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दिल्ली दंगा: ‘शांति तो है लेकिन मुर्दा शांति है’
शुक्रवार दोपहर के 12 बज रहे हैं. खजूरी खास चौराहे के सामने कुछ अर्धसैनिक बल के जवान सुरक्षा में मुस्तैद खड़े हैं. बगल में उस मज़ार के अंदर सफाई हो रही है जिसे पिछले दिनों हुए दंगे में दंगाइयों ने जला दिया था. मज़ार के अंदर चल रही सफाई को टूटे दरवाजे से देखते हुए एक शख्स हमारी तरफ घूमकर कहता है, 'ये तो सबकी मनोकामना पूरी करते थे. इनके यहां तो हर मज़हब के लोग आते थे. बलवाइयों ने इन्हें क्यों नुकसान पहुंचाया?''
मैं उनसे उनका नाम जानना चाहता था. मुझे वहां के हालात के बारे में उनसे जानना था लेकिन वे खुद अपने सवाल के जवाब के बगैर लौट जाते हैं.
जिस इलाकों में सीएए-एनआरसी को लेकर हो रहे प्रदर्शन के दौरान हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में हैं भाई-भाई का नारा गूंज रहा था. संविधान बचाने की कसमें खाई जा रही थी. वहां की हवा अचानक इतनी दूषित हो गई कि लोग एक दूसरे का कत्ल करने पर आमादा हो गए. ना भाईचारा बचा और ना ही संविधान.
सड़क किनारे कोने पर एक दुकान के बाहर नारंगी और केले जलकर खाक पड़े हुए है. दुकान पूरी तरह तबाह हो चुकी है. जिस दुकान पर कभी जूस के लिए लोगों की लाइन लगती होगी उस दुकान के बाहर अब जली हुई दुकान को देखने के लिए लोग खड़े नजर आते हैं. वहीं खड़े तबरेज से इलाके के माहौल के बारे में पूछने पर वो कहते हैं, "अब तो सब शांत है.”
क्या इलाके में सब शांत है? इस सवाल का जवाब मुस्तफाबाद के गली नम्बर 17 में नगमा से मुलाकात के बाद मिलता है. चारों तरफ फैली गन्दगी की बीच से गुजरते हुए हम मुस्तफाबाद के गली नम्बर 17 में पहुंचते हैं. वहां नगमा का घर है. घर के बाहर जूता उतारकर हम अंदर पहुंचते है तो हमें एक सिसकती आवाज़ सुनाई देती है, ये नग़मा और उसकी भाभी शबीना हैं. गर्भवती शबीना अपने एक रिश्तेदार के सर पर सर रखे सिसक रही हैं. आंखों में आंसू नहीं हैं. चेहरा जर्जर मकान की तरह तबाह नज़र आता है. शबीना के पति आमिर खान (उम्र 28 साल) और देवर हाशिम अली (उम्र 17 साल) की दंगे में मौत हो चुकी है. दोनों सगे भाई थे.
आमिर से छोटी और हाशिम से बड़ी नगमा बताती है, "मेरे दोनों भाई नाना को देखने गाजियाबाद अस्पताल गए थे. वे 26 फरवरी बुधवार को लौटने की बात बोले तो हमने मना किया कि हालात अभी बेहतर नहीं है. मत आओ लेकिन दोनों माने नहीं और घर आने लगे. गोकुलपुरी नाले के पास उनसे आखिरी बातचीत हुई. उन्होंने बताया कि थोड़ी देर में पहुंच रहे हैं. उसके बाद वो लापता हो गए. फोन भी बंद आ रहा था. हम दूसरे दिन पुलिस थाने गए. वहां पुलिस वालों ने कुछ लावारिश लाशों की तस्वीरें दिखाई जो उन्हें नाले से मिली थी. उसमें से दो मेरे भाई थे. मेरे दोनों भाइयों को मार डाला." ये कह कर नग़मा दहाड़े मारकर रोने लगती है.
