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दिल्ली दंगा : मौत, गुमशुदगी और पलायन का दुष्चक्र
दिल्ली के गुरू तेग बहादुर (जीटीबी) अस्पताल के शवगृह में शव लेने के इंतजार में अन्य परिजनों के साथ बैठीं 22 वर्षीय मोहम्मद अशफाक की चाची बार–बार दहाड़े मारकर रोने लगती हैं और पूछती हैं की, “उसकी (अशफाक) क्या गलती थी, जो उसे इतनी बेरहमी से मार डाला. वह तो अपने काम पर गया था. अभी तो उसकी शादी को सिर्फ 11 दिन ही हुए हैं. अभी तो उन दोनों के हाथ से मेंहदी भी नहीं छूटी है.”
उत्तर पूर्व दिल्ली में हुए दंगे की चपेट में आकर मारे गए अशफाक की शादी इसी महीने 14 फरवरी को हुई थी. पति की मौत की ख़बर सुनने के बाद से ही उसकी पत्नी अज़रा बेसुध पड़ी है.
इलेक्ट्रॉनिक्स का काम करने वाले अशफाक ओल्ड मुस्तफाबाद में रहते थे. सोमवार की शाम दिल्ली में भड़की हिंसा के दौरान ब्रजपुरी की पुलिया के पास दंगाई भीड़ ने उन्हें घेरकर मार दिया. वो पैदल ही अपने काम से घर लौट रहे थे. दंगाइयों ने बर्बरता की हदें पार करते हुए अशफाक को पहले 5 गोलियां मारीं और फिर धारदार हथियार से उसका गला काट दिया, जिससे उसकी मौक पर ही मौत हो गई.
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चल रहे प्रदर्शनों के खिलाफ भाजपा के नेताओं द्वारा शुरू किए गए प्रतिक्रियावादी प्रदर्शन ने इस दंगे की भूमिका तैयार की. उत्तर पूर्व दिल्ली में रविवार को उस वक्त हालात बेकाबू होने लगे जब बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए भड़काऊ भाषण दिया. इसके बाद उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के कई हिस्सों में दंगे भड़क गए. इन दंगों में अब तक 38 लोगों की मौत होने की पुष्टि हो चुकी है. 200 के करीब लोग घायल हुए हैं.
अशफाक के चाचा सलीम ने भी माना कि इन दंगों का मुख्य जिम्मेदार कपिल मिश्रा है, जिसने लोगों को भड़काया.
अशफाक को पहले किसी अज्ञात व्यक्ति ने पास ही में स्थित अल हिंद अस्पताल,मुस्तफाबाद में भर्ती करा दिया था. बाद में उसे जीटीबी अस्पताल लाया गया. सलीम ने अस्पताल प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए कहा,“वे दो दिन से शव का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन ये लोग बार- बार टाल-मटोल कर देते हैं, अब कल शाम साढ़े पांच बजे के लिए बोल दिया है.”
बीरभान सिंह, 50 वर्ष
इन दंगों में अपनों को खो चुके लोगों में करावल नगर निवासी निर्वाण सिंह भी शामिल हैं, जो अपने चचेरे भाई का शव लेने के लिए जीटीबी अस्पताल में इंतजार कर रहे हैं. उन्हें लगातार दूसरे दिन भी इंतजार करने के बाद शव न मिलने के कारण वापस घर लौटना पड़ा. उन्हें बृहस्पतिवार को फिर से आने के लिए बोला है.
निर्वाण सिंह के चचेरे भाई बीरभान सिंह को दंगाइयों ने पीछे से गोली मार दी थी. 50 वर्षीय बीरभान ड्राइक्लीनिंग की दुकान चलाते थे. अपने आस-पास के इलाके में भड़के दंगों की वजह से मंगलवार को शाम 4 बजे ही उन्होंने अपनी दुकान बंद कर घर जाने का फैसला किया था. लेकिन रास्ते में ही शेरपुर की पुलिया के पास उन्हें पीछे से दंगाइयों ने गोली मार दी. जिससे उनकी मृत्यु हो गई.
निर्वाण सिंह ने बताया कि इनकी जेब में रखे फोन से किसी ने हमें फोन करके बताया कि इन्हें गोली लगी है, और ये जीटीबी अस्पताल में भर्ती हैं. जब तक हम यहां आए तब तक इनकी मृत्यु हो चुकी थी.
बीरभान के परिवार में पत्नी, 2 बेटी और एक बेटा है. बच्चे स्कूल जाते हैं. परिवार में सिर्फ बीरभान ही कमाने वाले थे. अपनी छोटी सी दुनिया में रहने वाले बीरभान का न तो सीएए समर्थकों से लेना देना था, न ही विरोध से. लेकिन दंगाईयों के हत्थे चढ़कर उनकी जान चली गई.
