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क्या होगा अगर आप हर साल बेघर हो जाएं?

असम में हर साल आने वाली बाढ़ से 2020 में कम से कम 56 लाख लोग किसी न किसी तरह प्रभावित हुए. इस संख्या को अगर परिपेक्ष में देखें, तो यह यूरोपीय देश फिनलैंड की पूरी जनसंख्या से ज्यादा है.

यह संख्या कितनी भी बड़ी दिखाई दे पर बाढ़ एक जीवन और समाज को कैसे तबाह करती है, उस की पराकाष्ठा नहीं बता पाती. यह नहीं परिभाषित करती की ऐसी जगह पर रहना कैसा लगता है जो लगभग आधे वर्ष तक डूबी रहे. कैसा लगता है जब आप अपनी आय के इकलौते साधन अपने खेत को नहीं जोत पाते. कैसा महसूस होता है असहाय बन अपनी ज़मीन को थोड़ा-थोड़ा करके भूमि क्षरण की वजह से खोना. क्या होता है अपने जीवन को बार-बार फिर से उजड़ते हुए देखने के लिए समेटना.

इसीलिए, अपनी बाढ़ से होने वाली मानवीय क्षति को प्रतिबिंबित करती इस सीरीज़ के इस दूसरे भाग में, हम अधिकतर हाशिए पर रहने वाले उन लोगों की कहानियां बता रहे हैं जिनके जीवन और आजीविका हर साल बाढ़ तबाह कर देती है. यह सभी बाढ़ से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए छह जिलों से हैं.

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार असम के 34 में से 17 जिले "अत्यधिक बाढ़ प्रभावित" क्षेत्र हैं, राज्य के 1.05 करोड़ लोग बाढ़ संभावित क्षेत्रों में रहते हैं. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन या इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (एनआरएससी) के द्वारा तैयार की गई बाढ़ जोखिम एटलस के अनुसार, 22.54 लाख हेक्टेयर यानी राज्य का लगभग 28.75 प्रतिशत भूखंड, 1998 से 2015 के बीच कभी न कभी जलमग्न हुआ.

असम का करीब 40% हिस्सा नदी के बाढ़ क्षेत्र में आता है, यानी जब ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां उफान पर होती हैं तो बाढ़ आना निश्चित है. लेकिन बाढ़ आने को नहीं रोक पाने का यह अर्थ नहीं कि उसके विनाशकारी प्रभावों को कम नहीं किया जा सकता, केवल असम सरकार ने ही ज्यादा कुछ उसके लिए नहीं किया है. हालांकि सरकार ने कुछ पुश्ते या तटबंध बनाए हैं और बाढ़ की भविष्यवाणी करने में उन्नति की है, सरकार यह स्वीकार करती है कि, "बाढ़ और भूमि के क्षरण की समस्याओं से निपटने के लिए कोई दूरगामी कदम लागू नहीं किए गए हैं." मौजूदा गठबंधन की उपयोगिता विवादों के घेरे में है, खास तौर पर इसलिए क्योंकि उनकी देखभाल ठीक से नहीं की जाती. इसी साल बाढ़ में 423 में से कम से कम 180 तटबंधों ने जवाब भी दे दिया था.

परिणाम स्वरूप हर साल सैकड़ों घर थोड़े बहुत या पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. 32 वर्षीय लोखिमा बरुआह ने मई 2020 में उफान पर आई ब्रह्मपुत्र की सहायक जियाढाल नदी में अपना घर खो दिया. धेमाजी जिले के हेसुली गांव में उनका घर और खेती की जमीन सब डूब गए जब "ब्रेडिंग" की वजह से नदी उनके गांव से होकर गुजर गई. जैसा कि हमने पहले भाग में भी बताया नदी के बहाव को अलग-अलग धाराओं में बंट जाने को नदी की 'ब्रेडिंग' कहा जाता है. 6 महीनों से लोखिमा, उनके पति और 7 और 12 वर्षीय दो बेटे, अपने उजड़े हुए घर के पास 'चांग' अर्थात बांस के मचानों पर उठे हुए कच्चे घर, में रहने को विवश हैं.

वह बिलखते हुए बताती हैं, "इस बारे में बात करते हुए भी मन में बहुत पीड़ा होती है. हम बरसात और बाढ़ का पानी झेलते हुए 6 महीने से चांग में रह रहे हैं और हमारी जिंदगी बड़ी मुश्किल हो गई है. हमारे घर की बस नींव ही बची और वह भी क्षतिग्रस्त है. हम दिहाड़ी मजदूरी पर घर की मरम्मत करने की कोशिश कर रहे हैं पर उसमें समय लग रहा है. हम आजीविका के लिए खेती पर निर्भर रहते हैं और बाढ़ ने हमारी खड़ी हुई फसल को तबाह कर दिया, अब तो केवल वहां रेत ही बची है."

अपने क्षतिग्रस्त घर के बाहर लोखिमा बरुआह.

लोखिमा बताती हैं कि बाढ़ के बाद जब उनका घर रहने लायक नहीं रहा, तो उन्हें यह भी नहीं पता था कि, "कहां जाएं, जो सामान किसी तरह बचाया उसे कहां रखें, यहां तक कि यह भी नहीं पता था कि कहां सोएं. आखिरकार गांव वालों की मदद से हम यह चांग बना पाए. हमें चांग में घुसने के लिए डोलोंग यानी बांस की कच्ची पुलिया भी बनानी पड़ी क्योंकि बाढ़ का पानी हर तरफ था."

