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कैसे भूमिहीन और हाशिए पर आने वाले किसान ही इस आंदोलन की रीढ़ हैं
पिछले सप्ताह में मोदी सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन बढ़ता ही जा रहा है. पंजाब और हरियाणा के ग्रामीण, दिल्ली सीमा पर सिंघु गांव में अपनी ट्रैक्टर ट्रॉली और मिनी ट्रकों पर सवार होकर आते ही जा रहे हैं.
यह तीन कानून, उपज को मौजूदा कृषि संस्थानों के बाहर भी बिना किसी शुल्क के बेचने की अनुमति देते हैं. जैसे की फ़ैक्टरियों, गोदाम, कोल्ड स्टोरेज आदि बिना किसी मंडी शुल्क के ख़रीददारी कर सकते हैं. यह कानून आपातकाल को छोड़कर खाद्य पदार्थों के भंडारण की सीमा को भी समाप्त करते हैं और ठेके पर खेती को बढ़ावा देते हैं. रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन कानूनों का विवरण, "नई संभावनाओं के द्वार खोलने वाले सुधारों" के रूप में किया.
पर दिल्ली में प्रदर्शन करने वाले कहते हैं कि उपज के लिए खुलने वाले यह नए बाजार ग्रामीण क्षेत्रों के सबसे गरीब तबके को फांके करने पर मजबूर कर देंगे.
सिंघु में ग्रामीण और कृषि समाज के विभिन्न वर्गों ने इन नए कानूनों के खिलाफ अपना प्रतिरोध जताया है. इनमें भूमिहीन किसान भी हैं, जो अपनी खेती से होने वाली थोड़ी बहुत कमाई को और कामों से पूरा करते हैं और हाशिए के किसान भी हैं जो अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि रखते हैं.
68 वर्षीय सज्जन सिंह पंजाब के तरनतारन जिले से 430 किलोमीटर की दूरी तय करके दिल्ली आए हैं, वह कहते हैं कि उनकी छोटी सी 1.2 हेक्टेयर की भूमि ही उनका सब कुछ है.
सज्जन सिंह कहते हैं, "मेरी बहुत थोड़ी सी जमीन है जिससे जिंदगी चलती है. वैसे ही घर के खर्चे के बाद कुछ नहीं बचता क्योंकि खेत में होने वाली उपज का कोई भरोसा नहीं होता. अब सरकार कह रही है कि वह समर्थन मूल्य चालू रखेंगे, पर एक दो साल बाद वह चावल और गेहूं से समर्थन मूल्य को वापस ले सकती है."
सज्जन के डर की जड़ में यह शंका है कि इन नए कानूनों से सरकार मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली को बाजारों और मंडियों से धीरे-धीरे खत्म कर सकती है. उनका कहना है कि जब सरकार की ओर से आश्वासित खरीद कमजोर होगी तो वह कंपनियों से सीधे सौदा नहीं कर पाएंगे.
वे कहते हैं, "उद्योगपतियों से सीधे अनुबंध मेरे जैसे छोटे किसानों के लिए कारगर नहीं होगा. पहले एक दो साल हो सकता है वह अच्छे दाम दें पर फिर उनका बाजार और कीमत दोनों पर कब्ज़ा हो जाएगा."
गुरमैल सिंह पंजाब के मोगा जिले के निहाल सिंह वाला तहसील में रॉके कलां गांव के एक भूमिहीन कृषक और खेतिहर मजदूर हैं. वे दलित समाज से आने वाले मजहबी सिख हैं जो अपना जीवन यापन थोड़ी ज़मीन किराए पर लेकर करते हैं, जो उद्योगों के द्वारा स्थापित किए बड़े-बड़े खेतों के बाद संभव नहीं होगा.
उनका कहना है, "मैं अपनी बेटी को पढ़ा पाया जो आज चंडीगढ़ में एक बैंक में काम करती है. मेरे दोनों बेटे दिहाड़ी मज़दूर हैं. मैं थोड़ी बहुत ज़मीन सब्जी और छोटे पौधे उगाकर बाजार में बेचने के लिए 20,000 रुपए सालाना किराए पर लेता हूं. साल के कुछ महीने हम 300-400 रूपए दिहाड़ी पर दूसरों की फसल काटने में मदद करते हैं. बड़े कृषि उद्योग खेतों को ले लेंगे और फिर वह हमें काम देने से रहे."
गुरमैल सिंह अपने गांव से 320 किलोमीटर दूर दिल्ली तक और थोड़ी सी भूमि रखने वाले किसान और किराए की भूमि पर खेती करने वालों के साथ ट्रैक्टर ट्रॉली में आए हैं.
गुरमैल कहते हैं, "वैसे भी प्रदेश के नेताओं और केंद्रीय पार्टियां जो गलत धंधा करती हैं अपनी मिलीभगत से हमारे युवाओं को नशे की लत लगा दी है. अगर यह कानून लागू हो गए तो हमारी आने वाली पीढ़ियों के पास कुछ भी नहीं बचेगा."
