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आंदोलन पवित्र है तो इसमें शामिल लोग अपवित्र कैसे हो सकते हैं?

लाल बुझक्कड़ साहब का किस्सा पता नहीं अब चलता है या नहीं लेकिन हमारे बीच तो खूब चलता था, और हर कथा के अंत में लाल बुझक्कड़ साहब यही कहते थे- लाल बुझक्कड़ बूझ गया और न बूझा कोय!

लाल बुझक्कड़ साहब आज भी हैं और हर विषय में उनके ज्ञान से हम दंग होते रहते हैं. उनका किस्सा सरेआम दिखाया जा रहा है और सारी लोकसभा लोटपोट हो रही है. मुझे याद आया, किसी ने क्या बात कही है कि सबसे बड़ा ज्ञान यह जानने में है कि हमें बहुत सारी बातों का ज्ञान नहीं है. लाल बुझक्कड़ साहब को इसी का ज्ञान नहीं है. वे वह सब कहे जा रहे हैं जो उनकी व उनके दरबारियों की समझ से परे है. कुर्सी हमेशा ऐसे लाल बुझक्कड़ों को जन्म देती है जिन्हें इसका ज्ञान नहीं होता है कि ज्ञान कुर्सी में नहीं होता है. इसलिए राष्ट्रपति के दिशाहीन संबोधन के धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए लाल बुझक्कड़ साहब ने बहुत कुछ ऐसा कहा जो हमेशा की तरह उनकी पहुंच से बाहर की बात थी. आंदोलनजीवी, परजीवी, देशद्रोही, आतंकवादी, नक्सली आदि का सवाल इतनी फूहड़ता से उठाया उन्होंने कि इतिहास चारो खाने चित्त गिरा!

कोई जानना ही चाहे और कोई बताने को तैयार हो तो यह पूछा जाना चाहिए कि जिस आंदोलन को उन्होंने पवित्र कहा, उस आंदोलन की पवित्र गंगा में डुबकी लगाने क्यों नहीं उतरे? पवित्र आंदोलन से दूरी बनाने और उसे हर अपवित्र साधन से कलंकित करने की कोशिश क्यों की जा रही है? इसका जवाब भी उन्हें नहीं मालूम हो शायद, तो हम ही बता देते हैं कि हर पवित्र आंदोलन वह अग्निकुंड होता है जिसमें उतर कर ही आप पवित्र हो सकते हैं; और ‘जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ!’ और यह भी कि लाल बुझक्कड़ को यदि किसानों का आंदोलन पवित्र लगता है तो इस आंदोलन को करने वाले खालिस्तानी, नक्सली, देशद्रोही और चीन, पाकिस्तान के भाड़े के टट्टू कैसे हो गए? आंदोलन पवित्र है तो इसमें शामिल लोग अपवित्र कैसे हो सकते हैं? हर वह आंदोलन पवित्र होता है जो निजी स्वार्थ की लालसा, सत्ता की लोलुपता से दूर, बहुजन के लिए न्याय व अधिकार मांगता है. जिसके साधन पवित्र हैं, जो शांतिमय हैं, जो धर्म-जाति-लिंग का भेद न करते हुए सर्व के हित की बात करता है, वह आंदोलन पवित्र है. कोई भी पवित्र आंदोलन लोकतंत्र का अहित नहीं कर सकता है, वह उसे परिपूर्ण करता है, उसकी जड़ों को मजबूत करता है. हां, उनकी बात अलग है जो अपनी कुर्सी को पवित्र और अपनी सत्ता को ही लोकतंत्र मानते हैं.

खतरा आंदोलनजीवियों से नहीं, सत्ताजीवियों से है. महात्मा गांधी से बड़ा आंदोलनजीवी तो संसार में दूसरा कोई है नहीं लेकिन यह सच्चाई भी हमें ह्रदयंगम कर लेनी चाहिए कि उन्होंने इस पूरे देश को जगाकर, आंदोलनजीवियों की एक बड़ी फौज ही तैयार कर दी जो ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 1915 से 1947 तक लगातार, मरते-खपते आंदोलन ही जीती रही. दुष्यंत कुमार की जिस गजल का बड़ा ही फूहड़ इस्तेमाल लाल बुझक्कड़ साहब ने उस दिन लोकसभा में किया था, उसकी सही जगह यहां है. उन अमर आंदोलनजीवियों ने इस गजल को जी कर दिखाया: मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/ वह गजल (आंदोलन) आपको सुनाता हूं. गांधी ने उन्हें यह गजल न सिखाई होती और उन्होंने यह गजल उर पर अंकित न कर ली होती तो आज हम आजाद हवा में सांस नहीं ले रहे होते.

