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मुरथल में मुर्दानगी छाई है क्योंकि ढाबे अगले आदेश तक बंद रहेंगे

मुरथल की आरके कॉलोनी में प्रवेश करने वाले रास्ते को बांस से घेर दिया गया है ताकि बाहर से आने वाले लोगों को रोका जा सके. उसके बगल में दो बुजुर्ग लाठी लेकर बैठे हुए. इनके पास एक बड़े बोतल में सेनेटाइजर रखा है. बुजुर्ग गली के अंदर आने वाले लोगों के हाथों पर सेनेटाइजर लगाने के बाद उनसे पूछताछ करते हैं, फिर अंदर जाने देते हैं. इस तरह के इंतजाम हरियाणा के ज्यादातर गावों में किए गए है. गांव की पहरेदारी के लिए बकायदा लोगों की ड्यूटी निर्धारित की गई है.

मुरथल बीते बीस-तीस सालों में अपने छोटे-बड़े ढाबों के हब के रूप में विकसित हुआ है. दिल्ली से निकलने और पानीपत पहुंचने से पहले मुरथल मध्यवर्गीय परिवारों और ट्रक चालकों का पंसदीदा पिकनिक स्थल है. यहां सैकड़ों की संख्या में छोटे-बढ़े ढाबे हैं. रोजाना हज़ारों लोग अपने परिजनों, दोस्तों के साथ खाने आया करते थे. मुरथल आम दिनो में बेहद गुलजार रहता था लेकिन लॉकडाउन की वजह से यहां भी सन्नाटा पसर गया है, सभी ढाबे बंद हैं. ढाबा मालिकों को रोजाना लाखों का नुकसान हो रहा है. इन ढाबों पर लोगों को खिलाने वाले मजदूर भी भूखे, बदहाल और परेशान हैं. वे जल्द से जल्द अपने घरों को लौटना चाहते हैं.

मुरथल के ढाबों पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर पास ही में आरके कॉलोनी में ही रहते हैं. गाड़ी से उतरने के बाद बांस के पास बैठे बुजुर्ग हमसे यहां आने का कारण पूछते हैं. सबकुछ बताने के बाद वे सेनेटाइजर हाथ पर लगाकर बगल की ही एक बिल्डिंग में भेज देते हैं.

दोपहर के दो बज रहे हैं. तेज धूप निकली हुई है लेकिन बिल्डिंग के अंदर धुप्प अंधेरा है. सीड़ियों से चढ़ते हुए हम छत पर पहुंचते हैं. इस छोटे से भवन में लगभग 70 मजदूर रहते हैं. इनमें से ज्यादातर बिहार के मधुबनी जिले के रहने वाले हैं.

यहां हमारी मुलाकात कई मजदूरों से होती है लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी सुपौल जिला के रहने वाली पंकज कुमार सिंह से मिलकर हुई. गुलशन ढाबा में काम करने वाले पंकज पैसे की तंगी के कारण तीन दिनों तक सिर्फ पानी पीकर रहे. शर्मिंदगी की वजह से यह बात वे अपने पास पड़ोस के लोगों से साझा नहीं कर पाए. जब पंकज की स्थिति बेहद खराब हो गई तो उनके साथियों को इसकी जानकारी मिली तब उन्होंने उन्हें खाना खिलाया.

हाफ टीशर्ट पहने दुबले पतले पंकज मुंह पर रुमाल बांधे हुए एक कोने में खड़े दिखे. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘‘पैसे नहीं है. मालिक ने जो पैसे दिए थे वो राशन पर खत्म हो गया. पहले नहीं बताया लेकिन तीन दिन में तबीयत खराब हो गई तो अपने दोस्तों से बताया तब उन्होंने खाना खिलाया.’’

सुपौल जिला के पंकज कुमार सिंह

यह बात बताते हुए पंकज हांफ रहे थे. उनकी तबीयत अब भी बेहतर नहीं हुई है. कमजोरी चेहरे से दिख रही है. पंकज से हम बात कर रहे थे तभी उनका एक साथी मजदूर बोल पड़ता है, ‘‘अरे सर जब साथियों के पास खाने को होगा तभी तो वो दूसरे को खिलाएंगे.’’