इस परिवार ने अपने घर को दोबारा से बनाने के लिए सरकारी मदद की अर्जी दाखिल की लेकिन कुछ नहीं हुआ.

एक पूरी तरह तबाह हुए मकान के लिए राज्य की आपदा निधि से एक परिवार को 95100 रुपए दिए जाने का प्रावधान है. थोड़े से क्षतिग्रस्त हुए पक्के मकान के लिए 5200 रुपए थोड़े से क्षतिग्रस्त हुए कच्चे मकान के लिए 3200 रुपए और एक झोपड़ी के लिए 4100 रुपए निर्धारित हैं. परंतु जितने भी बाढ़ प्रभावित लोगों से हमने बात की उनका कहना था कि उन्हें कभी भी कोई मुआवजा नहीं मिला.

डोलोंग नामक एक अस्थायी बांस का पुल जो लोखिमा बरुआह के चांग को बाथरूम से जोड़ता है.

आज जब परिवार अपनी तितर-बितर जिंदगी को फिर से समेट रहा है, लोखिमा को अपने बच्चों की चिंता रहती है. महामारी के फैलने के कारण स्कूल बंद हैं, उन्हें घर पर पढ़ाने के प्रयासों में वह बताती हैं कि उन्हें समझ आया, "जोड़-तोड़ कर बनाई हुई चांग में ठीक से पढ़ाई करने का वातावरण नहीं मिलता. मैं उन्हें पिछले महीने से ट्यूशन के लिए भेज रही हूं पर यह नहीं जानती कि और कितने दिन तक उसका खर्च उठा पाऊंगी. दिहाड़ी पर घर चलाना वैसे ही बहुत मुश्किल है."

लोखिमा बरुआह की रसोई खतरनाक रूप से चांग के फर्श के एक होल के पास है.

स्कूल जाना महामारी आने से पहले भी कोई आसान काम नहीं था. आसपास के अधिकतर स्कूल बाढ़ के मौसम में कई महीने के लिए जल मग्न हो जाते हैं, और जो नहीं भी होते वहां सुरक्षित पहुंच पाने के हिसाब से बहुत दूर होते हैं. 94 परिवारों के घर हेसुली के निकटस्थ ऐसा "सुरक्षित" स्कूल 9 किलोमीटर दूर है और बाढ़ आने के बाद वहां जाने का रास्ता सुगम नहीं.

52 वर्षीय कोणेश्वर चेतिया परिस्थितियां समझाते हैं, "हम बच्चों को सड़क तक नाव में ले जाते हैं, जहां से स्कूल की वैन उन्हें ले लेती है. स्कूल के बाद उन्हें सड़क पर उसी जगह छोड़ दिया जाता है और हम उन्हें नाव में घर वापस ले आते हैं. उन्हें स्कूल की वेशभूषा सड़क पर ही पहननी और उतारनी पड़ती है जिससे कि वह नाव में गंदी ना हो जाए. उन्हें घर पर बाढ़ की वजह से पैदा हुए तनाव के माहौल में पढ़ाई करने में परेशानी होती है, पर उन्हें तब भी वह करना पड़ेगा. अगर स्कूल से होमवर्क मिलता है तो उनसे उसे पूरा करके लाने की ही उम्मीद की जाती है चाहे बाढ़ की कुछ भी स्थिति हो. यह मुश्किल है, पर उन्हें किसी तरह काम चलाना ही पड़ेगा."

यहां से 160 किलोमीटर दूर जोरहाट जिले के जापांग गांव में बच्चों के हालात और भी खराब हैं. वह तो नाव के अभाव में बाढ़ आने के बाद तीन महीने तक स्कूल भी नहीं जा सकते. ब्रह्मपुत्र और झांजी नदियों के बीच के इस टापू को मुख्य भूमि से जोड़ने की एकमात्र कड़ी एक स्थानीय नाविक की नाव है, जो नाव खेना नदी में पानी बढ़ना शुरू होते ही बंद कर देता है. टापू को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए कोई पुल नहीं है.

जोरहट कॉलेज में स्नातकीय की पढ़ाई कर रहे 19 वर्षीय जंतो टैक बताते हैं, "बाढ़ के पानी के बाद" पढ़ाई के बारे में सोचना भी दूर की कौड़ी लगता है.. मैं यह सब पीछे छोड़ के स्कूल नहीं जा सकता. बाढ़ का पानी जब उतर जाता है तो हमें अपने परिवार की मरे हुए मवेशियों की लाशें उठाने के साथ-साथ और भी चीजों में मदद करनी होती है. हालात सामान्य होने में कम से कम महीना भर लगता है."

अपने धान के खेत में जंतो टैक

2017 में अपने 11वीं कक्षा की परीक्षा से कुछ हफ्तों पहले जंतो की सारी किताबें बाढ़ में बह गई थीं. वे याद करते हुए कहते हैं, "मैं परीक्षा से बिल्कुल पहले नई किताबें खरीद पाया था वरना पास नहीं हो पाता. मैं उम्मीद करता हूं कि सरकार हमारे जैसे पिछड़ी जगहों से आने वाले विद्यार्थियों के लिए कुछ हॉस्टल बनाएगी, जिससे हम अपनी पढ़ाई आसानी से पूरी कर सकें. अगर वह केवल आने-जाने में मदद कर दें या फीस घटा दें, तो भी मेरे परिवार से एक बोझ उठ जाएगा.

