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मानेसर के चप्पे-चप्पे पर मंदी की मनहूस छाया फैल गई है

राजस्थान के भरतपुर से आए ताराचंद्र हमारी खोजती नजरों को ताड़कर पास आते हैं और कहते हैं, “साहब कुछ काम हो तो आप ही ले चलो, शाम के खाने का जुगाड़ हो जाएगा.” ताराचंद्र बताते हैं कि वे पिछले 3 साल से कपड़े की फैक्ट्री में काम कर रहे थे लेकिन इस बार जब घर से वापस लौटकर आए तो पता चला कि फैक्ट्री ने कई मजदूरों को बाहर कर दिया है. बाहर होने वालों में ताराचंद्र भी हैं.

आइएमटी मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेश करते ही जगह-जगह कुछ पोस्टर चिपके दिखाई देते हैं, जिनका मजमून है नौकरियां ही नौकरियां! किसी पोस्टर में मारुति नौकरी दे रही है तो किसी में होंडा. हरियाणा के गुड़गांव जिले का मानेसर ऐसा ही इलाका है. यहां एकमुश्त नौकरियां मिलती हैं, पहले आओ पहले पाओ की तर्ज पर. इन पोस्टरों की माने तो यहां 5वीं पास से लेकर बीटेक डिग्रीधारी तक के लिये नौकरी है. इसी पोस्टर में उनको दी जाने वाली सैलरी का भी खुलासा किया गया है, लेकिन इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि कितने लोगों को नौकरी दी जाएगी.

मानेसर औद्योगिक क्षेत्र और उसके आसपास पूरे इलाके में लगे इन पोस्टरों की असलियत समझना जरूरी था लिहाजा हम करीब एक किलोमीटर आगे एक गोल चक्कर चौराहा पर जा पहुंचे. इसे वहां का लेबर चौराहा भी कहा जाता है. दोपहर के 12 बजे के आसपास गोल चक्कर के चारों तरफ करीब ढाई सौ लोग एक जगह पर जमा थे. ये सभी वहां दिहाड़ी की खोज में सुबह से बैठे थे. जबकि कुछ लोग अपने कमरों में वापस जा चुके थे, क्योंकि उन्हें अब काम मिलने की उम्मीद नहीं थी.

मजदूरी के लिये जाते फैक्ट्री मजदूर 

मानेसर औद्योगिक क्षेत्र की मूल पहचान तो ऑटोमोबाईल सेक्टर से है, लेकिन इसके अलावा भी कई और उद्योग हैं, जिनमें भारी मात्रा में मजदूर काम करते हैं. एक स्थानीय निवासी के अनुसार यहां करीब 5 हजार फैक्ट्रियां हैं, जो ऑटोमोबाइल और कपड़ा सिलाई से जुड़ा काम करती हैं, जिनमें करीब चार लाख लोग काम करते हैं. ऑटोमोबाइल के बाद कपड़ा सिलाई यहां रोजगार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र है. लेकिन यही दोनो क्षेत्र मंदी से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं.

उत्तर प्रदेश के मथुरा से आए पचावर मारुति की वेंडर कंपनी कृष्णा में काम करते थे, जो मारुति की कारों के लिये छत बनाने का काम करती है. वे बताते हैं कि छुट्टी के बाद जब वे वापस काम पर गये तो गेट पर बैठे गार्ड ने उनको अंदर नहीं जाने दिया और कहा कि अब काम पर आने की जरुरत नहीं है. पचावर बताते हैं कि कंपनी ने करीब 50 लोगों को एक साथ बिना कारण बताये बाहर निकाल दिया. वहां मौजूद चार-पांच लोग पचावर की बात का समर्थन करते हैं.

