Newslaundry Hindi
कमंडल से मंदिर के बीच क्यों दम तोड़ गई मंडलवादी सियासत
आज प्रधानमंत्री अयोध्या में राम मंदिर का फिर से शिलान्यास करेंगे, जहां पहले बाबरी मस्जिद थी. यह वह मस्जिद थी जिसके चलते लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया गया था. यह वह मस्जिद थी जिसके कारण वीपी सिंह की सरकार चली गयी थी. यही वह मस्जिद थी जिस पर संघ व भाजपा ने अपना दावा पेश करते हुए जब कारसेवा करने की बात की थी, तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने कहा था ‘वहां परिंदा पर भी नहीं मार सकेगा.’ यह वही मस्जिद थी जिसके चलते अयोध्या में मुलायम सिंह ने कारसेवकों पर गोलियां चलवायी थीं.
उस घटना के कुछ ही महीनों के बाद कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में 6 दिसंबर,1992 को आरएसएस-बीजेपी के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया. फिर बीजेपी शासित पांच राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. अगले साल 1993 में बीजेपी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि सपा-बसपा के दलित-बहुजन गठबंधन ने मंदिर की राजनीति करने वाली ताकतों को सत्ता से बाहर धकेल दिया. यह निर्णायक अवसर था जब जनता ने मंदिर के ऊपर सामाजिक न्याय को तवज्जो देते हुए उसे अपना समर्थन दिया था.
उत्तर प्रदेश और बिहार में स माजिक न्याय की ताकतों ने (दलित, बहुजन और अल्पसंख्यक) मिलकर बीजेपी को सत्ता से कमोबेश बाहर ही रखा, लेकिन धीरे-धीरे तथाकथित सामाजिक न्याय की ये ताकतें कमजोर होती गयीं, इनकी राजनीति अप्रासंगिक होती गई, जबकि बीजेपी सत्ता से दूर रहकर भी सामाजिक-राजनीतिक रूप से मजबूत होती चली गयी. आज स्थिति ये है कि तीस वर्षों में ही वे ताकतें न केवल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गयीं बल्कि हिन्दुत्व के सामने किसी तरह की चुनौती देने की स्थिति में भी नहीं रह गई हैं.
क्या कारण रहा कि मंदिर आंदोलन के चरम ध्रुवीकरण वाले समय में भी जनता की अदालत में लगभग अछूत रही भाजपा आज देश में सबसे मजबूत ताकत है? सवाल यह भी है कि जो सामाजिक और राजनीतिक विरासत इतनी मजबूत थी, वह 25 साल के भीतर ही इतनी बुरी तरह क्यों बिखर गयी और हिन्दुत्ववादी ताकतों को क्यों चुनौती नहीं दे पायी? आखिर यह कैसे हुआ कि हाशिये से थोड़ा ऊपर की ताकत ने न सिर्फ कांग्रेस को खत्म कर दिया बल्कि नई चुनौती देने वाली ताकतों (सामाजिक न्याय) को भी जर्जर कर दिया?
अगर इसका विश्लेषण करना चाहें तो बहुत बातें कही और लिखी जा सकती हैं, लेकिन मोटे तौर पर हमें यह स्वीकारना होगा कि जिस सामाजिक न्याय की विरासत की बात हम कर रहे हैं उसके संकट को अमली जामा उसके नेतृत्व ने ही पहनाया है. उत्तर भारत में सामाजिक न्याय की पूरी विरासत डॉ. राम मनोहर लोहिया के इर्द-गिर्द घूमती रही. राम मनोहर लोहिया और उनके सहयोगियों, चाहे वह मधु लिमये हों, आचार्य नरेन्द्र देव हों, रामसेवक यादव हों, जॉर्ज फर्नाडीज हों, इन्हीं के इर्द-गिर्द सामाजिक न्याय की विरासत सिमटी रही.
डॉक्टर लोहिया ने पिछड़ों की राजनीति को परिभाषित किया लेकिन लोहिया के निधन के बाद पिछड़ों की राजनीति उसी पुरानी लीक पर चलती रही जिसे उन्होंने परिभाषित किया था. यह लोहिया का ही सूत्र था जिसके चलते उनके निधन के दस साल के बाद कई राज्यों में सत्ता परिवर्तन हुआ जो भले ही बहुत स्थायी न रहा हो, लेकिन कई राज्यों में पिछड़ों को सत्ता का स्वाद चखाया. लेकिन 1980 में इंदिरा गांधी के फिर से चुनाव जीतने के बाद राज्य स्तर पर वही नारे चलते रहे जिसे लोहिया ने तैयार किया था.
जब 1990 में बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह सत्ता पर काबिज हुए तब भी वही नारा था. उत्तर प्रदेश में मुलायम के साथ-साथ मायावती भी सत्ता में आती रहीं, लेकिन सामाजिक स्तर पर जितने भी समीकरण बने,उसका सारा दायरा सिर्फ चुनावी राजनीति और जीत-हार की गणित तक ही सीमित रहा.उसे बौद्धिक जामा नहीं पहनाया जा सका. इसका विस्तार अकादमिक और बौद्धिक दुनिया में शून्य ही रहा.
सामाजिक न्याय की ताकतों के साथ सबसे बड़ी समस्या बौद्धिक पिछड़ापन की रही. तीस वर्षों के शासनकाल में इन ताकतों ने एक भी ऐसा संस्थान नहीं बनाया जो इनके लिए एक अलग वैचारिक धरातल तैयार कर सके. चुनावी राजनीति से अलग होकर आम जनता के बीच एक मानस निर्मित कर सके. उदाहरण के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश को लिया जा सकता है. बिहार में 15 वर्षों तक लालू-राबड़ी का शासन रहा और उसके बाद पिछले 15 वर्षों से नीतीश कुमार की सरकार रही है. दोनों ही पिछड़ी जाति से आते हैं.