आमिर की दो बेटियां हैं. उसे अपने गोद में लेकर नगमा कहती है, 'कपिल मिश्रा (बीजेपी नेता जिनपर दंगे भड़काने का आरोप लग रहा है) इसके अब्बा तू लाकर देगा. कपिल तुझे तेरे किए की सज़ा ज़रूर मिलेगी.”
दंगे की भूमिका
इस पूरे विवाद के दौरान बीजेपी नेता कपिल मिश्रा और आप नेता ताहिर हुसैन पर दंगा भड़काने का आरोप लग रहा है. दिलचस्प ये है कि दोनों एक समय पर बेहद करीबी थे. एक वक्त में मिश्रा का चुनावी दफ्तर हुसैन के मकान में था. जब मिश्रा ने आप से विधायक का चुनाव लड़ा था, तो हुसैन ने उनकी मदद की थी.
दंगे के लिए कौन जिम्मेदार यह तो जांच का विषय है. भारत में दंगों के दोषियों को सज़ा मिलने में लम्बा वक़्त लगने का इतिहास रहा है. दंगे की आंच पर रोटी सेंककर लोग सत्ता की ऊंचाई पर पहुंच गए और जो मर गए उनके परिजन इंसाफ के लिए सालों भटकते रहे. आज भी सिख समुदाय के लोग अपने साथ हुए कत्लेआम के इंसाफ के लिए लड़ ही रहे हैं. गुजरात के दंगों में तो तमाम आरोपी अब बरी भी होने लगे हैं.
मुस्तफाबाद से हाल ही में चुनाव जीतने वाले आम आदमी पार्टी के विधायक हाजी यूनिस के घर के बाहर सैकड़ों की संख्या में लोग जमा हुए है. इसमें से कुछ वे लोग हैं जिन्होंने अपनो को खोया है तो कुछ ऐसे है जिनको दंगे के दौरान गंभीर चोट लगी है. यहां जब हम पहुंचे तो दोपहर के दो बजे गए थे. विधायक हाजी यूनिस बैठे हुए थे. एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान के रिपोर्टर पीड़ितों से बातचीत करते नज़र आए. बात करते-करते एक बुजुर्ग महिला बिलख-बिलखकर रोने लगती है. उनके पोते की मौत दंगे के दौरान हो गई है वो अपनी पूरी बात नहीं कह पाती हैं.
यहां हमारी मुलाकात आबिया से हुई. आबिया के भतीजे मोहसिन की मौत दंगे के दौरान हो गई है. मोहसिन की उम्र बताते हुए आबिया कहती हैं, “उम्र का तो ध्यान नहीं लेकिन हमारे हाथ का खेलाया हुआ लड़का है. 25 साल का तो होगा ही.”
कुछ देर चुप रहने के बाद आबिया बताती हैं, "मोहसिन बेलदारी का काम करता था. उसके मां-बाप बादली इलाके में एक मैरिज हॉल में काम करते हैं. बुधवार को मैरेज हॉल में शादी थी तो शादी में से मिठाई बचा था. वही लाने मोहसिन गया था. मिठाई लेकर लौट रहा था तभी गोकुलपूरी में फंस गया. वहीं उसको मार दिया गया. उसने हमें फोन पर बताया था कि हिन्दुवानी इलाके में फंस गया हूं. उसके बाद कोई बात नहीं हुई. अभी उसका शव जीटीबी अस्पताल में पड़ा हुआ है. मेरे भाई और भाभी शव लेने गए है."
मोहसिन अपने परिवार के साथ मुस्तफाबाद में किराए के मकान में रहता था. चार बहन और तीन भाइयों में वो दूसरे नम्बर पर था. अभी उसकी शादी नहीं हुई थी. आबिया बताती हैं, "बढ़िया कमाता नहीं था इसलिए उसने शादी नहीं की थी. कहता था कि जब ठीक कमाने लगूंगा तब शादी कर लूंगा. अब सब बर्बाद हो गया. मेरे भैया तो कम ही बोलते थे लेकिन अब तो गूंगा हो गए है. भाभी भी बीमार है. दंगाइयों ने सब लूट लिया."
सुरक्षा बलों ने कहा मिल गई आज़ादी?
