Newslaundry Hindi
फेक न्यूज़, कोरोना महामारी, मुसलमान और सूचना की राजनीति
सरकार और फेक न्यूज़
यह बड़ा विरोधाभासी लगता है कि हम कोरोना महामारी का इलाज बड़ी गंभीरता से खोज रहे हैं. जिसका इलाज भरसक कोशिशों के बावजूद अब तक संभव नहीं हुआ है. लेकिन ‘फेक न्यूज़’ से उत्पन्न हो रहे निरंतर खतरों को खतरा या बीमारी मानने को तैयार नही हैं, जबकि इसका इलाज हमारे नियंत्रण में है.
इसमें एक तर्क हो सकता है कि अभी हमारी सरकार को ‘फेक न्यूज़’ से उत्पन्न हो रहे या होने वाले व्यापक खतरों का अंदाजा नही है. लेकिन इसके विपरीत मेरा तर्क यह है कि सरकार को इससे उत्पन्न होने वाले खतरों का भलीभांति अंदाजा है लेकिन वह जिस राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है उसका यह एक अभिन्न अंग बन गया है, और उसको चुनावी राजनीति में अथाह फायदा पहुंचाता है. ‘फेक न्यूज़’ शब्द को 2017 में कॉलिंस शब्दकोष ने ‘वर्ड ऑफ़ द इयर’ कहा. जो कि मुख्यतया 2016-2017 में प्रचलन में आया.
महाराष्ट्र के पालघर में गुरुवार को ‘फेक न्यूज़’ की वजह से हुई तीन लोगों की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या की घटना इस बात का प्रमाण है. हमें इन खतरों को समझ कर जल्द ही स्थायी समाधान खोजना होगा इससे पहले कि ये कोरोनो जैसा भयंकर आपदा का रूप धारण कर लें. एक लोकतान्त्रिक समाज का नैतिक पतन तब शुरू हो जाता जब उसके नागरिक गलत या भ्रमिक खबरों से सूचित होते हैं.
संयुक्त राष्ट्र में ‘सूचना-समाज’ की नैतिकता पर भारत और विश्व का नजरिया
वर्ल्ड समिट ऑन द इनफार्मेशन सोसाइटी के नाम से संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार ‘सूचना-समाज’ के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा के लिए एक संगोष्ठी का आयोजन 2003 में किया, उसमें भारत के तत्कालीन संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अरुण शौरी अपने प्रतिनिधित्व मंडल के साथ, जेनेवा में सम्मलित हुए थे. 12 दिसम्बर 2003 को उसी समिट ने वैश्विक सिद्धांतों का घोषणापत्र जारी किया. उसके बिंदु क्रमांक बी-10 में ‘सूचना-समाज’ के नैतिक पहलुओं पर बात की गयी है. उसके अनुसार, जितने भी देश या संस्थाएं समिट का हिस्सा हैं उनको सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के गैर-कानूनी और अनुचित उपयोग को रोकने के लिए भरसक प्रयास करने चाहिए जिससे किसी भी तरह के ‘जातीय तथा भाषायी भेदभाव, नफरत, हिंसा और असहिष्णुता को रोका जा सके.’
इससे उलट आज खुले तौर पर, कोरोनो की आड़ में, सूचना-समाज में भ्रम और नफरत को मुसलमानों के ख़िलाफ़ फैलाया जा रहा है. भारतीय मुसलमान लॉकडाउन में दोहरे ‘सामाजिक अलगाव’ को महसूस कर रहे हैं-
· एक, सरकारी स्तर पर (जो की सबके लिए समान है)
· दूसरा, फेक न्यूज़ से निर्मित बीमारी जिसे समस्या के रूप में देखा ही नहीं जा रहा है. इसके परिणामस्वरुप, मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करने की बातें सोशल मीडिया में आम हो गयी हैं, जिसके परिणाम दूरगामी होंगे. यह एक नयी तरह की छुआछूत को जन्म दे रहा है. जोकि भारत के उदारवादी और लोकतान्त्रिक चरित्र को सांप्रदायिक बनाना चाहता है.
फेक न्यूज़ का दायरा
कुछ साल पहले तक ‘फेक न्यूज़’ का दायरा ग्रामीण और अर्ध शहरी लोगों (मुख्यरुप से पुरुषों) तक सीमित माना जाता था. लेकिन बीते कुछ सालों में इसका दायरा फैलकर, शहरों के आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न पढ़े-लिखे वर्ग तथा विशेष ख्यातिप्राप्त वर्ग (जिसमें अध्यापक, लेख़क, अधिकारी, खिलाडी, अभिनेता, निर्माता और पत्रकार आदि शामिल हैं) तक पहुंच गया है जो कि हिन्दुस्तानी समाज में व्यापक हो रही खोखली चेतना की पुष्टि करता है
‘फेक न्यूज़’ और वैकल्पिक ख़बर’
आज कल ‘फेक न्यूज़’ को ‘वैकल्पिक ख़बर’ बताकर प्रस्तुत किया जा रहा है. ‘फेक न्यूज़’ निराधार, झूठी और सनसनीखेज होती है जबकि ‘वैकल्पिक ख़बर’ आंशिक रूप से सही हो सकती है और सत्यापित या असत्यापित की जा सकती है. इसके तथ्यों की वैधता को भी चुनौती दी जा सकती है. यह एक सकारात्मक शब्द है जिसमें हमारा ज्ञान बढ़ाने की क्षमता होती है. इसके विपरीत ‘फेक न्यूज़’ की वैधता न के बराबर होती है. जो समाज झूठे तथ्यों से निर्मित ख़बरों के आधार पर बुद्धिमत्ता, नैतिकता का निर्माण, और ज्ञान अर्जित करता है, उस समाज और सभ्यता का पतन निश्चित है. पुरे झूठ/अर्धसत्य के आधार पर एक न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना नही की जा सकती.
