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असम: मियां कविता सिर्फ़ बहाना, एनआरसी में गरीबों की मदद करने की मिली है सज़ा

स्वतंत्र पत्रकार प्रणबजीत दोलोई ने 10 जुलाई को कामरूप के पानबाज़ार थाने में दस मियां कवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज़ करवाया. कवियों पर भारतीय दंड सहिता की धारा 120 बी, 153 ए, 295 ए, 188 और आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत मुकदमा दर्ज़ किया गया. प्रणबजीत दोलोई के अनुसार मियां कवि अपनी कविताओं से नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) की प्रक्रिया को प्रभावित करना चाहते हैं. वे असम में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. प्रणबजीत का तीसरा आरोप है कि मियां कवियों ने असम के नागरिकों को नफ़रती और कट्टर (ज़ेनोफोबिक) बताकर अपमानित किया है. ये आरोप असम के सांस्कृतिक संदर्भ में काफी गंभीर हैं.

मियां कविता (मियां पोएट्री) दरअसल कविता की एक विधा है. असम में मियां शब्द का प्रयोग बंगाली मुसलमानों (जिन मुसलमानों का आधार बंगाल रहा है) के लिए किया जाता रहा है. हालांकि, यह कोई सम्मानजनक शब्द नहीं रहा है. बंगाली मुसलमानों को अवैध बांग्लादेशी नागरिक बताया जाता रहा है और इसी संदर्भ में ‘मियां’ शब्दावली बंगाली मुसलमानों को अपमानित करने अथवा गाली की तरह प्रयोग किया जाता है. चूंकि बंगाली मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं रही, वे हमेशा शोषण, भेदभाव और दोहरे रवैये का शिकार रहे हैं. मियां कवियों के अनुसार मियां कविता का उद्देश्य उसी भेदभाव को उजागर करना और अपनी पहचान को रीक्लेम करने की कोशिश करना है. मियां कविता उनके लिए सशक्तिकरण का एक माध्यम है.

शिकायतकर्ता प्रणबजीत दोलोई के मुताबिक “लिखो, लिखो कि मैं एक मियां हूं, मेरा एनआरसी नंबर है 20543, मेरे दो बच्चे हैं, तीसरा अगले साल की गर्मियों तक इस दुनिया में आयेगा, क्या तुम उससे भी उतनी ही नफ़रत करोगे, जितनी मुझसे करते हो…” कविता काज़ी शरोवर हुसैन ने लिखी है. जबकि हकीकत में यह कविता हाफिज़ अहमद ने वर्ष 2016 में लिखी थी. हाफिज़ का भी नाम एफआईआर में दर्ज है. मियां कविता के संबंध में ताज़ा विवाद गहराया, जब अल-ज़जीरा, द वायर, नॉर्थ इस्ट थिंग जैसी प्रमुख वेबसाइटों ने हाफिज़ की कविता प्रकाशित की. उसके बाद ये कविताएं सोशल मीडिया पर वायरल भी हुईं.

एफआईआर में कवि के नाम में हुई तथ्यात्मक गलती पर प्रणबजीत का कहना है कि काज़ी नील ने हाफिज़ अहमद की कविता को अंग्रेज़ी में अनुदित किया था, जिसे अल-ज़जीरा ने छापा था. इसीलिए वह कविता काज़ी के नाम में दर्ज़ करवायी गयी. प्रणबजीत के एफआईआर के बाद मियां कवियों पर असम के अन्य हिस्सों में तीन और मुकदमे दर्ज़ किये गये.

एक नहीं, चार केस  

10 जुलाई को पहला केस कामरूप (मेट्रो) के पान बाज़ार थाने में दस मियां कवियों (हाफिज़ अहमद, रेहाना सुल्ताना, अब्दुर रहमान, अशरफुल हुसैन, अब्दुल कलाम आज़ाद, काज़ी नील, सलीम हुसैन, करिश्मा हज़ारिका, बनामल्लिका चौधरी और फरहद भूयान) के ख़िलाफ़ दर्ज़ करवाया गया. शिकायतकर्ता थे वरिष्ठ पत्रकार प्रणबजीत दोलोई.

