Newslaundry Hindi

मजबूर कथा: शिवसेना के सीनियर से जूनियर बनने की

बात साल 2006 की है, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की नेत्री सुप्रिया सुले अपना पहला चुनाव राज्यसभा जाने के लिए लड़ रहीं थीं. उस दौरान राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष शरद पवार को बाल ठाकरे का फ़ोन आया. ठाकरे फोन पर पवार से बोले कि उन्होंने अपनी बेटी सुप्रिया के चुनाव लड़ने के बारे में क्यों नहीं बताया. आगे की बातचीत के दौरान जब पवार ने उन्हें कारण के तौर पर भाजपा-शिवसेना के उम्मीदवार की सुप्रिया के खिलाफ खड़े होने की बात कही तो ठाकरे का जवाब आया कि किसी सूरत में सुप्रिया के खिलाफ भाजपा-सेना का उम्मीदवार नहीं खड़ा होगा. पवार की बेटी उनकी बेटी की तरह हैं.

ठाकरे के कहे अनुसार ही हुआ, भाजपा को ठाकरे का यह निर्णय बिलकुल भी रास नहीं आया. लेकिन उन्होंने भाजपा नेताओं की एक नहीं चलने दी और भाजपा की उम्मीदवारी वापिस करवा दी. यह वह दौर था जब शिवसेना महाराष्ट्र में अपने आपको भाजपा का बड़ा भाई कहती थी, लेकिन आज के दौर में शिवसेना के लिए ऐसा कुछ कर पाना असंभव है.

महाराष्ट्र की सियासी सरज़मीं इन 13 सालों में पूरी तरह से बदल चुकी है. आज बाल ठाकरे जिंदा नहीं हैं. सेना की कमान उनके बेटे उद्धव ठाकरे के हाथ में है. शिव सेना में दो फांक भी हो चुकी है इस दौरान. उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे अपनी अलग सेना बना चुके हैं. इस बीच 13 सालों में भाजपा जो कभी जूनियर पार्टनर हुआ करती थी, अब उसका क़द शिवसेना से कई गुना बढ़ चुका है. यहां तक की बृहन्मुम्बई महानगर पालिका जैसे शिवसेना के अभेद किले में भी भाजपा के पार्षद अब बड़ी संख्या में हैं. 2017 में हुए  बृहन्मुम्बई महानगर पालिका के चुनावों में जहां शिवसेना के 84 पार्षद आए वहीं भाजपा 82 जगहों पर जीती. लेकिन एक वक्त था जब भाजपा के मुश्किल से 20 पार्षद भी नहीं होते थे.

तस्वीर:  Bal Keshav Thackeray, A Photobiography

बाल ठाकरे अक्सर कहते थे कि भाजपा-शिवसेना की सरकार का रिमोट उनके हाथ में है. एक हद तक यह बात सही भी थी. लेकिन आज के दौर में कोई भी शिवसेना नेता ऐसा कहने की बात सोच भी नहीं सकता. इसका एक सच तो यही है कि बीते पांच सालों में भाजपा ने देवेंद्र फड़नवीस के रूप में अपनी सरकार पांच साल चलाने के बाद दूसरी बार जनता के बीच है और शिवसेना इन पांच सालों में भाजपा की जूनियर बनकर रही है.

शिवसेना का इतिहास खंगाले तो 1966 में जन्मी शिवसेना शुरुआती दौर में जहां ‘बजाओ पुंगी, हटाओ लुंगी’ का नारा देकर मुंबई में रहने वाले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अपने राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की थी. वहीं दो दशकों के भीतर निशाने पर मुंबई में रह रहे उत्तर भारतीय आ गए थे.

अपने स्थापना के अगले 5-6 सालों में ही मराठी अस्मिता के मुद्दे को लेकर अपनी उग्र गतिविधियों के चलते शिवसेना मुंबई और ठाणे के इलाकों में मशहूर होने लगी थी. मुंबई और ठाणे के कई इलाकों में चल रहीं उनकी विभिन्न शाखाओं के जरिये उनका वर्चस्व बढ़ने लगा था. इन शाखाओं के अंतर्गत आने वाले शिवसैनिकों ने अपना एक स्थानीय तंत्र बना लिया था जिसके ज़रिये वह स्थानीय मसलों को सुलझाते थे. गौरतलब है इन शाखाओं में ऐसे बहुत से असामाजिक तत्व भी होते थे जो दहशत और हिंसा के ज़रिये कामों को अंजाम देते थे. लोगों से ज़बरदस्ती उगाही का काम भी ऐसे कई शाखाओं के शिवसैनिकों द्वारा किया जाता था.

