Opinion
मणिपुर इस स्वतंत्रता दिवस को कैसे मनाएगा!
80 के दशक के मध्य की बात है. स्वतंत्रता दिवस पर छुट्टी थी. मैं बाहर जाकर अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहता था. लेकिन मेरी मां ने सख्ती से कहा, "आज बाहर मत जाओ… कौन जाने क्या हो जाए. बम और जाने क्या-क्या फट सकते हैं." यह चेतावनी आज भी हर स्वतंत्रता दिवस पर मेरे कानों में गूंजती है.
1970 और 1980 के दशक में मणिपुर घाटी में जन्मे ज्यादातर लोग इस बात को याद कर पाएंगे, वे उग्रवाद के चरम दिन थे. घाटी-केंद्रित नेतृत्व वाले उग्रवादी समूहों ने दैनिक अख़बारों के ज़रिए अपना रुख स्पष्ट कर दिया था कि विरोध के प्रतीक के रूप में स्वतंत्रता दिवस समारोहों का बहिष्कार किया जाएगा. उन्होंने जनता से किसी भी कार्यक्रम में भाग न लेने की अपील इस बात पर ज़ोर देते हुए की, कि मणिपुर को 1949 में जबरन भारतीय संघ में मिला लिया गया था. 1980 के दशक के दौरान शुरू हुआ बहिष्कार का आह्वान आज भी जारी है.
यह तर्क कि भारत ने मणिपुर की आज़ादी की कीमत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आज़ादी हासिल की, मणिपुर की स्थिति बहाल करने के पैरोकारों और मणिपुर को पहले से ही भारत का हिस्सा मानने वालों के बीच एक बड़ी दरार बनी हुई है. लेकिन यह बहस किसी और मौके पर होगी.
सत्ता में भाजपा, संकट के संकेत
1980 के दशक से, हम अगली सहस्राब्दी में प्रवेश कर चुके थे और अभी भी भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और अफस्पा (आर्म्ड फॉर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट) से जूझ रहे थे; एचआईवी महामारी भी थी, जो व्यापक हेरोइन की लत का परिणाम थी. 1980 और 1990 के दशक में मणिपुरी युवाओं की एक पूरी पीढ़ी का सफाया हो गया. इसके अलावा, भारी सैन्यीकरण और अफस्पा लागू होने के कारण 1,258 लोगों की "फर्जी मुठभेड़" या कानून के दायरे के बाहर हत्याएं हुईं. इनमें से कुछ मामले अब सर्वोच्च न्यायालय में हैं, फिर भी यह मुद्दा कभी खत्म होता नहीं दिखता.
इन अमानवीय अनुभवों के बावजूद, हम नागरिकों ने चुनौतियों का सामना किया और अपने पैरों पर खड़े होने में कामयाब रहे. ओकराम इबोबी सिंह के नेतृत्व वाली 15 साल की कांग्रेस सरकार 2017 में तब खत्म हो गई, जब भाजपा हर दांव-पेंच चलकर उस कांग्रेस से सत्ता छीनने में कामयाब रही, जिसके पास उससे ज्यादा विधायक थे. भाजपा ने अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई.
पूर्व कांग्रेसी मंत्री एन बीरेन सिंह भाजपा में शामिल हो गए और मुख्यमंत्री बन गए. जनता की शिकायतों के समाधान के लिए कई नीतियों की घोषणा की गई, जिनमें मीयामगी नुमित (जनता दिवस) भी शामिल है, जिसके तहत कोई भी मुख्यमंत्री से मिल सकता था और अपनी समस्याएं साझा कर सकता था. सब कुछ ठीक-ठाक लग रहा था और भाजपा 2021 में भारी बहुमत के साथ लौटी. देर शाम तक संगीत समारोह होते रहे; लोग बिना किसी डर के पहाड़ों पर लंबी सैर पर जा सकते थे; पर्यटकों का राज्य में आने से अर्थव्यवस्था फल-फूल रही थी. फिर भी, सतह के नीचे कुछ परेशान करने वाले संकेत थे: अक्सर भाजपा की आलोचना करने के चलते पुलिस ने लोगों को पकड़ लिया और उन पर आरोप लगाए. उदाहरण के लिए, पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को पार्टी की आलोचना करने के लिए तीन बार गिरफ्तार किया गया, इतना ही नहीं उन्हें रासुका के तहत भी हिरासत में लिया गया.
जनता में से कई लोगों ने भाजपा की नीतियों और बयानबाजी को शक की नज़र से देखा. फिर भी, हम इस तथ्य से सहमत थे कि हिरासत में कोई मौत या फर्जी मुठभेड़ नहीं हुई, कम से कम हवालात में बंद लोग जिंदा बचे रहे.