दूसरा केस अगले ही दिन 11 जुलाई को चेंगेसरी, कामरूप (ग्रामीण) में माइनॉरिटी मोर्चा भाजपा असम प्रदेश के जनरल सेक्रेटरी तबीबुर रहमान ने दर्ज़ करवाया. इस शिकायत में मियां कविताओं का ज़िक्र किया गया है, लेकिन किसी का नाम नहीं दर्ज़ है. मुकदमा अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज़ करवाया गया.

तीसरा मुकदमा 13 जुलाई को बोंगगाइगांव सदर पुलिस स्टेशन में गरिया मोरिया देशी जातीय परिषद के सचिव अजिज़ुल रहमान ने अशरफुल हुसैन, हाफिज़ अहमद और रेहना सुल्ताना के ख़िलाफ़ दर्ज़ करवाया. गरिया, मोरिया और देशी असमिया मुसलमानों के तीन समुदाय हैं. ये समुदाय खुद को असमिया बताते हैं और बंगाली मुसलमानों (मियां) को अलग मानते हैं. बंगाली मुसलमानों को वे अपने समुदाय का हिस्सा नहीं मानते.

चौथा मुकदमा 14 जुलाई को शिवसागर सदर थाने में हाफिज़ अहमद, अब्दुर रहीम, अशरफुल हुसैन और रेहाना सुल्ताना के ख़िलाफ़ दर्ज़ करवाया गया. इसमें शिकायतकर्ता थे चार मुस्लिम संगठन- उज़ानी असम मुस्लिम कल्याण परिषद, सदर असम गरिया मोरिया देशी जातीय परिषद, मोरिया युवा परिषद और जुलाह युवा छात्र परिषद.

तीन मुकदमे झेल रहीं रेहाना सुल्ताना और अशरफुल को मियां कविताओं के संबंध में एफआईआर एक बड़ी साजिश का हिस्सा लगती है. सुल्ताना कहती हैं, “मियां कविता एक बहाना है.  चूंकि हमलोग गरीब लोगों को एनआरसी करवाने में मदद कर रहे हैं, यह अहम कारण है कि हमें टारगेट किया जा रहा है.”

लगभग एक दशक तक पत्रकारिता का अनुभव रखने वाले अशरफुल को कविता लिखने के लिए मुकदमा होने पर हंसी आती है. “मियां कविता सिर्फ़ मियां समुदाय के बारे में नहीं होती. इसमें गरीब-गुरबों, महिलाओं की दयनीय स्थिति, विस्थापन की व्यथा, नागरिकता के संकट आदि को रेखांकित किया जाता है. पता नहीं मियां कविता को सिर्फ़ एनआरसी के परिप्रेक्ष्य में क्यों देखा जा रहा है?”, अशरफुल कहते हैं.

करिश्मा हज़ारिका की कविताओं में कभी भी एनआरसी का ज़िक्र नहीं रहा. वे काज़ी नील, हाफिज़, रेहाना और अशरफुल की तरह मियां-दुआ भाषा में कविताएं भी नहीं लिखतीं. उन्होंने बमुश्किल तीन से चार कविताएं लिखी हैं. करिश्मा कहती हैं, “मुझे काज़ी नील और रेहाना के करीबी होने के कारण एफआईआर में शामिल कर लिया गया मालूम पड़ता है.”

शिकायतकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार प्रणबजीत कवियों की इन बातों से कतई ताल्लुक नहीं रखते. वे मानते हैं कि इन कवियों को असम को बदनाम करने के लिए विदेशी मदद पहुंचाई जा रही है. एक पत्रकार होते हुए प्रणबजीत के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के क्या मायने हैं? इस सवाल के जवाब में प्रणबजीत कहते हैं, “मैं पहले असमिया हूं, बाद में पत्रकार हूं. ये तथाकथित कवि असमिया लोगों को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.” वे आगे पूछते हैं, अगर इन कवियों का उद्देश्य एनआरसी प्रक्रिया की खामियों को उजागर करना है तो वे कानूनी तरीके क्यों नहीं अपनाते? वे क्यों अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस तरह की भ्रामक बातें कर रहे हैं?”

