, ‘जैसे ही कारसेवक मस्जिद पर चढ़े, राव अपने पूजाकक्ष में बने मंदिर के सामने बैठ गये. कुछ घंटे बाद जब उनके सचिव ने उनके कान में इत्तला दी कि मस्जिद ढह गयी है, उन्होंने पूजा समाप्त कर दी.’ क्या राव की ख़ामोशी या किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना इस हादसे की पूर्व स्वीकारोक्ति थी? कहा नहीं जा सकता. पर ये बात ज़रूर है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने एक दफ़ा कहा था कि लाल बहादुर शास्त्री के बाद नरसिंहा राव के रूप में देश को अब तक का सबसे बढ़िया प्रधानमंत्री मिला है.’

आख़िरी दांव वाले तीन अध्यादेश

राव सरकार ने तीन अध्यादेश जारी किये थे. पहला, चुनाव प्रचार समयावधि 21 दिन से घटाकर 14 दिन करना. दूसरा, लोकपाल की स्थापना के लिए और तीसरा ईसाई, दलितों के लिए सरकारी नौकरी में आरक्षण देना. भाजपा और सीपीआई(एम) के शिष्टमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात कर उन तीनों अध्यादेशों पर दस्तख़त न करने की अपील की. ज़ाहिर था कि इन तीनों को लागू कर सरकार चुनाव में अपना फ़ायदा देख रही थी. लोकपाल मुद्दे पर अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि अब ये अगली सरकार, चाहे किसी की भी हो, के विवेक पर छोड़ा जाये. राष्ट्रपति ने तीनों अध्यादेश सरकार को वापस भेज दिये और अगले ही दिन आम चुनावों की घोषणा हो गयी.

ग्यारहवें आम चुनाव के चुनावी वादे

ज़ाहिर था कि कांग्रेस के कार्यकाल में हुए घोटालों की वजह से विपक्षी पार्टियों को एडवांटेज था. भाजपा ने अपने मैनिफ़ेस्टो में जवाबदेह सरकार, उत्तरांचल, वनांचल, छतीसगढ़ और विदर्भ को अलग राज्य बनाने, आर्टिकल 370 ख़त्म करने की बात कही, आर्थिक सुधार प्रक्रिया तेज़ करने के भरोसे जैसे वादे किये.

वहीं, कांग्रेस ने लगभग साढ़े छह करोड़ नयी नौकरियां, कृषि सुधार, लोकपाल, पब्लिक सेक्टर कंपनियों के पुनर्गठन और जांच एजेंसियों को स्वायत्तता देने की बात कही.

चुनाव प्रचार और जुमले

कांग्रेस कहती फिर रही थी, ‘अनुभव कहता है बारंबार, कांग्रेस ही दे स्थिर सरकार’, सुभाष चंद्र बोस के प्रसिद्ध नारे की तर्ज़ पर नरसिंहा राव ने कहा, ‘तुम मुझे स्थिरता दो, मैं तुम्हें संपन्नता दूंगा.’ कांग्रेस ने 5 लाख ऐसे प्रचारक तैयार किये, जो गांव-गांव जाकर सरकार की बात रख रहे थे.

भाजपा ने पिछले चुनाव में राम मंदिर का जादू देख लिया था. इस बार और आक्रामकता के साथ राममंदिर बनाने के नारे लगवाये. उसने ‘परिवर्तन’ की हुंकार भरते हुए कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा, ‘हमें स्थायी सरकार के साथ जवाबदेह सरकार चाहिए’. ‘अबकी बारी-अटल बिहारी’ जैसे जुमलों से देश गूंज उठा.

चुनावी आंकड़े

कांग्रेस को कुल 136 सीटें मिलीं, नेशनल फ़्रंट और लेफ़्ट फ़्रंट के गठबंधन को 111 और भाजपा और उसके समर्थक दलों को सबसे ज़्यादा 186 सीटें मिलीं. इन चुनावों में सबसे खास बात ये रही कि क्षेत्रीय पार्टियों का प्रदर्शन ज़बर्दस्त था. उन्हें कुल मिलाकर 101 सीटें मिलीं थीं. नेहरू परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता का ही खामियाज़ा था कि मई 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस बेहद कमज़ोर हो गयी. कुछ वैसा ही हाल था, जैसा 1977 में हुआ था. अब कांग्रेस राष्ट्रव्यापी पार्टी होने का दावा नहीं कर सकती थी.

13 दिन की वाजपेयी सरकार

चूंकि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, राष्ट्रपति ने उसे सरकार बनाने का न्यौता दिया. 1980 में अपने वजूद में आने के बाद, पहली बार भाजपा की सरकार बनी. पर उसकी समस्या थी कि उसके पास बहुमत नहीं था और इसे संसद में सिद्ध करने के लिए उसे 13 दिन का समय दिया गया .

