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नीतीश राज में तिल-तिल कर मरती आरटीआई

आरटीआई (सूचना का अधिकार) दिवस के मौके पर गैर-सरकारी संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया ने एक अहम रिपोर्ट जारी की. 88 पन्ने की इस रिपोर्ट में बिहार से जुड़ी सूचनाओं के अधिकतर कॉलम में “उपलब्ध नहीं”  लिखा हुआ था. सूचना आयोग की वेबसाइट के संबंध में रिपोर्ट में लिखा गया- “29 वेबसाइट्स का विश्लेषण किया गया. इनमें से केवल बिहार व तमिलनाडु की वेबसाइट नहीं खुल सकी और इन वेबसाइट पर एरर मैसेज दिखे.”

संगठन ने इस बाबत बिहार के राज्य सूचना आयुक्त को दिसंबर 2017 में आवेदन भेजा और वेबसाइट के बारे में जानकारी मांगी, तो बताया गया कि उसमें तकनीकी खामियां आ गई हैं. संगठन को उम्मीद थी कि तकनीकी खामियां दूर कर ली जाएंगी लेकिन मार्च 2018 (इसी वक्त रिपोर्ट तैयार की गई) तक वेबसाइट में एरर ही आ रहा था. इसका मतलब था कि रिपोर्ट बनने तक वेबसाइट की तकनीकी खामी (अगर थी तो) दूर नहीं की जा सकी थी.

सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा में स्पष्ट तौर पर लिखा गया है कि हर पब्लिक अथॉरिटी की ये बाध्यता है कि वो कम्युनिकेशन के विभिन्न माध्यमों (इंटरनेट भी शामिल) के जरिए स्वतः ज्यादा से ज्यादा सूचना नियमित अंतराल पर आम लोगों तक पहुंचाए. यानी कि इंटरनेट (वेबसाइट) के जरिए लोगों तक सूचना पहुंचाना सूचना के अधिकार अधिनियम के बुनियादी तत्वों में शामिल है. लेकिन, बिहार में सूचना आयोग की वेबसाइट ही नहीं है.

लेकिन, आरटीआई के मामले में बिहार हमेशा से ऐसा नहीं था. अगर हम एक दशक पीछे जाएं, तो पाते हैं कि बिहार में कभी आरटीआई को मजबूत करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए गए थे और बिहार देश भर में एक मॉडल के तौर पर उभरा था.

वर्ष 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने जबरदस्त जीत दर्ज की थी और नीतीश कुमार सीएम की कुर्सी पर काबिज हुए. उसी साल सूचना का अधिकार कानून भी पास हुआ. पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार ने आरटीआई एक्ट लागू होने के तुरंत बाद बिहार राइट टू इनफॉर्मेशन रूल्स, 2006 जारी किया और इस तरह बिहार में सूचना का अधिकार एक्ट प्रभावी हो गया.

इसके साल भर बाद 29 जनवरी 2007 को बिहार सरकार ने ‘जानकारी’ कॉल सेंटर शुरू किया. इस कॉल सेंटर के जरिए बिहार के किसी भी कोने से अंगूठा छाप (अशिक्षित) व्यक्ति भी फोन के जरिए सूचना का आवेदन कर सकता था और जरूरी जानकारी हासिल कर सकता था. महज दो वर्षों में ही इस कॉल सेंटर में 22,600 कॉल आए थे. इनमें से 7,070 कॉल आरटीआई आवेदन के लिए थे जबकि करीब 3 हजार कॉल प्रथम अपील करने के लिए आए थे.

आरटीआई से जुड़े एक अधिकारी बताते हैं, “यह व्यवस्था काफी सुगम थी. कॉल करने वाले सिर्फ ये बता देते थे कि उन्हें किसी विभाग से क्या सूचना चाहिए. कॉल के आधार पर यहां के कर्मचारी आवेदन तैयार कर देते थे और उसे संबंधित विभाग को सुपुर्द कर दिया जाता था और आवेदक के पते पर सूचना भेज दी जाती थी. आवेदन की फीस फोन के बैलेंस से काट ली जाती थी.”