हम यहां से जीटीबी अस्पताल के लिए निकलते हैं तो रास्ते में हमें एक जगह कपड़ों के ढेर से कपड़े चुनते सैंकड़ों लोग नज़र आते हैं. वहां पता करने पर लोगों ने बताया कि शिव विहार से जान बचाकर भागकर आए लोगों के लिए आसपास के लोग कपड़े जमा कर रहे हैं. दंगे के दौरान शिव विहार सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है. वहां दंगाइयों ने जमकर कत्लेआम किया था. इसी जगह रिपोर्टिंग के दौरान एशियाविल के रिपोर्ट्स को एक दुकान के अंदर दिलबर नेगी नाम के शख्स की जली हुई लाश मिली थी. यहां कई घरों के अंदर आग लगा दिया गया था. जिसके बाद लोग वहां से घर छोड़कर भागने को मजबूर हैं.
यहां से अपने परिजनों के साथ भागकर आई गुलबहार आईटीओ स्थित कॉलेज ऑफ आर्ट्स की छात्रा हैं. गुलबहार बताती हैं, "सोमवार को मैं कॉलेज से लौट रही थी. रास्ते में ऑटो रोकर लोगों ने पूछा कि इसमें कोई मुस्लिम लड़की है तो बाहर निकालो. मैं चुप रही और वहां से निकल पाई. घर गई तो वहां बुरा हाल था. हमलोग रात 2 बजे तक कमरे में बंद रहे. आसपास के सभी घरों में आग लगा दिया उनलोगों ने. रात में सुरक्षाबल के लोग आए तो हम निकल पाए. रास्ते में सुरक्षा बल के लोग कह रहे थे कि मिल गई तुम्हें आज़ादी या और नारे लगाओगी.”
गुलबहार अर्धसैनिक बलों पर गंभीर आरोप लगाती हैं. लेकिन ऐसा कहने वाली वो इकलौती नहीं है. उनके साथ ही शिव विहार से आए जमीर भी अर्धसैनिक बलों को लेकर गुलबहार द्वारा लगाए गए आरोप को दोहराते हैं. शिव विहार के फेस 7 के गली नम्बर 21 में रहने वाले जमीर अपना सबकुछ छोड़कर मुस्तफाबाद आ गए हैं. वे कहते हैं कि मेरे घर में आग लगा दिया गया. सबकुछ जलकर खाक हो गया है. हम वहां से जैसे तैसे देर रात को निकलकर भागे हैं. जय श्रीराम के नाम के नारे लगाते हुए लोग हुड़दंग मचा रहे थे. वहां के कुछ हिन्दू भाइयों ने हमारी मदद की तो कुछ ने गद्दारी भी की. हम शाम से ही पुलिस को फोन कर रहे थे लेकिन हमें कोई सुनने वाला नहीं था.देर रात को गलियों में सीआरपीएफ के जवान नज़र आए तो हमने उनसे कहा कि हम यहां महफूज नहीं हैं. तब उन्होंने हमें वहां से निकाला. रास्ते में जवान हमलोगों से कह रहे थे कि मिल रही है तुम्हें आज़ादी. लो आज़ादी.
शिव विहार से सैकड़ों परिवार अपना घर छोड़कर आए हुए हैं. गुलबहार कहती हैं, "मैं आर्ट्स की स्टूडनेट हूं. पेंटिंग बनाती हूं. वहां से निकली तो कपड़े और चप्पल तक नहीं उठा पाई. पेंटिंग क्या ही उठाते. वो मेरे तमाम पेंटिंग को जला देंगे? सालों की मेहनत को जला देंगे?”इतना कहने के बाद वो अपनी आंखें पोछते हुए अपने लिए कपड़े बीनने चली जाती हैं. चारों तरफ फैली'शांति' के बीच पहली दफा शोर सुनाई देता है. कपड़े उठाते हुए लोग अपने-अपने लोगों की नाप को लेकर बातचीत करते नज़र आते है.