लॉकडाउन खुलने के बाद भी सात से आठ महीने बाद यहां लौटेगी रौनक

कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने 24 मार्च को 21 दिन के लिए देशभर में लॉक डाउन की घोषणा की थी. तब इसकी घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सोशल डिस्टेंसिंग के अलावा हमारे पास इस बीमारी को रोकने के लिए कुछ भी नहीं है. इटली और अमेरिका जहां की स्वास्थ्य सुविधाएं हमसे बेहतर हैं उन्होंने घुटने टेक दिए है तो हमें ज्यादा एहतियात बरतने की ज़रूरत है.

प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सबकुछ ठप हो गया. 21 दिन पूरा होने से पहले ही प्रधानमंत्री एकबार फिर सामने आए और उन्होंने लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने का निर्णय लिया. राहुल गांधी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि लॉकडाउन कोविड-19 का हल नहीं है ज़रूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जांच की जाए. राहुल गांधी के इस बयान पर सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों ने उनकी आलोचना की हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी 20 अप्रैल को ट्वीट के जरिए कुछ वैसी ही बातें बोलीं जो राहुल गांधी कह चुके हैं. डब्ल्यूएचओ ने लिखा कि लॉकडाउन महामारी को कम कर सकता है रोक नहीं सकता है.

दिल्ली-पानीपत हाईवे पर स्थित मुरथल के ढाबे दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और यूपी के साथ-साथ विदेशी लोगों में खासा लोकप्रिय हैं. इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां स्थित सुखदेव ढाबे में सामान्य दिनों में रोजाना दस हज़ार तक लोग खाने के लिए आते थे. लेकिन आज सुखदेव ढाबे के बाहर सिर्फ एक गार्ड है. सुखदेव ढाबा के प्रबंधन ने अपने यहां के मजदूरों को लॉकडाउन के पहले ही छुट्टी पर भेज दिया है.

सुखदेव ढाबे के गेट पर अपने साथियों के साथ खड़े कुणाल सुरक्षा गार्ड्स के इंचार्ज हैं. वो न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘कोरोना को लेकर भारत में जैसे ही हलचल शुरू हुई उसके बाद से ही सुखदेव में एहतियात बरता जाने लगा. जनता कर्फ्यू से पहले ही इसे बंद कर दिया गया था. हमारे यहां एक हज़ार के करीब मजदूर थे सबका हिसाब करके उन्हें छुट्टी पर भेज दिया गया. अब यहां कोई मजदूर नहीं है. सिर्फ गार्ड हैं, जो आसपास के गावों के रहने वाले हैं. वे घर से ही खाना लेकर आते हैं.’’

आसपास के लोगों की माने तो मुरथल का सबसे बड़ा ढाबा सुखदेव ही है. यहां खाने का अलावा रहने का भी इंतज़ाम है. मैरेज हॉल भी है.

ढाबा मालिकों की कहानी

मुरथल ढाबा एसोसिएशन के प्रमुख मंजीत सिंह जिनका यहां पर झिलमिल नाम से ढाबा है. वे न्यूजलॉन्ड्री से बताते हैं कि दिल्ली-पानीपत हाईवे पर कोंडली बॉर्डर से मुरथल तक पांच बड़े ढाबे हैं जिनकी रोजाना की बिक्री पांच लाख तक है. वहीं 18 मध्यम स्तर के ढाबे हैं जिनकी बिक्री ढाई से तीन लाख तक है. इसके अलावा 60 छोटे-छोटे ढाबे हैं जहां ट्रक या दूसरी सवारी गाड़ियां रुकती है. इनकी आमदनी 30 हज़ार तक है.

“3 मई तक अगर लॉकडाउन खुल जाएगा, तब भी लगभग 40 दिन की बंदी में यहां के ढाबा मालिकों को 35 से 40 करोड़ का नुकसान होगा. ढाबा मालिकों के अलावा अलावा यहां दूध देने वाले, सब्जी बेचने वाले और मजदूरी करने वालों को भी धंधा चौपट हो रहा है,” मंजीत कहते हैं.

मंजीत सिंह एक और चिंता की ओर इशारा करते हैं, ‘‘सरकार अगर 3 मई को लॉकडाउन हटा भी देती है तो हम किसके भरोसे खोलेंगे. सारे मजदूर अपने गांव चले गए हैं. वे डर के मारे जल्दी लौटेंगे नहीं. कोरोना का डर लोगों में लम्बे समय तक रहेगा. मुझे लगता है कि मुरथल में पुरानी रौनक लौटने में पांच से छह महीने लगेंगे.”