बिहार देश का इकलौता राज्य था, जहां कॉल सेंटर के जरिए आरटीआई आवेदन लेने की पहल की गई थी. इस अनूठी व्यवस्था ने केंद्र सरकार का भी ध्यान खींचा था. इस पहल के चलते वर्ष 2009 में केंद्रीय कार्मिक (प्रशासनिक सुधार) मंत्रालय ने बिहार को ई-गवर्नेंस गोल्ड अवार्ड दिया था.

इतना ही नहीं, कुछ समय के लिए वीडियो कॉन्फ्रेसिंग की भी व्यवस्था शुरू हुई थी, ताकि दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोग वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाइयों में शामिल हो सकें. फिर आरटीआई की वेबसाइट बनी. वेबसाइट के जरिए ऑनलाइन आवेदन करना और अपने आवेदनों को ट्रैक करना आसान हो गया. आवेदकों को आवेदन की स्थिति का पता लगाने के लिए आयोग कार्यालय की दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती थी. वे कहीं से भी वेबसाइट खोल कर देख सकते थे.

लेकिन आज लगभग दस साल बाद बिहार में आरटीआई के लिए न तो कॉल सेंटर है, न वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की व्यवस्था है और न ही वेबसाइट काम कर रही है. नए सिरे से वेबसाइट शुरू करने को लेकर 21 दिसंबर, 2017 को बिहार सूचना आयोग के सचिव अजय कुमार श्रीवास्तव ने बिहार के सामान्य प्रशासन विभाग के प्रधान सचिव को पत्र (पत्र की प्रति न्यूजलॉन्ड्री के पास है) लिख कर आवश्यक फंड निर्गत कराने को कहा था. पत्र में मुख्य सचिव से तकनीकी प्रकोष्ठ गठित करने के लिए प्रोग्रामर और डाटा इंट्री ऑपरेटर का पद सृजित करने की अपील भी की गई थी. सामान्य प्रशासन विभाग के अवर सचिव ने 6 फरवरी, 2018 को राज्य सूचना आयोग के सचिव को पत्र (पत्र की प्रति न्यूजलॉन्ड्री के पास है) लिख कर अपने स्तर पर बाहरी एजेंसी के माध्यम से नई वेबसाइट विकसित करने की अनुमति दे दी थी.

18 जुलाई 2018 को बिहार सूचना आयोग के सचिव ने सूचना प्राविधिकी विभाग को पत्र (पत्र की प्रति न्यूजलॉन्ड्री के पास है) लिख कर एक विशेषज्ञ मुहैया कराने को कहा था, जो नई वेबसाइट तैयार करने में बाहरी एजेंसी का चयन करने के लिए एक्सप्रेस ऑफ इंट्रेस्ट एप्लिकेशन तैयार कर सके. लेकिन, अब तक नई वेबसाइट तैयार नहीं हो सकी है.

रोहतास के आरटीआई कार्यकर्ता नारायण गिरि कई साल से बंद पड़ी वेबसाइट के बारे में जानकारी के लिए आरटीआई आवेदन कर रहे हैं, लेकिन संतोषजनक जवाब नहीं मिल रहा है. वह बताते हैं, “26 अप्रैल 2018 को मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत आवेदन देकर पूछा था कि वेबसाइट बनाने की दिशा में अब तक क्या कार्रवाइयां हुईं, इसका विवरण दिया जाए. उस वक्त मुझे सिर्फ इतना बताया गया कि वेबसाइट का निर्माण प्रक्रियाधीन है. लेकिन, किसी तरह का दस्तावेज नहीं मिला.”

