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दिल्ली दंगा: खुद को गोली लगने की शिकायत करने वाले साजिद कैसे अपने ही मामले में बन गए आरोपी

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कर्दमपुरी इलाके में एक किराए के कमरे में 34 वर्षीय साजिद खान अपनी बीमार पत्नी और तीन साल की अपाहिज बेटी के साथ रहते हैं. संकरी सीढ़ियों से गुजरते हुए हम उनके कमरे में पहुंचे तो उनकी पत्नी एक कोने में बैठकर सिलाई का काम कर रही थीं. दंगे के दौरान गोली लगने के बाद साजिद को डॉक्टर ने मेहनत का काम करने से मना कर दिया है. डॉक्टर्स की मनाही के बावजूद उन्होंने अपना पुराना काम, ठेला चलाने की कोशिश की, लेकिन उनसे हो नहीं पाया. वे थक जाते थे, दर्द बढ़ जाता था. इस कारण उनका पुराना काम तो छुट गया जिसके बाद कभी-कभार रंग-रोगन का काम मिल जाता है. ऐसे में परिवार को चलाने में उनकी पत्नी की सिलाई से हुई कमाई ही एक बड़ा सहारा है.

साजिद खान को दंगे के दौरान 25 फरवरी को पेट में गोली लगी थी. गोली लगने की घटना के पांच दिन बाद 2 मार्च को उन्होंने वेलकम थाने में एफआईआर दर्ज कराई, लेकिन आगे चलकर पुलिस ने दूसरे और आरोपियों के साथ-साथ साजिद को भी उनकी एफआईआर में आरोपी बना दिया. हालांकि वे जेल तो नहीं गए. उन्हें पुलिस थाने से ही जमानत मिल गई, लेकिन उसके बाद कोर्ट की भाग दौड़ ने उन्हें बर्बादी की राह पर लाकर खड़ा कर दिया.

साजिद पेट में गोली का निशान दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘23 और 24 फरवरी को बवाल हुआ था. 25 फरवरी की सुबह सबकुछ शांत था तो मैं ठेला लेकर निकल गया. जब वापस लौट रहा था तो मौजपुर मेट्रो स्टेशन के पास पत्थरबाजी हो रही थी. मौजपुर-बाबरपुर मेट्रो स्टेशन की तरफ से एक भीड़ मेरे पीछे दौड़ी तो मैं अपना ठेला छोड़कर श्मशान घाट की तरफ भागा. तभी मेरी पीठ में कुछ लगा और मैं बेहोश होकर गिर गया. फिर कुछ लोग मुझे उठाकर पास के अस्पताल में ले गए. वहां होश आने पर मुझे पता चला की गोली लगी है. मैंने पांच दिनों तक उसी डॉक्टर की दवाई खाई.’’

साजिद आगे कहते हैं, ‘‘पांच दिन बाद कुछ स्टूडेंट आए और उन्होंने बोला तो मैं सेंट स्टीफेंस अस्पताल गया. वहां अस्पताल वालों ने पुलिस को बुलाया. जो मैं आपको बता रहा हूं, वहीं बात उनको बताई. मैंने किसी को गोली चलाते देखा नहीं था तो मैं कैसे कह देता कि हिंदू या मुस्लिम लोगों ने गोली चलाई. मेरा ठेला तक वापस नहीं मिला और उल्टा एक दिन पुलिस वालों ने मुझे ही दंगे में शामिल होने का दोषी बता दिया.’’

साजिद कहते हैं, ‘‘मैं उनसे कहता रहा कि जिनकी दुकान पर मैं ठेला चलाता हूं, आप उनसे बात कर लीजिए, लेकिन पुलिस ने मेरी एक नहीं सुनी. मुझे पूरे दिन थाने में बैठाए रखा. आज भी मैं कोर्ट में आता जाता हूं.’’

25 फरवरी को साजिद अली के पेट में लगी थी गोली

साजिद के एमएलसी यानी मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट के मुताबिक, गोली पीठ के निचले हिस्से में लगी और उनके पेट के दाहिने हिस्से से बाहर निकल गई.

कैसे साजिद बन गए अपने ही शिकायत में आरोपी

2 मार्च को साजिद ने पुलिस में शिकायत दी जिसके बाद पुलिस ने आईपीसी की धारा 143 (गैरकानूनी जनसमूह का सदस्य होना), 144, 145 (विधिविरुद्ध जनसमूह में जानबूझकर सम्मिलित हो) 147 (उपद्रव करना), 148 (खतरनाक हथियारों के साथ साथ दंगा करना), 149, 307 (हत्या की कोशिश), 188 (पब्लिक सर्वेंट के द्वारा जारी किए गए ऑर्डर को न मानना) और आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया. एफआईआर में किसी को नामजद नहीं किया गया.

एफआईआर दर्ज होने के करीब डेढ़ महीने बाद 13 अप्रैल को पुलिस ने साजिद को ही आरोपी बनाया. साजिद को उसी के मामले में आरोपी बनाने को लेकर पुलिस ने चार्जशीट में लिखा है, ‘‘साजिद खान को दंगे के दौरान चोट लगी है जिससे यह साबित होता है कि वह दंगे में मौजूद था. गहन पूछताछ पर साजिद ने अपना गुनाह कबूल किया.’’

चार्जशीट के मुताबिक पुलिस के सामने साजिद ने दंगे में शामिल होने का गुनाह कबूल किया और बताया, ‘‘कुछ समय पहले भारत सरकार ने सीएए और एनआरसी कानून पास किया था. जो हमारी मुस्लिम कौम के खिलाफ था. 23-24 फरवरी को मौजपुर रेड लाइट, बाबरपुर, कबीर नगर श्मशान घाट, पर हिंदू समाज के लोगों ने हमारे समाज के लोगों के ऊपर पथराव किया व दुकानों में तोड़ फोड़ की थी. जिसके कारण मुसलमान समाज के लोगों में हिन्दू समाज के लोगों के खिलाफ काफी रोष था. अगले दिन, 25 फरवरी को मैं अपने समाज के लोगों के साथ कबीर नगर पुलिया पर प्रदर्शन में शामिल हो गया. हमारे लोगों में से किसी ने गोली चला दी जो मुझे आकर लगी और मैं बेहोश होकर गिर गया.’’

कबीर नगर की पुलिया जहां खान को गोली मारी गई थी

पुलिस ने चार्जशीट में बताया है कि अपराध जमानतीय होने के कारण साजिद को जमानत पर छोड़ दिया गया.