प्रधान मंजीत सिंह आगे कहते हैं, ‘वैसे 3 मई के बाद भी यहां हालात बदलने की उम्मीद नहीं है. हाल ही में सोनीपत जिले में आठ मामले सामने आए हैं. अब देखना होगा कि आगे मामले बढ़ते हैं या नहीं. अगर बढ़ गए और यह जिला भी हॉटस्पॉट बन गया तो ढाबा खुलना मुश्किल होगा.’’

यहां के बड़े ढाबों में से पहलवान ढाबा भी खासा मशहूर है. पहलवान ढाबे के मालिक दयानंद सिंधु कहते हैं, ‘‘रोजाना की हमारी लगभग चार लाख रुपए की बिक्री थी. पर अब सब बंद हो गया है. फिर समय बेहतर होगा तो देखेंगे. अभी तो अपनी और बाकी लोगों की जिंदगी बचाना ज़रूरी है. आज नुकसान हो रहा कभी फायदा भी हुआ है. आगे हालात बेहतर होने पर फिर फायदा होगा. हमने तो लॉकडाउन से पहले ही अपना ढाबा बंद कर दिया था. यहां इसके फैलने का खतरा और ज्यादा है क्योंकि अलग-अलग जगहों से लोग आते हैं.’’

पहलवान ढाबा

एक और मशहूर ढाबा गुलशन के मालिक मनोज कुमार से हमारी मुलाकात हुई. लॉकडाउन के कारण हो रहे नुकसान को लेकर सवाल करने पर वे कहते हैं, ‘‘रोजाना हमारे यहां पांच सौ से एक हज़ार लोग आते थे. बिक्री की बात करें तो डेढ़ से दो लाख के बीच हमारी बिक्री होती थी. नुकसान के बारे में ठीक-ठीक बता पाना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन नुकसान तो हर रोज हो रहा है. मजदूर जो यहां रह गए हैं उन्हें हम बैठाकर खिला रहे हैं. ऐसे में नुकसान क्या और कितना हुआ वो तो मार्केट खुलने के बाद ही पता चल पाएगा.’’

यहां गुजरे जमाने के फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र का ढाबा गरम्-धरम भी है. ढाबे के बाहर तीन सुरक्षाकर्मी बैठे नज़र आते हैं. गरम धरम के अधिकारी शमशेर सिंह न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, “21 मार्च से यहां काम बिलकुल बंद है. हमारे यहां चार सौ कर्मचारी थे जिसमें से कुछ घर चले गए और कुछ यहां हैं. हम उनके खाने पीने का इंतज़ाम कर रहे हैं. ज्यादातर मजदूर यूपी और बिहार के रहने वाले हैं. यहां रोजाना एक हज़ार की संख्या में लोग खाने आते थे लेकिन अब यहां कोई नहीं आ रहा है. रोजाना दो से तीन लाख का नुकसान हो रहा है.’’

गरम धरम ढाबा
गरम धरम ढाबे में पसरा सन्नाटा

तमाम ढाबा मालिकों से बात करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि लॉकडाउन की वजह से मुरथल के ढाबा कारोबार को रोजाना करोड़ो रुपए का नुकसान हो रहा है. ऐसे में इस संकट से उबरने के लिए उन्हें सरकारी मदद की दरकार होगी या नहीं इस सवाल के जवाब में गुलशन ढाबा के मालिक मनोज कुमार हंसते हुए कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि सरकार कोई मदद करेगी. सरकार ने अभी तक कुछ कहा नहीं है. आगे का कौन जाने.’’

वहीं इस सवाल पर प्रधान मंजीत सिंह कहते हैं, ‘‘हम पहले सरकार की मदद करते रहे हैं. अगर ढाबा मालिकों की स्थिति खराब होती है और उन्हें मदद की ज़रूरत पड़ती है तो उम्मीद है कि सरकार हमारी मदद करेगी.”

