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हुसैन हैदरी: ‘लोगों को इस्तीफा शब्द याद दिलाना होगा’

लम्बे समय से अलग-अलग आंदोलनों में फैज़ अहमद फैज़, पाश, साहिर लुधियानवी और दुष्यन्त कुमार के क्रांति गीत गाए जाते रहे है लेकिन नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर देशभर में चल रहे प्रदर्शनों के दौरान कई नए गीत चलन में आए हैं.

वरुण ग्रोवर का लिखा गीत ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे’, आमीर अजीज़ का लिखा ‘सब याद रखा जाएगा’, पुनीत कुमार का लिखा ‘तुम कौन हो बे’ और हुसैन हैदरी का लिखा ‘मैं कैसा मुसलमान हूं भाई’ जहां-तहां प्रदर्शनकारियों के मुंह से सुने जा सकते हैं.

बीते दिनों फिल्म लेखक-गीतकार हुसैन हैदरी दिल्ली के शाहीनबाग़ में चल रहे प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. इंदौर के रहने वाले हैदरी से न्यूज़लॉन्ड्री ने बातचीत की.

सड़क पर उतरने का निर्णय क्यों लेना पड़ा?

सड़क पर उतरना इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि आज सिस्टम, स्टेट सब झूठ बोल रहे हैं. वो नाइंसाफी कर रहा है. आज न्याय व्यवस्था हो, मीडिया हो, पुलिस हो या स्टेट हो कोई भी अवाम के साथ खड़ा नहीं है. इस देश का नागरिक सिर्फ वोट बैंक नहीं है. वोटर और नागरिक में फर्क होता है. जब कोई साथ नहीं हैं तो अपने हकों के लिए तो लड़ना ही होगा. भारत का संविधान भी कहता है हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए और हम संविधान के अनुसार लड़ रहे हैं. हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे है. सड़कों पर आना इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि यह नागरिकता संशोधन कानून गैर संवैधानिक है, ये साम्प्रदायिक है, ये कानून भारत की एकता, मज़हबी रवादारी और कौमी एकता के ख़िलाफ़ है. ये भारत के तोड़कर इसे हिंदू राष्ट्र बनाने का प्लान है. हम इसके खिलाफ सड़कों पर हैं.

सरकार कह रही है कि नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है. मान लीजिए कि कुछ कम पढ़े-लिखे लोग होंगे जिन्हें कानून की तकनीकी समझ न हो. आप काफ़ी पढ़े-लिखे है आपको क्या लगता है कि जनता भ्रम में हैं?

मुझे छोड़िए, हो सकता है मुझे भी क़ानूनी समझ न हो. वकीलों से बेहतर क़ानूनी समझ तो किसी में नहीं होती. आप वकीलों के वीडियो देख सकते हैं. आप वकीलों के इंटरव्यू देखिए. अपनी टांग टूटने पर डॉक्टर के पास जाते हैं न आप. तो कानून की जानकारी के लिए वकीलों के बयान सुनिए. वो बता रहे हैं कि किस तरह ये गैरसंवैधानिक है, किस तरह ये साम्प्रदायिक है, किस तरह ये दलितों के ख़िलाफ़ है, किस तरह ये ओबीसी के ख़िलाफ़ है, कैसे ये मुसलमानों के ख़िलाफ़ है और किस तरह ट्राईबल्स के ख़िलाफ़ है.

और आप भ्रम फैलाने की बात कर रहे हैं तो भ्रम कौन फैला रहा है. पीएम मोदी आकर कहते हैं एनआरसी पर कोई चर्चा नहीं हुई. अमित शाह कहते हैं कि देशभर में एनआरसी 2024 तक करेंगे. तो भ्रम कौन फैला रहा है. आप तय कीजिए.

गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि जो सीएए का विरोध कर रहे हैं वह दलित विरोधी है.