पुलिस ने चार्जशीट में इस कबूलनामे के सिवाय कोई और सबूत नहीं दिया जिससे यह साबित हो कि वो दंगे में शामिल था. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए साजिद इस कबूलनामा से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरी पत्नी टीवी की मरीज थी. मेरी तीन साल की बेटी उठ-बैठ नहीं सकती है. मैं इकलौता कमाने वाला था. खाना और इनका इलाज सब मेरी ही कमाई पर निर्भर था, ऐसे में मैं दंगे में शामिल होता. मैं अनपढ़ हूं. पुलिस मुझसे कई कागजों पर साइन कराती थी. वे बताते तक नहीं थे कि उसमें क्या लिखा है. मैं दंगे में शामिल होता तो मैं शिकायत क्यों करता.’’

मूलतः दिल्ली के ही रहने वाले साजिद के पास वकील को देने तक के पैसे नहीं थे. जैसे-तैसे वे वकील अख्तर शमीम के पास पहुंचे जो कई दंगा पीड़ितों और आरोपियों का केस बिना किसी चार्ज के लड़ रहे हैं. उन्होंने साजिद का केस बिना पैसे लिए देखने का वादा किया.

इस पूरे मामले पर शमीम न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘अपने 30 साल की वकालत के करियर में मैंने ऐसा मामला नहीं देखा कि जिसको गोली लगी हो उसे उसके ही केस में आरोपी बना दिया गया. अगर पुलिस को लगता है कि वो दंगे में शामिल था और उनके पास इसका सबूत है तो वे किसी दूसरे मामले में आरोपी ज़रूर बना सकते है, लेकिन उसी के केस में बनाए यह अनोखा मामला है.’’

साजिद पुलिस पर एफआईआर में भी बदलाव करने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरे पीछे मौजपुर-बाबरपुर की तरफ से भीड़ आई थी, जबकि एफआईआर में लिखा है कि कर्दमपुरी की तरफ से आई थी. मैं खुद कर्दमपुरी में रहता हूं. ऐसे में मैं अपने घर की तरफ ही भागूंगा न? अस्पताल में मैंने पुलिस वालों को यही बयान दिया था. उन्होंने मुझसे साइन करा लिया, लेकिन थोड़ी देर बाद वे एक दूसरे कागज पर कुछ लिखकर लाए. मैं पढ़ नहीं सकता. मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि तुम्हारे बयान को लिखने में कुछ गलती हो गई थी हमने दोबारा से लिखा है. उसमें क्या लिखा था उन्होंने पढ़कर नहीं सुनाया और मेरे साइन ले लिए.’’

कौन सी भीड़ कहां खड़ी थी और यह जानना क्यों ज़रूरी है?

25 फरवरी, 2020 को हिंदू भीड़ मौजपुर-बाबरपुर मेट्रो स्टेशन के नीचे और आसपास खड़ी थी. इनके साथ पुलिस वाले भी मौजूद थे. वहीं कबीर नगर में नाले के पार मुस्लिम भीड़ खड़ी थी.

उस दिन के कई ग्राउंड रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दोनों भीड़ ने लगभग दो घंटे तक एक-दूसरे पर पथराव किया. इस दौरान दिल्ली पुलिस सक्रिय रूप से हथियारबंद हिन्दू भीड़ के साथ खड़ी दिखी.

मिलेनियम पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक मंगलवार (25 फरवरी) को सुरक्षाबलों और पुलिस द्वारा इस इलाके में हर एक फायरिंग सीएए समर्थकों की भीड़ की तरफ से मुस्लिम भीड़ की तरफ की गई. सीएए समर्थकों की तरफ एक भी गोली नहीं चलाई गई जो पथराव कर रहे थे, पत्थरबाजी कर रहे थे रास्ते में जो कुछ दिखता उसमें आग लगा रहे थे.

25 फरवरी की ही शाम विजय पार्क में रहने वाले लोगों ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया था कि दंगाइयों की भीड़ का नेतृत्व आरएसएस से जुड़े संगठन बजरंग दल द्वारा किया जा रहा था. उन्होंने आरोप लगाया कि उस भीड़ ने बिहार के रहने वाले 28 वर्षीय मज़दूर मुबारक हुसैन की गोली मारकर हत्या कर दी थी. द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक हुसैन की हत्या दोपहर के एक बजकर 40 मिनट पर हो गई. हुसैन की हत्या साजिद को गोली लगने से पहले हुई थी.

ऑल्ट न्यूज़ द्वारा 25 फरवरी का वीडियो हासिल किया गया जिसमें नज़र आता है कि बाबरपुर मेट्रो स्टेशन के पास एक पुलिस वाहन के आसपास हिंदू भीड़ खड़ी थी. इस दौरान वे विजय पार्क की गलियों में गोली चलाते नजर आते हैं.

एफआईआर के दौरान साजिद के बयान में बदलाव करके यह कहना कि गोली कर्दमपुरी से आई है, पुलिस हिंदू भीड़ की जांच करने से बच गई. दिल्ली दंगे के दौरान न्यूजलॉन्ड्री ने कई और रिपोर्ट की जिसमें पुलिस ने दावा किया कि सांप्रदायिक दंगे के दौरान मुसलमानों ने ही मुसलमानों को मार दिया. साजिद के मामले में भी पुलिस ने ऐसा कहा है.

पुलिस को बैठे बिठाये जब मिल गए आरोपी

पुलिस ने साजिद के मामले में उनको आरोपी बनाया बल्कि इस मामले में हुई दूसरी गिरफ्तारी भी हैरान करने वाली है. दरअसल घटना के करीब दो महीने बाद साजिद के मामले के जांच अधिकारी अमित भारद्वाज को बैठे बिठाये इस मामले के पांच आरोपी मिल गए.

दरअसल हुआ यूं कि लॉकडाउन के दौरान 15 अप्रैल की दोपहर 12 बजे न्यू जाफराबाद के एक अंडा गोडाउन में चोरी की घटना हुई. जिसको लेकर वेलकम थाने में 193/20 नंबर एफआईआर दर्ज हुई. इस मामले में शिकायतकर्ता अंकित बाजवा ने बताया कि चार लड़के हथियार के दम पर उनके कैश काउंटर के तीन लाख रुपए लूटकर ले गए. जिसके बाद पुलिस ने अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज किया.

पुलिस ने इस घटना के तीन दिन बाद 18 अप्रैल को फ़ाज़िल, अब्बास, शोएब, ज़ाहिद और काजिम को चोरी के मामले में गिरफ्तार किया. चार्जशीट में इन तमाम आरोपियों का कबूलनामा दर्ज है. हैरानी की बात यह है कि चोरी के मामले में गिरफ्तार इन पांचों ने चोरी के साथ-साथ 25 रवरी को दंगे में शामिल होने की भी बात 'बाखुशी और बिना किसी दबाव के’ कबूल कर ली.