इसी तरह 2017 से पहले तक पिछले 27 वर्षों में कुछ वर्षों को छोड़ दिया जाए जब कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह बीजेपी के मुख्यमंत्री थे, तो यूपी में भी सपा और बसपा की ही सरकार रही है. इस पूरी अवधि के दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश में इन दलों ने वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से कोई ऐसा काम नहीं किया बल्कि इन लोगों ने भी हिंदुत्व के लिए ही ज़मीन तैयार की. लालू यादव के शुरूआती वर्षों को छोड़ दिया जाए जब वे समान्यतया पढाई-लिखाई पर बात करते थे, तो उनके पहले कार्यकाल के बाद राबड़ी देवी के समय राजसत्ता का चरित्र भी पूरी तरह यथास्थितिवादी हो गया.
इसी तरह उत्तर भारत में कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर पिछड़ी या दलित जाति से आने वाले किसी भी बड़े नेता ने खुद को धार्मिक अनुष्ठान से अलग नहीं किया. लालू यादव का छठ के समय बड़ा सा ढकिया लेकर घाट तक पैदल जाना इस बात का प्रमाण था कि वे अपने को आरएसएस-बीजेपी से बड़ा हिन्दुत्व का समर्थक साबित करना चाह रहे थे. उनके मन मेंअपने समर्थकों को यह संदेश देने की चाह रही होगी कि धार्मिक होकर भी बीजेपी के विरोधी हो सकते हैं. ‘सर्व धर्म समभाव’ की बात को वे बार-बार दुहराते भी थे, लेकिन शायद वे इसे भूल जा रहे थे कि अगर वे मंदिर की दहलीज पर आ गये हैं तो श्रद्धालुओं के लिए इसका बहुत मतलब नहीं रह जाता है कि मंदिर बनाया किसने या या फिर पूजा कौन करा रहा है?
दूसरी परेशानी यह रही कि चमत्कारिक नेतृत्व के चलते इस तरह की पार्टियों के पास संगठन नहीं रह गया. सारी ताकत किसी खास नेता के हाथ में केंद्रित हो गयी जिसके चलते ग्रासरूट पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की पूछ पूरी तरह खत्म हो गयी. सारा कुछ व्यक्ति केंद्रित हो गया.
सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों ने सत्ता के वैकल्पिक मॉडल की बात ही नहीं सोची. उन्हें आज भी यही लगता है कि सत्ता मिलते ही सब कुछ नियंत्रित किया जा सकता है जबकि हकीकत यह है कि कुर्सी सत्ता तंत्र का एक पुर्जा मात्र है जिसमें अन्य कई पुर्जें लगे होते हैं. अपने सत्ता काल में इन ताकतों ने वैकल्पिक मीडिया बनाने की बात नहीं सोची. लालू, मुलायम, मायावती और हेमन्त सोरेन जैसे नेताओं के पास अपनी पार्टी का एक रेगुलर मुखपत्र तक नहीं है जिसके द्वारा वे अपने समर्थकों से संवाद स्थापित कर सकें.
इसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है. लालू यादव ने रेलमंत्री के अपने कार्यकाल में 2008 के अंत में कहा था कि रेलवे के पास 90 हजार करोड़ की सरप्लस राशि है. 2009 में ममता बनर्जी जब रेलमंत्री बनीं, तो उन्होंने एक श्वेतपत्र लाकर कहा कि यह राशि 90 हजार करोड़ नहीं है बल्कि सिर्फ 16 हजार करोड़ है. यह बहस लगातार चलती रही लेकिन आज ग्यारह वर्षों के बाद रेलवे के पास तनख्वाह देने तक के पैसे नहीं हैं, 150 ट्रेनों का रूट बेच दिया गया है, पचास से ज्यादा स्टेशन बेच दिये गये हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या पीयूष गोयल पर कोई सवाल नहीं है.
सामाजिक न्याय चाहने वाली ताकतों की समस्या यह भी है कि वे अपना सारा काम उन्हीं यथास्थितिवादियों के सहारे करना चाहती हैं जो उन्हें नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं. हम सब जानते हैं कि अधिकांश दलितों-पिछड़ों की जिंदगी में तब्दीली आरक्षण मिलने से आया है, लेकिन उनकी जब सरकार होती है उस समय भी चयन प्रक्रियाओं में उसकी उतनी ही अवहेलना होती है जितनी कि कांग्रेस या भाजपा के शासनकाल में होती है.
यही कारण है कि ब्राह्मणवादी ताकतों को लगभग तीस वर्षों तक सत्ता में रोके रहने के बाद आज वे पूरी तरह दिशाहीन हो गये हैं जबकि जो ताकत हाशिये पर पहुंच गयी थी वह फिर से सबसे ताकतवर दिखायी दे रही है. आज भी इन ताकतों के पास यह अवसर है कि अपनी चूकों पर विचार करें और एक नयी बौद्धिक चुनौती खड़ी करें.
(जनपथ डॉट कॉम से साभार)
Also Read: लोक से विच्छिन्न नए राजनीतिक राम
Also Read
-
From J&K statehood to BHU polls: 699 Parliamentary assurances the government never delivered
-
WhatsApp university blames foreign investors for the rupee’s slide – like blaming fever on a thermometer
-
Let Me Explain: How the Sangh mobilised Thiruparankundram unrest
-
TV Newsance 325 | Indigo delays, primetime 'dissent' and Vande Mataram marathon
-
The 2019 rule change that accelerated Indian aviation’s growth journey, helped fuel IndiGo’s supremacy