एक यादगार घटनाक्रम, एक दरार तक
वह कोमल शांति 3 मई, 2023 को टूट गई. उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे विस्तार से बताने की जरूरत नहीं: भाजपा और उसके केंद्रीय नेताओं की निगरानी में दिन-दहाड़े अत्याचार; दो समुदाय जो कभी साथ रहते थे आज हथियार उठा रहे हैं, हत्या कर रहे हैं, अपंग बना रहे हैं, आग लगा रहे हैं, लूटपाट कर रहे हैं. शायद विभाजन के बाद से आधुनिक भारतीय इतिहास में यह अभूतपूर्व है कि दो समुदाय आपस में लड़ रहे हैं, और क्षेत्रीय रूप से अलग-थलग पड़ रहे हैं. यह हिंसा दो साल से भी ज़्यादा समय से विभिन्न रूपों में जारी है. यह विभाजन अब गहरा और स्थायी हो चुका है- आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से.
मणिपुर में भाजपा के शासन का एक और संदिग्ध रिकॉर्ड 6,000 से ज्यादा हथियारों और लाखों राउंड गोला-बारूद की लूट है. यह कैसे "संभव" हुआ, यह लाख रुपए का सवाल है और शायद समय आने पर इसका पता चल जाएगा. भारतीय संविधान के तहत दो समुदायों का इतने लंबे समय तक एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ना कैसे संभव है? ऐसा कैसे है कि 5 मई, 2023 से 70,000 सशस्त्र कर्मियों की तैनाती के बावजूद, निर्दोषों पर अत्याचार जारी रहे? ऐसा कैसे है कि मणिपुर अब एक घाटी और आसपास की पहाड़ियों में बंट गया है? यह कैसे संभव है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी मणिपुर का दौरा नहीं किया?
शुरुआती दिनों में, कई नागरिकों ने किसी न किसी रूप में मदद की मांग की होगी. फिर भी, मोदी और शाह के नेतृत्व में शक्तिशाली भारतीय गणराज्य ने मणिपुर को संबोधित करने की हिम्मत नहीं दिखाई है. मोदी का हालिया पोस्ट, जिसमें उन्होंने अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में जनता से विचार जोड़ने का आग्रह किया है, न केवल हास्यास्पद लगता है बल्कि मणिपुर के कई नागरिकों के लिए बेहद अपमानजनक भी है.
क्या प्रधानमंत्री में आगामी स्वतंत्रता दिवस समारोह में, मणिपुर के लोगों की दुर्दशा का ज़िक्र करके राष्ट्र को सचमुच संबोधित करने का दृढ़ विश्वास होगा? क्या वह भारतीयों को जाति, पंथ, जातीयता और भौगोलिक स्थिति के आधार पर विभाजित देखेंगे, या क्या उनमें प्रत्येक भारतीय को एक इंसान के रूप में संबोधित करने की क्षमता होगी? क्या वह भारत के संविधान की प्रस्तावना का पालन करते हुए हर एक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करेंगे? जो मणिपुर के नागरिकों सहित सभी के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करने के उद्देश्यों वाला एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की बात करता है? इन सवालों को एक और सवाल से भी जोड़ा जा सकता है: क्या भारत का संविधान केवल मणिपुर को छोड़कर, भारतीय संघ के अन्य राज्यों के नागरिकों के लिए है?
कई बेगुनाहों के खून से मणिपुर के खेत रंगे हैं. एक दिन इन सवालों का जवाब मिल भी सकता है या नहीं भी. लेकिन यह जान लीजिए: हमारी जनता अब आपके मन की बात नहीं सुन रही है. हमारे कान और आंखें, लंबे समय से चली आ रही पीड़ा की चीखों और आंसुओं से भरे हैं. हम सह लेंगे, लेकिन किसी न किसी रूप में न्याय का दिन आना ही है.
1980 के दशक में, अलगाववादी फरमानों और हिंसा के डर से कोई स्वतंत्रता दिवस समारोहों से दूर रह सकता था. लेकिन इस नारकीय अनुभव से गुज़रने के बाद, समारोह में शामिल न होने का फैसला स्वेच्छा से और दिल से भी लिया जा सकता है. सवाल ये है कि "क्या हम सचमुच आजाद हैं, या हम अभी भी एक उत्पीड़ित राष्ट्र हैं?" यह वह सवाल है जो हर सही सोच वाला मणिपुरी पिछले दो सालों से पूछ रहा है.
लेखक द फ्रंटियर मणिपुर के कार्यकारी संपादक हैं.
Also Read
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream
-
Inside Dharali’s disaster zone: The full story of destruction, ‘100 missing’, and official apathy
-
August 15: The day we perform freedom and pack it away
-
Supreme Court’s stray dog ruling: Extremely grim, against rules, barely rational