Newslaundry Hindi
पीएम ओली द्वारा सत्ता बचाने की ललक में उठाया गया कदम आत्मघाती साबित हो सकता है
नेपाल के राजनीतिक रंगमंच पर पिछले कुछ महीनों से जो अश्लील नाटक चल रहा था, उसके पहले खंड का पटाक्षेप 20 दिसंबर को प्रतिनिधि सभा के विघटन के साथ हो गया. यह सारा कुछ इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि इस नाटक के किरदार भी हैरत में आ गये. पहली बार यह देखने में आया कि कोई प्रधानमंत्री, जिसके पास लगभग दो-तिहाई बहुमत हो, वह खुद ही संसद को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे.
इस पूरे नाटक में कितने नायक और कितने खलनायक हैं यह तो आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने इस कदम से देश को अभूतपूर्व संकट में डाल दिया है. अपनी सत्ता बचाने की ललक में उन्होंने न केवल सत्ता से ही हाथ धो लिया बल्कि ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया है जो उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकती है.
अब से दो वर्ष पूर्व जब प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी और ओली की नेकपा-एमाले ने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया, तो भारत और अमेरिका के फासीवादी रुझान वाले सत्ताधारियों के अंदर जहां दहशत फैली वहीं नेपाली जनता को लगा कि अब देश की राजनीति एक सही दिशा लेगी. यह भी उम्मीद जगी कि कम्युनिस्टों के नाम पर जितने भी छोटे-बड़े समूह हैं उन्हें एक मंच पर लाया जा सकेगा. चुनाव के नतीजों ने जनता को और भी ज्यादा उत्साहित किया क्योंकि पिछले तीन-चार दशकों के बाद पहली बार किसी ऐसी सरकार का गठन हुआ था जो बिना किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा कर सकती थी. एक स्थायी और स्थिर सरकार ही विकास की गारंटी दे सकती है- इसे सभी लोग मानते हैं. यही वजह है कि व्यापक जनसमुदाय ने इस सरकार से बहुत उम्मीद की थी- बहुत ही ज्यादा.
उसे तनिक भी आभास नहीं था कि जिन कम्युनिस्ट नेताओं ने एक लंबे संघर्ष के बाद राजतंत्र को समाप्त करने में किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभायी, वे सत्ता की आपसी खींचतान में इस सीमा तक लिप्त हो जाएंगे कि उन्हें जनता के दुख-दर्द की तनिक भी परवाह नहीं होगी. इसमें कोई संदेह नहीं कि 10 वर्षों के जनयुद्ध ने राजतंत्र को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी लेकिन माओवादियों के अलावा अन्य वामपंथी या कम्युनिस्ट समूहों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि इनकी कोई भूमिका नहीं थी. अपने ढुलमुल रवैये के बावजूद अंततः इन्हें भी राजतंत्र के खिलाफ ही खड़ा होना पड़ा.
आज जो स्थिति पैदा हुई है उसके लिए जिम्मेदार कौन है? इसमें कोई संदेह नहीं कि मुख्य जिम्मेदारी प्रधानमंत्री केपी ओली की है लेकिन क्या अन्य शीर्ष नेताओं को इस जिम्मेदारी से बरी किया जा सकता है? केपी ओली ने सभी जनतांत्रिक तौर-तरीकों को दरकिनार करते हुए अगर अपने ढंग की शासन पद्धति अपनायी तो पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता क्या कर रहे थे?
