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नोएडा के दिहाड़ी मजदूर: ‘‘सरकारी खाना मिल जाता है तो खाते हैं, नहीं तो उपवास’’
नोएडा सेक्टर पांच के लेबर चौक के पास अपने कुछ साथियों के साथ बैठे 55 साल के सर्वेश पाण्डेय मेरे सवाल करने से पहले पूछते हैं, ‘‘बेटा ये बताओ इलाहाबाद के लिए बसें कब से चलेंगी? 15 अप्रैल के बाद घर जा सकते हैं?’’
दोपहर के ग्यारह बज रहे थे जब हम सर्वेश से मिले. एक दिन पहले नोएडा प्रशासन द्वारा सेक्टर आठ से तीन सौ की संख्या में कोरोना संदिग्ध लोगों को जांच के लिए ले जाने के कारण आस पास के इलाकों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है. बातचीत के दौरान ही पुलिस की गाड़ियां वहां से गुजरती है और उसे देखते ही मजदूर इधर-उधर हो जाते हैं.
इन दिनों नोएडा का लेबर चौक देखने के बाद भरोसा ही नहीं होता कि यह वही जगह है जहां सालों से इंसानी भीड़ के बीच उन्हें दिहाड़ी पर चुना जाता था. लोग वहां आने वाली गाड़ियों के पास झुण्ड में अपनी-अपनी कीमत बोलते हुए पहुंचते थे. आज उसमें से कुछ मजदूर अपने सामने कारीगरी का सामान रखे किसी सब्जी विक्रेता की तरह आते जाते लोगों को निहाराते हैं कि शायद कोई आए और बोले चलो काम है.
रोजाना सुबह-सुबह यहां हज़ारों की संख्या में मजदूर काम की तलाश में पहुंचते थे. कुछ को काम मिल जाता था तो कुछ को उदास लौटना पड़ता था. वहां जो आज सूनापन मौजूद है शायद ही कभी इस तरह के हालात रहे हो.
दो-तीन दिन तो बिना खाए भी रहना पड़ा
गले में गुलाबी रंग का गमछा डाले सर्वेश पाण्डेय के पास ना कोरोना से बचने के लिए मास्क है और ना ही सेनेटाइजर. गमछे से मुंह को ढकते हुए वो कहते हैं, ‘‘सच बोलूं तो आज बीड़ी पीने तक के पैसे नहीं है. सरकारी गाड़ी खाना लेकर आती है तो खा लेते है नहीं तो उपवास करना पड़ता है. मरने की उम्र होने जा रही है लेकिन इतना बुरा दौर नहीं देखा.’’
इलाहाबाद के रहने वाले सर्वेश पाण्डेय नोएडा के अलग-अलग इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे. कभी वे भवन निर्माण में काम करने पहुंच जाते थे, तो कभी बेलदारी. हरौला और आसपास के इलाकों में काफी संख्या में लोग भैंस पालते हैं. जब कभी इन्हें काम नहीं मिलता था तो भैंसों के लिए चारे का भी इंतज़ाम करते थे. आमदनी कम होने के कारण सर्वेश ने कमरा किराये पर नहीं लिया है. कई मजदूर साथियों के साथ वे खुले आसमान के नीचे सोते हैं.
भारत सरकार द्वारा 24 मार्च को कोरोना वायरस के प्रकोप को बढ़ने से रोकने के लिए की गई लॉकडाउन की घोषणा के चार दिन पहले 20 मार्च से ही सर्वेश को कोई काम नहीं मिला है.
वे कहते हैं, ‘‘20 मार्च से पहले भी कम काम ही मिल पा रहा था. मुझे पिछले महीने के 20 मार्च तक महज 6 दिन काम मिला था. तो उस महीने कुल मिलाकर 2500 रुपए कमा लिया था. उसी में रोजाना खाना होता था. लॉकडाउन के बाद तो सारे रुपए खत्म हो गए. आज तो मेरे पास बीड़ी के भी पैसे नहीं है.’’