मालिकों के दावे से उलटी मजदूरों की तस्वीर

यहां हमारी जितने भी ढाबा मालिकों से बात हुई ज्यादातर ने दावा किया कि वे मजदूरों का बेहतर ख्याल रख रहे हैं. मंजीत सिंह कहते हैं, ‘‘हम मजदूरों का इस हद तक ख्याल रखते हैं कि पहले उनके खाने का इंतजाम करते हैं और फिर अपने. ढाबे के अंदर जितने मजदूर रह गए उनके लिए रोजाना खाना बनता है. वहीं जो लोग बाहर हैं उन्हें राशन उपलब्ध कराया जाता है.’’

प्रधान मंजीत सिंह की तरह ही पहलवान ढाबा के मालिक दयानन्द सिंधु बताते हैं, ‘‘हमारे यहां लगभग 120 से मजदूर काम करते थे. उसमें से कुछ पहले से ही डरकर अपने घर चले गए. ये मान लो कि 40-50 पहले ही चले गए थे. उसके बाद जो बचे फिर उन्हीं से काम चलाया. अब जो यहां बच गए उनसे हमने कहा है कि जो ढाबे में रहना चाहे यहां रह सकता है और जो बाहर जाना चाहे वो बाहर जा सकता है. जो ढाबे में रुक गए उनके लिए सबकुछ उपलब्ध है. वे अपना बनाते-खाते हैं. जो बाहर हैं और परिवार के साथ रहते हैं, उन्हें हम सस्ते दरों पर राशन उपलब्ध करा रहे हैं. पैसे हम उनसे अभी नहीं ले रहे जब हालात बेहतर होंगे तब ले लेंगे.’’

ढाबों में काम करने वाले मजदूर

दयानंद सिंधु मजदूरों को सैलरी देने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘मार्च महीने में अपने कर्मचारियों को सैलरी तो दूंगा लेकिन आगे का अभी सोचा नहीं है. जैसा आगे होगा वैसा फैसला लेंगे.’’

पहलवान ढाबे के पास जब हम मौजूद थे उसी समय उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रहने वाले 30 वर्षीय संतोष प्रसाद राशन के लिए पहुंचे. वे दयानन्द सिंधु की बातों से इतफाक रखते हुए कहते हैं, ‘‘मैं यहां चार साल से काम कर रहा हूं. यहां से बहुत सारे मजदूर गांव जा चुके हैं. मैं परिवार के साथ रहता हूं इसीलिए नहीं जा पाया. अब जब पैसे की तंगी हो रही है तो मैंने अपने मालिक से बताया. उन्होंने सस्ते दाम पर राशन ले जाने के लिए कहा है. अभी मैं पच्चास किलो आटा और चावल लेने आया हूं. यहां कुछ ढाबे वाले मदद कर रहे हैं तो कुछ ढाबे वाले अपने मजदूरों को छोड़ दिए हैं.’’

एक छोटे से ढाबे में काम करने वाले दरभंगा जिले के भीखन से हमारी मुलाकात दोपहर के 12 बजे के करीब में हुई. वे बताते हैं, ‘‘सुबह से खाना भी नहीं खाया अभी तक. सबकुछ बंद होने के बाद मालिक ने ढाबे की देख रेख की जिम्मेदारी दे दी है. ढाबे पर अभी सिर्फ आटा है. क्या बनाएं यहीं सोच रहा हूं. लॉकडाउन खुले तो घर चला जाऊंगा. वहां कम से कम गेहूं वगैर काटकर मजदूरी कमा लूंगा.’’

ऐसे ही कुछ मजदूरों से हमारी मुलाकात आरके कॉलोनी में हुई. ज्यादातर मधुबनी जिले के रहने वाले मजदूरों में छोटे बच्चे, बड़े-बुजुर्ग और महिलाएं थी.

आरके कॉलोनी की बिल्डिंग में एक कमरे में मौजूद एक महिला से बात करने की कोशिश की. वो नाराज़ होकर कहती हैं कि मुझे नाम नहीं लिखाना अपना. लोग नाम लिखकर ले जाते हैं और राशन देते नहीं हैं.

ढाबों में काम करने वाले मजदूरों का परिवार

यहां रह रहे बिहार-यूपी के मजदूरों में इसको लेकर काफी नाराज़गी है. हरियाणा सरकार द्वारा इन्हें अब तक कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई है. पास में ही स्थित ओशो संस्थान ने एक दो दिन इन मजदूरों को खाना दिया लेकिन इनका आरोप है कि वो काफी बेइज्जती करके खाना देते थे जिसके बाद इन्होंने खाना लेना बंद कर दिया.