यह पूरा वर्ष इन नेताओं की आपसी खींचतान की खबरों से भरा रहा है. पार्टी के सेक्रेटेरिएट में 9 सदस्य थे और इसमें प्रचंड के पक्ष का पलड़ा भारी था. पांच सदस्य ओली की निरंकुशता का विरोध करने में मुखर थे लेकिन इन्हीं पांच सदस्यों में से एक सदस्य बामदेव गौतम को जब ओली अपनी धूर्त रणनीति से ‘न्यूट्रलाइज़’ कर देते थे तो ये सारे लोग असहाय दिखायी देने लगते थे. कितना हास्यास्पद और शर्मनाक है कि ओली ने बामदेव गौतम को अपनी तरफ खींचने के लिए कभी संसद की सदस्यता का तो कभी पार्टी उपाध्यक्ष का और यहां तक कि भावी प्रधानमंत्री का भी प्रलोभन दे दिया. इससे भी शर्मनाक यह है कि गौतम उस प्रलोभन में कुछ समय के लिए आ भी गये.
इसके लिए इस वर्ष जुलाई में हुई उन बैठकों का ब्यौरा देखा जा सकता है जब ऐसा महसूस हो रहा था कि या तो केपी ओली अपनी कार्य-पद्धति को सुधार लेंगे या पार्टी में विभाजन हो जाएगा. नेपाल की जनता ने इन निंदनीय प्रकरणों को अच्छी तरह देखा है इसलिए यहां दुहराने की जरूरत नहीं है. इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अपने विरोधियों को शांत करने और अपने निजी स्वार्थ को बचाए रखने में ओली ने सारी कलाओं का इस्तेमाल किया. अपने सहयोगियों की कमजोर नस को पकड़ने में ओली माहिर हैं लेकिन जनता की नब्ज़ टटोलने में उन्होंने अपने इस कौशल का इस्तेमाल नहीं किया. यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है.
नेपाल आज हर मोर्चे पर संकट के दौर से गुजर रहा है. कोविड-19 ने इस संकट को और गहरा किया है जिसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर साफ दिखाई दे रहा है. इस वर्ष अप्रैल में जारी विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसे में 14 प्रतिशत गिरावट आने जा रही है. रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष प्रवासी नेपालियों द्वारा भेजी गयी धनराशि 8.64 बिलियन डॉलर थी और अगर इसमें 14 प्रतिशत की गिरावट आती है तो नेपाल को तकरीबन 145 बिलियन रुपये का नुकसान होगा. विश्व बैंक की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि पिछले वर्ष जो पैसा बाहर से नेपाल पहुंचा वह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 27.3 प्रतिशत के बराबर था.
इस वर्ष मार्च से कोई भी नेपाली नागरिक काम के लिए विदेश नहीं जा सका. इतना ही नहीं, सितंबर 2020 तक लगभग 80 हजार नेपाली नागरिक जो विदेशों में काम कर रहे थे, स्वदेश वापस लौटने के लिए मजबूर हुए. ओली सरकार के सामने यह बहुत बड़ी समस्या थी. इस समस्या से निपटने के लिए उन्हें अपने सहयोगियों के साथ पूरा समय लगाना चाहिए था. कई दशकों बाद देश को एक टिकाऊ सरकार मिली थी. यह सरकार बहुत कुछ कर सकती थी.
2015 में नया संविधान बनने के बाद भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकाबंदी से निपटने में ओली ने अत्यंत कुशलता का परिचय दिया था, जिसने उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता दी. उस लोकप्रियता का वह सकारात्मक इस्तेमाल कर सकते थे. देश का दुर्भाग्य है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया. इतिहास ने उन्हें एक शानदार अवसर दिया था जिसे उन्होंने गंवा दिया- ठीक वैसे ही जैसे प्रचंड ने सत्ता में आने के बाद एक ऐतिहासिक अवसर को गंवाया. अब तो ओली जी से यही कहा जा सकता है कि आपने देश की काफी सेवा कर ली- अब विश्राम करें.
बेशक, पार्टी के अंदर सतही तौर पर जो सत्ता संघर्ष दिखाई दे रहा है वह मूलतः संसदीय व्यवस्था में जनतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना से जुड़ा है लेकिन राजनेताओं की छवि इतनी धूमिल हो चुकी है कि कोई इसे मानने को तैयार नहीं.