10 और 13 वर्ष के दो बच्चों की मां दीपिका टाऊ के अनुसार जापांग में एक भी परिवार ऐसा नहीं है जो अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता, वे कहती हैं, "हम बिल्कुल चाहते हैं कि हमारे बच्चे बेहतर इंसान बनें, और बेहतर जीवन जीएं. पर जब मेरा पूरा जीवन बाढ़ निर्धारित करती है, तो मैं अपने बच्चों को सही से बड़ा करने पर कैसे ध्यान दूं? हम क्योंकि एक पिछड़े इलाके में पैदा हुए हैं तो हमारे बच्चों का तो असफल होना पहले से ही तय है. हमें मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए एक पुल तक नहीं है. हमारे बच्चों की पढ़ाई बाढ़ की वजह से बुरी तरह खराब हो रही है. और अच्छी पढ़ाई के बिना उन्हें अच्छी नौकरियां कैसे मिलेंगी?"

जापांग के बच्चे रेतीली जमीन पर खेलते हुए, यहां साल में चार महीने पानी भरा रहता है

बाढ़ में खोए हुए सामान और आजीविका के लिए, सरकार की तरफ से कोई मुआवजा या राहत न मिलने की वजह से साल दर साल किसान और मछली पकड़ने वाले परिवारों के लिए, अपने बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करना मुश्किल होता जा रहा है. कुछ को कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ा जिसे वापस चुकाने में अब उन्हें कठिनाई हो रही है.

कभी-कभी सरकार बाढ़ से प्रभावित लोगों को कुछ राहत सामग्री मुहैया भी करती है- जैसे चावल, दाल, नमक पर कइयों के लिए बाढ़ के पानी से होकर उसे लेने का कोई रास्ता नहीं होता. उदाहरण के लिए जापांग में गांव वालों को सहायता स्थानीय समाज सेवी संस्थाओं से ही मिलती है, वह भी तब जब बाढ़ का पानी उतरना शुरू हो जाता है.

जैसा कि इस सीरीज के पहले भाग में बताया गया था, असम में प्राकृतिक आपदाओं से ग्रसित लोगों को अपने घर, खेत और आजीविका को हुए नुकसान के लिए मुआवजा सुनिश्चित किया गया है. पर कुछ ही को थोड़ा बहुत कभी मिल पाता है.

जैसा कि जापांग की निवासी दीपिका टाऊ अपने शब्दों में कहती हैं, "चुनाव के समय वह हमसे यह कहते हुए फार्म भरवाते हैं कि वह हमें नई ज़मीन और घर मरम्मत के लिए पैसा देंगे, पर होता कभी कुछ नहीं है. हमें नुकसान की मरम्मत के लिए अपनी जेब से खुद पैसा देना पड़ता है. सरकार ने अब तक इसका कोई लंबे समय तक चलने वाला उपाय नहीं निकाला है. जब हमारी अपने को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए पुल की एक मूलभूत मांग आज तक मानी नहीं गई, तो मुझे नहीं पता कि अगर सरकार देती भी है तब भी हम तक कोई आर्थिक मदद पहुंचने में कितना समय लगेगा."

अजय से इतना ही सब काफी नहीं था, बाढ़ में पीने के स्वच्छ पानी, बिजली और पौष्टिक खाने की उपलब्धता भी गांव वालों के लिए अनिश्चितता में पड़ जाती है. सूखे मौसम में जापांग को पीने का पानी "पानी के गड्ढों" से मिलता है क्योंकि रेतीली जगहों पर बोरवेल करना ठीक नहीं होता. दीपिका बताती हैं कि बाढ़ के महीनों में वह वही लाशों से भरा पानी उबालकर पीते हैं, जिससे लोग अक्सर ही बीमार पड़ जाते हैं. कभी-कभी उन्हें "मदद अभियान" चला रहे समाजसेवी संगठनों से साफ पानी मिल जाता है.

वे कहती हैं, "बाढ़ के महीनों में मवेशियों को रोज खिला पाना भी मुश्किल होता है. मवेशियों के लिए घास और चारा लाने के लिए आपको दूर जाना पड़ता है, कई बार नदी के उस पार. तो अगर आपके पास नाव नहीं है तो आप अपने मवेशियों को भूख से मरने से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते. फिर घर में एक आदमी का होना भी जरूरी है, काफी मर्द गांव के बाहर रहते हैं. बाढ़ के दौरान वापस नहीं आते या नहीं आ पाते, और महिलाएं अकेली घर पर परिवार संभालने के लिए रह जाती हैं. घर के आसपास किसी आदमी के होने से मवेशियों के मरने की संभावना कम हो जाती है."

यह सत्य है कि इन इलाकों में नाव से ज्यादा कीमती शायद ही कुछ और चीजें हों. नाव एक आवश्यकता है, चाहे प्रसव से जूझ रही महिला को अस्पताल ले जाना हो, बाढ़ के समय मवेशियों को ऊंचाई पर ले जाना हो या समाजसेवियों से पीने का पानी इकट्ठा करना हो. परंतु गांव के अधिकतर लोग इतने सक्षम नहीं कि नाव खरीद सकें.