जिस दिन हम मजदूरों से मिलने मुरथल पहुंचे थे उसी दिन लॉकडाउन को बढ़ा दिया गया था. यहां के मजदूर आपस में तैयारी कर रहे थे कि रात में घर के लिए निकल जाया जाए. मधुबनी के रहने वाले मजदूर संजीव कहते हैं, “21 दिन काम करने के बाद ढाबा मालिकों ने 21 दिन का हिसाब नहीं दिया बल्कि किसी को हज़ार रुपए तो किसी को 1500 रुपए दे दिए. उस पैसे से 21 दिन जैसे तैसे कटा है. अब हम चाहते हैं कि सरकार हम सबकी जांच करके हमें हमारे घर भेज दे. इससे बेहतर हमारे लिए कोई रास्ता नहीं है.’’

घर क्यों जाना चाहते हैं सवाल के जवाब में संजीव कहते हैं, ‘‘देखिए एक तो हमारे पास पैसे नहीं है. दूसरे हर चीज महंगी बिक रही है. जो चावल 30 रुपए था वो अब चालीस का हो गया है. वहीं आटा जो बजार में 35 रुपए किलो मिलता है यहां 40-50 रुपए मिल रहा है. हज़ार पन्द्रह रुपए में हम कैसे गुजारा कर सकते हैं. कमरे पर रह रहे हैं तो तीन समय तो कम से कम खायेंगे. अब यहां मुश्किल हो रहा है. अगर एक दूसरे के सहयोग से हम यहां नहीं रहते तो 21 दिन का लॉकडाउन निकालना मुश्किल होता.’’

50 वर्षीय देवेन्द्र मंडल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहां रहते हैं. वे कहते हैं, ‘‘लोग पैदल घर जाने की बात कर रहे हैं. मैं नहीं जा सकता हूं क्योंकि मेरी पत्नी को हार्ट का प्रॉब्लम है. रास्ते में अगर कुछ हो गया तो कहां दिखाऊंगा. जैसे भी होगा कर्जा लेकर या भूखे रहकर यहीं रहेंगे. परेशानी तो बहुत हो रही है लेकिन क्या कर सकते हैं. जो कुछ पैसे बचाकर रखे थे उसे ही निकाल रहे हैं.’’

देवेन्द्र मंडल

देवेन्द्र मंडल की पत्नी अक्सर बीमार रहती हैं. उनसे जब हमने बात की तो वो कहती हैं, ‘‘मेरे आदमी पहलवान ढाबे पर काम करते हैं. उन्होंने दस किलो आटा, दो किलो चावल, प्याज और आलू दिया. तीन बच्चे भी हैं और हम दो लोग. उसे ही खा रहे हैं. गैस या तेल वगैर तो खुद से खरीदना पड़ता है. इससे कुछ होगा. जितने दिन मेरे पति ने काम किया उसका पैसा नहीं मिला. जब हम उनसे कह रहे है तो मालिक का जवाब होता है. तेरे लिए शाही पनीर लाऊं, पालक पनीर लाऊं.’’

यहां चार-पांच हज़ार की संख्या में बिहार के मजदूर अभी भी हैं. जिसमें से ज्यादातर लोग ढाबे में काम करते हैं और कुछ लोग दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. आरके कॉलोनी के जिस बिल्डिंग में हम गए वहां एक कमरे का किराया 2020 रुपए लिया जाता है. एक कमरे में चार से पांच लोग रहते हैं. इस महीने अभी तक मकान मालिक किराए के लिए नहीं आया लेकिन मजदूरों को डर है कि जिस दिन वो कमरे के किराये के लिए आ गए उस मुश्किल होगी.

अपनी गायों को दूध पिलाने को मजबूर किसान

मुरथल के ज्यादातर ढाबों में सब्जी की आपूर्ति दिल्ली के आजादपुर मंडी से होती है लेकिन दूध, दही, छाछ आदि की आपूर्ति आस-पास के गांवों से होती है. अकेले पहलवान ढाबे पर आसपास के गांवों से रोजाना हज़ार लीटर के आस-पास दूध आता था. लेकिन अब यह सब बंद है.