कवियों को फिलहाल चारों केसों में अग्रिम जमानत मिल गयी है.

“हां, मैं मियां हूं”

तेजपुर यूनिवर्सिटी से कल्चरल स्टडी में एमए कर रहे काज़ी नील एफआईआर पर अफसोस जताते हैं. वो बताते हैं, “मियां कविता का एनआरसी से बहुत लेना-देना नहीं है. मियां कविता बंगाली मुसलमानों के दर्द, भेदभाव और उनकी मुफ़लिसी को दुनिया के सामने लाने का एक रचनात्मक प्रयास है. यह किसी भी समुदाय विशेष का विरोध नहीं करती.”

असम के संस्कृतिकर्मियों के मुताबिक मियां कविता की शुरुआत महमूद दरवेश ने की थी. बताते हैं कि इसका समयखंड 19वीं शताब्दी की शुरुआत रही थी. 2016 में आधुनिक मियां कविताओं के नये दौर की शुरुआत हुई है. एनआरसी आधुनिक मियां कविताओं की शुरूआत का ‘ट्रिगर प्वाइंट’ रहा है. काज़ी भी मानते हैं कि अभी जो मियां कविताएं लिखी जा रही हैं, उसमें एनआरसी की प्रक्रिया में हो रहे पक्षपात और मुसलमानों को चिह्नित करने को लेकर रोष ज़ाहिर किया जा रहा है. हालांकि काज़ी तुरंत सफाई भी देना ज़रूरी समझते हैं, “जब मैं कहता हूं कि आधुनिक मियां कविताएं एनआरसी की प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाते हैं, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं एनआरसी का विरोध करता हूं. हम  एनआरसी के विरोध में नहीं हैं.”

“एनआरसी से तो हम बंगाली मुसलमानों का ही फायदा है. अपनी नागरिकता पर दशकों से सवाल झेलते हुए आये लोगों के लिए तो यह मौका है कि हमारी नागरिकता स्थापित हो और हमें बाहरी, घुसपैठिये और तमाम जलालतों से मुक्ति मिले,” काज़ी नील ने जोड़ा.

असम की राजनीति में कौन असम का मूलनिवासी है और कौन बाहरी- यह विवाद वर्षों से रहा है. यह चुनावों का प्रमुख मुद्दा भी रहा और नागरिक समाज भी इन सवालों पर बंटा रहा है. काज़ी बताते हैं कि उन्हें मियां कविता की प्रेरणा अपनी परवरिश और असम समाज में ‘असमिया’ और ‘बाहरी’ के ध्रुवीकरण की राजनीति रही है.

“मेरे पिता सरकारी स्कूल के टीचर हैं. वे और मेरी मां वर्ष 1997 से वर्ष 2017 तक ‘डाउटफुल-वोटर’ (डी-वोटर) रहे. उन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया गया. जब यह एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हुई, तब उन्हें भारत का नागरिक माना गया, लेकिन अबतक उनके पास वोटर कार्ड नहीं है. मेरी कविताओं की प्रेरणा इस बेचैनी से भी उपजती है,” काज़ी नील ने कहा. काज़ी राज्य की प्रकृति पर सवाल करते हैं. पूछते हैं, “मेरे पिता लगभग बीस साल डी-वोटर रहे. खुद वोट देने का अधिकार नहीं था, लेकिन सरकारी स्कूल टीचर होने की हैसियत से चुनावों में प्रिसाइडिंग अफसर की ड्यूटी निभाते रहे. यह कैसी व्यवस्था है?”

रेहाना बताती हैं कि वे एक रूढ़िवादी समाज से आती हैं. उनके समाज में महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई आज भी बहुत बड़ी बात है. अगर उनके घर में यह पता चल गया कि उनके ऊपर मुकदमा दर्ज़ हो गया है, शायद उनके परिवार के लिए सदमे से कम नहीं होगा. “मैंने आजतक एक भी कविता एनआरसी को मध्य में रखकर नहीं लिखी. मैंने ज़्यादातर लिखा है असम की महिलाओं के बारे में. उनके घर के भीतर और बाहर होने वाले शोषण के बारे में.”  रेहाना के मुताबिक, सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर की संस्था कारवां-ए-मोहब्बत के एक वीडियो में कविता पाठ करने की वजह से वे चर्चा में आयीं. रेहाना कारवां-ए-मोहब्बत के वीडियो को ही तीन अन्य एफआईआर की वजह बताती हैं.

