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एफडीआई: मीडिया घराने किस तरह से डिजिटल मीडिया स्पेस को खत्म कर रहे हैं
कुछ दिनों पहले ही केंद्र सरकार ने डिजिटल मीडिया में 26 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी दी है. इस घोषणा ने मीडिया के एक हिस्से में एक किस्म की उलझन और नाराजगी पैदा की है तो दूसरी तरफ एक हिस्सा इसे बेहद जरूरी कदम बता कर सरकार के फैसले पर खुशी दर्ज करवा रहा है. खुशी दर्ज करवाने वालों की एक संस्था है डिजिटल न्यूज़ पब्लिशर्स एसोसिएशन (डीएनपीए).
5 अगस्त को टाइम्स ऑफ़ इंडिया की वेबसाइट पर एक ख़बर प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था ‘डिजिटल मीडिया बॉडीज़ वेलकम 26% एफडीआई कैप’ . इस रिपोर्ट में डीएनपीए के हवाले से सरकार के ताजा फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे देश में चल रहे तमाम डिजिटल मीडिया संस्थानों को फायदा होगा और सबको बराबरी के अवसर मिलेंगे.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में बिना किसी बाइलाइन के छपी इस रिपोर्ट में एसोसिएशन ने यह कहते हुए सरकार के फैसले का स्वागत किया है कि भारत में डेली हंट, इनशॉर्ट्स, हेलो, यूसी न्यूज़ और न्यूज़डॉग जैसे संस्थानों की पहुंच भारतीय पब्लिशर्स से बहुत ज्यादा है क्योंकि इन संस्थानों को काफी संख्या में विदेशी फंड मिलता है, खासकर चीन से. इसकी बड़ी वजह हमारे यहां डिजिटल मीडिया में नियमों का स्पष्ट नहीं होना है. दूसरी बात इन न्यूज़ एग्रीगेटर की वजह से कई बार गलत सूचनाएं और असत्यापित ख़बरें फैलने की आशंका होती है.
खबर में डीएनपीए के चेयरमैन पवन अग्रवाल को प्रमुखता से कोट किया गया है जो कि दैनिक भास्कर समूह के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट में सरकार के इस फैसले का स्वागत करते हुए वे कहते हैं, ‘‘भारत सरकार द्वारा डिजिटल मीडिया में 26 प्रतिशत एफडीआई की सीमा तय करने से इन न्यूज़ एग्रीगेटर और भारतीय पब्लिशर्स को बराबरी का मौका मिलेगा.’’
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुई ख़बर में प्रथम दृष्टया कई खामियां सामने आईं मसलन यह स्टोरी बिना बाइलाइन के क्यों है? इसमें दूसरा पक्ष नदारद क्यों है? क्या डीएनपीए में डिजिटल मीडिया के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व है? क्या इसमें वो मीडिया संस्थाएं भी जुड़ी हैं जो सिर्फ और सिर्फ डिजिटल न्यूज़ के प्रकाशन से जुड़ी हैं? कौन लोग डीएनपीए के सदस्य हैं?
डीएनपीए है क्या
भारत में डिजिटल मीडिया के बेहतर भविष्य की पैरोकारी करते हुए डीएनपीए ने सरकार के फैसले को समर्थन दिया है. डीएनपीए महज एक साल पहले गठित हुई संस्था है. अभी इसे ठीक से एक साल भी पूरे नहीं हुए है. इस एसोसिएशन के कुल 10 सदस्य हैं जिनमें अमर उजाला, इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी, दैनिक जागरण, इंडिया टुडे, हिंदुस्तान टाइम्स, मलयालम मनोरमा, दैनिक भास्कर, ईनाडु और टाइम्स ऑफ़ इंडिया शामिल हैं.
नामों की इस सूची से एक बात तो साफ हो जाती है कि इसके सभी सदस्य वो पारंपरिक मीडिया घराने हैं जिनकी मीडिया में मुख्य हिस्सेदारी या तो प्रिंट के क्षेत्र में है या फिर ब्रॉडकास्ट के क्षेत्र में. इन 10 मीडिया संस्थानों में से एक भी संस्थान का मुख्य कार्यक्षेत्र डिजिटल मीडिया नहीं है. जबकि हम मौजूदा डिजिटल मीडिया स्पेस को देखें तो पाते हैं कि यहां पर ऐसे तमाम नए डिजिटल न्यूज़ प्लेटफॉर्म मौजूद हैं जो सिर्फ डिजिटल न्यूज़ के क्षेत्र में ही काम करते हैं. लेकिन उनका प्रतिनिधित्व डीएनपीए से नदारद है. इस सवाल पर डीएनपीए के चेयरमैन पवन अग्रवाल कहते हैं, “एसोसिएशन के मेंबरशिप चार्टर में सिर्फ डिजिटल प्लेटफॉर्म को सदस्य बनाने का प्रावधान भी है.”