1967 में ठाणे की 40 सीटों वाली महानगरपालिका में उन्होंने 17 सीटों पर जीत हासिल की. इसी तरह 1968 में मुंबई में हुए महानगर पालिका चुनाव में 121 में से 42 सीटों पर जीत दर्ज की. साल 1970 में सीपीआई (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया) के मशहूर नेता और परेल से विधायक कृष्णा देसाई की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में शिवसेना पहली बार विधानसभा सीट के चुनाव में उतरी और कृष्णा देसाई की पत्नी सरोजनी देसाई को महज 1679 वोटों से हराकर शिवसेना के वामनराव महाडिक विजयी हुए थे. देसाई मजदूरों के कद्दावर और लोकप्रिय नेता थे लेकिन इसके बावजूद भी उनकी पत्नी हार गयी थी. गौरतलब है कि देसाई की हत्या भी शिवसैनिकों ने ही की थी और इस मामले में 16 लोगों को सजा भी मिली थी.

किसी ज़माने में वामपंथी और समाजवादी नेताओं के वर्चस्व वाले मजदूर संघों को शिवसेना ने कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक के समर्थन से ख़त्म कर दिया था. नाईक ने शिवसेना की हिंसक गतिविधियों को नज़रअंदाज़ ही नहीं किया बल्कि उनके समर्थन के चलते शिवसेना का प्रभाव बढ़ने लगा था, यहां तक बात पहुंच गयी थी कि  शिवसेना को वसंत सेना कहा जाने लगा था.

1971 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस (ओ) के साथ गठबंधन करके मुंबई और कोंकण के इलाकों से तीन जगह से लोकसभा चुनाव लड़ा था और तीनों ही सीटों पर शिकस्त खायी. अगले साल 1972 में हुए विधानसभा चुनावों में शिव सेना ने 26 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन सिर्फ मुंबई की गिरगाम सीट से शिवसेना के एक उम्मीदवार प्रमोद नवलकर जीत दर्ज कर पाए थे.

शिवसेना के तत्कालीन प्रमुख बाल ठाकरे ने जहां 1975 में आपातकाल का समर्थन किया था, वहीं साल 1977 के लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने कांग्रेस का समर्थन किया था. 1978 में जब जनता पार्टी गठबंधन में शिवसेना को जगह नहीं मिली तो कांग्रेस (इंदिरा) के साथ गठबंधन कर शिवसेना ने 33 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन एक सीट पर भी जीत दर्ज नहीं कर पायी. 1980 में हुए विधानसभा चुनावों में सेना ने चुनाव लड़ने की बजाय कांग्रेस (इंदिरा) को समर्थन देना ज़्यादा बेहतर समझा.

1970 से लेकर 1980 तक कांग्रेस का अलग-अलग रूप में  समर्थन करने वाली शिवसेना, 1984 में पहली बार भाजपा के निकट आयी. 1984 में दो शिवसेना उम्मीदवारों ने भाजपा के निशान पर मुंबई की दो सीटों से चुनाव लड़ा लेकिन दोनों ही सीटें हार गयी थी.

अस्सी के दशक में शिवसेना की लोकप्रियता महाराष्ट्र में बढ़ने लगी थी, हालांकि इनका ज्यादा असर मुंबई, ठाणे और कोंकण के इलाकों में ही थी. बाकी इलाकों में खास दबदबा नहीं था. उसी तरह 1980 में जनसंघ से जन्मी भाजपा भी महाराष्ट्र में अपनी राजनैतिक ज़मीन खंगाल रही थी. राष्ट्रीय स्तर पर ज़रूर वह एक मजबूत पार्टी के रूप में उभर रही थी लेकिन महाराष्ट्र में उसका कोई ख़ास वजूद नहीं था. हालांकि 1984 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा-शिवसेना का गठबंधन नहीं रहा और 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. 1985 में शिवसेना को उम्मीद थी कि उन्हें शरद पवार के नेतृत्व वाले प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट जिसमें कांग्रेस (समाजवादी), भाजपा, जनता पार्टी और वामपंथी दलों का सामावेश था, में जगह मिल जायेगी. लेकिन जब यह गठबंधन नहीं हो सका तो शिवसेना ने 33 सीटों से चुनाव लड़ा और सिर्फ एक ही सीट पर पार्टी को जीत मिली. अलबत्ता भाजपा ने 67 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 16 सीटों पर उसके उम्मीदवारों को जीत मिली थी.