आंदोलन की पवित्रता की दूसरी कसौटी यह है कि वह खुली किताब हो. जिसे जहां से, जब देखना हो देख सके- सारी दुनिया देख सके. सत्ता का वह मन अपवित्र है जो इस बात पर डंडा उठाता है कि विदेशी इस आंदोलन का समर्थन क्यों करते हैं. हर पवित्र आंदोलन धर्म-जाति-लिंग का भेद पाकर सारी दुनिया की न्याय-भावना को आवाज देता है. इतिहास पढ़ा ही न हो, या आपको पढ़ने की इजाजत न हो तो हम क्या करें कि महात्मा गांधी ने, 5 अप्रैल 1930 को नमक आंदोलनजीवियों की तरफ से वह मार्मिक, अमर अपील की थी जिसे दुनिया भर के आंदोलनजीवियों ने अपना सूत्र ही बना लिया है- “आइ वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइट- मैं न्याय बनाम लाठी के इस युद्ध में दुनिया की सहानुभूति मांगता हूं.” लाल बुझक्कड़ साहब, यह गांधी नाम का आंदोलनजीवी तो सारी दुनिया को हाथ उठा कर बुला रहा है कि अपनी सहानुभूति जाहिर करो, आ सको तो हमारे पवित्र आंदोलन में आ जाओ! आप इतने से ही बौखला गए कि किसी ने दुनिया में यहां से तो किसी ने वहां से इतना ही कहा कि अपने किसानों की बात सुनिए तो! यह अगर सत्ता के बहरेपन पर की गई निजी फब्ती न मान ली गई हो तो इससे मासूम बात भी कोई कह सकता है क्या?

सुनना हर लोकतांत्रिक सरकार का संवैधानिक धर्म है. सुनना-सुनाना, मानना-मनाना, नागरिकों में, मीडिया में, विशेषज्ञों में विमर्श पैदा करना, संसद में खुली व लंबी चर्चा बनने देना और फिर उभरती आम सहमति को कानून का रूप देना- यही एकमात्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. आपके लिए ही नहीं, आपसे पहले जो आए, आपके बाद जो आएंगे सबकी यही लोकतांत्रिक कसौटी है. आपसे पहले जो आए उन्होंने इसका पालन नहीं किया या बाद वाले नहीं करेंगे, इससे आपकी कसौटी नहीं होगी. आपकी कसौटी तो अभी और आज आप जो कर रहे हैं, उससे ही होगी. कसौटी की सबसे खास बात यह है कि आप चाहें तो खुद भी अपनी कसौटी कर सकते हैं.

लाल बुझक्कड़ साहब का किस्सा पता नहीं अब चलता है या नहीं लेकिन हमारे बीच तो खूब चलता था, और हर कथा के अंत में लाल बुझक्कड़ साहब यही कहते थे- लाल बुझक्कड़ बूझ गया और न बूझा कोय!

लाल बुझक्कड़ साहब आज भी हैं और हर विषय में उनके ज्ञान से हम दंग होते रहते हैं. उनका किस्सा सरेआम दिखाया जा रहा है और सारी लोकसभा लोटपोट हो रही है. मुझे याद आया, किसी ने क्या बात कही है कि सबसे बड़ा ज्ञान यह जानने में है कि हमें बहुत सारी बातों का ज्ञान नहीं है. लाल बुझक्कड़ साहब को इसी का ज्ञान नहीं है. वे वह सब कहे जा रहे हैं जो उनकी व उनके दरबारियों की समझ से परे है. कुर्सी हमेशा ऐसे लाल बुझक्कड़ों को जन्म देती है जिन्हें इसका ज्ञान नहीं होता है कि ज्ञान कुर्सी में नहीं होता है. इसलिए राष्ट्रपति के दिशाहीन संबोधन के धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए लाल बुझक्कड़ साहब ने बहुत कुछ ऐसा कहा जो हमेशा की तरह उनकी पहुंच से बाहर की बात थी. आंदोलनजीवी, परजीवी, देशद्रोही, आतंकवादी, नक्सली आदि का सवाल इतनी फूहड़ता से उठाया उन्होंने कि इतिहास चारो खाने चित्त गिरा!