अनेक कारणों से प्रचंड की छवि काफी धूमिल हो चुकी है लेकिन उनके साथ माधव नेपाल का घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना इस बात की गारंटी करता है कि प्रचंड किसी भटकाव के शिकार नहीं होंगे. माधव नेपाल प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनका जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में दृढ़ विश्वास है. इतिहास ने इन दोनों नेताओं के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है कि वे गर्त में जा रही राजनीति को उबारें और जनता के अंदर एक बार फिर भरोसा पैदा हो. अगर जनता राजनीति से उदासीन हो गयी तो यह फासीवादी ताकतों के लिए बहुत अच्छी स्थिति होगी. नेपाल का सौभाग्य है कि बार-बार धोखा खाने के बावजूद जनता का अभी जनपक्षीय राजनीति में विश्वास बना हुआ है. इस विश्वास को और मजबूत करने की जरूरत है.
अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है. लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस सबके पीछे नेपाल के संदर्भ में भारत की औपनिवेशिक मानसिकता का भी कुछ हाथ है. ऐसा इसलिए क्योंकि हाल ही में भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के प्रमुख सामंत गोयल और भारतीय सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवाने ने नेपाल की आधिकारिक यात्रा पूरी की. ये ऐसे लोग हैं जो नेपाल की राजनीति पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं. यह तो जगजाहिर है कि भारत के मौजूदा शासक केपी ओली को पसंद नहीं करते क्योंकि आर्थिक नाकाबंदी के दौरान उन्होंने चीन के साथ मधुर संबंध बनाये इसे भारत की निगाह में एक कम्युनिस्ट देश द्वारा दूसरे कम्युनिस्ट देश को प्रोत्साहित करना था जिसका प्रभाव चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता था. वैसे, अभी तक भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है- उसने यही कहा है कि यह नेपाल का आंतरिक मामला है.
यह जो संकटपूर्ण स्थिति पैदा हुई है उससे निपटने का तरीका क्या हो सकता है? आज राष्ट्रीय रंगमंच पर जो किरदार दिखायी दे रहे हैं वे सभी कम्युनिस्ट हैं और जनता के बीच समग्र रूप से कम्युनिस्टों की छवि धूमिल हो रही है. बार-बार यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि आज के विश्व में जब अनेक देशों में फासीवादी रुझान की सरकारें सत्ता में हैं, नेपाल दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जहां घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जो दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी है. ऐसे समय जब राजनीतिक नेतृत्व से जनता का मोह भंग हो रहा हो, समाज की अन्य शक्तियों को सामने आने की जरूरत है.
नेपाल इस अर्थ में भी एक अनूठा देश है जहां गंभीर राजनीतिक-सामाजिक संकट के समय छात्रों-युवकों ने आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में ले ली और राजनीति को सही दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आप 1979 को याद करिए जब अप्रैल में पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के विरोध में काठमांडो के असंख्य प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता और लाठीचार्ज ने छात्र-संघर्ष को भड़का दिया था. उस समय इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप लिया और स्थिति इतनी बिगड़ी कि इसे रोकने के लिए तत्कालीन महाराज बीरेंद्र को जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी. नेपाल के इतिहास में पहली बार भावी राजनीतिक व्यवस्था चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने की शाही घोषणा हुई थी. छात्र आंदोलन का एक और उल्लेखनीय स्वरूप 1989-90 में भी देखने को मिला जिसकी परिणति निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के स्थान पर बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना के रूप में हुई.
महाराजा ज्ञानेंद्र के शासनकाल में छात्रों के आंदोलन का एक और असाधारण रूप तब देखने को मिला जब 13 दिसंबर 2003 को पोखरा में सेना द्वारा एक छात्र की हत्या की गयी थी. इस घटना की प्रतिक्रिया में पृथ्वी नारायण कैंपस के छात्रों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने धीरे-धीरे समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी परिणति राजतंत्र विरोधी आंदोलन के रूप में हुई. स्मरणीय है कि उन दिनों देश की प्रमुख संसदीय पार्टियां ‘प्रतिगमन’ विरोधी आंदोलन चला रही थीं और उनकी मांग राजतंत्र को समाप्त करने की नहीं थी लेकिन छात्रों के अंदर वह धूर्त दृष्टि नहीं होती जो राजनीतिक दलों में होती है, हालांकि छात्रों के संगठन आमतौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं.