गुरमैल की तरह ही लाभ सिंह भी एक भूमिहीन मज़हबी सिख हैं जो दलित समाज से आते हैं. वह अमृतसर जिले के अजनाला कस्बे के कोहाली गांव से हैं और वहां की देहाती मजदूर सभा के प्रधान भी हैं.
उनका कहना है कि उनके गांव के छोटे किसान और खेतिहर मजदूर दिल्ली की सीमा पर प्रदर्शन में भाग लेने आए हैं. इस समय वह हाईवे पर खड़ी हुई ट्रालियों में बैठकर प्रदर्शन कर रहे हैं. यह ट्रालियां फूस और कपड़ों से उन्हें ठंड से बचाने के लिए ढ़की हुई हैं.
लाभ सिंह कहते हैं, "पहले तो मोदी सरकार ने महामारी के दौरान, लॉकडाउन और तरह-तरह की पाबंदियों के बीच में यह कानून लाकर गलती की. दूसरा जब इन कानूनों की वजह से बड़े उद्योगपति कृषि में आ जाएंगे, छोटे किसान और मजदूरों को खेती के लिए जरूरी चीजें जैसे बीज आदि पाना गुंजाइश के बाहर हो जाएगा. बड़े उद्योग घराने हमें लूट लेंगे, वे जल्द ही खेती की उपज की कीमतें तय कर हम में से सबसे गरीब लोगों का शोषण करेंगे.
प्रदर्शनकारियों ने हमें बताया कि पंजाब के करीब 13,000 गांवों से करीब 50-100 लोग हर गांव से प्रदर्शन स्थल पर आए हैं. जिन्हें शिक्षकों, परिवाहकों और खेतिहर मज़दूरों की यूनियन और संस्थानों का प्रदर्शन के लिए समर्थन प्राप्त है. पीछे रुक गए हैं, वे दिल्ली सीमा पर प्रदर्शन के लिए आने वालों के पशुधन और गेहूं और आलू की फसलों का ध्यान रख रहे हैं.
हरदेव सिंह भट्टी अमृतसर के बाबा बुटाला के गांव में एक भूमिहीन खेतिहर मजदूर और राजमिस्त्री होने के साथ-साथ कवि भी हैं. हो भट्टे में हर एक हजार ईंटे बनाने पर 650 रुपये कमाते हैं जिसमें उन्हें आमतौर पर 2 से 3 दिन लगते हैं.
भट्टी कहते हैं, "पहले प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की. फिर महामारी के बीच में वह यह कानून लाए हैं जो थोड़ी बहुत मजदूरी पर जीने वालों को गुलाम बना देंगे. सरकार चाहती है कि पूंजी बड़े उद्योग घरानों के पास हो न कि कामगारों के घरों में."
राकेश नरवाल सोनीपत के कथूरा गांव के एक जाट किसान हैं. उनके पास 1.2 एकड़ की कृषि भूमि है और वह उससे होने वाली कमाई को फ़ैक्टरियों और शहर में कुछ काम करके पूरा करते हैं. उनका कहना है, "अगर हम उपज नहीं कर पाएंगे तो भूखे मरेंगे. फ़ैक्टरियां कुछ खास पैसा नहीं देती हैं. जाट, खाटी, तेली, धोबी- सभी लोग यहां पर हैं."
गहराता कृषि संकट
स्टेट ऑफ रूरल एंड एग्रेरियन इंडिया रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 1951 से 2011 के बीच भारत की कृषि पर निर्भर जनसंख्या सात प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत पर आ गई. पर इसके साथ ही साथ कृषि पर निर्भर परिवार और कुल मालिकानों की संख्या में बढ़ोतरी हुई. 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या 85 लाख कम हुई पर खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की वृद्धि हुई.
जनगणना के लिए सरकार जमीन के मालिकाना हक को पांच श्रेणियों में बांटती हैं: मार्जिनल अर्थात हाशिए के किसान (जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है), छोटे (जिनके पास 1 से 2 हेक्टेयर भूमि है), उप माध्यमिक (जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है), माध्यमिक (4 से 10 हेक्टेयर भूमि रखने वाले) और बड़ा मालिकाना जिनके पास 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा भूमि है. 2015-16 के कृषि जनगणना के अनुसार भारत में अधिकतर, 86 प्रतिशत- मिल्कियत छोटी या मध्यम स्तर की हैं. यह सभी 2 हेक्टेयर या उससे कम हैं और इन परिवारों की आमदनी अपने होने वाले खर्च से कम हैं.
पंजाब में इसी 2015-16 की गणना के अनुसार, 33.1 प्रतिशत मालिकाना छोटे और मध्यम श्रेणी का है वहीं 33.6 प्रतिशत उप माध्यमिक श्रेणी का. हरियाणा में 68.5 प्रतिशत मालिकाना हक छोटी और मध्यम श्रेणी का है.