न्यूज़लॉन्ड्री ने उनसे पूछा कि प्रावधान होना एक बात है, लेकिन क्या इस समय एसोसिएशन में एक भी सदस्य ऐसा है जो सिर्फ डिजिटल मीडिया से संबद्ध हो? इसके जवाब में अग्रवाल कहते हैं, “सदस्यों का विस्तार अभी जारी है.” जाहिर है अपने मौजूदा स्वरूप में यह सिर्फ और सिर्फ उन मीडिया संस्थानों की संस्था नज़र आती है जिनका मुख्य कार्यक्षेत्र डिजिटल न होकर टीवी या प्रिंट मीडिया है, डिजिटल मीडिया इन संस्थानों का एक हिस्सा भर हैं.
डिजिटल प्लेयर क्यों है नाराज?
एक तरफ पारंपरिक मीडिया घराने हैं और उनकी संस्था डीएनपीए है जो सरकार के इस फैसले का स्वागत कर रही है, दूसरी तरफ कई डिजिटल मीडिया संस्थान सरकार के इस फैसले को ‘स्वतंत्र डिजिटल मीडिया’ संस्थानों पर अंकुश लगाने और खत्म करने की साजिश बता रहे हैं. इनका मानना है कि सरकार के इस फैसले के बाद स्वतंत्र डिजिटल मीडिया भारत में खुद को नहीं बचा पाएगा. क्योंकि पारम्परिक मीडिया संस्थान तो सरकार से विज्ञापन लेते हैं. इसके अलावा उनके पास और भी कई व्यवसाय है, लेकिन सिर्फ डिजिटल मीडिया चलाने वाले जो सरकार से विज्ञापन नहीं लेते, सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लगातार लिखते रहे हैं, उनके साथ परेशानी आएगी.
मीडियानामा वेबसाइट के प्रमुख निखिल पहवा इस पूरे घटनाक्रम के एक और पहलू की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं, ‘‘जिन मीडिया संस्थानों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया वो नाममात्र के डिजिटल है. वे परम्परिक मीडिया घराने हैं जिनमें से कोई टेलीविजन वाला है तो कोई अख़बार वाला. उन्होंने अपना डिजिटल विंग बनाकर उसका एक एसोसिएशन बना लिया है. मैं जानना चाहता हूं कि जब केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने डिजिटल मीडिया में एफडीआई की घोषणा की तो उन्होंने कहा कि मीडिया ने इसकी मांग की थी. वो कौन लोग थे मीडिया के जिन्होंने सरकार से मांग की थी? मीडिया में किन लोगों से संपर्क और राय मशविरा करके सरकार ने यह नीति बनाई है? इस फैसले के लिए आम सहमति ली गई थी क्या? जब 2014 में ई-कॉमर्स में एफडीआई की बात चल रही थी तब डीआईपीपी ने सलाह-मशविरा लिया था. अब जब ऑनलाइन मीडिया में ये कैप लगाने की बात की जा रही है तो इसमें उन्होंने किसी से राय तक नहीं ली. ये किससे पूछ कर और किसकी राय पर चोरी-छुपे किया गया है.’’
सिर्फ डिजिटल मीडिया संस्थान चला रहे लोगों को चिंता है कि सरकार के इस फैसले से भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता करना मुश्किल हो जाएगा. एक छोटा संस्थान अगर बाहर से 26 प्रतिशत एफडीआई ला रहा है तो बाकी 74 प्रतिशत हिस्सा उसे भारत के भीतर से जुटाना होगा. भारत में कौन है ऐसा? अगर बड़े इन्वेस्टर यहां पर नहीं मिले तो हमें 26 फीसदी एफडीआई का क्या फायदा. सरकार इस फैसले के जरिए चाहती है कि डिजिटल मीडिया का मालिकाना भारत में ही रहे ताकि उस पर कंट्रोल किया जा सके.
दिल्ली स्थित डिजिटल मीडिया संस्थान न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘सरकार 26 प्रतिशत एफडीआई के जरिए डिजिटल न्यूज़ प्लेटफॉर्म को रोकना चाहती है ना कि डिजिटल मीडिया को.’’
प्रबीर आगे जोड़ते हैं, ‘‘किसी भी सरकार को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती, लेकिन पत्रकारों को अपना काम करते रहना चाहिए. वर्तमान स्थिति में कई मीडिया संस्थान सत्ता से सच बोलने से कतरा रहे हैं और विपक्ष से ही मजबूती से सवाल पूछ रहे हैं.’’