विश्वनाथ घाट पर गोहपुर में नावें
जापंग गांव में एक पानी का गड्ढा

उदाहरण के लिए, मजूली टापू के 400 परिवारों वाले गांव दोखिमपाथ कोईबोत्रो में केवल 15-20 नाव हैं. 48 वर्षीय दिगंतो दास बताते हैं कि बाकी लोग केले के पेड़ के तनों से बने बेड़े से ही काम चलाते हैं.

वे कहते हैं, "हमारा गांव साल के 6 महीने पानी के नीचे रहता है और हमारी दीवारों पर पानी के निशान पूरे साल रहते हैं. हम टापू से कहीं जा नहीं सकते क्योंकि लोगों को लाने ले जाने वाला बेड़ा उस समय चलता नहीं, और नाव से पार करना बहुत खतरनाक होता है. कभी-कभी बाथरूम जाने जैसी सामान्य चीज भी मुश्किल हो जाती है. हमें नाव में जाकर बाढ़ के पानी में मल त्याग करने के लिए विवश होना पड़ता है, और बाद में उसी पानी से नहाना भी पड़ता है. हमारी जिंदगियां बिल्कुल रुक जाती हैं."

खेती न कर पाने या मछली न पकड़ पाने जैसी स्थिति में भी गांव वाले आसपास के किसी जगह जाकर छोटा-मोटा काम भी बाढ़ की वजह से नहीं कर पाते.

हेसुली में महिलाओं के लिए अपने मासिक धर्म के दौरान अतिरिक्त तनाव पैदा हो जाता है. गांव की एक मध्य आयु की महिला, जो एक बच्चे की मां हैं ने अपना नाम गुप्त रखने की इच्छा रखते हुए बताया, "बैठकर एक पल चैन की सांस लेने के लिए भी जगह नहीं होती. अगर हम थोड़ा बेहतर महसूस करने के लिए नहाना भी चाहे, तो वह भी हमें बाढ़ के पानी में ही करना होगा और हम फिर मिट्टी और रेत से सने बाहर आते हैं. हम समय पर न खा पाते हैं न सो पाते हैं, और करें भी कैसे जब आपके घर में से पानी बह रहा हो? कुछ भी करना बड़ा पीड़ा देने वाला होता है."

हेसुली में महिलाएं

समस्याएं बाढ़ के पानी के उतरने के बाद भी खत्म नहीं होतीं. मरे हुए मवेशियों की सड़ांध और बीमारी कब है आबोहवा में बना ही रहता है. इसीलिए 27 वर्षीय निलाखी दास अपने विश्वनाथ घाट पुरोनी के घर को हर साल बाढ़ के चार महीनों के लिए छोड़ जाती हैं, उन्हें अपने चार वर्षीय बेटे के लिए डर लगता है.

निलाखी दास अपने बच्चे का साथ

वे कहती हैं, "मेरे घर में हर साल पानी भर जाता है और पानी मेरे घुटनों तक उठ जाता है. बाद में सब जगह से बदबू आती है, हर तरफ कीचड़ और कूड़ा होता है जिससे मेरे बेटे को बहुत परेशानी होती है. अगर घर की सफाई ठीक से ना हो तो उसे बुखार, खांसी, कभी-कभी दस्त और उल्टियां भी हो जाती हैं. और अगर कहीं वह गलती से बाढ़ के पानी में गिर गया, तो निश्चित ही डूब जाएगा. इसलिए उन महीनों में मैं यहां नहीं रह सकती. मैं 20 किलोमीटर दूर यहां से अपनी मां के गांव चली जाती हूं, और वापस तभी लौटती हूं जब घर की सूख जाने के बाद अच्छे से सफाई हो जाती है."

निलाखी दास अपने घर की दीवार पर बाढ़ के पानी के निशान दिखाते हुए
हेसुली में, लोखिमा बरुआह

यह एक झलक है कि असम के लोगों के लिए "बाढ़ ग्रसित" होने का क्या मतलब है. साल दर साल, विपत्ति का सामना कर जीवित रहने को चरितार्थ करना.

वहां हेसुली में, लोखिमा बरुआह कभी-कभी कल्पना करती हैं कि उनका जीवन बाढ़ के बिना कैसा हो सकता है. वह बताती हैं, "मैं अक्सर उस बारे में सोचती हूं, कि जीवन के ऊपर बाढ़ की चिरंतन छाया के बिना जीना कैसा होगा? कैसा होगा जब केवल किसी तरह जिंदा बच जाने के बारे में नहीं सोचना पड़ेगा? मैं सोचती हूं कि मैं कहां जा सकती हूं पर फिर वास्तविकताएं मुझे यथार्थ में ले आती हैं. मैं कहां जाऊंगी?

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फोटो - सुप्रिती डेविड

पांच भागों में प्रकाशित होने वाली असम बाढ़ और बंगाल के अमफन चक्रवात के कारण होने वाले विनाशकारी परिणाम सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट यहां पढ़ें.