कम्पनियों के लिये लेबर सप्लाई करने वाले ठेकेदार संदीप (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि 3 महीने पहले तक वे चार-पांच सौ के लगभग मजदूर अलग-अलग कम्पनियों को उपलब्ध कराते थे लेकिन अब इनकी संख्या सौ-डेढ़ सौ के बीच रह गई है. रोज डर लगा रहता है कि पता नहीं कब कौन कह दे कि अब लेबर नहीं चाहिए और अपने आदमियों से कह दीजिये कि वे कल से काम पर न आएं. एक और ठेकेदार किशन (बदला हुआ नाम) बताते हैं, “मन्दी का असर बहुत गहरा है. मारुति अपने निकाले हुए मजदूरों की संख्या तो बता सकती है लेकिन ठेकेदारों द्वारा उपलब्ध कराई गई लेबर की संख्या नहीं बता सकती और न ही उस लेबर की जो उसके लिये पार्ट बनाने वाली वेंडर कम्पनियों से निकाले गये हैं. अगर ये सब मिला लिया जाए तो इनकी संख्या बहुत ज्यादा है.”

 पिछ्ले 1 हफ्ते से नौकरी की तलाश में इलाहाबाद का दीपू 

मारुति कंपनी में काम करने वाले एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्लांट में तीन दिन से काम बंद है और साल 2006 से जबसे प्लांट लगा है ऐसा पहली बार है कि 3 दिन के लिये काम रोका गया है. उसने बताया कि कंपनी ने 3 दिन की इस बंदी के लिये शट-डाउन घोषित नहीं किया, बल्कि एक दिन प्लांट में गड़बड़ी दूसरे दिन रविवार और तीसरे दिन छुट्टी बताई है, जबकि ये पूरा शटडाऊन था. यह मंदी की वजह से हुआ है.

एक और कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि कर्मचारियों में डर है कि तीन दिन बाद जब फैक्ट्री दोबारा खुलेगी तब उनकी नौकरी रहेगी या जाएगी. मारुति की मजदूर यूनियन की स्थिति भी इस पर बहुत साफ नहीं है. कई बार अलग-अलग लोगों से संपर्क करने के बाद भी उनसे बात नहीं हो पाई.

वहां लम्बे समय से नौकरी कर रहे लोगों के अनुसार मानेसर क्षेत्र में लगभग 5000 कम्पनियां काम करती हैं. इनमें से करीब तीन हजार मारुति सुजुकी और होंडा की वेंडर कंपनिया हैं. इनमें से अधिकांश ठेकेदार के जरिये लेबर आउटसोर्स करती हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक ठेकदार ने बताया कि यहां काम करने वाली हर फैक्ट्री में पिछ्ले तीन महीने में कम से कम 100 लोगों को बाहर निकाला गया है. उनका अनुमान है कि पिछले 4 महीनों में करीब 70 हजार लोग नौकरी से हाथ धो बैठे हैं, लेकिन इसकी कोई गिनती नहीं है.

बिहार के बक्सर जिले से आए दीपक कहते हैं कि पिछले 10 सालों से यहां काम कर रहे हैं. अलग-अलग फैक्ट्रियों में काम किया है, कभी किसी फैक्ट्री में एक साथ इतने मजदूरों को एक साथ नहीं निकाला गया. इस बार हालात खराब हैं, कब सही होंगे कोई नहीं जानता. मथुरा के राजेन्द्र (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि बीते जून में पापा की मौत हो गई तो घर जाना पड़ा उसके बाद लौटकर आये हुए तीन महीने हो गये, अभी तक काम नहीं मिला है. रोज यहां दिहाड़ी की तलाश में आता हूं कि खाने और कमरे का किराया तो निकल आए. पूछने पर बताते हैं कि आज आठवां दिन है जब कोई काम नहीं मिला. काम मिले न मिले, लेकिन खाने और रहने का खर्चा देना ही होता है.

घर लौट चुके मजदूरों के कमरे पर लटके ताले 

सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चर्स (एसआईएएम) के आंकड़ों के अनुसार इस साल अप्रैल से जुलाई में पिछले साल की तुलना में वाहनों के उत्पादन में 10.65 फीसदी की कमी दर्ज की गई. 2018 में जहां अप्रैल-जुलाई में 10,883,730 यूनिट वाहनों का उत्पादन हुआ, वहीं 2019 की इसी तिमाही में 9,724,373 यूनिट वाहनों का उत्पादन हुआ. सियाम के ही आंकड़े के अनुसार अप्रैल-जुलाई, 2019 तिमाही में वाहनों की बिक्री 21.56 फीसदी कम हुई है.