नायारण गिरि आगे कहते हैं, “मैंने दोबारा आवेदन देकर दस्तावेज की मांग की, तो मेरे आवेदन को ये कह कर लौटा दिया गया कि इसमें गलतियां हैं, जबकि आवेदन में ऐसा कुछ था ही नहीं. फिर मैंने इसके खिलाफ आरटीआई एक्ट की धारा 18 के तहत शिकायत की, तो 10 जून 2019 को आयोग में सुनवाई की तारीख मुकर्रर हुई. इस सुनवाई के दौरान संबंधित अधिकारी को आदेश दिया गया कि वे मुझे आवश्यक दस्तावेज मुहैया कराएं. इस सुनवाई के बाद मैं उस अधिकारी से कम से कम छह बार मिल चुका हूं, लेकिन अब तक मुझे कार्रवाई से जुड़े कागजात नहीं मिले हैं.”

हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार केवल वेबसाइट के बारे में जानकारी नहीं देना चाह रही है. किसी भी विभाग से किसी योजना के बारे में या अन्य जानकारियां देने में भी अवांछित देरी की जा रही है. इस वजह से अव्वल तो सूचना ही नहीं दी जा रही है, अगर सूचना मिलती भी है तो इतनी देर से कि उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रह जाती. आरटीआई कार्यकर्ता बताते हैं कि वर्ष 2006 में जब बिहार में आरटीआई एक्ट लागू किया गया था, तब सूचनाएं तुरंत मिल जाया करती थीं. अधिकतर मामलों में पहले आवेदन पर ही 30 दिनों के भीतर सूचनाएं मुहैया हो जाती थीं.

आरटीआई को लेकर कई अवार्ड जीत चुके शिव प्रकाश राय ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया, “शुरुआती दौर में 90 प्रतिशत आवेदनों का जवाब 30 दिनों के भीतर आ जाता था. पहली अपील या दूसरी अपील में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. लेकिन, अब ऐसा नहीं है. अभी 90 प्रतिशत आवेदनों का जवाब पहले आवेदन पर नहीं मिलता है.”

आरटीआई एक्ट के अनुसार, पहले आवेदन का जवाब 30 दिन के भीतर देना होता है. अगर 30 दिन के भीतर संबंधित विभाग ने जानकारी नहीं दी, तो आवेदक प्रथम अपील करता है. प्रथम अपील का जवाब 30 से 35 दिन में मिल जाना चाहिए. अगर प्रथम अपील का भी जवाब नहीं मिलता है, तो आवेदक राज्य सूचना आयोग में शिकायत करता है. राज्य सूचना आयोग में शिकायत करने के एक हफ्ते के भीतर आयोग को सुनवाई की तारीख मुकर्रर कर देनी होती है. कुल मिला कर पहली अपील से सुनवाई की प्रक्रिया में बमुश्किल  90 से 100 दिन लगना चाहिए. लेकिन, आरटीआई कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि कई दफे आवेदनों के जवाब मिलने में तीन-तीन साल लग जाते हैं.

वर्ष 2006 से ही आरटीआई एक्ट के तहत लगातार आवेदन कर रहे भागलपुर के आरटीआई कार्यकर्ता अजीत सिंह ने भागलपुर नगर निगम को 16 मई, 2016 को आवेदन देकर जल प्रबंधन से जुड़ी सूचनाएं मांगी थीं, लेकिन इस आवेदन का जवाब उन्हें इसी महीने चार तारीख को मिला है. नौ अगस्त 2016 को उन्होंने शिक्षा विभाग से निजी स्कूलों को सरकार द्वारा दिए गए अनुदान के बारे में सूचना के लिए आवेदन किया था. लेकिन, शिक्षा विभाग टालमटोल करता रहा. लगभग तीन वर्ष बाद इस साल 29 जुलाई को राज्य सूचना आयोग ने जब सूचनाएं उपलब्ध कराने का आदेश दिया, तो उन्हें 30 अगस्त को सूचना मुहैया कराई गई.