लेकिन 1989 में  भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय महासचिव प्रमोद महाजन ने बाल ठाकरे को भाजपा और शिवसेना के गठबंधन के लिए राजी कर लिया था, जिसे आम तौर पर ‘युति’ कहा जाता है. जब 1989 का लोकसभा चुनाव  भाजपा-शिवसेना ने गठबंधन में लड़ा था तब भाजपा 10 सीटों पर विजयी हुयी थी और सेना तीन सीटों पर. तब से लेकर अब तक यह गठबंधन दोनों पार्टियों के आपसी विवादों के बावजूद कायम है, लेकिन जो नियंत्रण की डोर पहले शिवसेना के हाथ में थी अब वह भाजपा के हाथों में जा चुकी.

जब 1989 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन हुआ था तब यह तय हुआ था कि लोकसभा चुनाव में भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी और शिव सेना एक क्षेत्रीय दल होने के नाते ज़्यादा विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. 1980 के शुरुआती दौर में शिवसेना ने मुंबई के अलावा महाराष्ट्र के बाकी इलाकों में अपना रसूख बढ़ाने के लिए हाथ पैर  मारने शुरू कर दिए थे.

महाराष्ट्र के अलग अलग शहरों में शिवसेना की शाखा शुरू होने लगी. मराठी अस्मिता के मुद्दे पर शिवसेना सिर्फ मुंबई और ठाणे में अपनी पैठ बना पायी थी. महाराष्ट्र के बाकी इलाकों तक पहुंचने के लिए शिवसेना ने सांप्रदायिक कट्टरवाद का सहारा लिया और अपने आपको हिन्दुओं की रहनुमा बता कर पेश करने लगी.

शरद पवार के वापस कांग्रेस में जाने के बाद महाराष्ट्र में विपक्षी पार्टी के रूप में शिवसेना और भाजपा का उभार हुआ, लेकिन दबदबा ज़्यादा शिवसेना का था. इसलिए गठबंधन होने के बावजूद बाल ठाकरे और शिवसेना के अन्य नेता भाजपा की समय समय पर अवेहलना करते रहते थे. लेकिन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने अपनी सूझ-बूझ से भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को टूटने नहीं दिया.

शिवसेना के मुखपत्र सामना में भाजपा को ‘कमलाबाई’ के नाम से सम्बोधित कर बहुत बार निंदा की जाती थी. शिवसेना अपने मराठी अस्मिता, सांप्रदायिक कट्टरवाद और राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर मतदाताओं को अपने सहूलियत के हिसाब से रिझाती रही. शिवसेना ने नामान्तर आंदोलन (मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर डॉ अम्बेडकर विश्वविद्यालय रखने का आंदोलन), मंडल कमीशन का भी मुखरता से विरोध किया था, जिसके चलते मराठा समुदाय का समर्थन शिवसेना को महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में मिलने लगा. जहां मुंबई, पुणे, ठाणे जैसे बड़े शहरों में मराठी युवाओं की नौकरियों का मुद्दा उछालकर शिवसेना क्षेत्रवाद के ज़रिये मराठी मतदाताओं को लुभाती रही, वहीं 1984 के बाद से शिवसेना हिन्दु कट्टरपंथ और राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर हिन्दू मतदाताओं को उनका रहनुमा बताने लगी.

1990 में हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने भाजपा-शिवसेना के गठबंधन के तहत 288 में से 183 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 52 सीटों पर जीत दर्ज की थी, वहीं भाजपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़कर 42 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 1995 के चुनाव में जब भाजपा-शिवसेना की महाराष्ट्र में पहली बार सरकार बनी, तब भी शिवसेना 183 सीटों पर लड़ी थी और 73 सीटें जीत कर लायी थी, भाजपा ने 105 सीटों पर लड़कर 65 पर जीत हासिल की थी.