पुलिस ने इन पांचों की गिरफ्तारी की जगह टेंट वाला स्कूल, जाफराबाद बताया है. चार्जशीट में कॉस्टेबल नरेश का 161 का बयान दर्ज है जिसके मुताबिक, ‘‘ये पांचों किसी और घटना को अंजाम देने के लिए टेंट वाले स्कूल के पास हथियार के साथ खड़े थे. जिसकी जानकारी मुखबिर ने हमें दी. वहीं से हमने इन्हें गिरफ्तार किया.’’

पुलिस ने कहा कि सबको एक ही जगह से गिरफ्तार किया.’’ हालांकि सबकी गिरफ्तारी का समय अलग-अलग है. पांचों की गिरफ्तारी 18 अप्रैल की शाम 7 बजकर 15 मिनट से 7 बजकर 44 मिनट के बीच की गई है. अगले दिन यानी 19 अप्रैल की सुबह 10 बजे इन्हें दंगे के आरोप में भी गिरफ्तार कर लिया गया.

साजिद की तरह इन पांचों के दंगे में शामिल होने के मामले में पुलिस ने कोई तस्वीर या सीडीआर रिपोर्ट पेश नहीं की. हालांकि इसमें इनके कबूलनामे के सिवाय एक वेलकम थाने में तैनात कांस्टेबल पुष्कर का बयान दर्ज है. अपने बयान में पुष्कर ने बताया, ‘‘25 फरवरी को मैंने इनको दंगे के दौरान देखा था.’’ यह बात पुष्कर 19 अप्रैल को बताते हैं. घटना के करीब दो महीने बाद, वो भी तब जब इन्हें पुलिस किसी और मामले में गिरफ्तार करके लाई.

चोरी के मामले में गिरफ्तार इन पांचों को चोरी के साथ-साथ पुलिस ने दंगे के तीन मामलों में आरोपी बनाया. एक मामला तो साजिद द्वारा दर्ज एफआईआर नंबर 116/20 है. इसके अलावा 143/20 और 142/20 में उन्हें आरोपी बनाया गया.

'एक जैसा ही है सबका कबूलनामा'

गिरफ्तारी में इनके कबूलनामे के अलावा पुलिस ने कोई भी दूसरा सबूत नहीं दिया. केस संख्या 116 में 17 प्रत्यक्षदर्शी हैं जिसमें से एक शिकायतकर्ता साजिद, तीन डॉक्टर (एक जिन्होंने गोली लगने के बाद साजिद को मरहम पट्टी किया था और बाकी दो जिन्होंने सेंट स्टीफेंस में उनकी एमएलसी बनाई थी.) और बाकी के पुलिस अधिकारी हैं. इसके अलावा कोई भी इंडिपेंडेंट गवाह, फुटेज, कॉल डिटेल, सीडीआर या इनकी ही चलाई गोली साजिद को लगी इसका फोरेंसिक रिपोर्ट चार्जशीट में नजर नहीं आता है.

दिल्ली दंगों के कई मामलों में सामने आया कि कई आरोपियों और गवाहों का कबूलनामा एक जैसा ही था. ऐसा ही इस मामले में भी सामने आता है. पांचों का कबूलनामा एक जैसा ही है, कुछ शब्द इधर-उधर हैं.

अब्बास, फ़ाज़िल और काजिम के कबूलनामें में बस उनका नाम और पता बदला है इसके अलावा एक-एक शब्द एक जैसे ही हैं.

काजिम

चूंकि शोएब और जाहिद के पास से हथियार बरामद होने का दावा पुलिस ने किया है ऐसे में उनके कबूलनामे में कट्टे से गोली चलाने और उसे कहां से खरीदा गया, ये चीजे अलग हैं बाकी वही बातें लिखी गई हैं जो काजिम, फ़ाज़िल और अब्बास के कबुलानमे में लिखा गया है. हैरानी की बात है कि अब्बास के बयान में जो वाक्य दोहराया गया है वही बात फाजिल के भी कबूलनामे में दोहराया गया है. वो भी एक-एक शब्द.

करीब दस महीने जेल में बंद रहने के बाद फाजिल, अब्बास और काजिम को दंगे के तीन मामलों के साथ-साथ चोरी के मामले में भी जमानत मिल चुकी है. वहीं शोएब और ज़ाहिद को दंगों के मामले में तो जमानत मिल चुकी है, लेकिन चोरी के मामले में जमानत नहीं मिलने के कारण वे अभी भी जेल में हैं.

नवंबर 2020 में काजिम को 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत देते हुए कड़कड़ूमा कोर्ट के जज अमिताभ रावत ने कहा, ‘‘हिरासत की अवधि, तथ्यों और मामले की परिस्थितियां को देखते हुए मैं आरोपी को जमानत अर्जी को अनुमति देता हूं.’’

पुलिस की तरफ से इस सुनवाई के दौरान काजिम का कबूलनामे और कांस्टेबल पुष्कर को सबूत के तौर पर रखा गया. हालांकि काजिम के वकील ने इसपर कहा कि पुलिस की उपस्थिति में उसका बयान दर्ज किया गया है. इसके अलावा जहां तक पुष्कर के बयान की बात है वो यह कोई मज़बूत सबूत नहीं है. कैसे 25 फरवरी को हुई घटना को लेकर पुष्कर पहला बयान 19 अप्रैल को दे सकते हैं. किसी भी पब्लिक चमश्दीद ने यह नहीं बताया कि ये अपराध के समय वहां थे.

फाजिल को भी इस मामले में 19 नवंबर 2020 को जज अमिताभ रावत ने सबूतों के आभाव में 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत दे दी. फाजिल भी जेल से बाहर हैं.

शोएब को भी इस मामले में जमानत मिल गई है हालांकि डकैती मामले में उन्हें जमानत नहीं मिली जिसके कारण अभी वो जेल में हैं.

ज़ाहिद अली को 25 सितंबर 2020 को इस मामले में जमानत मिल गई. हालांकि डकैती के मामले में जमानत नहीं मिलने के कारण अभी भी वो जेल में हैं. जाहिद को भी जमानत जज अमिताभ रावत ने ही 15 हजार के निजी मुचलके पर दी है.

अब्बास को एफआईआर नंबर 116 में जनवरी 2021 में 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत मिली है. इन्हें डकैती समेत दंगे के तीनों मामलों में जमानत मिल गई है और वे अब बाहर हैं. अब्बास को भी जमानत अमिताभ रावत ने ही दी है.

