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बीमार डॉक्टर और बीमार मरीज की रस्साकशी
क्या आपको याद है कि अभी-अभी कोलकोता से एक मेडिकल वायरस चला था जो देखते-देखते सारे देश में फैल गया था? मैं इंतज़ार करता रहा कि कोई आला डॉक्टर आयेगा और हमें बतायेगा कि कहां से आकर, कहां तक फैला यह वायरल! इसके पीछे-पीछे राजनीतिक बदबू क्यों फैली? नहीं बताया किसी ने लेकिन मैंने देखा कि डॉक्टरों के झुंड-के-झुंड इसके शिकार होते गये – ‘डॉक्टरोसेफलाइटिस’?
कहानी इतनी ही थी कि कोलकाता में किसी डॉक्टर की, किसी मरीज के परिजन ने पिटाई कर दी! बस, ‘डॉक्टरोसेफलाइटिस’ पैदा हुआ और देखते-देखते देशभर के डॉक्टर इसकी चपेट में आ गये. डॉक्टर की पिटाई बहुत बुरी बात है. पिटाई के कारणों में गये बिना मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी हाल में, किसी भी स्थिति में किसी पर हमला करना, किसी की मार-पिटाई करना हमें एकदम अस्वीकार है. यह मनुष्यता को नीचे गिराने जैसा है. डॉक्टरी के पेशे के कारण मिली ताकत से, कोई डॉक्टर किसी मरीज की ‘पिटाई’ करे या मरीज या उसके परिजन अपने मनमाफ़िक न होने के कारण, किसी भी तरह की हिंसा करें, यह समान निंदनीय व वर्जनीय है.
लेकिन एक डॉक्टर की पिटाई का बदला हजारों डॉक्टर मिल कर मरीजों को और उनके परिजनों को पीट कर लें, यह भी मुझे पूर्णत: अस्वीकार्य है. अपराध एक का और सज़ा दोषी-निर्दोष का विवेक किये बिना सबको, यह किस तरह सही हो सकता है? हर सांप्रदायिक दंगा, हर जातीय उन्माद यही तो करता है! मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूं कि डॉक्टरी एक ‘नोबल प्रोफेशन’ है कि यह सेवा का क्षेत्र है. नहीं, यह आज पूर्णत: व्यापार-धंधा है जिसकी सारी नैतिक भित्ती एक-एक कर ढह चुकी है. इस खंडहर में यदि कोई कहीं है कि जो सेवा की लौ जलाये बैठा है तो वह उसकी निजी पसंदगी है, उसके पेशे का स्वभाव नहीं है. चिकित्सा के व्यापार-धंधे में लगे दूसरे डॉक्टर, अपने बीच के ऐसे डॉक्टरों को पसंद नहीं करते हैं, उनकी खिल्ली उड़ाते हैं. मनुष्य के सबसे कमजोर क्षणों से जुड़ा यह पेशा आज सबसे कुटिल व हृदयहीन पेशा बन चुका है. लेकिन हम सिर्फ डॉक्टरों से ऐसी शिकायत कर सकते हैं क्या? जब इतने बड़े बहुमत से बनी सरकार ने ‘मॉब लिंचिंग’ को कानून-व्यवस्था बनाये रखने की व्यवस्था में शुमार कर लिया है, तब डॉक्टर-मरीज एक-दूसरे का इलाज ‘मॉब लिंचिंग’ से करें, तो हैरान होने जैसा क्या है!
डॉक्टर और मरीज का रिश्ता एक अजीब-सी बुनियाद पर खड़ा है. लोग चाहते हैं कि वे शरीर के साथ जैसी भी चाहे मनमानी करें, जो भी चाहें खायें-पीयें, जैसे चाहें रहें-चलें लेकिन उन्हें ऐसा कुछ हो ही नहीं कि जिससे उनके मस्त जीने में खलल पड़े. झड़े रहो गुलफाम!- यह आज का जीवन-मंत्र बनाया गया है. यह सरासर गलत ही नहीं, अवैज्ञानिक भी है, शरीर-शास्त्र के विपरीत जाता है. डॉक्टर बना या बनने की युक्ति में लगा यह जो आदमी हमारे सामने, गले में स्टेथोस्कोप लगाये खड़ा है, यह भी इसी धकमपेल में से पैदा हुआ है. इसके लिए हर आदमी एक मौका है, शिकार है कि जिसे वह कहता है कि तुम चाहे जैसे रहो, जो करो, जो खाओ-पियो चिंता नहीं, हम तुम्हें ठीक कर देंगे, काम के लायक बना कर रखेंगे. शर्त बस इतनी है कि इसका जो खर्च मैं मांगूं, वह देते जाना. यह समीकरण एकदम ठीक चलता है. इस धक्कमपेल में दोनों ने अपनी-अपनी सुविधा का रास्ता बना लिया है.