सर्वेश के बच्चे हैं जो इलाहाबाद में रहते हैं. वे कहते हैं, ‘‘उम्र ज्यादा हो गई है. पैदल तो जाना मुश्किल है. इसलिए मैं नहीं गया. मेरे जानने वाले सैकड़ों लोग यहां से चले गए. 15 अप्रैल को अगर बस चलने लगी तो मैं घर चला जाऊंगा. यहां तो मर भी गया तो कोई उठाने वाला नहीं है.’’
घर नहीं जाने का अफ़सोस
सर्वेश के बगल में मास्क को गर्दन सेलटकाये हुए बैठे 35 वर्षीय राजू कुमार उत्तर प्रदेश के रायबरेली के रहने वाले हैं.
न्यूजलॉन्ड्री से बात करने के दौरान राजू बार-बार इस बात का अफ़सोस जाहिर करते हैं कि जब उनके जानने वाले लोग पैदल जा रहे थे तब उन्हें भी पैदल निकल जाना चाहिए था. घर चले जाते तो भूखे तो नहीं रहना पड़ता.
क्या आपको भूखे रहना पड़ा. इस सवाल पर वो हंसते हुए वे कहते हैं, ‘‘यहां कौन है जो दो-तीन दिन भूखे ना रहा हो. मैं तो किराये के कमरे में रहता हूं तब भी मुझे भूखे रहना पड़ा.यहां तो जो बैठे हैं वो सब सड़क किनारे सोते हैं. इनके पास तो चावल-नमक या रोटी-नमक खाने तक का इंतजाम नहीं है.’’
राजू हरौला मार्केट में किराये के कमरे में रहते हैं.जहां 1400 रुपए के एख किराए के मकान में रहते हैं. नोएडा में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले राजू ज्यादातर समय बेलदारी का काम करते थे. बेलदारी यानी किसी सामानको अपनी पीठ पर उठाकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना. अब लॉकडाउन में दुकानें बंद हैं तो राजू के पास भी काम नहीं है.
नोएडा प्रशासन ने यहां के मकान मालिकों को मजदूरों से किराया नहीं लेने का आदेश दिया था लेकिन राजू से किराया लिया गया. वे कहते हैं,“इस महीने तो जैसे-तैसे किराया दे दिया. अगले महीने कहां से दूंगा. आमदनी तो एक रुपए की नहीं हुई है. अगर किराया नहीं दिया तो यहां के लोग सुबह-सुबह भैंस का गोबर उठाने के लिए कहते हैं. जब तक किराया नहीं चुका दो तब तक गोबर उठाना पड़ता है. गोबर नहीं उठाने पर मारते भी है.’’
राजू शादीशुदा हैं और उनकी पत्नी और दो बच्चे गांव में रहते हैं. राजू बताते हैं, ‘‘हर महीने आठ से दस हजार की आमदनी हो जाती थी. उसमें से पांच हज़ार घर भेज देता था. लेकिन इस महीने कहां से भेजूंगा. घर मेरे ही पैसे से चलता है. यहां अभी लग नहीं रहा कि मार्केट जल्दी खुलेगा. आज तो बगल (सेक्टर आठ) में ही काण्ड हुआ है. 300 लोग गए हैं. लॉकडाउन के बाद मेरे जानने वाले घर जा रहे थे लेकिन मैं नहीं गया. अगर गया होता तो गांव में गेहूं की कटाई करके या किसी के खेत में मजदूरी करके बच्चों के लिए खाने का इंतजाम तो कर ही देता.’’
आपका खाना पीना कैसे हो रहा है?इस पर राजू कहते हैं, ‘‘कमरे में अनाज का एक दाना नहीं है. जिनके यहां राशन लेते थे उन्होंने उधार देने से मना कर दिया. अब सरकार जो खाना बंटवा रही है, वही खाते हैं.”
राजू के पास गिनकर 60 रुपए रह गए हैं. वे उन रुपयों को दिखाते हुए कहते हैं. इतने ही बचे हुए है. देखिए कब तक काम चलता है.