'हमने हिन्दू मंदिर को कुछ नहीं होने दिया'
दिल्ली में हुए दंगे के दौरान लोगों के घरों और दुकानों को तो जलाया ही गया इसके अलावा स्कूल और मस्जिदों को भी दंगाइयों ने निशाना बनाया. मुस्तफाबाद के फसमिया मस्जिद के अंदर आग लगा दी गई और वहां के इमाम पर भी हमला किया गया. लेकिन मुस्तफाबाद में ही कई मंदिर सुरक्षित हैं. यहां के नेहरू विहार के ई ब्लॉक में राम-सीता मन्दिर के पास जब हम पहुंचे तो वह बंद था. उसके आगे से सैकड़ों के संख्या में नमाजी नमाज़ पढ़ने जा रहे थे. मंदिर और उसके आसपास किसी को भी रुकने नहीं दिया जा रहा था.
नेहरू विहार मुस्लिम बाहुल्य इलाका है. यहां गिनकर 15 घर हिन्दुओं के है लेकिन चार दिनों तक आसपास में हुए दंगे का यहां असर नज़र नहीं आया. यहां के लोग बताते हैं कि मुसलमानों ने मंदिर की रखवाली की ताकि कोई अराजक तत्व मंदिर को नुकसान नहीं पहुंचा सके. यहीं के रहने वाले मोहम्मद जाहिर कहते हैं, "यहां भले ही कम हिन्दू भाई रहते हैं लेकिन सबमें खूब प्रेम भाव है. यहां आप देखिए मंदिर है लेकिन उसपर एक खरोंच तक नहीं आई. हम रातभर जगकर रखवाली करते रहे."
मंदिर के बगल में ही अपनी सीमेंट और ईंट की दुकान चलाने वाले रामदास यादव जो मंदिर के संरक्षक भी हैं ने बताया, "मैं बाहर था दंगे के बीच में लौटा लेकिन यहां सबकुछ शांत था. यहां के लोगों ने मंदिर का ख्याल रखा. किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ. यहां लोगों को आपस में बेहद प्रेम-भाव है. दंगे के बीच कोई भी परिवार यहां से छोड़कर नहीं गया."
इसके बाद हम यहीं के रहने वाले दिल्ली पुलिस में एसआई पद से रिटायर हुए मनुलाल से मिलने पहुंचे. कान से कम सुनने वाले मनुलाल जाहिद और सैयद जाकिर अली से शिकायत के अंदाज में कहते हैं, "आप लोगों ने हमारा ख़्याल रखा लेकिन एक बात बताइए हमारा सीसीटीवी कैमरा किसने तोड़ा? बाहर से आकर कोई तोड़ा तो नहीं होगा? सीढ़ी लगाकर उसे तोड़ा गया है. उसे तोड़ने का क्या मकसद था?”
इस सवाल का जवाब जाकिर अली हमसे मुखातिब होकर देते हैं. वे कहते हैं, "देखिए हम लगातार निगरानी कर रहे थे कि हमारी गली की बदनामी न हो. अब दो-चार मिनट के लिए इधर-उधर हुए तो किसी असमाजिक तत्व ने ऐसा कर दिया. अगर मैं देख लिया होता तो उसकी मरम्मत कर देता लेकिन देखा नहीं तो किसपर आरोप लगा दूं. हो सकता वो हमारी गली का हो. यहां भी तो एकाध असमाजिक तत्व हैं. लेकिन यहां हमने लगातार माहौल बेहतर रखने की कोशिश की है. जिसका नतीजा यह हुआ कि बगल में मस्जिद में आग लगाई गई लेकिन यहां मंदिर सुरक्षित है."
मनुलाल फिर एक आरोप लगाते हैं, बताओ भाटी की दुकान के आगे से पत्थर क्यों तोड़ा गया? इसके जवाब में जाकिर फिर सफाई देते हैं, "देखिए मैं कह तो रहा हूं कि असामाजिक तत्व हर जगह मौजूद हैं. यहां जो नए किराएदार आए हैं वो तो आपसी प्रेम और भाईचारा से परिचित नहीं है. उनमें से किसी एक की कारस्तानी होगी."
यह बातचीत इस बात से ख़त्म होती है कि यहां जो नए लोग आए हैं उनपर नज़र रखी जाएगी. कुछ भी हो यहां जो आपस में भाईचारा है वो ख़त्म नहीं होना चाहिए.