टेंट वाले स्कूल के सामने से नहीं अलग-अलग जगहों से हुई थी गिरफ्तारी

एक तरफ जहां पुलिस ने चार्जशीट में दावा किया है कि पांचों को टेंट वाले स्कूल के पास से गिरफ्तार किया गया वहीं जेल से जमानत पर अब्बास, काजिम और जाहिद के परिजनों की माने तो उन्हें अलग-अलग जगहों से गिरफ्तार किया गया.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए 19 वर्षीय काजिम बताते हैं, ‘‘मैं और शोएब दोस्त हैं और दोनों जाफराबाद के गली नंबर 26 की एक जींस फैक्ट्री में काम करते थे. 18 अप्रैल को हम काम पर ही थे. उस दिन दोपहर के करीब दो या तीन बजे कई लोग सिविल ड्रेस में आए और पूछने लगे कि शोएब और काजिम कौन हैं. इसके बाद वह हम दोनों पकड़कर मारते हुए लेकर चले आए. यह गली में सबने देखा.’’

16 जनवरी को काजिम जेल से बाहर आ गए. काजिम कहते हैं, ‘‘गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने मुझसे कम से कम 30 सफेद कागजों पर साइन करवाए थे. हम साइन नहीं कर रहे थे वे डंडे मार रहे थे. वे हमसे दंगे के बारे में पूछ नहीं रहे थे बल्कि कह रहे थे तो तुम लोग दंगे में शामिल थे. मैंने तो हर पन्ने पर अलग-अलग साइन किए ताकि पता चले कि यह साइन जबरदस्ती करवाए गए हैं.’’

पुलिस ने चार्जशीट में दावा किया है कि शोएब के पास देशी कट्टा बरामद हुआ. हालांकि इसको लेकर काजिम कहते हैं, ‘‘हम दोनों को कारखाने से पकड़कर ले गए थे. थाने में सुबह-सुबह एक कागज पर कट्टे की टेडी-मेडी तस्वीर बनाकर लाए और शोएब से बोले की इस पर साइन कर. वो नहीं करना चाह रहा था तो उसे फट्टे से मारकर साइन कराया. साइन करने से जो भी मना कर रहा था पुलिस वाले उसे मार रहे थे.’’

काजिम परिवार में इकलौता कमाने वाला था. तीन बड़ी बहनों, मां और पिता की जिम्मेदारी उसी की कमाई पर निर्भर थी लेकिन नौ महीने तक जेल में रहने के कारण सबकुछ अस्त व्यस्त हो गया. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए काजिम कहते हैं, ‘‘जेल से लौटकर आया तो परिवार कर्ज में डूबा हुआ है. जमानत के लिए 80 हज़ार रुपए कर्ज लेकर घर वालों ने दिए. जेल में मिलने आते थे तो कुछ ना कुछ देकर जाते थे. मेरे पिता बीमार तो पहले से थे लेकिन अब ज़्यादा रहने लगे हैं. बाहर आकर काम शुरू किया लेकिन महीने में दो से तीन बार केस के लिए कोर्ट आना पड़ता है ऐसे में 15 दिन बाद ही काम से निकाल दिया गया. अब मेरे पास कोई काम नहीं है.’’

मौजपुर के बजरंगी मोहल्ले पर रहने वाला जाहिद का परिवार बेहद बदहाल स्थिति में रहता है. एक कमरे का घर जिसकी छत और दीवारें कई जगहों से टूटी हुई हैं. घर के नीचे एक छोटी सी किराने की दुकान है जो जाहिद के पिता ज़ाकिर हुसैन चलाते हैं. परिवार का खर्च जाहिद की कमाई से ही चलता था वो ई-रिक्शा चलाता था.

जाहिद की मां तहसीम रोते-रोते उस बेड की तरफ इशारा करती हैं जहां से 17 अप्रैल की रात करीब 10 बजे पुलिस उठाकर ले गई थी. वो कहती हैं, ‘‘वो नीचे से ऊपर खाना खाने आकर बैठा ही था कि तभी सिविल ड्रेस में कुछ लोग ऊपर आकर उसे पकड़ लिए. मैं जाहिद को पकड़ ली तो उन्होंने मेरे हाथ में मुक्का मारा और उसे मारते हुए लेकर चले गए. उसे पकड़ने के लिए इतने लोग आए थे जैसे किसी आतंकी को पकड़ने जाते हैं.''

तहसीम जाहिद से गिरफ्तारी के करीब सात महीने बाद नवंबर में वीडियो कॉल के जरिए बात कर पाईं. उसके बाद जनवरी में जेल में वो उससे मिल पाईं. वो बताती हैं कि पुलिस ने लिखा है कि उसके पास से कट्टा बरामद हुआ. जब उसे यहां से लेकर गए थे उसके पास सिर्फ पर्स और फोन था. उसके बाद पुलिस वाले कभी घर पर आए नहीं. सब कुछ उसके नाम पर झूठ लिख दिया है.’’

दंगे के दिन जाहिद कहां था इस सवाल पर तहसीन कहती हैं, ‘‘वो उस दिन घर पर ही रहा. उसे हमने घर से निकलने ही नहीं दिया.’’

अब्बास को भी पुलिस ने उनके घर के पास से ही गिरफ्तार किया था. जेल से लौटे अब्बास ज़्यादा बात नहीं करते हैं. उनके बड़े भाई दिलफ़राज कहते हैं, ‘‘पुलिस वाले दो-तीन बार घर पर आकर परेशान कर रहे थे. कहते थे कि पूछताछ के लिए अब्बास को भेज दो. 18 अप्रैल को हम अपने पड़ोस में रहने वाले एक शख्स के घर गए जो पढ़े लिखे हैं. अब्बास भी साथ था. पुलिस वहां आई और इसे लेकर चली गई. कह रहे थे कि पूछताछ के लिए ले जा रहे हैं लेकिन इसपर चोरी के साथ-साथ दंगे का भी आरोप लगा दिया. जबकि यह दंगे के समय हमारे गांव बुलंदशहर में था.’’

काजिम की तरह ही अब्बास पुलिस पर सादे कागज पर साइन कराने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ''उनके पास दंगे में शामिल होने का एक भी वीडियो या फोटो नहीं था लेकिन जबरदस्ती हमें जेल में डाल दिया. हमारी अम्मी नहीं हैं. अब्बू बीमार रहते हैं. घर का खर्च हम दोनों भाइयों की कमाई पर चलता था.’’

न्यूजलॉन्ड्री ने इस केस के जांच अधिकारी अमित भारद्वाज से मुलाकात की लेकिन उन्होंने हमारे किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया. हमने इसको लेकर दिल्ली पुलिस के मीडिया प्रभारी ( पीआरओ ) को भी सवालों भेजा, अभी तक उसका जवाब नहीं आया. अगर जवाब आता है तो उसे खबर से जोड़ दिया जाएगा.