2015-16 की गणना के अनुसार भारत में दलितों के स्वामित्व की 92.3 प्रतिशत भूमि, छोटी और मार्जिनल श्रेणी की हैं. बाकी जगहों की तरह ही पंजाब में भी अगड़ी जाति के जट सिख मुख्य व बन त्योहार जमीन का मालिकाना हक रखते हैं, दलित और पिछड़ी जातियों के पास कुल व्यक्तिगत भूमि का केवल 3.5 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें से दलितों के स्वामित्व की अधिकतर, 57.8 प्रतिशत खेतिहर भूमि जिसमें किराए पर ली गई भूमि भी शामिल है, छोटी और मार्जिनल श्रेणी की हैं.
2020 की रिपोर्ट के अनुसार, साठ के दशक में हरित क्रांति आने के बाद 1970 से 2010 के बीच में पंजाब में धान और गेहूं की खेती का कुल क्षेत्र, 45.2% से बढ़कर 80.3% पर पहुंच गया है. पंजाब और हरियाणा के छोटे किसान भी अब ज्वार और बाजरे जैसी विविध खेती से हटकर धान और गेहूं की खेती में ही लग गए हैं. जिसके कारण रासायनिक खादों और कीटनाशकों, हाइब्रिड बीज और भूमिगत जल का बहुत ज्यादा उपयोग बढ़ गया है.
साल दर साल मिट्टी और पानी की हालत खराब होती जा रही है. 1970 से 2005 के बीच, हर नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम खाद से होने वाली उपज में 75% गिरावट आई है. पंजाब हरियाणा और राजस्थान में जलस्तर भी सालाना .33 मीटर की दर से गिरा है. इंडिया फोरम में कृषि बदलाव पर पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च करने वाले श्रेय सिन्हा के अनुसार, इसने कृषकों की सभी श्रेणियों को प्रभावित किया है और आक्रोश का दायरा बहुत बड़ा कर दिया है. हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार, दलित खेतीहरों के आरक्षित भूमि पर पहुंच के लिए काम करने वाली ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी भी प्रदर्शनों का हिस्सा बन गई है.
कुछ किसान खरीफ के मौसम में कपास और मकई जैसी और फसलें भी उगाते हैं परंतु किसी निर्धारित कीमत पर इन फसलों की सरकारी खरीद न होने के कारण यह धान और गेहूं को ही ऐसी फसलें समझते हैं जिनका बाजार और कीमतें सुनिश्चित हैं. इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार 2019-20 में, सरकार ने 226.5 लाख टन धान और 201.1 लाख टन गेहूं की खरीद पंजाब और हरियाणा से की, जिसकी कीमत करीब 80293.2 करोड़ है.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में कृषि अर्थव्यवस्था के मुख्य अर्थशास्त्री प्रोफेसर सुखपाल सिंह के अनुसार, किसानी से जुड़े हर श्रेणी का व्यक्ति प्रदर्शनों का हिस्सा बन गया है, चाहे उसका मालिकाना कितना ही बड़ा और छोटा हो.
वे कहते हैं, "चाहे बड़ी या छोटी जिसके पास भी कुछ बाजार में बेचने के लिए है, उसे फर्क पड़ा है और वह प्रदर्शन कर रहा है. इस चित्र में कृषि बड़े संकट से गुजर रही है और छोटे किसान बहुत ही ज्यादा बड़े संकट से."
वे आगे कहते हैं, "प्रति एकड़ कर्ज छोटे मजदूरों पर ज्यादा है और छोटे और हाशिए के किसान ही आत्महत्या से मर रहे हैं. छोटे किसान और खेतिहर मज़दूर अपने को काम से हटाए जाने या एक सामाजिक गले के रूप में नगर में बना दिए जाने से डर रहे हैं, उन्हें कृषि लायक भूमि से अलग किए जाने का भी डर है."
सुखपाल का तर्क है कि कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 मंडी जैसे विनियमित बाजारों के खात्मे को हवा देगा, जैसा 2006 में बिहार में हुआ. उनका कहना है, "यह सब खेतिहर समाज को मिलने वाली निर्धारित कीमतें हटाने के लिए किया जा रहा है."
गुरमुख सिंह जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी, जो दलित खेती है के रोको आरक्षक भूमि में प्रवेश दिलाने के लिए काम करते है, उसके जोनल सदस्य हैं. प्रदर्शनकारियों के साथ दिल्ली सीमा पर टिकरी में जुड़े और आशंका जताई कि नए कानून सबसे पहले धान और गेहूं के अधिग्रहण को प्रभावित करेंगे. उन्हें आशंका है कि उसके बाद यह सरकारी राशन की दुकानों पर मिलने वाले सस्ते अनाज को धीरे-धीरे खत्म किए जाने की ओर अग्रसर होगा.
उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "इस सबसे परे, मंडी तंत्र के कमजोर होने का सीधा असर पल्लेदार कामगारों की आजीविका पर पड़ेगा जो धान और गेहूं के बोरे मंडियों से ढ़ोर रेलगाड़ियों तक ले जाते हैं. खाने की जरूरी सामग्री पर भंडारण की सीमा समाप्त होने के कारण गरीबों को खाने की चीजें खरीदना भी दूभर हो जाएगा."
ठेके पर खेती की मौजूदा हालत
सौदे के मंचो पर कानून के अलावा, सरकार का दावा है कि कृषक (संरक्षण और सशक्तिकरण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक 2020, किसानों को एक प्रारूप देगा जिससे वे अपनी उपज को खरीदने वालों के साथ सीधे करार कर सकते हैं और अपने लिए अफसरों को बढ़ा सकते हैं.
पर प्रदर्शनकारियों के पुराने अनुभवों के चलते प्रदर्शनकारी उद्योगों से सीधे करार के क्रियान्वयन और निरपेक्षता पर अपनी शंका जताने सिंघु पहुंच गए.
अमरजीत सिंह अमृतसर के अजनाला में 1.6 हेक्टेयर के मालिक हैं और देहाती मजदूर सभा के सदस्य भी हैं. उन्हें चिंता है कि जब सरकार सुनिश्चित मूल्य खत्म कर देगी, तब कॉरपोरेट खरीदार किसानों से करार करेंगे, उनसे उनकी उपज खरीदेंगे, उसे कोल्ड स्टोरेज में रखेंगे और फिर बाद में उसका इस्तेमाल छोटे किसानों से खरीदते समय कि मुझे तोड़ने-मरोड़ने के लिए करेंगे.
मनदीप सिंह ने सोशल एंथ्रोपॉलजी में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री हाल ही में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज गुवाहाटी से पूरी की है. उन्होंने बरनाला जिले में कृषि किसान यूनियन के साथ खेती और मजदूरी जैसे मुद्दों पर सीधे काम करने से पहले नॉनप्रॉफिट सेक्टर में काम किया था.
मनदीप कहते हैं कि किसान कानूनों को अपने उद्योगों से खरीद फरोख्त के व्यक्तिगत अनुभवों के सापेक्ष रख कर देख रहे हैं.
वे कहते हैं, "जब बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जैसे कि पेप्सीको हमारे साथ किसी उपज को खरीदने का करार करती हैं, जैसे कि आलू, तो पैदावार के समय वह करीब-करीब आधी उपज को बेकार कह कर लेने से मना कर देती हैं. वे कहते हैं कि आलू ठीक 12 इंच का ही होना चाहिए, उसमें नमी बिल्कुल निर्धारित स्तर की होनी चाहिए आदि आदि, जो हम उन्हें नहीं दे सकते. उसके बाद को करीब आधी फसल को लेने से मना कर देते हैं."
मनदीप आगे कहते हैं, "हमने देखा है कि इस तरह की कंपनियां हमारे पास तब आती हैं जब कम कीमत पर खरीदने के लिए उपज बहुतायत में मौजूद होती है. वह ऊपर खरीद के बड़े गोदामों या कोल्ड स्टोरेज में रख लेती हैं और जब कम पैदावार का मौसम आता है, जब हमें बेहतर कीमतें मिल रही होती हैं, वह खरीदने से मना करके कीमतों को और नीचे गिरा देते हैं."
मेजर सिंह संगरूर जिले के बहादुरपुरा के एक वयोवृद्ध किसान हैं जिनके पास एक हेक्टेयर की कृषि भूमि है, वह कीर्ति किसान यूनियन के सदस्य भी हैं. उनका कहना है कि मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग के लोग किसानों की शंकाओं को नहीं समझते, जिसका कारण जनसंवाद के लिए उपलब्ध तकनीकी संसाधन और शिक्षा का औद्योगिकरण है.
उनका कहना है, "एक जनतंत्र में जनसंवाद के रास्तों पर भी जनता का ही प्रभुत्व होना चाहिए. यह हक जनता का है उद्योगपतियों का नहीं. गुणात्मक सरकारी शिक्षा का फैलाव बहुत आवश्यक है."
मेजर सिंह आगे कहते हैं, "मैंने अपने बच्चों के पालन-पोषण और पढ़ाई के लिए अपनी थोड़ी बहुत खेती से होने वाली आमदनी को डेयरी के काम से बढ़ाया. जब मेरी बेटी की हाई स्कूल में फर्स्ट डिवीजन आई तो वह आगे विज्ञान की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाना चाहती थी, लेकिन कॉलेज ने एक लाख फीस मांगी जो हमारी गुंजाइश के बाहर थी. मैं मुश्किल से साल भर में एक लाख कमा पाता हूं जबकि हमारा सारा परिवार काम करता है. मैं अपनी बेटी की आगे पढ़ने की इच्छा पूरी ना कर सका और अब यह कानून हमें शून्य के गर्त में धकेल देंगे."
सभी फोटो और वीडियो अनुमेहा यादव के सौजन्य से.