अजीत सिंह कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि इक्का-दुक्का आरटीआई आवेदनों का ये हश्र (तीन सालों में जवाब) होता है. 90 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में ऐसा ही हो रहा है. गैरजिम्मेदाराना तरीके से आवेदनों को लटका दिया जाता है और काफी मशक्कत के बाद सूचना मिलती भी है, तो आधी-अधूरी. सूचना देने में देरी होने पर संबंधित अधिकारी पर कार्रवाई करने का प्रावधान है, लेकिन अधिकारियों पर कार्रवाई भी नहीं हो रही है.”

सवाल ये उठता है कि जिस सरकार ने आरटीआई एक्ट को आम लोगों के लिए सुगम बनाने के लिए कॉल सेंटर तक खोल दिया था, उसी सरकार ने आरटीआई को इतना कमजोर क्यों कर दिया कि एक सूचना मिलने में तीन साल से ज्यादा वक्त लग जा रहा है?

इस सवाल का जवाब शिव प्रकाश राय देते हैं, “दरअसल, जब बिहार में नीतीश कुमार की सरकार बनी थी, तो सरकार ने आरटीआई एक्ट को इसलिए मजबूत किया था कि इसके तहत जो भी सूचनाएं मांगी जाती थीं और भ्रष्टाचार उजागर होते थे, वे पूर्व की लालू सरकार से जुड़े होते थे. लेकिन, नीतीश सरकार के कुछ साल बीत जाने के बाद जो सूचनाएं मांगी जाती हैं, वो मौजूदा सरकार के कार्यकाल से जुड़ी होती हैं. नीतीश सरकार को महसूस होने लगा कि आरटीआई के जरिए अब उनकी सरकार के कामकाज को लोग उजागर करेंगे. इसी वजह से सरकार ने सुनियोजित तरीके से आरटीआई को कमजोर करना शुरू कर दिया.”

“अब तो हालत ये हो गई है कि कई आवेदनों के बावजूद जानकारी नहीं मिल रही है, दोषी अधिकारियों को सजा देने और जुर्माना वसूलने की बात तो छोड़ ही दीजिए. उल्टे आवेदकों को ही परेशान किया जा रहा है ताकि वे आवेदन करना ही छोड़ दें,” शिव प्रकाश ने कहा.

आरटीआई की वेबसाइट व अन्य सवालों को लेकर सीएम कार्यालय को एक मेल भेजा गया है. उनका जवाब अभी तक नहीं मिला है.

आरटीआई एक्ट के तहत सूचनाएं मांगने पर आरटीआई कार्यकर्ताओं को हैरान-परेशान ही नहीं किया जाता है, कई बार उनकी जान पर भी खतरा बन आता है. आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2010 से लेकर अब तक बिहार में 15 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है. इनमें से पांच हत्याएं वर्ष 2018 में हुई थीं.  कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के आंकड़े बताते हैं कि पूरे भारत में अब तक 84 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है, जबकि 169 कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले किए गए. वहीं, 183 कार्यकर्ताओं को परेशान किया गया या धमकी दी गई.

बिहार के कई आरटीआई कार्यकर्ताओं ने बताया कि सरकार व पुलिस महकमे को मुश्किल में डालने वाली सूचनाएं मांगने पर कई बार उन पर एफआईआर भी दर्ज हो जाती है. शिव प्रकाश राय ने कहा कि वर्ष 2017 तक आरटीआई कार्यकर्ताओं पर करीब 600 मामले दर्ज कराए गए थे.

बहरहाल, बिहार में नीतीश सरकार के 14 साल हो गए हैं. आरटीआई कानून के बिहार में लागू हुए भी 14 साल गुजर चुके हैं. इन 14 वर्षों का सुशासन की सरकार का सफर बिहार में आरटीआई का भी सफर है, जो उम्मीद से ज्यादा नाउम्मीदी देता है.