मारुति प्लांट के बाहर ट्रकों की एक लम्बी कतार खड़ी है, वहीं थोड़ी दूर पर एक पेड़ के नीचे ट्रकों के मालिक राजेश यादव (बदला हुआ नाम) बैठे हुए हैं. बात करते हुए राजेश यादव बताते हैं कि आज से चार महीने पहले डेढ़ सौ ट्रक चलते थे लेकिन अब बमुश्किल 70-75 ही ऑन रोड हैं बाकि सब जहां-तहां खड़े हैं. वे बताते हैं कि उनके सभी ट्रक मारुति कंपनी में ही लगे हुए हैं. जबसे मारुति प्लांट लगा है, इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक साथ धंधा चौपट हो जाए. क़िस्त तक जमा नहीं हो रही हैं.

अगले महीने से बैंक गाड़ी वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर देगा. कुछ दिन में हालात नहीं सुधरे तो हम लोग सड़क पर आ जाएंगे. हमारे पास करने को कोई और काम भी नहीं है कि जाकर दूसरा काम कर लें. राजेश बताते हैं कि उनके यहां ड्राइवर और उनके सहायक मिलाकर करीब तीन सौ लोग काम करते थे लेकिन काम न होने से अब तक वे आधे से ज्यादा लोगों को घर भेज चुके हैं.

नौकरी से निकाले गये कुछ लोग वापस अपने घरों को लौट गये हैं और जो बचे हैं वे रोज सुबह लेबर चौराहे पर आकर काम की तलाश करते हैं. इसमें से कई ऐसे हैं जो कुशल कामगार थे, कोई खास काम करते थे, वे अब किसी की गाड़ी लोड-अनलोड करने का काम खोज रहे हैं तो कई बेलदारी जैसे कामों में लग गये हैं. नौकरी न होने और रोज काम न मिलने के कारण इन मजदूरों को तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. जिसमें मकान मालिक के उत्पीड़न, ठेकेदार द्वारा पैसे न दिये जाना और भूखे रहने तक की समस्याएं हैं.

मजदूरों की भर्ती के लिये लगे पोस्टर

जालौन के पुष्पेंद्र बताते हैं कि पिछले महीने 27 तारीख को बुखार आ गया तो काम पर नहीं जा पाया. अगले दिन 28 तारीख को जब काम पर पहुंचा तो पता चला कि उसको नौकरी से निकाल दिया गया है. अभी तक मेरी तनख्वाह नहीं दी है. इस कारण मकान मालिक को किराया नहीं दे पाया तो उसने भी एक दिन घर के बाहर मुझे सड़क पर पीट दिया. बरेली के सितारगंज के सोनपाल भी बताते हैं कि उनका मकान मालिक भाड़ा एक दिन लेट होने पर रोज का सौ रुपए फाइन लगाता है और अगर पांच दिन में भाड़ा नहीं दिया तो सामान उठाकर बाहर फेंक देता है, पीटता अलग है.

हम मानेसर से जब चलने को हुए तो लाला दिमान हमारे पास आए. थके-थके कदमों से वे कुछ दूर हमारे साथ चलते रहे. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश के महोबा जिले की चरखारी तहसील से वे 15 साल पहले काम के लिए यहां आए थे. कहने लगे, “पिछ्ले 15 सालों से यहां काम कर रहा हूं. कभी ऐसा नहीं हुआ कि काम न मिला हो. लेकिन हालत खराब हैं. बीते दो महीनों से काम नहीं मिला है. बच्चों के स्कूल की फीस भरना मुश्किल हो गया है. पहले आसानी से काम मिल जाता था, इसलिये कभी पत्नी को काम पर भेजने की नौबत नहीं आई. अब वो भी काम पर जाने लगी है, मगर खर्चा फिर भी नहीं निकल पा रहा. साहब, कहीं काम दिला दीजिए, वरना आत्महत्या कर लूंगा!’

उसकी इस बात ने हमें हिला दिया. कुछ नहीं कर पाने की मजबूरी और खोखली सांत्वना के अलावा हमारे पास उसे देने कि लिए कुछ नहीं था.