इन छात्र संगठनों ने अपनी मांगें वही नहीं रखीं जो राजनीतिक दल रख रहे थे जिनसे वे जुड़े थे. राजनीतिक दलों की मांग तो संविधान में संशोधन करने और प्रतिगमन को समाप्त करने यानी संसद को बहाल करने तक सीमित थी लेकिन छात्र संगठनों ने आंदोलन की धार को महाराजा ज्ञानेंद्र और युवराज पारस के खिलाफ मोड़ने में कामयाबी पायी. वे राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त करने की मांग कर रहे थे. उस समय स्थिति इतनी गंभीर हुई कि अमेरिका की सहायक विदेशमंत्री क्रिस्टिना रोक्का काठमांडो पहुंचीं और उन्होंने नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेताओं से मिलकर कहा कि वे अपने छात्र संगठनों से कहें कि वे राजतंत्र को समाप्त करने का नारा न लगाएं.
आज फिर वह स्थिति आ गयी है जब देश के छात्रों-युवकों को आगे बढ़कर राजनीति की कमान संभालनी होगी. उनके अंदर ही वह क्षमता है कि वे उन राजनेताओं को रास्ते पर लाएं जो अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थों की वजह से भटकाव के शिकार हो गये हैं. अगर ऐसा हो सका तो नेपाल की राजनीति एक बार फिर सही दिशा ले सकेगी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी.
नेपाल के राजनीतिक रंगमंच पर पिछले कुछ महीनों से जो अश्लील नाटक चल रहा था, उसके पहले खंड का पटाक्षेप 20 दिसंबर को प्रतिनिधि सभा के विघटन के साथ हो गया. यह सारा कुछ इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि इस नाटक के किरदार भी हैरत में आ गये. पहली बार यह देखने में आया कि कोई प्रधानमंत्री, जिसके पास लगभग दो-तिहाई बहुमत हो, वह खुद ही संसद को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे.
इस पूरे नाटक में कितने नायक और कितने खलनायक हैं यह तो आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने इस कदम से देश को अभूतपूर्व संकट में डाल दिया है. अपनी सत्ता बचाने की ललक में उन्होंने न केवल सत्ता से ही हाथ धो लिया बल्कि ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया है जो उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकती है.
अब से दो वर्ष पूर्व जब प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी और ओली की नेकपा-एमाले ने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया, तो भारत और अमेरिका के फासीवादी रुझान वाले सत्ताधारियों के अंदर जहां दहशत फैली वहीं नेपाली जनता को लगा कि अब देश की राजनीति एक सही दिशा लेगी. यह भी उम्मीद जगी कि कम्युनिस्टों के नाम पर जितने भी छोटे-बड़े समूह हैं उन्हें एक मंच पर लाया जा सकेगा. चुनाव के नतीजों ने जनता को और भी ज्यादा उत्साहित किया क्योंकि पिछले तीन-चार दशकों के बाद पहली बार किसी ऐसी सरकार का गठन हुआ था जो बिना किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा कर सकती थी. एक स्थायी और स्थिर सरकार ही विकास की गारंटी दे सकती है- इसे सभी लोग मानते हैं. यही वजह है कि व्यापक जनसमुदाय ने इस सरकार से बहुत उम्मीद की थी- बहुत ही ज्यादा.