परेशानी वहां खड़ी होती है जहां इसमें एक वह तत्व आ जुड़ता है, जो बीमार है. वह इलाज के लिए डॉक्टर चाहता है लेकिन उसकी गांठ ढीली है. अब सामने डॉक्टर तो कहीं है नहीं; जो है वह तो ‘ले और दे’ वाले समीकरण का एक खिलाड़ी है. वह बीमार को देख कर खुश होता है, उसकी जेब देख कर नाक-भौं सिकोड़ता है. आख़िर डॉक्टर-मरीज के बीच की तनातनी अधिकांशत: सरकारी अस्पतालों में क्यों होती है? देश के सभी सरकारी अस्पतालों की हालत ऐसी है कि वहां स्वस्थ आदमी भी बीमार हो जाये! काम करने वाले डॉक्टरों, स्टाफ, नर्स आदि से ले कर मरीजों अौर उनके परिजनों तक के लिए कम-से-कम बुनियादी सुविधाएं भी वहां उपलब्ध नहीं हैं. बीमार सरकारें खुद को ज़िंदा रखने में ही इस कदर व्यस्त हैं कि बीमारों की यह दुनिया उनके यहां दर्ज़ भी नहीं होती हैं. फिर भी अस्पताल चलते हैं, हज़ारों ज़रूरतमंद रोज इन दरवाजों तक पहुंचते हैं. एक तरफ है तनावग्रस्त, ऊबा हुआ, अपनी ज़रूरतों के नाकाफी होने से त्रस्त अस्पताल और डॉक्टर; दूसरी तरफ है बीमारी से टूटा हुआ, साधनहीनता के दबाव से निराश, टूटा हुआ मरीज व उसके परिजन! जब ये दोनों रूबरू होते हैं तो किसी में, किसी के प्रति सम्मान या सहानुभूति का एक कतरा भी नहीं होता है. मरीज के प्रति अमानवीयता की हद तक कठोर और डॉक्टरों के प्रति अमानवीयता की हद तक हिकारत- ऐसे दो प्राणियों का यह आमना-सामना सुखद कैसे हो सकता है? नतीजा हर तरह की कुरुपता में आता है.
डॉक्टरों की ऐसी हड़ताल उनकी और भी ख़ुदगर्ज़ तस्वीर बनाती है. मार-पीट की घटनाएं निंदनीय हैं, सख्त कार्रवाई की मांग करती है. लेकिन यह कार्रवाई कौन करे? डॉक्टर करें कि प्रशासन? सरकारी अस्पतालों में प्रशासन की जिम्मेवारी है कि वह अस्पताल कर्मचारियों की सुरक्षा करे. अस्पताल की जिम्मेवारी है कि उसका हर घटक मरीजों से इस तरह पेश आये कि उसके बीमार मन में कृतज्ञता का भाव पैदा हो. सरकार की जिम्मेवारी है कि वह जन-स्वास्थ्य केंद्रों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधन मुहैया कराये. डॉक्टरों की जिम्मेवारी है कि वे मरीज से मशीनी नहीं, मानवीय रिश्ता बनाये और उनके परिजनों की जिम्मेवारी है कि वे डॉक्टरों को भगवान नहीं, अपना सहायक इंसान मानें और उस नाते वह सारा सम्मान दें जो एक इंसान को दिया ही जाना चाहिए. ऐसा हो तो आप पायेंगे कि टकराहट के अधिकांश कारण खत्म हो जायेंगे. और फिर भी किसी ने, किसी के साथ गलत किया तो उसे कानून के हवाले किया ही जा सकता है.
अब एक बड़ा सवाल डॉक्टरों से पूछना बाकी रह जाता है. आपका काम बीमार का इलाज करना भर नहीं है. आपका काम है कि आप ऐसा इलाज करें कि मरीज को दोबारा आपके पास आने की सामान्यत: ज़रूरत ही न पड़े. आप मरीज को एटीएम मशीन न समझें; मरीज आपको नया ‘शाइलॉक’ न समझे, ऐसा कैसे हो? बीमार का स्वास्थ्य उसकी मुट्ठी में ला देना, यही डॉक्टर की सही भूमिका है. लेकिन डॉक्टर करते क्या हैं? वे मरीज को सदा-सर्वदा के लिए अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं. यह चिकित्सा के धंधे का ‘वोटबैंक’ है. वोटबैंक की राजनीति की तरह यह भी अनैतिक है. जब तक यह चलेगा, डॉक्टरों को कोई भी संरक्षण नहीं दे सकेगा और न सामान्य जन का कभी इलाज ही हो सकेगा. स्वास्थ्य का स्वावलंबन और स्वावलंबन के लिए चिकित्सा ही इसका सही इलाज है.
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