घर नहीं है, मेरा कोई नहीं है
बनारस के करीब बाजीदपुर के रहने वाले हरिमोहन श्रीवास्तव नोएडा के लेबर चौक पर बीते 19 सालों से मजदूरी की तलाश में रोजाना आते हैं.
53 साल के हरिमोहन से जब हमारी मुलाकात हुई तब वे नोएडा ऑथॉरिटी द्वारा दिए गए खाने को खा रहे थे. थोड़ी देर पहले ही गाड़ी से ऑथॉरिटी के लोग इन्हें खाना दे गए हैं.
बातचीत के लिए हरमोहन खाना रोक देते हैं. वे कहते हैं, “पेट भर गया है. थोड़ा बचा है. शाम के लिए रख लेता हूं. क्या पता ऑथॉरिटी वाले आये या नहीं. कल शाम को मैं खाना नहीं ले पाया तो मुझे रात में भूखे रहना पड़ा था. ये कब आते है और कब जाते हैं पता ही नहीं चलता है.”
हरिमोहन नोएडा में बीते 19 सालों से रह रहे हैं. इसी लेबर चौक से ये अलग-अलग जगहों पर मजदूरी करने जा चुके हैं. उन्होंने कभी कमरा किराए पर नहीं लिया. शुरू से ही सड़क किनारे झुग्गी डालकर सोते रहे. जब पुलिस वालों का मन हुआ झुग्गी हटा दिया. जब झुग्गी हट गई तो बाकी मजदूरों की तरह खुले आसमान के नीचे सोने पर मजबूर हुए. अभी वो सर्वेश के साथ खुले में सोते हैं.
हरिमोहन बताते हैं, ‘‘शादी नहीं की. घर कभी-कभी चला जाता हूं. मजदूरी में बहुत आमदनी नहीं है. मार्च में 20 तारिख तक काम हुआ. मुझे इस 20 दिनों में सिर्फ तीन दिन काम मिला है. यहां ज्यादातर लोगों को अब काम मिल ही नहीं रहा. काम करने वालों की संख्या में रोजाना इजाफा होता है लेकिन काम की काफी कमी है. जिसका फायदा उठाकर काम कराने वाले कम मजदूरी देने की कोशिश करते है.’’
हरिमोहन की बातों में घर लौटने की कोई चाह नहीं दिखती है. वे कहते हैं, ‘‘पैसे नहीं है. मार्च में आमदनी बहुत कम ही हुई है. कमरा तो है नहीं. खाना तो होटल में ही पड़ता है. मेरे पास आज एक रुपया नहीं बचा है. एक दोस्त से पांच सौ रुपए उधार लिया था वो भी खत्म हो गया है. साहब हम लोग रोजाना कमाने और खाने वाले लोग है. जल्दी से सब ठीक नहीं हुआ तो हमारी परेशानी बढ़ जाएगी.’’
नोएडा कोरोना का हॉटस्पॉट बन गया है. ये लोग खुले में सोते हैं. इस पर पुलिस प्रशासन का रवैया कैसा होता है. इस सवाल के जवाब में हरिमोहन कहते हैं, ‘‘अभी तक तो पुलिस वाले भगाने नहीं आए है. हम लोग सड़क से थोड़ी दूरी पर सोते हैं. पुलिस तो सड़क के किनारे-किनारे देखती है. वैसे पुलिस की लाठी खाने की आदत पड़ गई है.’’ इतना कहने के बाद वे मुस्कुराने लगते हैं. मुस्कुराते हुए अपने एक साथी की तरफ इशारा करते हुए वे कहते हैं कि इस भाई के पास 15 हज़ार रुपए हैं.
15 हज़ार रुपए लेकर घूमता मजदूर
एक तरफ सर्वेश, राजू और हरिमोहन के पास पैसे की तंगी है वहीं उनके एक साथी रवि कुमार के पास 15 हज़ार रुपए हैं जिसे वो बोरी में लेकर घूमते रहते हैं.
हरिमोहन ने जब कहा कि मेरे साथी के पास पन्द्रह हज़ार रुपए हैं तो मुझे लगा शायद मजाक कर रहे हो लेकिन यह बात सही निकली. रामपुर के रहने वाले रवि के पास बैंक अकाउंट नहीं होने के कारण उन्होंने जो भी कमाया है सब कैश में ही उनके पास जमा है.