उसे तनिक भी आभास नहीं था कि जिन कम्युनिस्ट नेताओं ने एक लंबे संघर्ष के बाद राजतंत्र को समाप्त करने में किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभायी, वे सत्ता की आपसी खींचतान में इस सीमा तक लिप्त हो जाएंगे कि उन्हें जनता के दुख-दर्द की तनिक भी परवाह नहीं होगी. इसमें कोई संदेह नहीं कि 10 वर्षों के जनयुद्ध ने राजतंत्र को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी लेकिन माओवादियों के अलावा अन्य वामपंथी या कम्युनिस्ट समूहों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि इनकी कोई भूमिका नहीं थी. अपने ढुलमुल रवैये के बावजूद अंततः इन्हें भी राजतंत्र के खिलाफ ही खड़ा होना पड़ा.
आज जो स्थिति पैदा हुई है उसके लिए जिम्मेदार कौन है? इसमें कोई संदेह नहीं कि मुख्य जिम्मेदारी प्रधानमंत्री केपी ओली की है लेकिन क्या अन्य शीर्ष नेताओं को इस जिम्मेदारी से बरी किया जा सकता है? केपी ओली ने सभी जनतांत्रिक तौर-तरीकों को दरकिनार करते हुए अगर अपने ढंग की शासन पद्धति अपनायी तो पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता क्या कर रहे थे?
यह पूरा वर्ष इन नेताओं की आपसी खींचतान की खबरों से भरा रहा है. पार्टी के सेक्रेटेरिएट में 9 सदस्य थे और इसमें प्रचंड के पक्ष का पलड़ा भारी था. पांच सदस्य ओली की निरंकुशता का विरोध करने में मुखर थे लेकिन इन्हीं पांच सदस्यों में से एक सदस्य बामदेव गौतम को जब ओली अपनी धूर्त रणनीति से ‘न्यूट्रलाइज़’ कर देते थे तो ये सारे लोग असहाय दिखायी देने लगते थे. कितना हास्यास्पद और शर्मनाक है कि ओली ने बामदेव गौतम को अपनी तरफ खींचने के लिए कभी संसद की सदस्यता का तो कभी पार्टी उपाध्यक्ष का और यहां तक कि भावी प्रधानमंत्री का भी प्रलोभन दे दिया. इससे भी शर्मनाक यह है कि गौतम उस प्रलोभन में कुछ समय के लिए आ भी गये.
इसके लिए इस वर्ष जुलाई में हुई उन बैठकों का ब्यौरा देखा जा सकता है जब ऐसा महसूस हो रहा था कि या तो केपी ओली अपनी कार्य-पद्धति को सुधार लेंगे या पार्टी में विभाजन हो जाएगा. नेपाल की जनता ने इन निंदनीय प्रकरणों को अच्छी तरह देखा है इसलिए यहां दुहराने की जरूरत नहीं है. इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अपने विरोधियों को शांत करने और अपने निजी स्वार्थ को बचाए रखने में ओली ने सारी कलाओं का इस्तेमाल किया. अपने सहयोगियों की कमजोर नस को पकड़ने में ओली माहिर हैं लेकिन जनता की नब्ज़ टटोलने में उन्होंने अपने इस कौशल का इस्तेमाल नहीं किया. यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है.
नेपाल आज हर मोर्चे पर संकट के दौर से गुजर रहा है. कोविड-19 ने इस संकट को और गहरा किया है जिसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर साफ दिखाई दे रहा है. इस वर्ष अप्रैल में जारी विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसे में 14 प्रतिशत गिरावट आने जा रही है. रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष प्रवासी नेपालियों द्वारा भेजी गयी धनराशि 8.64 बिलियन डॉलर थी और अगर इसमें 14 प्रतिशत की गिरावट आती है तो नेपाल को तकरीबन 145 बिलियन रुपये का नुकसान होगा. विश्व बैंक की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि पिछले वर्ष जो पैसा बाहर से नेपाल पहुंचा वह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 27.3 प्रतिशत के बराबर था.