अब दोपहर के चार बज चुके है. हम इसके बाद जीटीबी अस्पताल की तरफ निकल जाते हैं. रास्ते में जली हुई गाड़ियां, दुकानें और घर गवाही देते है कि यहां नाज़ारा कितना भयावह रहा होगा. यहां से लौटते वक्त मुझे उस दादी की कही बात याद आती है जिनका पोता इस दंगे की भेंट चढ़ गया, "मुझे तो उसके कंधे पर जाना था लेकिन अब..."
दुखों का पहाड़ माने जीटीबी अस्पताल का शव गृह
सूरज अब डूब रहा था और हम जीटीबी नगर अस्पताल के बाहर हैं. वहां एक चाय की दुकान पर रंजीत नाम के एक शख्स से मुलाकात हुई. वह कहता हैं कि मेरे साथ काम करने वाले सलमान की मौत हो गई. उसी के परिजनों से मिलने आया था. अभी तक उसकी लाश तो नहीं मिली है. सोच रहा था कि अंतिम संस्कार में जाता लेकिन अब रात हो रही है. देर तक रुकने का अभी माहौल नहीं है. इसलिए निकल रहा हूं.
शव गृह के बाहर पत्रकारों और पीड़ितों के परिजन और दोस्त-यार खड़े नजर आते हैं. हम पहुंचते हैं तभी एक रोती हुई महिला शव गृह के अंदर से निकलती हैं. जिनका नाम शायरा बेग़म है. उनके देवर मेहताब की मौत हो चुकी है. अपने पति राशिद के साथ अपने देवर का शव देखकर लौटी शायरा बेजार होकर रोती नज़र आती हैं. उन्हें कुछ लोग समझाने लगते हैं. समझाते हुए एक शख्स कहते हैं कि तुम्हारा देवर शहीद हुआ है वो मरा नहीं है. ऐसा कहने वाले एक स्थानीय नेता होते है. काफी देर समझाने के बाद नेता अपने लोगों के साथ लौट जाते हैं.
ब्रह्मपुरी की रहने वाली शायरा से हमने बातचीत की. वो कहती हैं, "मेहताब मेरे देवर थे लेकिन उनका रवैया बिल्कुल मेरे छोटे भाई जैसा था. कभी उलूल-जलूल बात नहीं करते थे. 25 की शाम गली में माहौल खराब था. हमने उन्हें समझाया कि बाहर मत जाओ लेकिन चाय के शौकीन थे तो दूध लेने के लिए निकल गए और उसके बाद लौटकर नहीं आए. उनपर पहले चाकुओं से हमला हुआ और फिर पेट्रोल डालकर जला दिया गया. जब वो हमें मिले तो उनके शरीर के आगे का हिस्सा पूरी तरह जला हुआ था."
शायरा आगे कहती हैं, "हम अपने देवर को लेकर पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल गए. वहां से लेकर यहां जीटीबी अस्पताल आए तब तक उनकी मौत हो चुकी थी. 25 फरवरी को मौत हुई और आज 28 तारीख है लेकिन उनका शव हमें नहीं दिया गया है. अभी कह रहे हैं कि आज आठ बजे तक दे देंगे."
हम शायरा से बात कर रहे थे तभी मेहताब की बहन और भाई राशिद उनके पास आते हैं. मेहताब की बहन कहती है, "भाभी आप शव के साथ नहीं जाओगी. आपकी तबियत खराब है और ख़राब हो जाएगी." राशिद भी इसी बात को दोहराते है लेकिन शायरा जिद्द करती हैं कि मैं शव के साथ ही जाऊंगी.
मेहताब के भाई राशिद कहते हैं, "मेरे अब्बू की मौत बहुत पहले हो गई थी. तब मेहताब बहुत छोटा था. मैंने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया और आज वो हमारा साथ छोड़ गया. दंगाइयों ने मुझसे मेरा भाई छीन लिया. मैं कम कमाता हूं. मेहताब की कमाई से मां और बहन का खर्च चलता था. अब मां भी बीमार है और शायरा भी बीमार पड़ गई है. समझ नहीं आ रहा सबकुछ कैसे संभलेगा."