यह स्टोरी हमारे एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा जिसमें 43 पाठकों ने सहयोग किया है. यह आदित्य देउस्कर, देशप्रिया देवेश, जॉन अब्राहम, अदिति प्रभा, रोहित उन्नीमाधवन, अभिषेक दैविल, और अन्य एनएल सेना के सदस्यों के लिए संभव बनाया गया है. हमारे अगले एनएल सेना प्रोजेक्ट 'लव जिहाद': मिथ वर्सेस रियलिटी में सहयोग दे और गर्व से कहें मेरे ख़र्च पर आजाद हैं ख़बरें.

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असम में हर साल आने वाली बाढ़ से 2020 में कम से कम 56 लाख लोग किसी न किसी तरह प्रभावित हुए. इस संख्या को अगर परिपेक्ष में देखें, तो यह यूरोपीय देश फिनलैंड की पूरी जनसंख्या से ज्यादा है.

यह संख्या कितनी भी बड़ी दिखाई दे पर बाढ़ एक जीवन और समाज को कैसे तबाह करती है, उस की पराकाष्ठा नहीं बता पाती. यह नहीं परिभाषित करती की ऐसी जगह पर रहना कैसा लगता है जो लगभग आधे वर्ष तक डूबी रहे. कैसा लगता है जब आप अपनी आय के इकलौते साधन अपने खेत को नहीं जोत पाते. कैसा महसूस होता है असहाय बन अपनी ज़मीन को थोड़ा-थोड़ा करके भूमि क्षरण की वजह से खोना. क्या होता है अपने जीवन को बार-बार फिर से उजड़ते हुए देखने के लिए समेटना.

इसीलिए, अपनी बाढ़ से होने वाली मानवीय क्षति को प्रतिबिंबित करती इस सीरीज़ के इस दूसरे भाग में, हम अधिकतर हाशिए पर रहने वाले उन लोगों की कहानियां बता रहे हैं जिनके जीवन और आजीविका हर साल बाढ़ तबाह कर देती है. यह सभी बाढ़ से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए छह जिलों से हैं.

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार असम के 34 में से 17 जिले "अत्यधिक बाढ़ प्रभावित" क्षेत्र हैं, राज्य के 1.05 करोड़ लोग बाढ़ संभावित क्षेत्रों में रहते हैं. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन या इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (एनआरएससी) के द्वारा तैयार की गई बाढ़ जोखिम एटलस के अनुसार, 22.54 लाख हेक्टेयर यानी राज्य का लगभग 28.75 प्रतिशत भूखंड, 1998 से 2015 के बीच कभी न कभी जलमग्न हुआ.

असम का करीब 40% हिस्सा नदी के बाढ़ क्षेत्र में आता है, यानी जब ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां उफान पर होती हैं तो बाढ़ आना निश्चित है. लेकिन बाढ़ आने को नहीं रोक पाने का यह अर्थ नहीं कि उसके विनाशकारी प्रभावों को कम नहीं किया जा सकता, केवल असम सरकार ने ही ज्यादा कुछ उसके लिए नहीं किया है. हालांकि सरकार ने कुछ पुश्ते या तटबंध बनाए हैं और बाढ़ की भविष्यवाणी करने में उन्नति की है, सरकार यह स्वीकार करती है कि, "बाढ़ और भूमि के क्षरण की समस्याओं से निपटने के लिए कोई दूरगामी कदम लागू नहीं किए गए हैं." मौजूदा गठबंधन की उपयोगिता विवादों के घेरे में है, खास तौर पर इसलिए क्योंकि उनकी देखभाल ठीक से नहीं की जाती. इसी साल बाढ़ में 423 में से कम से कम 180 तटबंधों ने जवाब भी दे दिया था.

परिणाम स्वरूप हर साल सैकड़ों घर थोड़े बहुत या पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. 32 वर्षीय लोखिमा बरुआह ने मई 2020 में उफान पर आई ब्रह्मपुत्र की सहायक जियाढाल नदी में अपना घर खो दिया. धेमाजी जिले के हेसुली गांव में उनका घर और खेती की जमीन सब डूब गए जब "ब्रेडिंग" की वजह से नदी उनके गांव से होकर गुजर गई. जैसा कि हमने पहले भाग में भी बताया नदी के बहाव को अलग-अलग धाराओं में बंट जाने को नदी की 'ब्रेडिंग' कहा जाता है. 6 महीनों से लोखिमा, उनके पति और 7 और 12 वर्षीय दो बेटे, अपने उजड़े हुए घर के पास 'चांग' अर्थात बांस के मचानों पर उठे हुए कच्चे घर, में रहने को विवश हैं.

वह बिलखते हुए बताती हैं, "इस बारे में बात करते हुए भी मन में बहुत पीड़ा होती है. हम बरसात और बाढ़ का पानी झेलते हुए 6 महीने से चांग में रह रहे हैं और हमारी जिंदगी बड़ी मुश्किल हो गई है. हमारे घर की बस नींव ही बची और वह भी क्षतिग्रस्त है. हम दिहाड़ी मजदूरी पर घर की मरम्मत करने की कोशिश कर रहे हैं पर उसमें समय लग रहा है. हम आजीविका के लिए खेती पर निर्भर रहते हैं और बाढ़ ने हमारी खड़ी हुई फसल को तबाह कर दिया, अब तो केवल वहां रेत ही बची है."

अपने क्षतिग्रस्त घर के बाहर लोखिमा बरुआह.

