Newslaundry Hindi
खुद को किसान बताने वाले 25% से अधिक सांसदों के लिए क्या कृषि कानून कोई मुद्दा नहीं?
पिछले छह दिनों से पंजाब-हरियाणा से आये किसानों को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर रोक दिया गया है. पंजाब के किसान पिछले दो महीने से अधिक समय से पंजाब में जगह-जगह पर केन्द्र सरकार के नए कृषि कानून के खिलाफ धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन सरकार के ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ा. इंतहा तो तब हो गयी जब 29 नवंबर को अपने ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन किसानों की बात करते हुए कहा कि इस नये कानून से हमारे किसान भाइयों को कितना लाभ हुआ है. ठीक उसी वक्त उनकी आंख के नीचे, दिल्ली के बॉर्डर पर तीन दिनों से किसानों को पीटा जा रहा था, इस कड़ाके की ठंड में उनके ऊपर बर्बरतापूर्वक वाटर कैनन छोड़ा जा रहा था और वे मजबूर होकर सड़क पर बैठ हुए थे.
हमेशा की तरह इस आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकार वही षडयंत्र कर रही है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज करते थे. इन्हें कभी खालिस्तानी कहा जा रहा है, कभी मुफ्तखोर कहा जा रहा है, कभी कांग्रेस समर्थक कहा जा रहा है. इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी विजक्राफ्ट को करोड़ों रुपये देकर देव दिवाली मनाने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र बनारस पहुंच जाते हैं और लेज़र की रोशनी में पांव थिरकाते हुए गायन सुन रहे थे. उनकी कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखने वाले गृह मंत्री अमित शाह हैदराबाद के नगरपालिका चुनाव में रोड शो कर रहे थे और यहां किसानों को बताया जा रहा था कि उनसे 3 दिसंबर को ही बातचीत हो पाएगी (इस बीच किसी दबाव में किसानों से मिलने के लिए केन्द्र सरकार तैयार हो गयी).
पिछले 30-40 वर्षों से किसानों की आर्थिक हैसियत लगातार कमजोर होती जा रही है. जब उनकी आर्थिक हैसियत थोड़ी अच्छी थी तो राजनीति में उनकी शह थी. चौधरी चरण सिंह, देवीलाल जैसे बड़े किसान नेता उनकी नुमाइंदगी करते थे. उनके अवसान के बाद किसानों की नुमाइंदगी करने वाले नेता भी नहीं रहे. ऐसा भी नहीं था कि जब चरण सिंह या देवीलाल थे तब सब कुछ ठीक ही चल रहा था, लेकिन ऐसा जरूर था कि उनकी बात सरकार सुनती थी. वे संसद से लेकर विधानसभा तक किसानों की समस्या को मजबूती से सरकार के सामने रख पाते थे, लेकिन उदारीकरण के बाद पूरे देश के किसान बदहाल होते चले गये.
पिछले तीस वर्षों के आंकडों को देखने से पता चलता है कि छोटे किसान मजदूर बन गये और सीमांत किसानों ने किसानी छोड़ दी क्योंकि उनके लिए फसल उगाना बहुत ही महंगा होता गया. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से इतने ज्यादा पलायन का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है क्योंकि वहां खेती-बाड़ी खत्म हो गई है. वैसे बिहार के साथ जोत की कमी भी एक बड़ा कारण है, लेकिन नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद 2006 से बाजार समिति को पूरी तरह खत्म कर दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों को कभी यह अवसर ही नहीं मिला कि वे अपनी फसल के लिए न्यूनतम मूल्य पा सकें.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार सरकार तीन फीसदी से भी कम फसल खरीदती है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कैश क्रॉप्स (नकदी फसल) नहीं के बराबर हैं जिसके चलते किसानों को लागत मूल्य ही नहीं मिल पाता है.
इस मामले में पंजाब और हरियाणा थोड़े तकदीर वाले राज्य रहे हैं. पंजाब के तीसरे मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो ने कृषि के क्षेत्र में जिस रूप में काम किया, उसी से संपन्न किसानों की रीढ़ तैयार हो पायी. इसके अलावा पंजाब के लोगों के विदेश पलायन से किसानों की ज़मीन का बंटवारा उतना नहीं हुआ जितना देश के अन्य भागों में हुआ, लेकिन राज्य सरकार के अलावा केन्द्र सरकार ने कोई असरकारी भूमिका नहीं निभायी. इसका परिणाम हुआ कि किसानों की हालत लगातार कमजोर होती चली गयी.