इसी तरह 1999 के चुनाव में शिवसेना ने 161 सीटों पर चुनाव लड़कर 69 सीटों पर जीत हासिल की थी और भाजपा ने 117 सीटों पर चुनाव लड़कर 56 सीटें जीती थी. 10 सीटें गठबंधन की अन्य पार्टियों को दी गई थीं. 2004 के चुनाव में शिवसेना ने 163 सीटों पर चुनाव लड़कर 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी, वहीं भाजपा 111 सीटों पर लड़कर 54 सीटों पर जीती थी.

2009 का आखिरी चुनाव था जब ‘युति’ ( भाजपा-शिवसेना गठबंधन) में शिवसेना अपने बड़े होने का हक़ जताती थी क्योंकि इस चुनाव में शिवसेना 160 सीटों पर लड़ने के बावजूद महज 42 सीटों पर जीती थी और भाजपा ने 119 सीटों पर लड़कर 46 सीटें जीतने में कामयाब रही. इसके बाद से युति में जूनियर और सीनियर पार्टनर के रिश्तों में बदलाव होना तय था.

भले ही शिवसेना गठबंधन के दिनों से एक क्षेत्रीय पार्टी के रूप में महाराष्ट्र में भाजपा पर हावी रही हो लेकिन चुनावी राजनीति में भाजपा ने हरदम शिवसेना के मुकाबले ज़्यादा बेहतर परिणाम दिया. कम सीटों पर चुनाव लड़कर ज्यादा सीटें (प्रतिशत के हिसाब से) जीतने में सफल रही. 2014 के विधानसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना और भाजपा के बीच में सीटों के बंटवारे को लेकर विवाद हुआ था जिसके चलते दोनों ही पार्टियों ने 2014 का विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा था. भाजपा ने 260 सीटों पर चुनाव लड़कर 122 सीटों पर जीत दर्ज की वहीं शिवसेना ने 282 सीटों पर चुनाव लड़कर 63 सीटें जीती.

2014 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने दोनों ही पार्टियों के बीच सीटों का बराबर बंटवारा करने का प्रस्ताव रखा था. भाजपा ने दोनों पार्टियों के लिए 288 सीटों में से 135-135 पर चुनाव लड़ने की पहल की थी और गठबंधन की बाकी पार्टियों के लिए 18 सीटें छोड़ी थी. शिवसेना को भाजपा का यह प्रस्ताव मंज़ूर नहीं था जो खुद 155 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती थी और भाजपा के हिस्से में 125 सीटें छोड़ना चाहती थी. दोनों पार्टियों को एक दूसरे का प्रस्ताव मंज़ूर नहीं था लिहाजा दोनों ने 2014 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा. भाजपा इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी जिससे उसका राजनैतिक कद तो बढ़ा ही साथ-साथ भाजपा को हमेशा के लिए शिवसेना के राजनैतिक दबाव से मुक्ति मिल गई.

राजनैतिक विश्लेषकों की माने तो भाजपा यह फैसला नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और 2014 लोकसभा चुनाव में हुई पार्टी की शानदार जीत के चलते मिली थी. इस फैसले ने भाजपा-शिवसेना के राजनैतिक सम्बन्धों की परिभाषा ही बदल दी. हालांकि चुनाव के बाद शिवसेना-भाजपा एक हो गए और देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनायी. कहने को तो गठबंधन था लेकिन शिवसेना ने भाजपा की काफी मुखालफत की, जिसको फड़नवीस सरकार ने हल्के में ना लेते हुए माकूल जवाब दिया.

मौजूदा विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों की शुरुआती दौर में सीटों के बंटवारे को लेकर एक राय नहीं बन पा रही थी. शिवसेना की मांग थी की सीटों का बराबर का बंटवारा हो जो कि भाजपा को नामंज़ूर था. सूत्रों के अनुसार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने पार्टी कार्यकर्ताओं को 288 सीट पर तैयारी करने की बात कह दी थी. लेकिन बाद में दोनों पार्टियों में सहमति बन गयी जिसके अनुसार शिवसेना के हिस्से में 124 सीट गयी और भाजपा 150 सीटों पर चुनाव. बाकी समर्थक दल 14 सीटों पर अपनी किस्मत आज़मायेंगे.