रवि कहते हैं, ‘‘मजदूरी करके जो कमाया हैं वो सब यहीं है. इसके होने से भी क्या ही फायदा है. तीन दिन तक बिस्कुट खाकर और पानी पीकर रहना पड़ा था. मैं भी सड़कों पर ही सोता हूं. जो कमाता हूं वो खाता हूं. घर की कोई जिम्मेदारी नहीं है. लेकिन कुछ मिल नहीं रहा है. तो इन पैसों का क्या फायदा है.’’
रवि को आज सुबह ऑथॉरिटी द्वारा दिया जाने वाला खाना नहीं मिला है. उन्होंने कोशिश भी की थी कि कुछ और मिल जाए लेकिन सेक्टर पांच में पांच कोरोना मरीजों और सेक्टर आठ में 300 से ज्यादा संदिग्ध कोरोना प्रभावितों के सामने आने के बाद पुलिस की सख्ती के कारण कोई भी दुकानदार गलती से भी दुकान खोलने की हिम्मत नहीं कर रहाहै.
काम बंद होने की वजह से बन गया रिक्शा चालक
नोएडा में लॉकडाउन के बाद यातायात के तमाम साधन बंद है लेकिन अभी भी रिक्शा चलाने पर कोई पाबंदी नज़र नहीं आती है. नोएडा में जगह-जगह रिक्शे चलते नजर आते हैं.
लॉकडाउन की वजह से काम नहीं मिलने के कारण कई मजदूरों ने रिक्शा चलाना शुरू कर दिया है. हरौला के आसपास में बहुत सारे मालिक किराये पर रिक्शा चलवाते हैं. ऐसे ही एक मालिक के यहां से रिक्शा लेकर निकले उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के रहने वाले सूरज कुमार का आज चौथा दिन है.
वे कहते हैं, ‘‘सवारी तो मिल नहीं रही हैं. दोपहर का वक़्त हो गया है लेकिन आप पहले सवारी हो. कल 140 रुपए ही कमा पाया था. लेकिन कुछ नहीं कमाने से बेहतर हैं कुछ कमाना. रिक्शे के बदले मालिक को रोजाना के 40 रुपए देने पड़ते है. पिछले चार दिनों से चला रहा हूं. किसी दिन सौ रुपए कमा पता हूं तो किसी दिन 80 रुपए.’’
सूरज यहां अपने छोटे भाई के साथ किराये के कमरे में रहते हैं. पहले वे एक कंपनी में मजदूरी का काम करते थे जहां उन्हें महीने के सात से आठ हज़ार रुपए मिल जाता करते थे लेकिन काम बंद होने के कारण उन्हें मज़बूरी में पेट पालने के लिए रिक्शा चलाने पर मजबूर होना पड़ा है.’’
सूरज कहते हैं, ‘सिर्फ मैं ही नहीं मेरे जैसे कम से कम दस लोग हैं जो पहले मजदूरी का काम करते थे लेकिन अब पिछले दस दिनों से रिक्शा चलाने लगे हैं. जिनका परिवार है यहां. बीबी और बच्चे हैं उनको तो कैसे भी कमाना पड़ेगा ना.’’
पूरे दिन हमें कम से 40 से 50 मजदूर मिले लेकिन सूरज इकलौते ऐसे थे जिन्हें लॉकडाउन के बाद भूखे नहीं रहना पड़ा. वे हंसते हुए कहते है, ‘‘मैं अपने कमरे पर हर समान रखता हूं. लॉकडाउन की घोषणा के समय ही सबकुछ खरीदकर रख लिया था. फिर रिक्शा चलाता हूं तो किसी गली वगैरह में छुपाकर जो दुकानें खोल रखी है वहां से कुक-कुछ उठा लेता हूं.’’