अशरफुल पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वे अनपढ़ और गरीब लोगों एनआरसी के ज़रूरी दस्तावेज़ और सरकारी प्रक्रियाओं में मदद मुहैया करवा रहे हैं. उनके अनुसार कविताएं, लेख या किसी भी तरह के रचनात्मक लेखन को पढ़ने वाले अलग-अलग तरीके से समझने को स्वतंत्र हैं. “अभी जो एफआईआर हुए हैं, उसमें कहीं से भी लगता ही नहीं कि एफआईआर करवाने वाले ने कविता को समझने की कोशिश की है. लगता है जैसे किसी ने गुस्से में कविता की पंक्तियों को सिर्फ़ शाब्दिक अर्थों में पढ़ा है.”

हीरेन गोहेन के बयान से हैरानी 

साहित्यकार हीरेन गोहेन का असम साहित्य में बहुत बड़ा नाम है. मियां कवियों पर एफआईआर होने के बाद हीरेन गोहेन ने मियां कवियों की भाषा पर सवाल उठाया. उन्होंने पूछा, “ये मियां कवि असमिया भाषा कि जगह मियां-दुआ बोली में अपनी रचना क्यों कर रहे हैं?” गोहेने ने यहां तक कहा कि मियां कवि अप्रवासी मुसलमानों की बोली का इस्तेमाल कर रहे हैं. गोहेन की बयानबाजी ने मियां कवियों को आहत किया है.

करिश्मा हज़ारिका कहती हैं, “हम लोग गोहेन सर का बहुत सम्मान करते हैं. भले ही उन्होंने हमारी भाषा को लेकर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया है, लेकिन हम आज भी उनका सम्मान करते हैं. उनके बयान से हमें दुख ज़रूर पहुंचा है. मुझे शक है कि यह बयान गोहेन सर ने किसी दवाब में दिया होगा.”

काज़ी नील को भी गोहेन के बयान पर हैरत होती है. “गोहेन सर हमें कैसे बता सकते हैं कि हम किस भाषा में कविता लिखेंगे और किस भाषा में नहीं लिखेंगे? एक सेकुलर देश में क्या हमें अपनी भाषा और बोली को सहेजने की स्वतंत्रता नहीं दी जायेगी?”

“गोहेन सर सांस्कृतिक सम-भाव की बात करते रहे हैं. अगर वे मियां-दुआ बोली पर आपत्ति जता रहे हैं, फिर वे विभिन्न समुदायों का सांस्कृतिक संगम कैसे बनायेंगे. भारत और असम में क्या आप विविधताओं का सम्मान करने को तैयार नहीं हैं?,” रेहाना सुल्ताना पूछती हैं.

मियां कविता के संबंध में जब मुकदमा दर्ज़ किया गया, तो एक खबर यह भी उड़ी कि हाफिज़ अहमद ने कविताओं के लिए माफ़ी मांग ली है. हालांकि, जिस टीवी शो के बाद हाफिज़ के माफी मांगने की बात चर्चा में आयी है, उसे देखकर मालूम पड़ता है कि टीवी एंकर ने उन पर माफ़ी के लिए दवाब बनाया था.

मियां कवियों को मियां कविता लिखने का कोई अफसोस नहीं है. वे कविता के लिए माफ़ी मांगने का दवाब महसूस कर रहे हैं. काज़ी कहते हैं, “हमलोग कविता के लिए क्यों माफी मांगें? हमने कोई अपराध किया है? फिर भी हम कहते हैं कि अगर किसी को व्यक्तिगत रूप से कविताओं से ठेस पहुंची है, तो हमें उसका अफसोस है.” उन्होंने यह भी कहा कि वे आगे भी मियां कविताएं करते रहेंगे.