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उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कर्दमपुरी इलाके में एक किराए के कमरे में 34 वर्षीय साजिद खान अपनी बीमार पत्नी और तीन साल की अपाहिज बेटी के साथ रहते हैं. संकरी सीढ़ियों से गुजरते हुए हम उनके कमरे में पहुंचे तो उनकी पत्नी एक कोने में बैठकर सिलाई का काम कर रही थीं. दंगे के दौरान गोली लगने के बाद साजिद को डॉक्टर ने मेहनत का काम करने से मना कर दिया है. डॉक्टर्स की मनाही के बावजूद उन्होंने अपना पुराना काम, ठेला चलाने की कोशिश की, लेकिन उनसे हो नहीं पाया. वे थक जाते थे, दर्द बढ़ जाता था. इस कारण उनका पुराना काम तो छुट गया जिसके बाद कभी-कभार रंग-रोगन का काम मिल जाता है. ऐसे में परिवार को चलाने में उनकी पत्नी की सिलाई से हुई कमाई ही एक बड़ा सहारा है.

साजिद खान को दंगे के दौरान 25 फरवरी को पेट में गोली लगी थी. गोली लगने की घटना के पांच दिन बाद 2 मार्च को उन्होंने वेलकम थाने में एफआईआर दर्ज कराई, लेकिन आगे चलकर पुलिस ने दूसरे और आरोपियों के साथ-साथ साजिद को भी उनकी एफआईआर में आरोपी बना दिया. हालांकि वे जेल तो नहीं गए. उन्हें पुलिस थाने से ही जमानत मिल गई, लेकिन उसके बाद कोर्ट की भाग दौड़ ने उन्हें बर्बादी की राह पर लाकर खड़ा कर दिया.

साजिद पेट में गोली का निशान दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘23 और 24 फरवरी को बवाल हुआ था. 25 फरवरी की सुबह सबकुछ शांत था तो मैं ठेला लेकर निकल गया. जब वापस लौट रहा था तो मौजपुर मेट्रो स्टेशन के पास पत्थरबाजी हो रही थी. मौजपुर-बाबरपुर मेट्रो स्टेशन की तरफ से एक भीड़ मेरे पीछे दौड़ी तो मैं अपना ठेला छोड़कर श्मशान घाट की तरफ भागा. तभी मेरी पीठ में कुछ लगा और मैं बेहोश होकर गिर गया. फिर कुछ लोग मुझे उठाकर पास के अस्पताल में ले गए. वहां होश आने पर मुझे पता चला की गोली लगी है. मैंने पांच दिनों तक उसी डॉक्टर की दवाई खाई.’’

साजिद आगे कहते हैं, ‘‘पांच दिन बाद कुछ स्टूडेंट आए और उन्होंने बोला तो मैं सेंट स्टीफेंस अस्पताल गया. वहां अस्पताल वालों ने पुलिस को बुलाया. जो मैं आपको बता रहा हूं, वहीं बात उनको बताई. मैंने किसी को गोली चलाते देखा नहीं था तो मैं कैसे कह देता कि हिंदू या मुस्लिम लोगों ने गोली चलाई. मेरा ठेला तक वापस नहीं मिला और उल्टा एक दिन पुलिस वालों ने मुझे ही दंगे में शामिल होने का दोषी बता दिया.’’

साजिद कहते हैं, ‘‘मैं उनसे कहता रहा कि जिनकी दुकान पर मैं ठेला चलाता हूं, आप उनसे बात कर लीजिए, लेकिन पुलिस ने मेरी एक नहीं सुनी. मुझे पूरे दिन थाने में बैठाए रखा. आज भी मैं कोर्ट में आता जाता हूं.’’

25 फरवरी को साजिद अली के पेट में लगी थी गोली

साजिद के एमएलसी यानी मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट के मुताबिक, गोली पीठ के निचले हिस्से में लगी और उनके पेट के दाहिने हिस्से से बाहर निकल गई.

कैसे साजिद बन गए अपने ही शिकायत में आरोपी

2 मार्च को साजिद ने पुलिस में शिकायत दी जिसके बाद पुलिस ने आईपीसी की धारा 143 (गैरकानूनी जनसमूह का सदस्य होना), 144, 145 (विधिविरुद्ध जनसमूह में जानबूझकर सम्मिलित हो) 147 (उपद्रव करना), 148 (खतरनाक हथियारों के साथ साथ दंगा करना), 149, 307 (हत्या की कोशिश), 188 (पब्लिक सर्वेंट के द्वारा जारी किए गए ऑर्डर को न मानना) और आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया. एफआईआर में किसी को नामजद नहीं किया गया.

एफआईआर दर्ज होने के करीब डेढ़ महीने बाद 13 अप्रैल को पुलिस ने साजिद को ही आरोपी बनाया. साजिद को उसी के मामले में आरोपी बनाने को लेकर पुलिस ने चार्जशीट में लिखा है, ‘‘साजिद खान को दंगे के दौरान चोट लगी है जिससे यह साबित होता है कि वह दंगे में मौजूद था. गहन पूछताछ पर साजिद ने अपना गुनाह कबूल किया.’’

चार्जशीट के मुताबिक पुलिस के सामने साजिद ने दंगे में शामिल होने का गुनाह कबूल किया और बताया, ‘‘कुछ समय पहले भारत सरकार ने सीएए और एनआरसी कानून पास किया था. जो हमारी मुस्लिम कौम के खिलाफ था. 23-24 फरवरी को मौजपुर रेड लाइट, बाबरपुर, कबीर नगर श्मशान घाट, पर हिंदू समाज के लोगों ने हमारे समाज के लोगों के ऊपर पथराव किया व दुकानों में तोड़ फोड़ की थी. जिसके कारण मुसलमान समाज के लोगों में हिन्दू समाज के लोगों के खिलाफ काफी रोष था. अगले दिन, 25 फरवरी को मैं अपने समाज के लोगों के साथ कबीर नगर पुलिया पर प्रदर्शन में शामिल हो गया. हमारे लोगों में से किसी ने गोली चला दी जो मुझे आकर लगी और मैं बेहोश होकर गिर गया.’’

कबीर नगर की पुलिया जहां खान को गोली मारी गई थी

पुलिस ने चार्जशीट में बताया है कि अपराध जमानतीय होने के कारण साजिद को जमानत पर छोड़ दिया गया.