इस वर्ष मार्च से कोई भी नेपाली नागरिक काम के लिए विदेश नहीं जा सका. इतना ही नहीं, सितंबर 2020 तक लगभग 80 हजार नेपाली नागरिक जो विदेशों में काम कर रहे थे, स्वदेश वापस लौटने के लिए मजबूर हुए. ओली सरकार के सामने यह बहुत बड़ी समस्या थी. इस समस्या से निपटने के लिए उन्हें अपने सहयोगियों के साथ पूरा समय लगाना चाहिए था. कई दशकों बाद देश को एक टिकाऊ सरकार मिली थी. यह सरकार बहुत कुछ कर सकती थी.
2015 में नया संविधान बनने के बाद भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकाबंदी से निपटने में ओली ने अत्यंत कुशलता का परिचय दिया था, जिसने उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता दी. उस लोकप्रियता का वह सकारात्मक इस्तेमाल कर सकते थे. देश का दुर्भाग्य है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया. इतिहास ने उन्हें एक शानदार अवसर दिया था जिसे उन्होंने गंवा दिया- ठीक वैसे ही जैसे प्रचंड ने सत्ता में आने के बाद एक ऐतिहासिक अवसर को गंवाया. अब तो ओली जी से यही कहा जा सकता है कि आपने देश की काफी सेवा कर ली- अब विश्राम करें.
बेशक, पार्टी के अंदर सतही तौर पर जो सत्ता संघर्ष दिखाई दे रहा है वह मूलतः संसदीय व्यवस्था में जनतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना से जुड़ा है लेकिन राजनेताओं की छवि इतनी धूमिल हो चुकी है कि कोई इसे मानने को तैयार नहीं.
अनेक कारणों से प्रचंड की छवि काफी धूमिल हो चुकी है लेकिन उनके साथ माधव नेपाल का घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना इस बात की गारंटी करता है कि प्रचंड किसी भटकाव के शिकार नहीं होंगे. माधव नेपाल प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनका जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में दृढ़ विश्वास है. इतिहास ने इन दोनों नेताओं के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है कि वे गर्त में जा रही राजनीति को उबारें और जनता के अंदर एक बार फिर भरोसा पैदा हो. अगर जनता राजनीति से उदासीन हो गयी तो यह फासीवादी ताकतों के लिए बहुत अच्छी स्थिति होगी. नेपाल का सौभाग्य है कि बार-बार धोखा खाने के बावजूद जनता का अभी जनपक्षीय राजनीति में विश्वास बना हुआ है. इस विश्वास को और मजबूत करने की जरूरत है.
अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है. लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस सबके पीछे नेपाल के संदर्भ में भारत की औपनिवेशिक मानसिकता का भी कुछ हाथ है. ऐसा इसलिए क्योंकि हाल ही में भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के प्रमुख सामंत गोयल और भारतीय सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवाने ने नेपाल की आधिकारिक यात्रा पूरी की. ये ऐसे लोग हैं जो नेपाल की राजनीति पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं. यह तो जगजाहिर है कि भारत के मौजूदा शासक केपी ओली को पसंद नहीं करते क्योंकि आर्थिक नाकाबंदी के दौरान उन्होंने चीन के साथ मधुर संबंध बनाये इसे भारत की निगाह में एक कम्युनिस्ट देश द्वारा दूसरे कम्युनिस्ट देश को प्रोत्साहित करना था जिसका प्रभाव चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता था. वैसे, अभी तक भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है- उसने यही कहा है कि यह नेपाल का आंतरिक मामला है.
यह जो संकटपूर्ण स्थिति पैदा हुई है उससे निपटने का तरीका क्या हो सकता है? आज राष्ट्रीय रंगमंच पर जो किरदार दिखायी दे रहे हैं वे सभी कम्युनिस्ट हैं और जनता के बीच समग्र रूप से कम्युनिस्टों की छवि धूमिल हो रही है. बार-बार यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि आज के विश्व में जब अनेक देशों में फासीवादी रुझान की सरकारें सत्ता में हैं, नेपाल दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जहां घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जो दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी है. ऐसे समय जब राजनीतिक नेतृत्व से जनता का मोह भंग हो रहा हो, समाज की अन्य शक्तियों को सामने आने की जरूरत है.