मुरथल के पास ही गांव पिपली खेड़ा में कई किसान गौपालन और दूध उत्पादन का काम करते हैं. लेकिन लॉकडाउन ने उनकी कमर तोड़ दी है. हालात ये है कि इन्हें गाय और भैंस से निकाला गया दूध या तो सस्ते दरों पर बेंचना पड़ रहा है या फिर बचा हुआ दूध उन्हीं गाय और भैंसों को चारे के साथ खिलाना पड़ रहा है.

मंगत राम पिपली खेड़ा के बड़े दूध उत्पादक हैं. उनके बेटे प्रवीण सोलंकी बताते हैं, ‘‘हमारे यहां 60 गाय और भैंसे हैं. रोजाना हम 200 लीटर दूध मुरथल के अलग-अलग ढाबों में बेंचते थे. जहां हमें एक लिटर के 55 रुपए मिलते थे लेकिन अब जब सबकुछ बंद है. ऐसे में हमें 20 से 25 रुपए लीटर दूध बेंचना पड़ रहा है. सस्ते दामों में भी पूरा दूध नहीं बिक पाता तो पड़ोसियों में बांट देते हैं. यहां लोग गाय का दूध तो पीते नहीं है तो मजबूरन उसे हम चारे के साथ इन्हीं जानवरों को खिला देते हैं.’’

मंगत राम पिपली के बेटे प्रवीण सोलंकी

प्रवीण आगे बताते हैं, ‘‘सिर्फ दूध का ही नुकसान नहीं है. इन मवेशियों के लिए आज चारे का इंतज़ाम करना भी एक मुश्किल काम है. हमारे यहां चारा दिल्ली के नरेला से आता था लेकिन यातायात के साधन बंद होने के कारण चारा भी नहीं ला पा रहे हैं. रोजाना का लगभग दस हज़ार का नुकसान दूध का हो रहा है. वहीं मवेशियों को लिए चारे का इंतज़ाम करने में काफी पैसे खर्च हो रहे हैं.’’

पिपली खेड़ा गांव में भी आरके कॉलोनी की तरह ही प्रवेश वाले रास्ते को बांस लगाकर रोक दिया गया है. उसके बगल में गांव के कई लोग बैठे हुए हैं. लोग हमारी गाड़ी को रोककर कई सवाल करते हैं उसके बाद बैठने के कहते हैं. दूध उत्पादकों को होने वाले नुकसान पर वहां मौजूद एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘‘नुकसान तो काफी हो रहा है लेकिन आदमी मजबूर है. जिंदा रहेगा तभी तो आगे दूध बेच पाएगा. इस गांव का मंजीत है जो रोजाना 300 लिटर दूध बेंचता था लेकिन आज पड़ोसियों को दूध बांट रहा है. लोग डर-डर के दूध लेते हैं. ऐसा पहली बार हुआ कि दूध की ये दुर्दशा हुई.’’

मंजीत स्वरूप के पास भी 80 गाय और भैंसे हैं. उनके भाई रंजीत बताते हैं, ‘‘दूध तो बिक ही नहीं रहा है. मज़बूरी में हम लोगों में बांट देते हैं. मवेशियों को खिला देते हैं. क्या करें. हर रोज दस से बारह हज़ार का नुकसान हो रहा है. सुनने में आ रहा है कि कई प्रदेशों में सरकारें दूध खरीद रही है लेकिन हरियाणा में ऐसा नहीं हो रहा है. सरकार को दूध खरीदना चाहिए ताकि हमें नुकसान न हो. दूध खरीदकर सरकार ज़रूरतमंदों में बांट भी सकती है.’’

जाहिर है लॉकडाउन के चलते तमाम क्षेत्रों के साथ ही मुरथल के ढाबों और उससे निर्मित हुई एक समान्तर अर्थव्यवस्था बुरी तरह बेपटरी हो गई है. छाबा मालिक हों, आस-पास के गांवों के दूध उत्पादक हों, सब्जी विक्रेता हों या फिर दूर-दराज से पलायन करके आए मजदूर, इन सबकी डोर कहीं न कहीं आपस में एक दूसरे से बंधी हुई थी, लॉकडाउन ने उस डोर को काट दिया है.

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