जब भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद जामा मस्जिद गये तब सबने उनका वहां सम्मान किया. सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. वो तो दलितों के नेता हैं, तो दलित विरोधी कौन हुआ? दलित नेता को आप गिरफ्तार कर रहे हैं, उसे मार रहे हैं, उसे दवाइयां नहीं दे रहे हैं. डॉक्टर कह रहा है उसे दवाई की ज़रुरत है फिर भी उसे दवाई नहीं दे रहे हैं. तो कौन हुआ दलित विरोधी. चंद्रशेखर आज़ाद शाहीन बाग़ जाना चाहते हैं, जामा मस्जिद जाना चाहते हैं, सरकार क्यों रोक लगा रही है?

लम्बे समय तक फैज़, पाश, साहिर लुधियानवी और दुष्यंत कुमार जैसे शायरों का लिखा गीत आंदोलनों की आवाज़ रहा है. अब हम देख रहे हैं कि सीएए को लेकर जारी आन्दोलन में नए-नए गीत लोकप्रिय हो रहे हैं, जिनमें से एक आपका लिखा भी है...

पुराने गीतों का अपना महत्व है. उनका अपना सम्मान है. वो आसानी से ज़बान पर आ जाते है. आज के दौर में जो मसला है उसको काउंटर करने के लिए एक नये नेरेटिव की ज़रुरत है. जो पुराने क्रान्ति के गीत लिखे गये थे वो 70-80 के दशक में लिखे गये थे. अब भाषा भी तो बदली है. हिंदी और उर्दू पहले की तुलना में सरल हुई है. हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू तीनों ज़बानें आपस में मिल गयी हैं. तो हमें आज की भाषा में लिखना बोलना होगा. अगर आप मेरी नज्में देखेंगे तो उसमें भी कई बार अंग्रेजी के लफ्ज़ दिख जायेंगे क्योंकि वो अंग्रेजी के लफ्ज़ अब हमारी नियमित बातचीत में शामिल हो चुके हैं.

मैं अगर हर बार हबीब जालिब और फैज़ को पढ़ूंगा तो थोड़ा फिलोसॉफिकल भी हो सकता है. लेकिन ये डायरेक्ट हिट करता है. हम आज की बात कर रहे हैं तो हमें डायरेक्ट बात करनी होगी.

‘मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान हूं भाई’ नज़्म आपने कब लिखी. लिखने के पीछे मकसद क्या था?

ये मैंने 2017 में लिखी थी. लेकिन तब अलग माहौल था. मेरे जितने भी हिंदू मित्र है उनके मन में मुसलमानों को लेकर एक धारणा पहले से थी कि सारे मुसलमान एक जैसे होते हैं. आप बताइये दुनिया में कोई भी कम्युनिटी है जो एक जैसी दिखती हो? एक जैसी हो? कितने फिरके होते हैं, कितने तबके होते हैं और भारत में तो कितनी जातियां हैं, कितनी ज़बाने हैं, कितने खानपान के तरीके हैं, कितने अलग-अलग कल्चर हैं. हैदराबाद का मुसलमान भोपाल के मुसलमान से अलग होता है. कश्मीर का मुसलमान, गुजरात के मुसलमान से अलग होता है. मैं इंदौर का मुसलमान हूं, मैं कानपुर के मुसलमान से अलग हूं. ये जो एक ब्लॉक बना दिया जाता है उससे नफरत फैलाना आसान हो जाता है. ये उस नफरत को तोड़ने की ज़बान थी, मोहब्बत की ज़बान थी कि ‘मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान हूं’, मेरा कई रंग, कई पहचान है. मेरी पहचान मेरा जन्म स्थान भी है, मेरी ज़बान भी है. मेरी पहचान मेरा खानपान भी है. मेरी पहचान मेरी शिक्षा भी है. मेरी पहचान मेरी जाति भी है.

फ़िल्मी दुनिया के लोग सरकार की आलोचना करने से डरते हैं. दीपिका पादुकोण जेएनयू गई तो उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर कैंपेन चला. उनकी फिल्म छपाक को नुकसान भी हुआ. आप काफी मुखर होकर बोल रहे हैं. डर नहीं लगता?