कोई जानना ही चाहे और कोई बताने को तैयार हो तो यह पूछा जाना चाहिए कि जिस आंदोलन को उन्होंने पवित्र कहा, उस आंदोलन की पवित्र गंगा में डुबकी लगाने क्यों नहीं उतरे? पवित्र आंदोलन से दूरी बनाने और उसे हर अपवित्र साधन से कलंकित करने की कोशिश क्यों की जा रही है? इसका जवाब भी उन्हें नहीं मालूम हो शायद, तो हम ही बता देते हैं कि हर पवित्र आंदोलन वह अग्निकुंड होता है जिसमें उतर कर ही आप पवित्र हो सकते हैं; और ‘जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ!’ और यह भी कि लाल बुझक्कड़ को यदि किसानों का आंदोलन पवित्र लगता है तो इस आंदोलन को करने वाले खालिस्तानी, नक्सली, देशद्रोही और चीन, पाकिस्तान के भाड़े के टट्टू कैसे हो गए? आंदोलन पवित्र है तो इसमें शामिल लोग अपवित्र कैसे हो सकते हैं? हर वह आंदोलन पवित्र होता है जो निजी स्वार्थ की लालसा, सत्ता की लोलुपता से दूर, बहुजन के लिए न्याय व अधिकार मांगता है. जिसके साधन पवित्र हैं, जो शांतिमय हैं, जो धर्म-जाति-लिंग का भेद न करते हुए सर्व के हित की बात करता है, वह आंदोलन पवित्र है. कोई भी पवित्र आंदोलन लोकतंत्र का अहित नहीं कर सकता है, वह उसे परिपूर्ण करता है, उसकी जड़ों को मजबूत करता है. हां, उनकी बात अलग है जो अपनी कुर्सी को पवित्र और अपनी सत्ता को ही लोकतंत्र मानते हैं.

खतरा आंदोलनजीवियों से नहीं, सत्ताजीवियों से है. महात्मा गांधी से बड़ा आंदोलनजीवी तो संसार में दूसरा कोई है नहीं लेकिन यह सच्चाई भी हमें ह्रदयंगम कर लेनी चाहिए कि उन्होंने इस पूरे देश को जगाकर, आंदोलनजीवियों की एक बड़ी फौज ही तैयार कर दी जो ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 1915 से 1947 तक लगातार, मरते-खपते आंदोलन ही जीती रही. दुष्यंत कुमार की जिस गजल का बड़ा ही फूहड़ इस्तेमाल लाल बुझक्कड़ साहब ने उस दिन लोकसभा में किया था, उसकी सही जगह यहां है. उन अमर आंदोलनजीवियों ने इस गजल को जी कर दिखाया: मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/ वह गजल (आंदोलन) आपको सुनाता हूं. गांधी ने उन्हें यह गजल न सिखाई होती और उन्होंने यह गजल उर पर अंकित न कर ली होती तो आज हम आजाद हवा में सांस नहीं ले रहे होते.

आंदोलन की पवित्रता की दूसरी कसौटी यह है कि वह खुली किताब हो. जिसे जहां से, जब देखना हो देख सके- सारी दुनिया देख सके. सत्ता का वह मन अपवित्र है जो इस बात पर डंडा उठाता है कि विदेशी इस आंदोलन का समर्थन क्यों करते हैं. हर पवित्र आंदोलन धर्म-जाति-लिंग का भेद पाकर सारी दुनिया की न्याय-भावना को आवाज देता है. इतिहास पढ़ा ही न हो, या आपको पढ़ने की इजाजत न हो तो हम क्या करें कि महात्मा गांधी ने, 5 अप्रैल 1930 को नमक आंदोलनजीवियों की तरफ से वह मार्मिक, अमर अपील की थी जिसे दुनिया भर के आंदोलनजीवियों ने अपना सूत्र ही बना लिया है- “आइ वांट वर्ल्ड सिंपैथी इन दिस बैटल ऑफ राइट अगेंस्ट माइट- मैं न्याय बनाम लाठी के इस युद्ध में दुनिया की सहानुभूति मांगता हूं.” लाल बुझक्कड़ साहब, यह गांधी नाम का आंदोलनजीवी तो सारी दुनिया को हाथ उठा कर बुला रहा है कि अपनी सहानुभूति जाहिर करो, आ सको तो हमारे पवित्र आंदोलन में आ जाओ! आप इतने से ही बौखला गए कि किसी ने दुनिया में यहां से तो किसी ने वहां से इतना ही कहा कि अपने किसानों की बात सुनिए तो! यह अगर सत्ता के बहरेपन पर की गई निजी फब्ती न मान ली गई हो तो इससे मासूम बात भी कोई कह सकता है क्या?

सुनना हर लोकतांत्रिक सरकार का संवैधानिक धर्म है. सुनना-सुनाना, मानना-मनाना, नागरिकों में, मीडिया में, विशेषज्ञों में विमर्श पैदा करना, संसद में खुली व लंबी चर्चा बनने देना और फिर उभरती आम सहमति को कानून का रूप देना- यही एकमात्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया है. आपके लिए ही नहीं, आपसे पहले जो आए, आपके बाद जो आएंगे सबकी यही लोकतांत्रिक कसौटी है. आपसे पहले जो आए उन्होंने इसका पालन नहीं किया या बाद वाले नहीं करेंगे, इससे आपकी कसौटी नहीं होगी. आपकी कसौटी तो अभी और आज आप जो कर रहे हैं, उससे ही होगी. कसौटी की सबसे खास बात यह है कि आप चाहें तो खुद भी अपनी कसौटी कर सकते हैं.