राजनैतिक विश्लेषक नितिन बिरमल कहते हैं, “लोगों का शिवसेना के प्रति रुझान कम होता जा रहा है क्योंकि महाराष्ट्र की आज की मौजूदा पीढ़ी को क्षेत्रवाद से कोई मतलब नहीं है. उन्हें विकास के मुद्दों की राजनीति आकर्षित करती है ना कि क्षेत्रवाद की. उस ज़माने में जो लोग शिवसेना को मतदान करते थे वो निम्न मध्यमवर्गीय लोग थे और इस वर्ग की तादाद अब मुंबई में उतनी रही नहीं है. इसके अलावा वैश्वीकरण के चलते मुंबई में जो उत्तर भारत से आकर लोग बसे हैं वह पहले से ही भाजपा को मतदान करते रहे हैं. उद्धव और राज ठाकरे के अलग होने के बाद मराठी मतदाता भी बंट चुका है, जिसका फायदा भाजपा को हुआ है और इसका सीधा असर बृहन्मुम्बई महानगरपालिका के चुनाव में दिखा था, जहां भाजपा शिवसेना से  बस 2-3 सीट पीछे ही रही.”

बिरमल बताते है कि शिवसेना की हालत ऐसी हो गयी है कि अगर शिवसेना भाजपा के साथ नहीं जाती है तो शिवसेना के बहुत सारे नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में चले जाएंगे. वह कहते हैं, “इन सब कारणों के चलते शिवसेना का वर्चस्व कम हो चुका है. प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे के संबंधों के चलते महाजन अपने आपको छोटा भाई कहते थे, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राजनैतिक वर्चस्व के चलते सीटों के बराबरी के हिस्से की बात का होना तय था. लेकिन पिछले चुनाव में  अलग से चुनाव लड़ने के बावजूद भी जिस तरह भाजपा 122 सीटों पर जीती है उससे शिवसेना का कद अब उसके सामने छोटा हो गया है.

एक अन्य राजनैतिक विश्लेषक परिमल माया सुधाकर कहते हैं, ” जो लोग बाला साहब ठाकरे से प्रभावित थे वही लोग अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह से प्रभावित है, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह दोनों नेता भी बालसाहब ठाकरे की तरह से काम करते हैं. शिवसेना के मतदाता शिवसेना को तो पसंद करते  ही हैं लेकिन उनको मोदी-शाह भी पसंद हैं. इसलिए अब अगर शिवसेना के बड़े नेता मोदी की ज़्यादा खिलाफत करेंगे तो यह संभव की शिवसेना के यह मतदाता भाजपा में चले जाएं. बालासाहब ठाकरे का पाला अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे उदार स्वभाव के नेताओं से था. लेकिन मोदी-शाह वैसे नहीं हैं, उद्धव ठाकरे के लिए उनके साथ राजनैतिक दांव-पेंच खेलना संभव नहीं है. शायद बालसाहब के लिए भी नही होता.”

परिमल आगे कहते हैं, “महाराष्ट्र में बहुत सी महानगर पालिकाओं में शिवसेना का राज तकरीबन 20-25 सालों से है. लेकिन शिवसेना का यहां कुछ काम नहीं दिखता है, जिसके चलते युवा मतदाता उनसे नाराज़ है. आज के मतदाता को विकास से मतलब है और भाजपा काफी हद तक इस मुद्दे पर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रही है.”

राजनीतिक जानकार सुहास कुलकर्णी का मानना है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चलते महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के राजनैतिक समीकरण बदल गए हैं. भाजपा अब इन दोनों पार्टियों के गठबंधन में ज़्यादा रसूख रखती है. वह कहते हैं, “मौजूदा दौर में अगर शिवसेना, भाजपा के साथ नहीं जाती तो शिवसेना के लगभग 30-35 नेता भाजपा में चले जाते. भाजपा ने पिछले चार दशकों में धीरे-धीरे ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) मतदाता को अपने साथ कर लिया है, जिसके चलते भाजपा का मतदान प्रतिशत हर चुनाव में बढ़ता गया और शिवसेना का काम होता चला गया.”