ब्रह्मपुरी के ही रहने वाले गुलफ़ाम बगल में खामोशी से खड़े नजर आते है. गुलफ़ाम के भाई जाकिर की जान मुस्तफाबाद में फसमिया मस्जिद के बाहर गोली लगने की वजह से चली गई है.
गुलफ़ाम बताते हैं, “फसमिया मस्जिद के पास मेरे वेल्डिंग की दुकान है. 25 की शाम मेरा भाई दुकान पर आया था. शाम छह बजे के करीब वो मस्जिद में नमाज पढ़ने गया. थोड़ी देर बाद बलवाई मस्जिद में आ गए और उसमें आग लगा दी. इमाम को लहुलुहान कर दिया. मेरे भाई का शव मस्जिद के बाहर पड़ा मिला. उसे तीन गोली लगी थी. आधे घण्टे में सबकुछ बर्बाद हो गया."
“जाकिर की पांच साल पहले शादी हुई थी. उसकी दो बेटियां है. वो मज़दूरी करके अपने परिवार का पालन-पोषण करता था. पहले मुझे ख़्याल आया कि नमाज पढ़ने जाने से रोक दूं. फिर लगा कि दंगाई मस्जिद में थोड़े जाएंगे. लेकिन मैं ग़लत था. काश की मैं उसे नमाज पढ़ने जाने से रोक दिया होता. कह देता कि दुकान में ही नमाज पढ़ लो. मैं ऐसा क्यों नहीं किया,” इतना कहकर गुलफ़ाम रोने लगते हैं.
'सलमान के लिए हमने लड़की देख लिया था'
शव गृह के बाहर मीडिया के जमावड़े के बीच एक महिला पत्रकारों को जमकर गाली देती नज़र आती है. वह कहती हैं कि टीआरपी के लिए हिन्दू-मुस्लिम के बीच नफ़रत फैलाते हैं और दंगे कराते है. दंगे के लिए सबसे पहली सज़ा पत्रकारों को होनी चाहिए. नालायक सब पत्रकार बन गए हैं. जब भी टीवी खोलों हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-मुस्लिम का शोर रहता है.
इसी शोरगुल के बीच हमारी मुलाकात मोहम्मद साजिद से होती है. मोहमद साजिद के भतीजे सलमान की मौत दंगे के दौरान हो गई है. यूपी बॉर्डर पर अल्वी नगर का रहने वाला 24 वर्षीय सलमान कोट-पैंट की सिलाई का काम करता था.
सलमान के चाचा मोहम्मद साजिद बताते हैं, "सलमान शिव विहार इलाके में कोट-पैंट बनाने का काम करता था. 25 फरवरी को वो काम पर गया था. देर शाम जब माहौल ख़राब हुआ तो जहां काम करता था वहां के लोगों ने कहा कि यहीं रुक जाओ लेकिन वो घर आने के लिए निकल गया. लेकिन घर नहीं पहुंच पाया. रास्ते में शिव विहार के पास ही उसे लावारिश हालात में किसी ने जीटीबी अस्पताल पहुंचा दिया था. हमें तो व्हाट्सएप ग्रुप में आई एक तस्वीर से पता चला कि सलमान के साथ ऐसा कुछ हो गया है. हम भागे-भागे अस्पताल पहुंचे. तब तक अस्पताल लेकर आने वाला शख्स जा चुका था. शुरुआत में हमें बताया गया कि उसके सर पर पत्थर से चोट लगी है. लेकिन बाद में राजीव गांधी अस्पताल में जब सिटी स्कैन हुआ तो पता चला कि उसे गोली भी लगी है."
साजिद आगे कहते हैं, "जब सलमान हमें मिला तो वो बोल नहीं पा रहा था. बस तड़प रहा था. डॉक्टर ने काफी कोशिश की उसकी जान बच जाए लेकिन ज़ख्म गहरा था. बुधवार देर रात डॉक्टरों ने कहा कि सलमान की मौत हो गई है."