सूचना-समाज की राजनीति
आज के दौर में हमें सूचना की राजनीति को समझाना होगा. सूचना अब महज ज्ञानवर्धन का स्रोत न रहकर वस्तु बन चुकी है. हिंदुस्तान में जाली खबरों को टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के द्वारा बेचा जा रहा है, एक वर्ग (मुसलमानों) को केंद्र में रखकर ये बाज़ार तैयार किया जा रहा है. मेरे लिए, नफ़रत के लिफ़ाफे में बंद झूठी खबरें बनाया जाना आश्चर्य की बात नहीं, जितना आश्चर्य मुझे यह है कि भारत जैसे देश में उनको ख़रीदने में समय और पूंजी को खर्च किया जा रहा है. हालांकि इन ख़बरों का निर्माता इन्हें एक राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्य के लिए उत्त्पन्न करता है. भीड़ द्वारा लोगों की हत्या इसका एक परिणाम है.
इस सूचना के बाज़ार में लगभग मुफ्त इन्टरनेट सेवा आने के बाद, सूचना की खपत और व्यवसायीकरण में अकल्पनीय इजाफ़ा हुआ है. मोबाइल-क्रांति के आने के बाद सूचनाओं (असत्य) का प्रचार-प्रसार लगातार ज़्यादा हुआ है. सूचना का यह विस्तार ‘पोस्ट-नैतिक’/नैतिकता मुक्त सूचना के समाज का निर्माण कर रहा है. सूचना की नैतिकता को सिर्फ सूचना से होने वाले फायदे से देखा जायेगा, फायदे का स्वरूप वैचारिक, राजनीतिक और आर्थिक हो सकता है. सूचना स्वयं में नैतिक नही बची है.
संजोय चक्रवर्ती 2019 में आई अपनी किताब ‘द ट्रुथ अबाउट अस’ में सूचना की राजनीति को भारतीय परिप्रेक्ष में समझने की कोशिश करते हैं. वह मानते हैं कि ‘सूचना-क्रांति’ ने हमारे मन मस्तिष्क की विषय-सूची को अकल्पनीय रूप से बदल दिया है तथा डिजिटल और मोबाइल प्रौद्योगिकी ने ज्यादा तेजी से ज्यादा सूचनाओं को कम फिल्टर्स के साथ उपलब्ध कराया है जो कि मानव इतिहास के किसी भी काल में नहीं हुआ है.
कोरोना महामारी और मुसलमान
जिस तरीके से तब्लीगी जमात के लोगों में फैले कोरोना संक्रमण की ख़बर सोशल मीडिया और कुछ न्यूज़ चैनल्स के जरिये ‘कोरोनो जिहाद’ के तौर पर चलाया गया वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ बढ़ रही नफरत का एक नया आयाम है. अगर वो सचमुच जिहाद था तो उसके क्या तथ्य हैं, अन्यथा ये समझा जाये कि कुछ न्यूज़ चैनल्स सरकार की गोद में बैठकर प्राइम टाइम के जरिए खुद के अन्दर का मानसिक दिवालियापन और अतिवाद आम हिन्दुस्तानी दिल-दिमाग़ में भर रहे हैं. हिन्दुस्तानी सरकार ऐसे पत्रकारों/न्यूज़ चैनलों पर करवाई न करके सिर्फ राजनीतिक लाभ लेना चाहती है, वह अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे लोगों के साथ खड़ी दिखाई देती है जो सांप्रदायिक ज़हर फैलाकर राजनीतिक लाभ पहुंचा रहे हैं.
सरकार को कोरोना महामारी के दौरान इस्तेमाल सामाजिक दूरी जैसे शब्द की जगह शारीरिक दूरी जैसी बात करनी चाहिए, क्योंकि घोर सामाजिक विषमता वाले देश में सामाजिक दूरी जैसे शब्द सामाजिक न्याय की लड़ाई को कमजोर करते हैं, कमजोर, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों के धीरे-धीरे भर रहे घावों को कुरेदते हैं. इस अस्थायी रूप से लागू ‘शारीरिक दूरी’ के प्रावधान को ‘फेक न्यूज़’ के ज़रिये मीडिया और सोशल मीडिया स्थायी दूरियों में बदलने की पूरी कोशिश कर रहा है. ऐसे लोगों पर तुरंत कानूनी करवाई करके अंकुश लगाया जाना चाहिए.
(लेखक इन्द्रप्रस्थ महिला कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
Also Read
-
Dec 25, 2025: Delhi struggles with ‘poor’ AQI as L-G blames Kejriwal
-
In India, Christmas is marked by reports of Sangh-linked organisations attacking Christians
-
Is India’s environment minister lying about the new definition of the Aravallis?
-
लैंडफिल से रिसता ज़हरीला कचरा, तबाह होता अरावली का जंगल और सरकार की खामोशी
-
A toxic landfill is growing in the Aravallis. Rs 100 crore fine changed nothing