लोखिमा बताती हैं कि बाढ़ के बाद जब उनका घर रहने लायक नहीं रहा, तो उन्हें यह भी नहीं पता था कि, "कहां जाएं, जो सामान किसी तरह बचाया उसे कहां रखें, यहां तक कि यह भी नहीं पता था कि कहां सोएं. आखिरकार गांव वालों की मदद से हम यह चांग बना पाए. हमें चांग में घुसने के लिए डोलोंग यानी बांस की कच्ची पुलिया भी बनानी पड़ी क्योंकि बाढ़ का पानी हर तरफ था."

इस परिवार ने अपने घर को दोबारा से बनाने के लिए सरकारी मदद की अर्जी दाखिल की लेकिन कुछ नहीं हुआ.

एक पूरी तरह तबाह हुए मकान के लिए राज्य की आपदा निधि से एक परिवार को 95100 रुपए दिए जाने का प्रावधान है. थोड़े से क्षतिग्रस्त हुए पक्के मकान के लिए 5200 रुपए थोड़े से क्षतिग्रस्त हुए कच्चे मकान के लिए 3200 रुपए और एक झोपड़ी के लिए 4100 रुपए निर्धारित हैं. परंतु जितने भी बाढ़ प्रभावित लोगों से हमने बात की उनका कहना था कि उन्हें कभी भी कोई मुआवजा नहीं मिला.

डोलोंग नामक एक अस्थायी बांस का पुल जो लोखिमा बरुआह के चांग को बाथरूम से जोड़ता है.

आज जब परिवार अपनी तितर-बितर जिंदगी को फिर से समेट रहा है, लोखिमा को अपने बच्चों की चिंता रहती है. महामारी के फैलने के कारण स्कूल बंद हैं, उन्हें घर पर पढ़ाने के प्रयासों में वह बताती हैं कि उन्हें समझ आया, "जोड़-तोड़ कर बनाई हुई चांग में ठीक से पढ़ाई करने का वातावरण नहीं मिलता. मैं उन्हें पिछले महीने से ट्यूशन के लिए भेज रही हूं पर यह नहीं जानती कि और कितने दिन तक उसका खर्च उठा पाऊंगी. दिहाड़ी पर घर चलाना वैसे ही बहुत मुश्किल है."

लोखिमा बरुआह की रसोई खतरनाक रूप से चांग के फर्श के एक होल के पास है.

स्कूल जाना महामारी आने से पहले भी कोई आसान काम नहीं था. आसपास के अधिकतर स्कूल बाढ़ के मौसम में कई महीने के लिए जल मग्न हो जाते हैं, और जो नहीं भी होते वहां सुरक्षित पहुंच पाने के हिसाब से बहुत दूर होते हैं. 94 परिवारों के घर हेसुली के निकटस्थ ऐसा "सुरक्षित" स्कूल 9 किलोमीटर दूर है और बाढ़ आने के बाद वहां जाने का रास्ता सुगम नहीं.

52 वर्षीय कोणेश्वर चेतिया परिस्थितियां समझाते हैं, "हम बच्चों को सड़क तक नाव में ले जाते हैं, जहां से स्कूल की वैन उन्हें ले लेती है. स्कूल के बाद उन्हें सड़क पर उसी जगह छोड़ दिया जाता है और हम उन्हें नाव में घर वापस ले आते हैं. उन्हें स्कूल की वेशभूषा सड़क पर ही पहननी और उतारनी पड़ती है जिससे कि वह नाव में गंदी ना हो जाए. उन्हें घर पर बाढ़ की वजह से पैदा हुए तनाव के माहौल में पढ़ाई करने में परेशानी होती है, पर उन्हें तब भी वह करना पड़ेगा. अगर स्कूल से होमवर्क मिलता है तो उनसे उसे पूरा करके लाने की ही उम्मीद की जाती है चाहे बाढ़ की कुछ भी स्थिति हो. यह मुश्किल है, पर उन्हें किसी तरह काम चलाना ही पड़ेगा."

यहां से 160 किलोमीटर दूर जोरहाट जिले के जापांग गांव में बच्चों के हालात और भी खराब हैं. वह तो नाव के अभाव में बाढ़ आने के बाद तीन महीने तक स्कूल भी नहीं जा सकते. ब्रह्मपुत्र और झांजी नदियों के बीच के इस टापू को मुख्य भूमि से जोड़ने की एकमात्र कड़ी एक स्थानीय नाविक की नाव है, जो नाव खेना नदी में पानी बढ़ना शुरू होते ही बंद कर देता है. टापू को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए कोई पुल नहीं है.

जोरहट कॉलेज में स्नातकीय की पढ़ाई कर रहे 19 वर्षीय जंतो टैक बताते हैं, "बाढ़ के पानी के बाद" पढ़ाई के बारे में सोचना भी दूर की कौड़ी लगता है.. मैं यह सब पीछे छोड़ के स्कूल नहीं जा सकता. बाढ़ का पानी जब उतर जाता है तो हमें अपने परिवार की मरे हुए मवेशियों की लाशें उठाने के साथ-साथ और भी चीजों में मदद करनी होती है. हालात सामान्य होने में कम से कम महीना भर लगता है."