सलमान अपने मां-बाप का सबसे बड़ा बेटा था. सलमान के पिता वाइपर और बाकी सफाई के समान घूमकर बेंचते है. साजिद बताते हैं कि सलमान के लिए लड़की देख की गई थी. अगले पन्द्रह दिनों में उसकी सगाई थी लेकिन सबकुछ ख़त्म हो गया."
जितने भी लोगों से हमारी मुलाकात हुई उसमें से किसी ने भी अभी तक पुलिस में कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराया है. ज़्यादातर लोग यही कहते हैं कि पुलिस पर क्या ही भरोसा करें. पुलिस अगर ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाती तो किसी भी एक शख्स की जान नहीं जाती. पुलिस तो बलवाइयों को दो दिनों तक उत्पात मचाने का मौका देती रही.
मुस्तफाबाद से आम आदमी पार्टी के विधायक हाजी यूनिस भी पुलिस पर गंभीर आरोप लगाते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए हाजी यूनिस कहते हैं, "24 फरवरीको मैं विधानसभा में था. इलाके से बार-बार लोगों के फोन आ रहे थे कि माहौल ख़राब हो रहा है. मैं जैसे-तैसे वहां से मुस्तफाबाद के लिए निकला लेकिन खजूरी खास में फंस गया. मैं लगातार पुलिस को सुरक्षा के लिए फोन कर रहा था. ट्वीट कर रहा था लेकिन कोई भी मदद के लिए नहीं आया. मैं तो एक चुना हुआ नेता था लेकिन मुझे जब पुलिस कोई सुरक्षा नहीं दे रही थी तो आम लोगों के साथ क्या किया गया होगा इसका अंदाजा लगाया का सकता है. मैं मोटरसाइकिल पर बैठकर घर पहुंचा."
हाजी यूनिस आगे कहते हैं, "दो दिनों तक सुरक्षा का इंतज़ाम नहीं किया गया. लोग मरते रहे. इस दौरान मैंने प्रधानमंत्री से लगातार ट्वीटर के जरिए गुजारिश किया. मेरे नेता अरविंद केजरीवाल एलजी साहब और पुलिस कमिश्नर से मिले. तब जाकर सुरक्षा बुलाई गई. अभी तक मेरी जानकरी में मुस्तफाबाद में 14 लोगों की मौत हो चुकी है. यह संख्या बढ़ भी सकती है क्योंकि कई लोग गंभीर स्थिति में अस्पताल में भर्ती हैं और कई लोग लापता है."
जब दवा की ज़रूरत थी, आम आदमी पार्टी दुआ मांग रही थी
दंगे के दौरान दिल्ली की सत्ता में काबिज आम आदमी पार्टी के व्यवहार पर भी सवाल उठ रहे हैं. आप के नेता ताहिर हुसैन का नाम दंगे को बढ़ावा देने में आया है. हालांकि पार्टी से उन्हें निष्काषित करते हुए उन्हें कठोर सजा देने की मांग की गई लेकिन जब दिल्ली आग में जल रही थी तो आप के नेता राजघाट में जाकर गांधी जी के समाधि के सामने फोटो खिंचवा रहे थे. जब दवा की ज़रूरत थी तब दुआ मांगी जा रही थी.
इस सवाल के जवाब में हाजी यूनिस कहते हैं, "ऐसा नहीं था. मेरे नेता एलजी साहब, पुलिस कमिश्नर और गृहमंत्री अमित शाह से मिले. सुरक्षा के इंतजाम किए. हमारे हाथ में पुलिस नहीं है तो हम कानून व्यवस्था तो देख नहीं सकते है."
आप सरकार की दंगे के दौरान रवैये पर खजूरी खास की रहने वाली नाजिया कहती हैं, "दिल्ली की जनता ने केजरीवाल का साथ दिया पर केजरीवाल ने दिल्ली को जलने दिया. अगर वो दंगा स्थल पर जाने की जिद्द कर लेते तो पुलिस खुद ही सुरक्षा मज़बूत कर देती."
जिस इलाके में दंगा हुआ वहां शांति तो है लेकिन मुर्दा शांति है.
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