17वीं लोकसभा में 198 एग्रिकल्चरिस्ट (21.59 फीसदी) सांसद हैं जबकि खुद को किसान लिखने वाले सांसदों की संख्या 38 (4.14 फीसदी ) है. कुल मिलाकर 25 फीसदी से अधिक सांसद ऐसे हैं जो अपने को किसान कहते हैं लेकिन एक भी सांसद ऐसा नहीं है जो कह पाये कि यह कानून किसानों को नष्ट कर देगा. इसका कारण यह है कि किसानों की कोई हैसियत ही नहीं रहने दी गयी है जिससे कि सांसद भी उनके साथ खड़ा हो पाये. इसका मतलब यह भी हुआ कि किसानों के पास किसी तरह की कोई आर्थिक ताकत नहीं रह गयी है जबकि संसद में सिर्फ 25 (2.73 फीसदी) सांसद ऐसे हैं जो अपने को उद्योगपति कहते हैं, लेकिन इनके हितों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरा देश तैयार है.
किसानों की दुर्दशा के पीछे सबसे बड़ा कारण पिछड़ी जातियों के हाथ से सत्ता की बागडोर का फिसल जाना रहा है. अब ये जातियां सिर्फ वोटर बनकर रह गयी हैं, उनके पास आर्थिक ताकत नहीं है. वे अपने एजेंडे पर राजनीति नहीं कर सकती हैं. और हां, हिन्दुत्व ने उन सबकी भूमिका काफी हद तक सीमित कर दी है. उनकी हैसियत हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द ही बची रह गयी है. अगर वे वहां से हटते हैं तो उन्हें नष्ट कर दिया जाता है.
इसका बड़ा कारण यह भी रहा है कि जिस तरह से पिछले 30 वर्षों में पब्लिक इंस्टीट्यूशन का खात्मा हुआ है, उससे वे जातियां अपने बाल-बच्चों को सामान्य स्वास्थ्य और शिक्षा देने की हैसियत में भी नहीं रह गयी हैं.
(साभार-जनपथ)
पिछले छह दिनों से पंजाब-हरियाणा से आये किसानों को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर रोक दिया गया है. पंजाब के किसान पिछले दो महीने से अधिक समय से पंजाब में जगह-जगह पर केन्द्र सरकार के नए कृषि कानून के खिलाफ धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन सरकार के ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ा. इंतहा तो तब हो गयी जब 29 नवंबर को अपने ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन किसानों की बात करते हुए कहा कि इस नये कानून से हमारे किसान भाइयों को कितना लाभ हुआ है. ठीक उसी वक्त उनकी आंख के नीचे, दिल्ली के बॉर्डर पर तीन दिनों से किसानों को पीटा जा रहा था, इस कड़ाके की ठंड में उनके ऊपर बर्बरतापूर्वक वाटर कैनन छोड़ा जा रहा था और वे मजबूर होकर सड़क पर बैठ हुए थे.
हमेशा की तरह इस आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकार वही षडयंत्र कर रही है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज करते थे. इन्हें कभी खालिस्तानी कहा जा रहा है, कभी मुफ्तखोर कहा जा रहा है, कभी कांग्रेस समर्थक कहा जा रहा है. इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी विजक्राफ्ट को करोड़ों रुपये देकर देव दिवाली मनाने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र बनारस पहुंच जाते हैं और लेज़र की रोशनी में पांव थिरकाते हुए गायन सुन रहे थे. उनकी कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखने वाले गृह मंत्री अमित शाह हैदराबाद के नगरपालिका चुनाव में रोड शो कर रहे थे और यहां किसानों को बताया जा रहा था कि उनसे 3 दिसंबर को ही बातचीत हो पाएगी (इस बीच किसी दबाव में किसानों से मिलने के लिए केन्द्र सरकार तैयार हो गयी).
पिछले 30-40 वर्षों से किसानों की आर्थिक हैसियत लगातार कमजोर होती जा रही है. जब उनकी आर्थिक हैसियत थोड़ी अच्छी थी तो राजनीति में उनकी शह थी. चौधरी चरण सिंह, देवीलाल जैसे बड़े किसान नेता उनकी नुमाइंदगी करते थे. उनके अवसान के बाद किसानों की नुमाइंदगी करने वाले नेता भी नहीं रहे. ऐसा भी नहीं था कि जब चरण सिंह या देवीलाल थे तब सब कुछ ठीक ही चल रहा था, लेकिन ऐसा जरूर था कि उनकी बात सरकार सुनती थी. वे संसद से लेकर विधानसभा तक किसानों की समस्या को मजबूती से सरकार के सामने रख पाते थे, लेकिन उदारीकरण के बाद पूरे देश के किसान बदहाल होते चले गये.