“असम और कथित मेनस्ट्रीम मीडिया में एफआईआर के बाद से हमारे ख़िलाफ़ नकारात्मक नैरेटिव बनाने की कोशिश जारी है. जिस अखबार ने हीरेन गोहेन सर का बयान छापा, वह हमारा पक्ष छापने को तैयार नहीं है. आखिर हम अपनी बात लोगों के बीच कैसे पहुंचायेंगे?”, अशरफुल ने कहा.

इसी वर्ष जनवरी में हीरेन गोहेन पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज़ हुआ था. यह मुकदमा गुवाहाटी में एक भाषण के लिए दर्ज़ हुआ था, जिसमें गोहेन ने सिटिजनशिप (संसोधन) बिल, 2016 का विरोध किया था. हालांकि, गोहेन एनआरसी का समर्थन करते हैं. मियां कवियों के संदर्भ में उन्होंने कहा, “क्या मियां कवियों को असमिया भाषा नहीं आती, उन्हें अच्छी तरह से असमिया आती है. जो भी अप्रवासी मुसलमान असम में रहते हैं, उन्होंने 1991 से असमिया को अपनी औपचारिक भाषा मानी है.”

एनआरसी और सिटिजनशिप बिल के संबंध में गोहेन का मानना है कि एनआरसी से असम में शांति बहाल होगी. एनआरसी सूची में जिनके नाम न आ सके, उनके संबंध में कहते हैं कि दूसरे देशों की तरह उन्हें वर्क-परमिट दिया जा सकता है.

डर के साये में रहने को मजबूर

कवियों को अग्रिम जमानत मिल जाने के बावजूद डर के साये में रहना पड़ रहा है. एफआईआर के बाद से मियां कवियों को लगातार धमकियां मिल रही हैं. काज़ी और अशरफुल को जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. रेहाना और करिश्मा को रेप की धमकियां मिल रही हैं. रेहाना ने बताया, “मैंने अपना फेसबुक देखना बंद कर दिया है. ऐसा लगता है जैसे सिर्फ़ और सिर्फ़ हेट मैसेज आ रहे हैं.” हाफिज़ अहमद ने अपना फोन बंद कर दिया है. कवियों को यह भी संदेह है कि कहीं उनके फोन को टैप न किया जा रहा हो. मसलन, वे अपने सिरे से सुरक्षित रहने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं.

काज़ी नील और करिश्मा के रिश्ते को लेकर आपत्तिजनक मीम शेयर किये जा रहे हैं. काज़ी नील के फेसबुक पोस्ट पर किसी ने कमेंट किया कि सारे मियां लोगों को काट दिया जाना चाहिए.

करिश्मा कहती हैं, “असम का साहित्यिक संस्कार कभी ऐसा नहीं रहा है. रचना की आलोचनाएं होती हैं, तीखी बहसें होती हैं लेकिन कवि या लेखक को जान से मार देने या रेप जैसी बर्बर धमकियां, ये नया और डरावना है.”

चूंकि ये सारे कवि अल्पसंख्यक समाज से ताल्लुक रखते हैं, वे इस खौफ़ में भी जीने को मजबूर हैं कि कहीं उनकी मॉब लिंचिंग न हो जाये. काज़ी ने कहा, “आप देश का माहौल देख रहे हैं. ऐसे में अगर हमारे साथ मॉब लिंचिंग जैसी वारदात हो जाये तो क्या प्रशासन उसकी जिम्मेदारी लेगा?” अब सभी कवियों की संयुक्त तैयारी है कि कोर्ट और पुलिस को धमकियों के बारे में इत्तेल्ला की जाये.

18 जुलाई को हर्ष मंदर, अपूर्वानंद, गीता हरिहरन और अशोक वाजपेयी ने दिल्ली के प्रेस क्लब में कवियों की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था. वहां हर्ष मंदर ने कहा, “सूफी काव्य और भक्तिकाल की रचनाओं की भी प्रकृति विद्रोही थी. यह भारत का अंधकार काल ही कहा जायेगा, जब कवियों और पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज़ किये जायेंगे. अगर कविताएं लिखनी बंद हो गयीं, तो यह समाज दरिद्र हो जायेगा.”