निखिल पहवा बताते हैं, ‘‘इससे पहले डिजिटल मीडिया में हुई फंडिग को देखें तो उसमें कोई ग्रे एरिया नहीं था. 2017 तक यह ऑटोमेटिक रूप में था, लेकिन अब उन्होंने सौ प्रतिशत से 26 प्रतिशत पर सीमित कर दिया है तो इससे किसे फायदा हो रहा है, डिजिटल मीडिया का तो नहीं हो रहा है.”
पाहवा आगे कहते हैं, “किसी डिजिटल मीडिया कंपनी के लिए लाभ कमाना बहुत मुश्किल होता है. इसमें काफी वक़्त लगता है. उसके लिए फंडिंग की ज़रूरत होती है. मीडिया पर इस तरह की पाबंदी का एक नुकसान फ्री-स्पीच को भी होता है. पैसों की पाबंदी का मतलब अपके बिजनेस के रास्तों को बंद कर देना. ये मुश्किल डाली गई है हमारे ऊपर.”
तो फिर पारंपरिक मीडिया घराने इसे लेकर खुश क्यों हैं, इस सवाल के जवाब में पाहवा कहते हैं, “पुराने मीडिया संस्थान खुश हैं, क्योंकि उनका फायदा हो रहा है. उनकी चाहत है कि डिजिटल मीडिया आगे नहीं बढ़े. डीएनपीए न्यूज़ एग्रीगेटर की तो बात कर रहा है लेकिन भारत में चल रहे स्वतंत्र डिजिटल मीडिया संस्थानों का नाम तक नहीं ले रहा है. इस पाबंदी से न्यूज़ एग्रीगेटर पर कोई असर होगा या नहीं इसकी जानकारी अभी मुझे नहीं है. सरकार ने जो तय किया है उसमें स्पष्ट नहीं है कि यह किस-किस पर लागू होगा मसलन क्या जो लोग ऑनलाइन स्ट्रीमिंग सर्विसेज देते हैं उनपर है, या जो लोग न्यूज़ एग्रीगेट करते हैं, या जो न्यूज़ कवर करते हैं. यह गलत है. सरकार को इस फैसले को रद्द कर देना चाहिए.’’
पारंपरिक मीडिया घरानों की खुशी के मसले पर पवन अग्रवाल कहते हैं, ‘‘अभी तक डिजिटल मीडिया में एफडीआई पर कोई नीति नहीं थी. यह अनियमित था. मुझे लगता है कि सरकार की इस नीति से भारत के अपने डिजिटल ब्रांड्स मजबूत होंगे. लेकिन हम अभी सरकार द्वारा किए गए इस फैसले की डिटेल का इंतजार कर रहे हैं.”
निखिल पाहवा उनकी बात से नाइत्तेफाकी जताते हुए कहते हैं, ‘‘इस फैसले के बाद हमें फंड रेजिंग के लिए भारत से बाहर जाना पड़ेगा. भारत में फंड तो मिल नहीं पाएगा. दरअसल सरकार का यह इशारा है कि भारत की डिजिटल मीडिया कंपनियां विदेशों में जाकर अपनी कंपनी बनाएं क्योंकि इंडिया में तो उनके ऊपर पाबंदियां आयद की चुकी हैं. इस फैसले से डिजिटल मीडिया का भविष्य सरकार ने खत्म कर दिया है.’’
कहा जा रहा है कि इस नीति के प्रभाव में आने से पहले डीएनपीए के सदस्यों ने सूचना और प्रसारण मंत्री से भी मुलाकात की हालांकि पवन अग्रवाल इस तरह की किसी मुलाकात को सीधे नकारते हैं. वो कहते हैं, “अभी तक डीएनएपी का कोई भी सदस्य सूचना एवं प्रसारण मंत्री से नहीं मिला है. हम उम्मीद करते हैं कि मंत्रालय इस संबंध में हमसे और अन्य स्टेकहोल्डर्स से संपर्क करेगा.”
सवाल उठता है कि वो कौन लोग हैं जिनसे सरकार ने संपर्क करने का दावा किया और इस नई एफडीआई नीति की घोषणा की.
एक प्रश्नचिन्ह इस पूरे घटनाक्रम में उन 10 पारंपरिक मीडिया संस्थानों पर भी लग गया है जिन्होंने एकतरफा डीएनपीए जैसी संस्था का गठन कर सरकार के फैसले की तारीफ में कशीदे काढ़े हैं. निश्चित रूप से पारंपरिक मीडिया घरानों के इस क़दम पर यह सवाल खड़ा हो गया है कि वो किसके हितों का समर्थन कर रहे हैं, यह डिजिटल मीडिया के हित में तो नहीं है.
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