पिछले सप्ताह में मोदी सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन बढ़ता ही जा रहा है. पंजाब और हरियाणा के ग्रामीण, दिल्ली सीमा पर सिंघु गांव में अपनी ट्रैक्टर ट्रॉली और मिनी ट्रकों पर सवार होकर आते ही जा रहे हैं.
यह तीन कानून, उपज को मौजूदा कृषि संस्थानों के बाहर भी बिना किसी शुल्क के बेचने की अनुमति देते हैं. जैसे की फ़ैक्टरियों, गोदाम, कोल्ड स्टोरेज आदि बिना किसी मंडी शुल्क के ख़रीददारी कर सकते हैं. यह कानून आपातकाल को छोड़कर खाद्य पदार्थों के भंडारण की सीमा को भी समाप्त करते हैं और ठेके पर खेती को बढ़ावा देते हैं. रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन कानूनों का विवरण, "नई संभावनाओं के द्वार खोलने वाले सुधारों" के रूप में किया.
पर दिल्ली में प्रदर्शन करने वाले कहते हैं कि उपज के लिए खुलने वाले यह नए बाजार ग्रामीण क्षेत्रों के सबसे गरीब तबके को फांके करने पर मजबूर कर देंगे.
सिंघु में ग्रामीण और कृषि समाज के विभिन्न वर्गों ने इन नए कानूनों के खिलाफ अपना प्रतिरोध जताया है. इनमें भूमिहीन किसान भी हैं, जो अपनी खेती से होने वाली थोड़ी बहुत कमाई को और कामों से पूरा करते हैं और हाशिए के किसान भी हैं जो अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि रखते हैं.
68 वर्षीय सज्जन सिंह पंजाब के तरनतारन जिले से 430 किलोमीटर की दूरी तय करके दिल्ली आए हैं, वह कहते हैं कि उनकी छोटी सी 1.2 हेक्टेयर की भूमि ही उनका सब कुछ है.
सज्जन सिंह कहते हैं, "मेरी बहुत थोड़ी सी जमीन है जिससे जिंदगी चलती है. वैसे ही घर के खर्चे के बाद कुछ नहीं बचता क्योंकि खेत में होने वाली उपज का कोई भरोसा नहीं होता. अब सरकार कह रही है कि वह समर्थन मूल्य चालू रखेंगे, पर एक दो साल बाद वह चावल और गेहूं से समर्थन मूल्य को वापस ले सकती है."
सज्जन के डर की जड़ में यह शंका है कि इन नए कानूनों से सरकार मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली को बाजारों और मंडियों से धीरे-धीरे खत्म कर सकती है. उनका कहना है कि जब सरकार की ओर से आश्वासित खरीद कमजोर होगी तो वह कंपनियों से सीधे सौदा नहीं कर पाएंगे.
वे कहते हैं, "उद्योगपतियों से सीधे अनुबंध मेरे जैसे छोटे किसानों के लिए कारगर नहीं होगा. पहले एक दो साल हो सकता है वह अच्छे दाम दें पर फिर उनका बाजार और कीमत दोनों पर कब्ज़ा हो जाएगा."
गुरमैल सिंह पंजाब के मोगा जिले के निहाल सिंह वाला तहसील में रॉके कलां गांव के एक भूमिहीन कृषक और खेतिहर मजदूर हैं. वे दलित समाज से आने वाले मजहबी सिख हैं जो अपना जीवन यापन थोड़ी ज़मीन किराए पर लेकर करते हैं, जो उद्योगों के द्वारा स्थापित किए बड़े-बड़े खेतों के बाद संभव नहीं होगा.
उनका कहना है, "मैं अपनी बेटी को पढ़ा पाया जो आज चंडीगढ़ में एक बैंक में काम करती है. मेरे दोनों बेटे दिहाड़ी मज़दूर हैं. मैं थोड़ी बहुत ज़मीन सब्जी और छोटे पौधे उगाकर बाजार में बेचने के लिए 20,000 रुपए सालाना किराए पर लेता हूं. साल के कुछ महीने हम 300-400 रूपए दिहाड़ी पर दूसरों की फसल काटने में मदद करते हैं. बड़े कृषि उद्योग खेतों को ले लेंगे और फिर वह हमें काम देने से रहे."
गुरमैल सिंह अपने गांव से 320 किलोमीटर दूर दिल्ली तक और थोड़ी सी भूमि रखने वाले किसान और किराए की भूमि पर खेती करने वालों के साथ ट्रैक्टर ट्रॉली में आए हैं.
गुरमैल कहते हैं, "वैसे भी प्रदेश के नेताओं और केंद्रीय पार्टियां जो गलत धंधा करती हैं अपनी मिलीभगत से हमारे युवाओं को नशे की लत लगा दी है. अगर यह कानून लागू हो गए तो हमारी आने वाली पीढ़ियों के पास कुछ भी नहीं बचेगा."