पुलिस ने चार्जशीट में इस कबूलनामे के सिवाय कोई और सबूत नहीं दिया जिससे यह साबित हो कि वो दंगे में शामिल था. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए साजिद इस कबूलनामा से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरी पत्नी टीवी की मरीज थी. मेरी तीन साल की बेटी उठ-बैठ नहीं सकती है. मैं इकलौता कमाने वाला था. खाना और इनका इलाज सब मेरी ही कमाई पर निर्भर था, ऐसे में मैं दंगे में शामिल होता. मैं अनपढ़ हूं. पुलिस मुझसे कई कागजों पर साइन कराती थी. वे बताते तक नहीं थे कि उसमें क्या लिखा है. मैं दंगे में शामिल होता तो मैं शिकायत क्यों करता.’’

मूलतः दिल्ली के ही रहने वाले साजिद के पास वकील को देने तक के पैसे नहीं थे. जैसे-तैसे वे वकील अख्तर शमीम के पास पहुंचे जो कई दंगा पीड़ितों और आरोपियों का केस बिना किसी चार्ज के लड़ रहे हैं. उन्होंने साजिद का केस बिना पैसे लिए देखने का वादा किया.

इस पूरे मामले पर शमीम न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘अपने 30 साल की वकालत के करियर में मैंने ऐसा मामला नहीं देखा कि जिसको गोली लगी हो उसे उसके ही केस में आरोपी बना दिया गया. अगर पुलिस को लगता है कि वो दंगे में शामिल था और उनके पास इसका सबूत है तो वे किसी दूसरे मामले में आरोपी ज़रूर बना सकते है, लेकिन उसी के केस में बनाए यह अनोखा मामला है.’’

साजिद पुलिस पर एफआईआर में भी बदलाव करने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मेरे पीछे मौजपुर-बाबरपुर की तरफ से भीड़ आई थी, जबकि एफआईआर में लिखा है कि कर्दमपुरी की तरफ से आई थी. मैं खुद कर्दमपुरी में रहता हूं. ऐसे में मैं अपने घर की तरफ ही भागूंगा न? अस्पताल में मैंने पुलिस वालों को यही बयान दिया था. उन्होंने मुझसे साइन करा लिया, लेकिन थोड़ी देर बाद वे एक दूसरे कागज पर कुछ लिखकर लाए. मैं पढ़ नहीं सकता. मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि तुम्हारे बयान को लिखने में कुछ गलती हो गई थी हमने दोबारा से लिखा है. उसमें क्या लिखा था उन्होंने पढ़कर नहीं सुनाया और मेरे साइन ले लिए.’’

कौन सी भीड़ कहां खड़ी थी और यह जानना क्यों ज़रूरी है?

25 फरवरी, 2020 को हिंदू भीड़ मौजपुर-बाबरपुर मेट्रो स्टेशन के नीचे और आसपास खड़ी थी. इनके साथ पुलिस वाले भी मौजूद थे. वहीं कबीर नगर में नाले के पार मुस्लिम भीड़ खड़ी थी.

उस दिन के कई ग्राउंड रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दोनों भीड़ ने लगभग दो घंटे तक एक-दूसरे पर पथराव किया. इस दौरान दिल्ली पुलिस सक्रिय रूप से हथियारबंद हिन्दू भीड़ के साथ खड़ी दिखी.

मिलेनियम पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक मंगलवार (25 फरवरी) को सुरक्षाबलों और पुलिस द्वारा इस इलाके में हर एक फायरिंग सीएए समर्थकों की भीड़ की तरफ से मुस्लिम भीड़ की तरफ की गई. सीएए समर्थकों की तरफ एक भी गोली नहीं चलाई गई जो पथराव कर रहे थे, पत्थरबाजी कर रहे थे रास्ते में जो कुछ दिखता उसमें आग लगा रहे थे.

25 फरवरी की ही शाम विजय पार्क में रहने वाले लोगों ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया था कि दंगाइयों की भीड़ का नेतृत्व आरएसएस से जुड़े संगठन बजरंग दल द्वारा किया जा रहा था. उन्होंने आरोप लगाया कि उस भीड़ ने बिहार के रहने वाले 28 वर्षीय मज़दूर मुबारक हुसैन की गोली मारकर हत्या कर दी थी. द प्रिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक हुसैन की हत्या दोपहर के एक बजकर 40 मिनट पर हो गई. हुसैन की हत्या साजिद को गोली लगने से पहले हुई थी.

ऑल्ट न्यूज़ द्वारा 25 फरवरी का वीडियो हासिल किया गया जिसमें नज़र आता है कि बाबरपुर मेट्रो स्टेशन के पास एक पुलिस वाहन के आसपास हिंदू भीड़ खड़ी थी. इस दौरान वे विजय पार्क की गलियों में गोली चलाते नजर आते हैं.

एफआईआर के दौरान साजिद के बयान में बदलाव करके यह कहना कि गोली कर्दमपुरी से आई है, पुलिस हिंदू भीड़ की जांच करने से बच गई. दिल्ली दंगे के दौरान न्यूजलॉन्ड्री ने कई और रिपोर्ट की जिसमें पुलिस ने दावा किया कि सांप्रदायिक दंगे के दौरान मुसलमानों ने ही मुसलमानों को मार दिया. साजिद के मामले में भी पुलिस ने ऐसा कहा है.

पुलिस को बैठे बिठाये जब मिल गए आरोपी

पुलिस ने साजिद के मामले में उनको आरोपी बनाया बल्कि इस मामले में हुई दूसरी गिरफ्तारी भी हैरान करने वाली है. दरअसल घटना के करीब दो महीने बाद साजिद के मामले के जांच अधिकारी अमित भारद्वाज को बैठे बिठाये इस मामले के पांच आरोपी मिल गए.

दरअसल हुआ यूं कि लॉकडाउन के दौरान 15 अप्रैल की दोपहर 12 बजे न्यू जाफराबाद के एक अंडा गोडाउन में चोरी की घटना हुई. जिसको लेकर वेलकम थाने में 193/20 नंबर एफआईआर दर्ज हुई. इस मामले में शिकायतकर्ता अंकित बाजवा ने बताया कि चार लड़के हथियार के दम पर उनके कैश काउंटर के तीन लाख रुपए लूटकर ले गए. जिसके बाद पुलिस ने अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज किया.

पुलिस ने इस घटना के तीन दिन बाद 18 अप्रैल को फ़ाज़िल, अब्बास, शोएब, ज़ाहिद और काजिम को चोरी के मामले में गिरफ्तार किया. चार्जशीट में इन तमाम आरोपियों का कबूलनामा दर्ज है. हैरानी की बात यह है कि चोरी के मामले में गिरफ्तार इन पांचों ने चोरी के साथ-साथ 25 रवरी को दंगे में शामिल होने की भी बात 'बाखुशी और बिना किसी दबाव के’ कबूल कर ली.