नेपाल इस अर्थ में भी एक अनूठा देश है जहां गंभीर राजनीतिक-सामाजिक संकट के समय छात्रों-युवकों ने आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में ले ली और राजनीति को सही दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आप 1979 को याद करिए जब अप्रैल में पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के विरोध में काठमांडो के असंख्य प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता और लाठीचार्ज ने छात्र-संघर्ष को भड़का दिया था. उस समय इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप लिया और स्थिति इतनी बिगड़ी कि इसे रोकने के लिए तत्कालीन महाराज बीरेंद्र को जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी. नेपाल के इतिहास में पहली बार भावी राजनीतिक व्यवस्था चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने की शाही घोषणा हुई थी. छात्र आंदोलन का एक और उल्लेखनीय स्वरूप 1989-90 में भी देखने को मिला जिसकी परिणति निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के स्थान पर बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना के रूप में हुई.
महाराजा ज्ञानेंद्र के शासनकाल में छात्रों के आंदोलन का एक और असाधारण रूप तब देखने को मिला जब 13 दिसंबर 2003 को पोखरा में सेना द्वारा एक छात्र की हत्या की गयी थी. इस घटना की प्रतिक्रिया में पृथ्वी नारायण कैंपस के छात्रों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने धीरे-धीरे समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी परिणति राजतंत्र विरोधी आंदोलन के रूप में हुई. स्मरणीय है कि उन दिनों देश की प्रमुख संसदीय पार्टियां ‘प्रतिगमन’ विरोधी आंदोलन चला रही थीं और उनकी मांग राजतंत्र को समाप्त करने की नहीं थी लेकिन छात्रों के अंदर वह धूर्त दृष्टि नहीं होती जो राजनीतिक दलों में होती है, हालांकि छात्रों के संगठन आमतौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं.
इन छात्र संगठनों ने अपनी मांगें वही नहीं रखीं जो राजनीतिक दल रख रहे थे जिनसे वे जुड़े थे. राजनीतिक दलों की मांग तो संविधान में संशोधन करने और प्रतिगमन को समाप्त करने यानी संसद को बहाल करने तक सीमित थी लेकिन छात्र संगठनों ने आंदोलन की धार को महाराजा ज्ञानेंद्र और युवराज पारस के खिलाफ मोड़ने में कामयाबी पायी. वे राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त करने की मांग कर रहे थे. उस समय स्थिति इतनी गंभीर हुई कि अमेरिका की सहायक विदेशमंत्री क्रिस्टिना रोक्का काठमांडो पहुंचीं और उन्होंने नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेताओं से मिलकर कहा कि वे अपने छात्र संगठनों से कहें कि वे राजतंत्र को समाप्त करने का नारा न लगाएं.
आज फिर वह स्थिति आ गयी है जब देश के छात्रों-युवकों को आगे बढ़कर राजनीति की कमान संभालनी होगी. उनके अंदर ही वह क्षमता है कि वे उन राजनेताओं को रास्ते पर लाएं जो अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थों की वजह से भटकाव के शिकार हो गये हैं. अगर ऐसा हो सका तो नेपाल की राजनीति एक बार फिर सही दिशा ले सकेगी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी.
Also Read
-
TV Newsance 253: A meeting with News18’s Bhaiyaji, News24’s Rajeev Ranjan in Lucknow
-
Uttarakhand: Forests across 1,500 hectares burned in a year. Were fire lines drawn to prevent it?
-
Know Your Turncoats, Part 15: NDA has 53% defectors in phase 5; 2 in Shinde camp after ED whip
-
Grand rallies at Mumbai: What are Mahayuti and MVA supporters saying?
-
Reporters Without Orders Ep 322: Bansuri Swaraj’s debut, Sambhal violence