भाजपा ने जी-तोड़ कोशिश करके क्षेत्रीय पार्टियों को मिलाने की कोशिश की और पार्टी के मैनेजरों को एकबारगी यकीन भी हो गया कि उनके पास वो जादुई आंकड़ा आ गया है. पर तमाम विपक्षी पार्टियों ने मानो एकजुट होकर भाजपा को 272 का आकंडा नहीं छूने दिया और 28 मई, 1996 को सरकार गिर गयी. इसके बाद वाजपेयी ने ज़बर्दस्त भाषण दिया.

यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार

इसके बाद, राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने यूनाइटेड फ़्रंट को सरकार बनाने का न्यौता दिया. उसे कांग्रेस का समर्थन मिल गया. एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने और उनके बाद इंद्र कुमार गुजराल पीएम बने. ये सरकार लगभग 2 साल चली और 1998 में कांग्रेस ने लेफ़्ट फ़्रंट की सहयोगी पार्टी डीएमके का राजीव गांधी हत्याकांड में नाम आने से समर्थन वापस ले लिया. इससे सरकार गिर गयी और चूंकि किसी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था, इसलिए अगले आम चुनाव की घोषणा हो गयी. ग्यारहवीं लोकसभा का कार्यकाल 15 मई, 1996 से लेकर 4 दिसंबर, 1997 तक रहा.

बारहवीं लोकसभा के चुनाव

इस बार लगभग 65 करोड़ मतदाता प्रत्याशियों की क़िस्मत आजमाने वाले थे. क़रीब 61% मतदान हुआ. 543 सीटों के लिए 176 पार्टियों के 4,750 प्रत्याशी मैदान में थे. 7 राष्ट्रीय स्तर की और बाकी स्थानीय पार्टियां थीं. औसतन 8.75 प्रत्याशी हर सीट पर थे. 1998 में एक बार फिर भाजपा को सबसे ज़्यादा 182 सीटें मिलीं. यूं तो कांग्रेस और भाजपा को लगभग समान वोट मिले, पर भाजपा को 41 सीट ज़्यादा मिलीं.

पार्टीप्रत्याशी संख्याजीतेजमानत ज़ब्त%वोट
भाजपा3881825725.59%
कांग्रेस47714115325.82%
जनता दल19161563.24%
सीपीएम7132205.16%
सीपीआई589401.75%
बसपा25151764.67%
एसएडी5712351.76%
राष्ट्रीय पार्टियां149338763767.98%
अन्य3257156284932.02%
कुल47505433486100%

वाजपेयी की सरकार

एक बार फिर राष्ट्रपति ने भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और सहयोगी दलों की मदद से मकसद में कामयाब हुई. भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का मुख्य घटक दल है. 1998 में इसके अन्य दल थे- एआईडीएमके, समता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, बीजू जनता दल, शिव सेना, नेशनल तृणमूल कांग्रेस, जनता पार्टी, शिवसेना, मिज़ो नेशनल फ़्रंट, एनटीआर तेलगु देशम पार्टी (एलपी), डीएमके, हरियाणा विकास पार्टी, लोक शक्ति और तमिलनाडु की पीएमके.

कुल मिलाकर ये 24 पार्टियों की सरकार थी, जिसके मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी थे. इतनी सारे दलों को साथ लेकर चलना कोई आसान काम नहीं होता. ये वाजपेयी का व्यक्तित्व ही था, जो इसे संभाल रहे थे. पर एआईडीएमके और डीएमके का आपसी ‘प्रेम’ तो जगज़ाहिर था. वो शेर है न- इस तरह यूं साथ निभाना है दुश्वार सा, तू भी तलवार सा, मैं भी तलवार सा.’ बस, यही हुआ. तुनकमिजाज़ जयललिता किसी बात पर रूठ कर सरकार से अलग हो गयीं.

अंतरात्मा की आवाज़ सुनायी नहीं दी

एआईडीएमके चले जाने से, सरकार अल्पमत में आ गयी. वाजपेयी को संसद में बहुमत सिद्ध करने को कहा गया. उनके सबसे विश्वस्त पॉलिटिकल मैनेजर प्रमोद महाजन की ज़मीन-ओ-आसमान मिलाने की कोशिश बेकार हुई. वोटिंग होने से पहले वाजपेयी ने सांसदों को अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने को कहा. राजनीति में सबकुछ, बस अंतरात्मा ही नहीं है. 13 महीने पुरानी सरकार एक वोट से गिर गयी. वाजपेयी पहले 13 दिन के लिए और अब महज़ 13 महीनों के लिए प्रधानमंत्री रह पाये.

इसके बाद केआर नारायणन ने कांग्रेस को फ्लोर टेस्ट करने को कहा, जिसके लिए सोनिया गांधी ने मना कर दिया. 10 मार्च, 1998 को शुरू हुई बारहवीं लोकसभा 27 अप्रैल, 1999 को भंग हो गयी और अगले आम चुनाव की घोषणा हो गयी.