गुरमैल की तरह ही लाभ सिंह भी एक भूमिहीन मज़हबी सिख हैं जो दलित समाज से आते हैं. वह अमृतसर जिले के अजनाला कस्बे के कोहाली गांव से हैं और वहां की देहाती मजदूर सभा के प्रधान भी हैं.
उनका कहना है कि उनके गांव के छोटे किसान और खेतिहर मजदूर दिल्ली की सीमा पर प्रदर्शन में भाग लेने आए हैं. इस समय वह हाईवे पर खड़ी हुई ट्रालियों में बैठकर प्रदर्शन कर रहे हैं. यह ट्रालियां फूस और कपड़ों से उन्हें ठंड से बचाने के लिए ढ़की हुई हैं.
लाभ सिंह कहते हैं, "पहले तो मोदी सरकार ने महामारी के दौरान, लॉकडाउन और तरह-तरह की पाबंदियों के बीच में यह कानून लाकर गलती की. दूसरा जब इन कानूनों की वजह से बड़े उद्योगपति कृषि में आ जाएंगे, छोटे किसान और मजदूरों को खेती के लिए जरूरी चीजें जैसे बीज आदि पाना गुंजाइश के बाहर हो जाएगा. बड़े उद्योग घराने हमें लूट लेंगे, वे जल्द ही खेती की उपज की कीमतें तय कर हम में से सबसे गरीब लोगों का शोषण करेंगे.
प्रदर्शनकारियों ने हमें बताया कि पंजाब के करीब 13,000 गांवों से करीब 50-100 लोग हर गांव से प्रदर्शन स्थल पर आए हैं. जिन्हें शिक्षकों, परिवाहकों और खेतिहर मज़दूरों की यूनियन और संस्थानों का प्रदर्शन के लिए समर्थन प्राप्त है. पीछे रुक गए हैं, वे दिल्ली सीमा पर प्रदर्शन के लिए आने वालों के पशुधन और गेहूं और आलू की फसलों का ध्यान रख रहे हैं.
हरदेव सिंह भट्टी अमृतसर के बाबा बुटाला के गांव में एक भूमिहीन खेतिहर मजदूर और राजमिस्त्री होने के साथ-साथ कवि भी हैं. हो भट्टे में हर एक हजार ईंटे बनाने पर 650 रुपये कमाते हैं जिसमें उन्हें आमतौर पर 2 से 3 दिन लगते हैं.
भट्टी कहते हैं, "पहले प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की. फिर महामारी के बीच में वह यह कानून लाए हैं जो थोड़ी बहुत मजदूरी पर जीने वालों को गुलाम बना देंगे. सरकार चाहती है कि पूंजी बड़े उद्योग घरानों के पास हो न कि कामगारों के घरों में."
राकेश नरवाल सोनीपत के कथूरा गांव के एक जाट किसान हैं. उनके पास 1.2 एकड़ की कृषि भूमि है और वह उससे होने वाली कमाई को फ़ैक्टरियों और शहर में कुछ काम करके पूरा करते हैं. उनका कहना है, "अगर हम उपज नहीं कर पाएंगे तो भूखे मरेंगे. फ़ैक्टरियां कुछ खास पैसा नहीं देती हैं. जाट, खाटी, तेली, धोबी- सभी लोग यहां पर हैं."
गहराता कृषि संकट
स्टेट ऑफ रूरल एंड एग्रेरियन इंडिया रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 1951 से 2011 के बीच भारत की कृषि पर निर्भर जनसंख्या सात प्रतिशत से घटकर 48 प्रतिशत पर आ गई. पर इसके साथ ही साथ कृषि पर निर्भर परिवार और कुल मालिकानों की संख्या में बढ़ोतरी हुई. 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या 85 लाख कम हुई पर खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की वृद्धि हुई.
जनगणना के लिए सरकार जमीन के मालिकाना हक को पांच श्रेणियों में बांटती हैं: मार्जिनल अर्थात हाशिए के किसान (जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है), छोटे (जिनके पास 1 से 2 हेक्टेयर भूमि है), उप माध्यमिक (जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है), माध्यमिक (4 से 10 हेक्टेयर भूमि रखने वाले) और बड़ा मालिकाना जिनके पास 10 हेक्टेयर या उससे ज्यादा भूमि है. 2015-16 के कृषि जनगणना के अनुसार भारत में अधिकतर, 86 प्रतिशत- मिल्कियत छोटी या मध्यम स्तर की हैं. यह सभी 2 हेक्टेयर या उससे कम हैं और इन परिवारों की आमदनी अपने होने वाले खर्च से कम हैं.
पंजाब में इसी 2015-16 की गणना के अनुसार, 33.1 प्रतिशत मालिकाना छोटे और मध्यम श्रेणी का है वहीं 33.6 प्रतिशत उप माध्यमिक श्रेणी का. हरियाणा में 68.5 प्रतिशत मालिकाना हक छोटी और मध्यम श्रेणी का है.