अपने धान के खेत में जंतो टैक

2017 में अपने 11वीं कक्षा की परीक्षा से कुछ हफ्तों पहले जंतो की सारी किताबें बाढ़ में बह गई थीं. वे याद करते हुए कहते हैं, "मैं परीक्षा से बिल्कुल पहले नई किताबें खरीद पाया था वरना पास नहीं हो पाता. मैं उम्मीद करता हूं कि सरकार हमारे जैसे पिछड़ी जगहों से आने वाले विद्यार्थियों के लिए कुछ हॉस्टल बनाएगी, जिससे हम अपनी पढ़ाई आसानी से पूरी कर सकें. अगर वह केवल आने-जाने में मदद कर दें या फीस घटा दें, तो भी मेरे परिवार से एक बोझ उठ जाएगा.

10 और 13 वर्ष के दो बच्चों की मां दीपिका टाऊ के अनुसार जापांग में एक भी परिवार ऐसा नहीं है जो अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता, वे कहती हैं, "हम बिल्कुल चाहते हैं कि हमारे बच्चे बेहतर इंसान बनें, और बेहतर जीवन जीएं. पर जब मेरा पूरा जीवन बाढ़ निर्धारित करती है, तो मैं अपने बच्चों को सही से बड़ा करने पर कैसे ध्यान दूं? हम क्योंकि एक पिछड़े इलाके में पैदा हुए हैं तो हमारे बच्चों का तो असफल होना पहले से ही तय है. हमें मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए एक पुल तक नहीं है. हमारे बच्चों की पढ़ाई बाढ़ की वजह से बुरी तरह खराब हो रही है. और अच्छी पढ़ाई के बिना उन्हें अच्छी नौकरियां कैसे मिलेंगी?"

जापांग के बच्चे रेतीली जमीन पर खेलते हुए, यहां साल में चार महीने पानी भरा रहता है

बाढ़ में खोए हुए सामान और आजीविका के लिए, सरकार की तरफ से कोई मुआवजा या राहत न मिलने की वजह से साल दर साल किसान और मछली पकड़ने वाले परिवारों के लिए, अपने बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करना मुश्किल होता जा रहा है. कुछ को कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ा जिसे वापस चुकाने में अब उन्हें कठिनाई हो रही है.

कभी-कभी सरकार बाढ़ से प्रभावित लोगों को कुछ राहत सामग्री मुहैया भी करती है- जैसे चावल, दाल, नमक पर कइयों के लिए बाढ़ के पानी से होकर उसे लेने का कोई रास्ता नहीं होता. उदाहरण के लिए जापांग में गांव वालों को सहायता स्थानीय समाज सेवी संस्थाओं से ही मिलती है, वह भी तब जब बाढ़ का पानी उतरना शुरू हो जाता है.

जैसा कि इस सीरीज के पहले भाग में बताया गया था, असम में प्राकृतिक आपदाओं से ग्रसित लोगों को अपने घर, खेत और आजीविका को हुए नुकसान के लिए मुआवजा सुनिश्चित किया गया है. पर कुछ ही को थोड़ा बहुत कभी मिल पाता है.

जैसा कि जापांग की निवासी दीपिका टाऊ अपने शब्दों में कहती हैं, "चुनाव के समय वह हमसे यह कहते हुए फार्म भरवाते हैं कि वह हमें नई ज़मीन और घर मरम्मत के लिए पैसा देंगे, पर होता कभी कुछ नहीं है. हमें नुकसान की मरम्मत के लिए अपनी जेब से खुद पैसा देना पड़ता है. सरकार ने अब तक इसका कोई लंबे समय तक चलने वाला उपाय नहीं निकाला है. जब हमारी अपने को मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए पुल की एक मूलभूत मांग आज तक मानी नहीं गई, तो मुझे नहीं पता कि अगर सरकार देती भी है तब भी हम तक कोई आर्थिक मदद पहुंचने में कितना समय लगेगा."

अजय से इतना ही सब काफी नहीं था, बाढ़ में पीने के स्वच्छ पानी, बिजली और पौष्टिक खाने की उपलब्धता भी गांव वालों के लिए अनिश्चितता में पड़ जाती है. सूखे मौसम में जापांग को पीने का पानी "पानी के गड्ढों" से मिलता है क्योंकि रेतीली जगहों पर बोरवेल करना ठीक नहीं होता. दीपिका बताती हैं कि बाढ़ के महीनों में वह वही लाशों से भरा पानी उबालकर पीते हैं, जिससे लोग अक्सर ही बीमार पड़ जाते हैं. कभी-कभी उन्हें "मदद अभियान" चला रहे समाजसेवी संगठनों से साफ पानी मिल जाता है.

वे कहती हैं, "बाढ़ के महीनों में मवेशियों को रोज खिला पाना भी मुश्किल होता है. मवेशियों के लिए घास और चारा लाने के लिए आपको दूर जाना पड़ता है, कई बार नदी के उस पार. तो अगर आपके पास नाव नहीं है तो आप अपने मवेशियों को भूख से मरने से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते. फिर घर में एक आदमी का होना भी जरूरी है, काफी मर्द गांव के बाहर रहते हैं. बाढ़ के दौरान वापस नहीं आते या नहीं आ पाते, और महिलाएं अकेली घर पर परिवार संभालने के लिए रह जाती हैं. घर के आसपास किसी आदमी के होने से मवेशियों के मरने की संभावना कम हो जाती है."