पहली बात तो ये कि मैं कोई बहुत बड़ा आदमी नहीं हूं. मेरे पास बहुत ज्यादा खोने को है नहीं. मेरे पास न तो बहुत पैसा है न ही बहुत ज्यादा नाम है. हम लेखक हैं. आप देखिए परिणिति चोपड़ा बोलीं तो उन्हें कैम्पेन से हटा दिया गया. सुशांत सिंह बोले उन्हें शो से हटा दिया गया. दरअसल ये लोग बोलने वालों के पेट पर लात मार देते हैं. अब लेखकों का क्या है वो पहले से ही झोला छाप होता है. अब हमारे पास वैसे ही खोने को कुछ नहीं है. तो मार दीजिये हमारे पेट पर लात. हमारे पेट में वैसे ही कुछ नहीं है. इसलिए हमें कुछ खोने का डर नहीं लगता.

आप आज शाहीनबाग़ आए हैं. दो दिन पहले यहां प्रदर्शन कर रही महिलाओं के लिए ‘बिकी हुई औरतें’ जैसे शब्दों का प्रयोग सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों द्वारा किया गया. एक कथित वीडियो के आधार पर आरोप लगाया गया कि महिलाएं पांच सौ रुपए लेकर धरने पर बैठी हैं?

(हंसते हुए) अभी यहां लगभग एक लाख महिलाएं और पुरुष हैं. उन्होंने कहा कि 500 रूपए के हिसाब लोग लाए जा रहे हैं. उस हिसाब से एक दिन के लिए सबको देने के लिए 5 करोड़ रुपए की ज़रूरत होगी. हम पांच करोड़ की जगह तीन करोड़ मान लेते हैं. तो यह आन्दोलन 35 दिनों से चल रहा है. 35 दिन का हिसाब 105 करोड़ रुपए हुआ. अरे भईया किसी के पास अगर 105 करोड़ होता तो वो बीजेपी की तरह मीडिया खरीद के चुनाव नहीं जीत जाता.

हमें समझना होगा कि देश में एक शाहीन बाग़ नहीं है. मैं आज लिस्ट देख रहा था कि 147 जगहों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. कौन पार्टी है जो ये करवा सकती है. ये आवाम की ताकत है, ये इस आवाम का गुस्सा है. अवाम अब तंग आ चुकी है इस तानाशाही से. अब कोई इस्तीफा भी नहीं मांगता है. पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री को इस्तीफा देना चाहिए. हमें इस्तीफा मांगना होगा. इस्तीफा लफ्ज़ लोगो की जुबां पर डालना ही होगा.

मीडिया में सीएए को लेकर किस तरह से रिपोर्टिंग हो रही है? एक चैनल सीएए के समर्थन के लिए लोगों से मिस कॉल करने के लिए कहता है. आप इस सबको कैसे देखते हैं.

मुख्याधारा के मीडिया का रवैया बिल्कुल हैरान करने वाला है. वहां बताया जा रहा है कि किस तरह से पब्लिक प्रॉपर्टी का नुकसान हो रहा है. सड़कें बंद होने से लोग किस तरह परेशान हैं. अब जो शख्स टीवी देख रहा होगा उसे लगता होगा कि प्रदर्शनकारी ही गलत हैं. टेलीविजन मीडिया प्रदर्शनकारियों की परेशानी बता ही नहीं रहा. वो नहीं बता रहा है कि यहां जो औरतें बैठी हैं उनका क्या संघर्ष है. कितनी ठण्ड में ये महिलाएं यहां बैठी रहती हैं. मीडिया यह नहीं बता रहा है कि उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन के दौरान कितने लोगों की जानें गई हैं. लोगों की मौत से ज्यादा उनकी चिंता सरकारी संपत्ति है. लोगों की जान से ज्यादा कीमती हो गई हैं बसें? यह हैरान करने वाला है. संवेदना मर गई है लोगों के अंदर.

इस देश का मीडिया अगर तीन महीने के लिए अपना काम ईमानदारी से कर दें तो काफी कुछ बदल सकता है. कितनी बेशर्मी है कि वो कहते हैं न्यूज़ रूम से ख़बर आई है. ख़बर न्यूज़ रूम से आती है? ख़बर ग्राउंड से आती है. न्यूज़ रूम से कहानियां आती हैं. आप कहानियां दिखा रहे हैं लोगों को, वो देख भी रहे हैं.