पुलिस ने इन पांचों की गिरफ्तारी की जगह टेंट वाला स्कूल, जाफराबाद बताया है. चार्जशीट में कॉस्टेबल नरेश का 161 का बयान दर्ज है जिसके मुताबिक, ‘‘ये पांचों किसी और घटना को अंजाम देने के लिए टेंट वाले स्कूल के पास हथियार के साथ खड़े थे. जिसकी जानकारी मुखबिर ने हमें दी. वहीं से हमने इन्हें गिरफ्तार किया.’’

पुलिस ने कहा कि सबको एक ही जगह से गिरफ्तार किया.’’ हालांकि सबकी गिरफ्तारी का समय अलग-अलग है. पांचों की गिरफ्तारी 18 अप्रैल की शाम 7 बजकर 15 मिनट से 7 बजकर 44 मिनट के बीच की गई है. अगले दिन यानी 19 अप्रैल की सुबह 10 बजे इन्हें दंगे के आरोप में भी गिरफ्तार कर लिया गया.

साजिद की तरह इन पांचों के दंगे में शामिल होने के मामले में पुलिस ने कोई तस्वीर या सीडीआर रिपोर्ट पेश नहीं की. हालांकि इसमें इनके कबूलनामे के सिवाय एक वेलकम थाने में तैनात कांस्टेबल पुष्कर का बयान दर्ज है. अपने बयान में पुष्कर ने बताया, ‘‘25 फरवरी को मैंने इनको दंगे के दौरान देखा था.’’ यह बात पुष्कर 19 अप्रैल को बताते हैं. घटना के करीब दो महीने बाद, वो भी तब जब इन्हें पुलिस किसी और मामले में गिरफ्तार करके लाई.

चोरी के मामले में गिरफ्तार इन पांचों को चोरी के साथ-साथ पुलिस ने दंगे के तीन मामलों में आरोपी बनाया. एक मामला तो साजिद द्वारा दर्ज एफआईआर नंबर 116/20 है. इसके अलावा 143/20 और 142/20 में उन्हें आरोपी बनाया गया.

'एक जैसा ही है सबका कबूलनामा'

गिरफ्तारी में इनके कबूलनामे के अलावा पुलिस ने कोई भी दूसरा सबूत नहीं दिया. केस संख्या 116 में 17 प्रत्यक्षदर्शी हैं जिसमें से एक शिकायतकर्ता साजिद, तीन डॉक्टर (एक जिन्होंने गोली लगने के बाद साजिद को मरहम पट्टी किया था और बाकी दो जिन्होंने सेंट स्टीफेंस में उनकी एमएलसी बनाई थी.) और बाकी के पुलिस अधिकारी हैं. इसके अलावा कोई भी इंडिपेंडेंट गवाह, फुटेज, कॉल डिटेल, सीडीआर या इनकी ही चलाई गोली साजिद को लगी इसका फोरेंसिक रिपोर्ट चार्जशीट में नजर नहीं आता है.

दिल्ली दंगों के कई मामलों में सामने आया कि कई आरोपियों और गवाहों का कबूलनामा एक जैसा ही था. ऐसा ही इस मामले में भी सामने आता है. पांचों का कबूलनामा एक जैसा ही है, कुछ शब्द इधर-उधर हैं.

अब्बास, फ़ाज़िल और काजिम के कबूलनामें में बस उनका नाम और पता बदला है इसके अलावा एक-एक शब्द एक जैसे ही हैं.

काजिम

चूंकि शोएब और जाहिद के पास से हथियार बरामद होने का दावा पुलिस ने किया है ऐसे में उनके कबूलनामे में कट्टे से गोली चलाने और उसे कहां से खरीदा गया, ये चीजे अलग हैं बाकी वही बातें लिखी गई हैं जो काजिम, फ़ाज़िल और अब्बास के कबुलानमे में लिखा गया है. हैरानी की बात है कि अब्बास के बयान में जो वाक्य दोहराया गया है वही बात फाजिल के भी कबूलनामे में दोहराया गया है. वो भी एक-एक शब्द.

करीब दस महीने जेल में बंद रहने के बाद फाजिल, अब्बास और काजिम को दंगे के तीन मामलों के साथ-साथ चोरी के मामले में भी जमानत मिल चुकी है. वहीं शोएब और ज़ाहिद को दंगों के मामले में तो जमानत मिल चुकी है, लेकिन चोरी के मामले में जमानत नहीं मिलने के कारण वे अभी भी जेल में हैं.

नवंबर 2020 में काजिम को 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत देते हुए कड़कड़ूमा कोर्ट के जज अमिताभ रावत ने कहा, ‘‘हिरासत की अवधि, तथ्यों और मामले की परिस्थितियां को देखते हुए मैं आरोपी को जमानत अर्जी को अनुमति देता हूं.’’

पुलिस की तरफ से इस सुनवाई के दौरान काजिम का कबूलनामे और कांस्टेबल पुष्कर को सबूत के तौर पर रखा गया. हालांकि काजिम के वकील ने इसपर कहा कि पुलिस की उपस्थिति में उसका बयान दर्ज किया गया है. इसके अलावा जहां तक पुष्कर के बयान की बात है वो यह कोई मज़बूत सबूत नहीं है. कैसे 25 फरवरी को हुई घटना को लेकर पुष्कर पहला बयान 19 अप्रैल को दे सकते हैं. किसी भी पब्लिक चमश्दीद ने यह नहीं बताया कि ये अपराध के समय वहां थे.

फाजिल को भी इस मामले में 19 नवंबर 2020 को जज अमिताभ रावत ने सबूतों के आभाव में 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत दे दी. फाजिल भी जेल से बाहर हैं.

शोएब को भी इस मामले में जमानत मिल गई है हालांकि डकैती मामले में उन्हें जमानत नहीं मिली जिसके कारण अभी वो जेल में हैं.

ज़ाहिद अली को 25 सितंबर 2020 को इस मामले में जमानत मिल गई. हालांकि डकैती के मामले में जमानत नहीं मिलने के कारण अभी भी वो जेल में हैं. जाहिद को भी जमानत जज अमिताभ रावत ने ही 15 हजार के निजी मुचलके पर दी है.

अब्बास को एफआईआर नंबर 116 में जनवरी 2021 में 15 हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत मिली है. इन्हें डकैती समेत दंगे के तीनों मामलों में जमानत मिल गई है और वे अब बाहर हैं. अब्बास को भी जमानत अमिताभ रावत ने ही दी है.