विनोद कुमार, 50 वर्ष
इस दंगे ने विनोद कुमार के परिवार को भी कभी न भूलने वाला दर्द दिया है. खजूर वाली गली, घोंडा के निवासी विनोद के पोते की तबियत खराब थी. जब पास ही स्थित कल्याण मेडिकल स्टोर से उनका बेटा दवाई लेने जा रहा था. हालात उस समय तनावपूर्ण थे लेकिन कोई वारदात नहीं हुई थी, इस कारण विनोद भी बेटे के साथ बाइक पर बैठकर दवा लेने चले गए.
जीटीबी अस्पताल के शवगृह के बाहर हमारी मुलाकात विनोद कुमार के पड़ोसी प्रकाश सिंह से हुई. उन्होंने बताया कि दवाई लेकर लौटते समय ब्रह्मपुरी में दोनों को अचानक दंगाइयों की भीड़ ने घेर लिया और पथराव करने लगे. उनकी बाइक में आग लगा दी. बेटे मोनू के सिर में गहरी चोट लग गई और विनोद कुमार बेहोश हो गए. इस दौरान मोनू ने लोगों से मदद मांगी लेकिन किसी ने उनकी मदद नहीं की. प्रकाश सिंह ने बताया की भीड़ अल्लाहो अकबर के नारे लगा रही थी. कुछ देर बाद दो आदमियों ने अपनी स्कूटी पर जैसे-तैसे उन्हें पास के जगप्रवेश अस्पताल पहुंचाया, लेकिन अधिक खून बहने के कारण विनोद कुमार की मृत्यु हो गई. जबकि मोनू के सिर में 20 से अधिक टांके आए हैं.
मोनू भी चोटिल होने के बावजूद प्रकाश सिंह और अन्य लोगों के साथ अपने पिता का शव मिलने का इंतजार जीटीबी के शवगृह में कर रहे हैं. “दोनों बाप-बेटे डीजे का काम करते थे, उनका सीएए जैसे प्रदर्शनों से कोई लेना-देना नहीं था,” प्रकाश सिंह ने बताया.
शाहिद अल्वी, 22 वर्ष
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के डिबाई निवासी शाहिद अल्वी भी इस दंगे की भेंट चढ़ गए. शाहिद अपने दो अन्य भाइयों के साथ मुस्तफाबाद में किराए के मकान रहते थे और ऑटो चलाकर गुजर बसर कर रहे थे. पिता की पहले ही मौत हो चुकी है, जबकि बुजुर्ग मां एक अन्य भाई के साथ डिबाई में ही रहती हैं. शाहिद की शादी 4 महीने पहले ही हुई थी, उनकी पत्नी 3 माह की गर्भवती हैं.
शाहिद को 23 फरवरी को दंगाईयों की भीड़ ने उस समय घेर लिया जब वे अपने ऑटो से घर वापस लौट रहे थे. चांदबाग में भीड़ ने उनके पेट में गोली मार दी. किसी ने उन्हें पास के मदीना नर्सिंग होम पहुंचाया, जहां उनकी मौत हो गई.
शाहिद के चचेरे भाई मोहम्मद ताज जीटीबी के शवगृह में उनके शव का इंतजार करते मिले. ताज ने बताया कि फेसबुक पर इसका फोटो वायरल होने पर हमने इसे पहचाना, तब हम यहां पहुंचे. शाहिद के परिजनों ने अस्पताल प्रशासन पर आरोप लगाया कि 3 दिन से हम शव का पोस्टमार्टम करने और शव सौंपने की मांग कर रहे हैं, लेकिन अस्पताल प्रशासन लापरवाही बरत रहा है.
शाहिद के परिजनों ने वहां तैनात एसआई शिवचरण पर आरोप लगाया कि वह शव सौंपने के बदले शव की वीडियोग्राफी के लिए 4000 रुपए की मांग कर रहा था, लेकिन हमने पैसे देने से इंकार कर दिया. अस्पताल में उस समय स्थिति तनावपूर्ण हो गई जब कुछ अन्य मृतकों के परिजनों ने भी एसआई शिवचरण पर पैसे मांगने का आरोप लगाते हुए हंगामा करना शुरू कर दिया.
एसआई शिवचरण से इस बारे में पूछने पर उन्होंने वीडियोग्राफी के चार हजार रुपए अंदर देने की बात मानी लेकिन यह भी कहा कि 4000 रुपये मैंने अपनी जेब से दिए हैं, किसी से नहीं मांगे.
शिवचरण ने हमें बताया कि दिन भर में सिर्फ दो शवों का पोस्टमार्टम हो सका है जबकि 20 से ज्यादा शव पोस्टमॉर्टम के इंतजार में रखे थे.
जीटीबी अस्पताल के सीएमओ डॉ. शरद वर्मा ने इन आरोपो का खंडन किया है. उन्होंने ये कहकर फोन काट दिया कि वो काफी व्यस्त हैं और फिलहाल पोस्टमॉर्टम के संबंध में कोई जानकारी नहीं दे सकते.