पिछले तीस वर्षों के आंकडों को देखने से पता चलता है कि छोटे किसान मजदूर बन गये और सीमांत किसानों ने किसानी छोड़ दी क्योंकि उनके लिए फसल उगाना बहुत ही महंगा होता गया. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से इतने ज्यादा पलायन का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है क्योंकि वहां खेती-बाड़ी खत्म हो गई है. वैसे बिहार के साथ जोत की कमी भी एक बड़ा कारण है, लेकिन नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद 2006 से बाजार समिति को पूरी तरह खत्म कर दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों को कभी यह अवसर ही नहीं मिला कि वे अपनी फसल के लिए न्यूनतम मूल्य पा सकें.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार सरकार तीन फीसदी से भी कम फसल खरीदती है. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कैश क्रॉप्स (नकदी फसल) नहीं के बराबर हैं जिसके चलते किसानों को लागत मूल्य ही नहीं मिल पाता है.
इस मामले में पंजाब और हरियाणा थोड़े तकदीर वाले राज्य रहे हैं. पंजाब के तीसरे मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो ने कृषि के क्षेत्र में जिस रूप में काम किया, उसी से संपन्न किसानों की रीढ़ तैयार हो पायी. इसके अलावा पंजाब के लोगों के विदेश पलायन से किसानों की ज़मीन का बंटवारा उतना नहीं हुआ जितना देश के अन्य भागों में हुआ, लेकिन राज्य सरकार के अलावा केन्द्र सरकार ने कोई असरकारी भूमिका नहीं निभायी. इसका परिणाम हुआ कि किसानों की हालत लगातार कमजोर होती चली गयी.
17वीं लोकसभा में 198 एग्रिकल्चरिस्ट (21.59 फीसदी) सांसद हैं जबकि खुद को किसान लिखने वाले सांसदों की संख्या 38 (4.14 फीसदी ) है. कुल मिलाकर 25 फीसदी से अधिक सांसद ऐसे हैं जो अपने को किसान कहते हैं लेकिन एक भी सांसद ऐसा नहीं है जो कह पाये कि यह कानून किसानों को नष्ट कर देगा. इसका कारण यह है कि किसानों की कोई हैसियत ही नहीं रहने दी गयी है जिससे कि सांसद भी उनके साथ खड़ा हो पाये. इसका मतलब यह भी हुआ कि किसानों के पास किसी तरह की कोई आर्थिक ताकत नहीं रह गयी है जबकि संसद में सिर्फ 25 (2.73 फीसदी) सांसद ऐसे हैं जो अपने को उद्योगपति कहते हैं, लेकिन इनके हितों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरा देश तैयार है.
किसानों की दुर्दशा के पीछे सबसे बड़ा कारण पिछड़ी जातियों के हाथ से सत्ता की बागडोर का फिसल जाना रहा है. अब ये जातियां सिर्फ वोटर बनकर रह गयी हैं, उनके पास आर्थिक ताकत नहीं है. वे अपने एजेंडे पर राजनीति नहीं कर सकती हैं. और हां, हिन्दुत्व ने उन सबकी भूमिका काफी हद तक सीमित कर दी है. उनकी हैसियत हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द ही बची रह गयी है. अगर वे वहां से हटते हैं तो उन्हें नष्ट कर दिया जाता है.
इसका बड़ा कारण यह भी रहा है कि जिस तरह से पिछले 30 वर्षों में पब्लिक इंस्टीट्यूशन का खात्मा हुआ है, उससे वे जातियां अपने बाल-बच्चों को सामान्य स्वास्थ्य और शिक्षा देने की हैसियत में भी नहीं रह गयी हैं.
(साभार-जनपथ)
Also Read
-
TV Newsance 305: Sudhir wants unity, Anjana talks jobs – what’s going on in Godi land?
-
What Bihar voter roll row reveals about journalism and India
-
India’s real war with Pak is about an idea. It can’t let trolls drive the narrative
-
Reporters Without Orders Ep 376: A law weaponised to target Gujarat’s Muslims, and a family’s fight against police excess in Mumbai
-
बिहार वोटर लिस्ट रिवीजन: सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और सांसद मनोज झा के साथ विशेष बातचीत