24 वर्षीय सूरज को खाना देने आने वालों लोगों से नाराजगी है जिस वजह से अब तक सरकारी खाना नहीं ले पाए हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारे यहां लोग खाने की पूजा करके खाते हैं लेकिन ये लोग खाने को ऐसे फेंककर देते हैं जैसे उसका कोई सम्मान ही ना हो. दूसरा कारण खाना नहीं लेने का यह है कि वहां भीड़ बहुत ज्यादा होती है. लोग एक दूसरे पर गिरते रहते हैं. ऐसे में दूरी कैसे बनाकर रखी जा सकती है. इसीलिए मैं खाना लेने आज तक नहीं गया.’’
नोएडा पुलिस की सख्ती
हरौला के एक कॉलोनी की सुरक्षा के लिए तैनात सात-आठ पुलिसकर्मी में से एक न्यूज़लांड्रीसे बात करते हुए थोड़े तल्ख होकर कहते हैं, ‘‘जो नहीं मान रहा उसकी जबरदस्त सुताई (पिटाई) कर रहे हैं. इन्हें अपनी फ़िक्र नहीं है तो हम इनकी फ़िक्र क्यों करें. जो जैसे मिले रहा है उसको वैसे ही मार रहे हैं.’’
बातचीत के दौरान ही एक दुबला पतला लड़का मुंह पर बिना मास्क लगाए टहलते हुए निकलता है. धीरे-धीरे एक पुलिसकर्मी उसके पीछे-पीछे जाता है फिर तेजी से उसके पैर पर लाठी मारता है. लड़का लंगड़ाते-लंगड़ाते हुए गोली की रफ्तार से भागता है.
नोएडा कोरोना का हॉटस्पॉट बन चुका है. स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 15 अप्रैल तक कोरोना के 735 मामले सामने आए हैं. इसमें से सबसे ज्यादा आगरा में 150 मामले हैं वहीं नोएडा में अब तक 82 मामले सामने आ चुके है.
नोएडा को स्वास्थ्य मंत्रालय ने हॉटस्पॉट घोषित किया है. उसके बाद नोएडा प्रशासन ने जिले के 22 जगहों को सील करने का निर्णय लिया है जहां कोरोना के ज्यादा मरीज होने की संभावना है. इन 22 इलाकों में सेक्टर आठ और सेक्टर पांच की जेजे कॉलोनी भी है. यह कॉलोनी लेबर चौक से बेहद करीब है. ज्यादातर मजदूर यहीं पर किराये का कमरा लेकर रहते है. कोरोना के मरीज और संदिग्ध सामने आने से वे सब डरे हुए हैं.
मजदूरों के लिए क्या है इंतजाम
नोएडा से ज्यादातर मजदूर लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही अपने घरों के लिए निकल गए हैं लेकिन जो मजदूर यहां हैं उनके प्रशासन द्वारा कई तरफ के इंतजाम किए गए है.
नोएडा के जिलाधिकारी सुहास एलवाई न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘मजदूरों के लिए यहां दो-तीन तरह के इंतजाम किए गए हैं. एक तो एक लाख 25 हज़ार लोग जिनके पास राशन कार्ड हैं उन्हें अप्रैल के शुरुआती सप्ताह में राशन दिया गया है. सरकार ने मजदूरों को एक-एक हज़ार रुपए देने के लिए कहा था उसके अंतर्गत आने वाले मजदूरों के खाते में रूपए डाल दिए गए है. तीसरा यहां लगभग हर जगह नोएडा अथॉरिटी, ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी और कुछ एनजीओ के सहयोग से खाना बांटा जा रहा हैं. किसी दिन 80 हज़ार तो किसी दिन एक लाख खाने का पैकेट बांटा जाता है.’’
सुहास आगे कहते हैं, ‘‘जिन लोगों को रुकने की ज़रूरत थी उनके लिए शेल्टर होम का इंतजाम किया गया है. हालांकि अब वहां कम लोग है. ज्यादातर लोग जा चुके हैं. लेकिन जो रह गए हैं उनके लिए भी खान पान की व्यवस्था की गई है. आगे भी शासन का निर्देश होगा उसके हिसाब हम मजदूरों के बेहतरी के लिए काम करते रहेंगे.’’
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