यह सत्य है कि इन इलाकों में नाव से ज्यादा कीमती शायद ही कुछ और चीजें हों. नाव एक आवश्यकता है, चाहे प्रसव से जूझ रही महिला को अस्पताल ले जाना हो, बाढ़ के समय मवेशियों को ऊंचाई पर ले जाना हो या समाजसेवियों से पीने का पानी इकट्ठा करना हो. परंतु गांव के अधिकतर लोग इतने सक्षम नहीं कि नाव खरीद सकें.

विश्वनाथ घाट पर गोहपुर में नावें
जापंग गांव में एक पानी का गड्ढा

उदाहरण के लिए, मजूली टापू के 400 परिवारों वाले गांव दोखिमपाथ कोईबोत्रो में केवल 15-20 नाव हैं. 48 वर्षीय दिगंतो दास बताते हैं कि बाकी लोग केले के पेड़ के तनों से बने बेड़े से ही काम चलाते हैं.

वे कहते हैं, "हमारा गांव साल के 6 महीने पानी के नीचे रहता है और हमारी दीवारों पर पानी के निशान पूरे साल रहते हैं. हम टापू से कहीं जा नहीं सकते क्योंकि लोगों को लाने ले जाने वाला बेड़ा उस समय चलता नहीं, और नाव से पार करना बहुत खतरनाक होता है. कभी-कभी बाथरूम जाने जैसी सामान्य चीज भी मुश्किल हो जाती है. हमें नाव में जाकर बाढ़ के पानी में मल त्याग करने के लिए विवश होना पड़ता है, और बाद में उसी पानी से नहाना भी पड़ता है. हमारी जिंदगियां बिल्कुल रुक जाती हैं."

खेती न कर पाने या मछली न पकड़ पाने जैसी स्थिति में भी गांव वाले आसपास के किसी जगह जाकर छोटा-मोटा काम भी बाढ़ की वजह से नहीं कर पाते.

हेसुली में महिलाओं के लिए अपने मासिक धर्म के दौरान अतिरिक्त तनाव पैदा हो जाता है. गांव की एक मध्य आयु की महिला, जो एक बच्चे की मां हैं ने अपना नाम गुप्त रखने की इच्छा रखते हुए बताया, "बैठकर एक पल चैन की सांस लेने के लिए भी जगह नहीं होती. अगर हम थोड़ा बेहतर महसूस करने के लिए नहाना भी चाहे, तो वह भी हमें बाढ़ के पानी में ही करना होगा और हम फिर मिट्टी और रेत से सने बाहर आते हैं. हम समय पर न खा पाते हैं न सो पाते हैं, और करें भी कैसे जब आपके घर में से पानी बह रहा हो? कुछ भी करना बड़ा पीड़ा देने वाला होता है."

हेसुली में महिलाएं

समस्याएं बाढ़ के पानी के उतरने के बाद भी खत्म नहीं होतीं. मरे हुए मवेशियों की सड़ांध और बीमारी कब है आबोहवा में बना ही रहता है. इसीलिए 27 वर्षीय निलाखी दास अपने विश्वनाथ घाट पुरोनी के घर को हर साल बाढ़ के चार महीनों के लिए छोड़ जाती हैं, उन्हें अपने चार वर्षीय बेटे के लिए डर लगता है.

निलाखी दास अपने बच्चे का साथ

वे कहती हैं, "मेरे घर में हर साल पानी भर जाता है और पानी मेरे घुटनों तक उठ जाता है. बाद में सब जगह से बदबू आती है, हर तरफ कीचड़ और कूड़ा होता है जिससे मेरे बेटे को बहुत परेशानी होती है. अगर घर की सफाई ठीक से ना हो तो उसे बुखार, खांसी, कभी-कभी दस्त और उल्टियां भी हो जाती हैं. और अगर कहीं वह गलती से बाढ़ के पानी में गिर गया, तो निश्चित ही डूब जाएगा. इसलिए उन महीनों में मैं यहां नहीं रह सकती. मैं 20 किलोमीटर दूर यहां से अपनी मां के गांव चली जाती हूं, और वापस तभी लौटती हूं जब घर की सूख जाने के बाद अच्छे से सफाई हो जाती है."

निलाखी दास अपने घर की दीवार पर बाढ़ के पानी के निशान दिखाते हुए
हेसुली में, लोखिमा बरुआह

यह एक झलक है कि असम के लोगों के लिए "बाढ़ ग्रसित" होने का क्या मतलब है. साल दर साल, विपत्ति का सामना कर जीवित रहने को चरितार्थ करना.

वहां हेसुली में, लोखिमा बरुआह कभी-कभी कल्पना करती हैं कि उनका जीवन बाढ़ के बिना कैसा हो सकता है. वह बताती हैं, "मैं अक्सर उस बारे में सोचती हूं, कि जीवन के ऊपर बाढ़ की चिरंतन छाया के बिना जीना कैसा होगा? कैसा होगा जब केवल किसी तरह जिंदा बच जाने के बारे में नहीं सोचना पड़ेगा? मैं सोचती हूं कि मैं कहां जा सकती हूं पर फिर वास्तविकताएं मुझे यथार्थ में ले आती हैं. मैं कहां जाऊंगी?

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फोटो - सुप्रिती डेविड

पांच भागों में प्रकाशित होने वाली असम बाढ़ और बंगाल के अमफन चक्रवात के कारण होने वाले विनाशकारी परिणाम सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट यहां पढ़ें.

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