आखिरकार 3 दिन बाद शाम लगभग 5 बजे शाहिद का शव उनके परिजनों को सुपुर्द कर दिया गया, जिसे लेकर वे अपने पैतृक गांव डिबाई चले गए.
लापता
इस दंगे में लोगों ने अपने लोगों को न सिर्फ खोया और चोटिल हुए बल्कि बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिनका अभी तक कोई अता-पता नहीं चल पाया है. ऐसे तमाम लोगों के परिजन जीटीबी अस्पताल में हमसे मिले. वो बिना किसी जानकारी या सूचना के, परेशान हालत में अपने परिजनों को इधर-उधर खोजते फिर रहे थे.
ऐसे ही एक व्यक्ति जिनका नाम दिलशाद था, से हमारी मुलाकात जीटीबी के परिसर में हुई. दिलशाद मंगलवार शाम 4 बजे से लापता अपने फूफा यूसुफ अली को ढूंढ़ रहे थे. वो कई अस्पतालों का चक्कर काटकर जीटीबी अस्पताल पहुंचे थे. लेकिन यहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी.
दिलशाद ने बताया कि 25 फुटा रोड, मुस्तफाबाद निवासी 50 वर्षीय यूसुफ अली अपने बेटे के साथ ग्रेटर नोएडा से कारपेंटर का काम करके अपनी मोटरसाइकिल से वापस घर लौट रहे थे. लोनी रोड पर दंगाइयों की भीड़ ने उन्हें घेर कर उन पर पत्थरों से हमला कर दिया और उनकी बाइक में आग लगा दी. बेटा तो जैसे-तैसे जान बचाकर किसी रिश्तेदार के यहां पहुंच गया लेकिन यूसुफ अली का अभी तक कोई पता नहीं चल रहा है. दिलशाद ने बताया, “कल से यहां के चक्कर काट रहा हूं, डॉक्टरों ने डेड बॉडियां भी दिखाई हैं लेकिन उनका कोई पता नहीं चल पा रहा है. साथ ही कर्फ्यू की वजह से परिजन भी कहीं आ-जा नहीं पा रहे हैं.”
कुछ ऐसी ही कहानी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले 26 वर्षीय जावेद की है. जावेद का 25 फरवरी की रात से कोई पता नहीं है. उनके दोस्त साबिर उन्हें खोजते फिर रहे हैं.
पलायन
देश की राजधानी दिल्ली में लगभग 3 दिन तक चले दंगों के बाद अब भले ही उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के जाफराबाद, कर्दमपुरी, भजनपुरा, चांदबाग आदि इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया हो. भले ही सरकार और प्रशासन हालात सामान्य बता रहे हों लेकिन लोगों के मनभय और असुरक्षा का माहौल कायम हो गया है. न्यूज़लॉन्ड्री ने इस इलाके में अपनी रिपोर्टिंग के दौरान पाया कि बहुत से लोग अपने घरों को छोड़कर रिश्तेदारों या अन्य जगहों पर शरण ले ली है.दिल्ली के इस इलाके की बड़ी आबादी देश के दूर-दराज हिस्सों से रोजगार की तलाश में आए कामकाजी मजदूरों और कामगारों की है. ये मजदूर और कर्मचारी भी अपने घर वापस लौट रहे हैं. बुधवार को भी कुछ इलाकों से छिटपुट हिंसा की ख़बरें आईं थीं.
बुधवार को दिन में साढ़े ग्यारह बजे जब हम सीलमपुर तिराहे पर पहुंचे तो चारों तरफ पुलिस बैरिकेडिंग नज़र आई. भारी संख्या में मीडियाकर्मी, पुलिस, अर्धसैनिक बलों के जवान और सायरनों का शोर सुनाई दे रहा था. पुलिसकर्मी हाथों में माइक लिए लोगों से अपने घरों में रहने की हिदायत दे रहे थे. हालांकि कर्फ्यू के बावजूद कुछ लोग अपने घरों से निकलकर ताक-झांक कर रहे थे.
लगभग 3 घंटे तक उस इलाके में रहने के दौरान बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर अपने कंधों पर सामान लादकर जाते हुए नज़र आए. हमने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले को लौट रहे ऐसे ही एक समूह से बात करने की कोशिश की लेकिन डरे-सहमे उन लोगों ने “बिल्कुल नहीं” कहते हुए बात करने से साफ इंकार कर दिया और आगे बढ़ गए. उनके डर को समझा जा सकता है.
रोजगार की तलाश में दिल्ली आने वाले अधिकतर लोग भले ही वापस लौट रहे हों लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रोजगार की तलाश में दिल्ली आए जरूर, लेकिन सही सलामत वापस नहीं लौट पाए.
शाम को जब हम जीटीबी अस्पताल से वापस लौटने लगे तब भी विभिन्न इलाकों से हिंसा की खबरें सुनने को मिल रही थीं और एंबुलेंस भी घायलों को लेकर लगातार जीटीबी अस्पताल में पहुंच रही थीं.
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