2015-16 की गणना के अनुसार भारत में दलितों के स्वामित्व की 92.3 प्रतिशत भूमि, छोटी और मार्जिनल श्रेणी की हैं. बाकी जगहों की तरह ही पंजाब में भी अगड़ी जाति के जट सिख मुख्य व बन त्योहार जमीन का मालिकाना हक रखते हैं, दलित और पिछड़ी जातियों के पास कुल व्यक्तिगत भूमि का केवल 3.5 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें से दलितों के स्वामित्व की अधिकतर, 57.8 प्रतिशत खेतिहर भूमि जिसमें किराए पर ली गई भूमि भी शामिल है, छोटी और मार्जिनल श्रेणी की हैं.
2020 की रिपोर्ट के अनुसार, साठ के दशक में हरित क्रांति आने के बाद 1970 से 2010 के बीच में पंजाब में धान और गेहूं की खेती का कुल क्षेत्र, 45.2% से बढ़कर 80.3% पर पहुंच गया है. पंजाब और हरियाणा के छोटे किसान भी अब ज्वार और बाजरे जैसी विविध खेती से हटकर धान और गेहूं की खेती में ही लग गए हैं. जिसके कारण रासायनिक खादों और कीटनाशकों, हाइब्रिड बीज और भूमिगत जल का बहुत ज्यादा उपयोग बढ़ गया है.
साल दर साल मिट्टी और पानी की हालत खराब होती जा रही है. 1970 से 2005 के बीच, हर नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम खाद से होने वाली उपज में 75% गिरावट आई है. पंजाब हरियाणा और राजस्थान में जलस्तर भी सालाना .33 मीटर की दर से गिरा है. इंडिया फोरम में कृषि बदलाव पर पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च करने वाले श्रेय सिन्हा के अनुसार, इसने कृषकों की सभी श्रेणियों को प्रभावित किया है और आक्रोश का दायरा बहुत बड़ा कर दिया है. हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार, दलित खेतीहरों के आरक्षित भूमि पर पहुंच के लिए काम करने वाली ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी भी प्रदर्शनों का हिस्सा बन गई है.
कुछ किसान खरीफ के मौसम में कपास और मकई जैसी और फसलें भी उगाते हैं परंतु किसी निर्धारित कीमत पर इन फसलों की सरकारी खरीद न होने के कारण यह धान और गेहूं को ही ऐसी फसलें समझते हैं जिनका बाजार और कीमतें सुनिश्चित हैं. इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार 2019-20 में, सरकार ने 226.5 लाख टन धान और 201.1 लाख टन गेहूं की खरीद पंजाब और हरियाणा से की, जिसकी कीमत करीब 80293.2 करोड़ है.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में कृषि अर्थव्यवस्था के मुख्य अर्थशास्त्री प्रोफेसर सुखपाल सिंह के अनुसार, किसानी से जुड़े हर श्रेणी का व्यक्ति प्रदर्शनों का हिस्सा बन गया है, चाहे उसका मालिकाना कितना ही बड़ा और छोटा हो.
वे कहते हैं, "चाहे बड़ी या छोटी जिसके पास भी कुछ बाजार में बेचने के लिए है, उसे फर्क पड़ा है और वह प्रदर्शन कर रहा है. इस चित्र में कृषि बड़े संकट से गुजर रही है और छोटे किसान बहुत ही ज्यादा बड़े संकट से."
वे आगे कहते हैं, "प्रति एकड़ कर्ज छोटे मजदूरों पर ज्यादा है और छोटे और हाशिए के किसान ही आत्महत्या से मर रहे हैं. छोटे किसान और खेतिहर मज़दूर अपने को काम से हटाए जाने या एक सामाजिक गले के रूप में नगर में बना दिए जाने से डर रहे हैं, उन्हें कृषि लायक भूमि से अलग किए जाने का भी डर है."
सुखपाल का तर्क है कि कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 मंडी जैसे विनियमित बाजारों के खात्मे को हवा देगा, जैसा 2006 में बिहार में हुआ. उनका कहना है, "यह सब खेतिहर समाज को मिलने वाली निर्धारित कीमतें हटाने के लिए किया जा रहा है."
गुरमुख सिंह जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी, जो दलित खेती है के रोको आरक्षक भूमि में प्रवेश दिलाने के लिए काम करते है, उसके जोनल सदस्य हैं. प्रदर्शनकारियों के साथ दिल्ली सीमा पर टिकरी में जुड़े और आशंका जताई कि नए कानून सबसे पहले धान और गेहूं के अधिग्रहण को प्रभावित करेंगे. उन्हें आशंका है कि उसके बाद यह सरकारी राशन की दुकानों पर मिलने वाले सस्ते अनाज को धीरे-धीरे खत्म किए जाने की ओर अग्रसर होगा.
उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "इस सबसे परे, मंडी तंत्र के कमजोर होने का सीधा असर पल्लेदार कामगारों की आजीविका पर पड़ेगा जो धान और गेहूं के बोरे मंडियों से ढ़ोर रेलगाड़ियों तक ले जाते हैं. खाने की जरूरी सामग्री पर भंडारण की सीमा समाप्त होने के कारण गरीबों को खाने की चीजें खरीदना भी दूभर हो जाएगा."
ठेके पर खेती की मौजूदा हालत
सौदे के मंचो पर कानून के अलावा, सरकार का दावा है कि कृषक (संरक्षण और सशक्तिकरण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक 2020, किसानों को एक प्रारूप देगा जिससे वे अपनी उपज को खरीदने वालों के साथ सीधे करार कर सकते हैं और अपने लिए अफसरों को बढ़ा सकते हैं.
पर प्रदर्शनकारियों के पुराने अनुभवों के चलते प्रदर्शनकारी उद्योगों से सीधे करार के क्रियान्वयन और निरपेक्षता पर अपनी शंका जताने सिंघु पहुंच गए.
अमरजीत सिंह अमृतसर के अजनाला में 1.6 हेक्टेयर के मालिक हैं और देहाती मजदूर सभा के सदस्य भी हैं. उन्हें चिंता है कि जब सरकार सुनिश्चित मूल्य खत्म कर देगी, तब कॉरपोरेट खरीदार किसानों से करार करेंगे, उनसे उनकी उपज खरीदेंगे, उसे कोल्ड स्टोरेज में रखेंगे और फिर बाद में उसका इस्तेमाल छोटे किसानों से खरीदते समय कि मुझे तोड़ने-मरोड़ने के लिए करेंगे.
मनदीप सिंह ने सोशल एंथ्रोपॉलजी में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री हाल ही में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज गुवाहाटी से पूरी की है. उन्होंने बरनाला जिले में कृषि किसान यूनियन के साथ खेती और मजदूरी जैसे मुद्दों पर सीधे काम करने से पहले नॉनप्रॉफिट सेक्टर में काम किया था.
मनदीप कहते हैं कि किसान कानूनों को अपने उद्योगों से खरीद फरोख्त के व्यक्तिगत अनुभवों के सापेक्ष रख कर देख रहे हैं.
वे कहते हैं, "जब बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां जैसे कि पेप्सीको हमारे साथ किसी उपज को खरीदने का करार करती हैं, जैसे कि आलू, तो पैदावार के समय वह करीब-करीब आधी उपज को बेकार कह कर लेने से मना कर देती हैं. वे कहते हैं कि आलू ठीक 12 इंच का ही होना चाहिए, उसमें नमी बिल्कुल निर्धारित स्तर की होनी चाहिए आदि आदि, जो हम उन्हें नहीं दे सकते. उसके बाद को करीब आधी फसल को लेने से मना कर देते हैं."
मनदीप आगे कहते हैं, "हमने देखा है कि इस तरह की कंपनियां हमारे पास तब आती हैं जब कम कीमत पर खरीदने के लिए उपज बहुतायत में मौजूद होती है. वह ऊपर खरीद के बड़े गोदामों या कोल्ड स्टोरेज में रख लेती हैं और जब कम पैदावार का मौसम आता है, जब हमें बेहतर कीमतें मिल रही होती हैं, वह खरीदने से मना करके कीमतों को और नीचे गिरा देते हैं."
मेजर सिंह संगरूर जिले के बहादुरपुरा के एक वयोवृद्ध किसान हैं जिनके पास एक हेक्टेयर की कृषि भूमि है, वह कीर्ति किसान यूनियन के सदस्य भी हैं. उनका कहना है कि मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग के लोग किसानों की शंकाओं को नहीं समझते, जिसका कारण जनसंवाद के लिए उपलब्ध तकनीकी संसाधन और शिक्षा का औद्योगिकरण है.
उनका कहना है, "एक जनतंत्र में जनसंवाद के रास्तों पर भी जनता का ही प्रभुत्व होना चाहिए. यह हक जनता का है उद्योगपतियों का नहीं. गुणात्मक सरकारी शिक्षा का फैलाव बहुत आवश्यक है."
मेजर सिंह आगे कहते हैं, "मैंने अपने बच्चों के पालन-पोषण और पढ़ाई के लिए अपनी थोड़ी बहुत खेती से होने वाली आमदनी को डेयरी के काम से बढ़ाया. जब मेरी बेटी की हाई स्कूल में फर्स्ट डिवीजन आई तो वह आगे विज्ञान की पढ़ाई के लिए कॉलेज जाना चाहती थी, लेकिन कॉलेज ने एक लाख फीस मांगी जो हमारी गुंजाइश के बाहर थी. मैं मुश्किल से साल भर में एक लाख कमा पाता हूं जबकि हमारा सारा परिवार काम करता है. मैं अपनी बेटी की आगे पढ़ने की इच्छा पूरी ना कर सका और अब यह कानून हमें शून्य के गर्त में धकेल देंगे."
सभी फोटो और वीडियो अनुमेहा यादव के सौजन्य से.
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