टेंट वाले स्कूल के सामने से नहीं अलग-अलग जगहों से हुई थी गिरफ्तारी

एक तरफ जहां पुलिस ने चार्जशीट में दावा किया है कि पांचों को टेंट वाले स्कूल के पास से गिरफ्तार किया गया वहीं जेल से जमानत पर अब्बास, काजिम और जाहिद के परिजनों की माने तो उन्हें अलग-अलग जगहों से गिरफ्तार किया गया.

न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए 19 वर्षीय काजिम बताते हैं, ‘‘मैं और शोएब दोस्त हैं और दोनों जाफराबाद के गली नंबर 26 की एक जींस फैक्ट्री में काम करते थे. 18 अप्रैल को हम काम पर ही थे. उस दिन दोपहर के करीब दो या तीन बजे कई लोग सिविल ड्रेस में आए और पूछने लगे कि शोएब और काजिम कौन हैं. इसके बाद वह हम दोनों पकड़कर मारते हुए लेकर चले आए. यह गली में सबने देखा.’’

16 जनवरी को काजिम जेल से बाहर आ गए. काजिम कहते हैं, ‘‘गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने मुझसे कम से कम 30 सफेद कागजों पर साइन करवाए थे. हम साइन नहीं कर रहे थे वे डंडे मार रहे थे. वे हमसे दंगे के बारे में पूछ नहीं रहे थे बल्कि कह रहे थे तो तुम लोग दंगे में शामिल थे. मैंने तो हर पन्ने पर अलग-अलग साइन किए ताकि पता चले कि यह साइन जबरदस्ती करवाए गए हैं.’’

पुलिस ने चार्जशीट में दावा किया है कि शोएब के पास देशी कट्टा बरामद हुआ. हालांकि इसको लेकर काजिम कहते हैं, ‘‘हम दोनों को कारखाने से पकड़कर ले गए थे. थाने में सुबह-सुबह एक कागज पर कट्टे की टेडी-मेडी तस्वीर बनाकर लाए और शोएब से बोले की इस पर साइन कर. वो नहीं करना चाह रहा था तो उसे फट्टे से मारकर साइन कराया. साइन करने से जो भी मना कर रहा था पुलिस वाले उसे मार रहे थे.’’

काजिम परिवार में इकलौता कमाने वाला था. तीन बड़ी बहनों, मां और पिता की जिम्मेदारी उसी की कमाई पर निर्भर थी लेकिन नौ महीने तक जेल में रहने के कारण सबकुछ अस्त व्यस्त हो गया. न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए काजिम कहते हैं, ‘‘जेल से लौटकर आया तो परिवार कर्ज में डूबा हुआ है. जमानत के लिए 80 हज़ार रुपए कर्ज लेकर घर वालों ने दिए. जेल में मिलने आते थे तो कुछ ना कुछ देकर जाते थे. मेरे पिता बीमार तो पहले से थे लेकिन अब ज़्यादा रहने लगे हैं. बाहर आकर काम शुरू किया लेकिन महीने में दो से तीन बार केस के लिए कोर्ट आना पड़ता है ऐसे में 15 दिन बाद ही काम से निकाल दिया गया. अब मेरे पास कोई काम नहीं है.’’

मौजपुर के बजरंगी मोहल्ले पर रहने वाला जाहिद का परिवार बेहद बदहाल स्थिति में रहता है. एक कमरे का घर जिसकी छत और दीवारें कई जगहों से टूटी हुई हैं. घर के नीचे एक छोटी सी किराने की दुकान है जो जाहिद के पिता ज़ाकिर हुसैन चलाते हैं. परिवार का खर्च जाहिद की कमाई से ही चलता था वो ई-रिक्शा चलाता था.

जाहिद की मां तहसीम रोते-रोते उस बेड की तरफ इशारा करती हैं जहां से 17 अप्रैल की रात करीब 10 बजे पुलिस उठाकर ले गई थी. वो कहती हैं, ‘‘वो नीचे से ऊपर खाना खाने आकर बैठा ही था कि तभी सिविल ड्रेस में कुछ लोग ऊपर आकर उसे पकड़ लिए. मैं जाहिद को पकड़ ली तो उन्होंने मेरे हाथ में मुक्का मारा और उसे मारते हुए लेकर चले गए. उसे पकड़ने के लिए इतने लोग आए थे जैसे किसी आतंकी को पकड़ने जाते हैं.''

तहसीम जाहिद से गिरफ्तारी के करीब सात महीने बाद नवंबर में वीडियो कॉल के जरिए बात कर पाईं. उसके बाद जनवरी में जेल में वो उससे मिल पाईं. वो बताती हैं कि पुलिस ने लिखा है कि उसके पास से कट्टा बरामद हुआ. जब उसे यहां से लेकर गए थे उसके पास सिर्फ पर्स और फोन था. उसके बाद पुलिस वाले कभी घर पर आए नहीं. सब कुछ उसके नाम पर झूठ लिख दिया है.’’

दंगे के दिन जाहिद कहां था इस सवाल पर तहसीन कहती हैं, ‘‘वो उस दिन घर पर ही रहा. उसे हमने घर से निकलने ही नहीं दिया.’’

अब्बास को भी पुलिस ने उनके घर के पास से ही गिरफ्तार किया था. जेल से लौटे अब्बास ज़्यादा बात नहीं करते हैं. उनके बड़े भाई दिलफ़राज कहते हैं, ‘‘पुलिस वाले दो-तीन बार घर पर आकर परेशान कर रहे थे. कहते थे कि पूछताछ के लिए अब्बास को भेज दो. 18 अप्रैल को हम अपने पड़ोस में रहने वाले एक शख्स के घर गए जो पढ़े लिखे हैं. अब्बास भी साथ था. पुलिस वहां आई और इसे लेकर चली गई. कह रहे थे कि पूछताछ के लिए ले जा रहे हैं लेकिन इसपर चोरी के साथ-साथ दंगे का भी आरोप लगा दिया. जबकि यह दंगे के समय हमारे गांव बुलंदशहर में था.’’

काजिम की तरह ही अब्बास पुलिस पर सादे कागज पर साइन कराने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ''उनके पास दंगे में शामिल होने का एक भी वीडियो या फोटो नहीं था लेकिन जबरदस्ती हमें जेल में डाल दिया. हमारी अम्मी नहीं हैं. अब्बू बीमार रहते हैं. घर का खर्च हम दोनों भाइयों की कमाई पर चलता था.’’

न्यूजलॉन्ड्री ने इस केस के जांच अधिकारी अमित भारद्वाज से मुलाकात की लेकिन उन्होंने हमारे किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया. हमने इसको लेकर दिल्ली पुलिस के मीडिया प्रभारी ( पीआरओ ) को भी सवालों भेजा, अभी तक उसका जवाब नहीं आया. अगर जवाब आता है तो उसे खबर से जोड़ दिया जाएगा.

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