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कुछ सवालों के जवाब जो अनुपम खेर को एफटीआईआई में अनुपम बना देंगे

एफटीआईआई के चेयरमैन के रूप में अनुपम खेर की नियुक्ति मौजूदा सरकार का खूबसूरत क़दम है. अनुपम अनुभव, योग्यता और प्रतिभा हर लिहाज से इस पद के लायक हैं. उनका तीन दशक से ज्यादा का फिल्मी सफ़र, उनकी असीमित अभिनय क्षमता, उनकी शानदार फिल्में असल कहानी खुद ही बयान करती हैं.

अनुपम खेर से मेरा पहला साबका डॉ. डैंग के रूप में हुआ था. 1986 में आई सुभाष घई की फिल्म कर्मा के मुख्य खलनायक थे अनुपम. अगले एक दशक तक अनुपम हमारे लिए कभी राम लखन का कंजूस बनिया, कभी तेज़ाब का लालची बाप, कभी डर का चुलबुला भाई, कभी हम आपके हैं कौन का अवास्तविक बाप बनते रहे. इस देश ने उस दौर में अनुपम खेर की अदाकारी के अनेक रंग देखे. ऐसे ही दौर में हमारा फिल्मी संस्कार पूरा हुआ है जहां खूबसूरत चेहरों को बदसूरत विलेन के रूप में दिखाना मजबूरी थी. रंगा, बिल्ला, रॉबर्ट जैसे सिपहसालारों की फौज के बावजूद शहर का सबसे बड़ा माफिया, हीरो के बाप की हत्या पंद्रह रुपए के रामपुरी चाकू से खुद ही करता था, जिसे वह हमेशा अपनी जेब में रखता था.

फिल्म की लद्धड़ कहानियों और संगीत की तरह ही यह अमिताभ बच्चन के उतार का दौर भी था. सामने अनिल कपूर, जैकी श्रॉप, मिथुन चक्रवर्ती और गोविंदा जैसे सितारों के चढ़ान का भी यही दौर था. लेकिन महानायक के अवसान से पैदा हो रही रिक्तता इतनी बड़ी थी कि इनमें से कोई भी उस जगह को अकेले भर पाने में नाकाम था. ऐसे खालीपन में अनुपम खेर कभी विलेन, कभी चरित्र अभिनेता के रूप में लगातार फिल्मों में दिखते रहे. नतीजतन नायक-नायिका प्रधान फिल्मों के दौर में भी हमारा अनुपम खेर से रिश्ता सघन होता गया. यह दौर नब्बे के दशक के अंत तक चला. इस दौरान अमूमन देश ने उन्हें एक शानदार अभिनेता के रूप में ही याद रखा.

समय बदला, देश नए मिलेनियम में प्रवेश कर गया. इसी के साथ अनुपम खेर के एक नए चेहरे से देश का सामना हुआ. यह उनका राजनीतिक चेहरा था. देश की सत्ताधारी पार्टी से करीबी का चेहरा. इसी समय में हमने कश्मीर के पंडितों के पक्ष में, मुस्लिमों के खिलाफ आग उगलता उनका वीडियो भी देखा. जब देश में असहिष्णुता की बहस चली तब इसके खिलाफ अनुपम खेर ने दिल्ली की सड़कों पर सहिष्णुता मार्च निकाला. उन्होंने अपना मेमोरेंडम राष्ट्रपति को नहीं बल्कि प्रधानमंत्री को सौंपा, 7, लोक कल्याण मार्ग पर. यह नई परिपाटी थी जो सत्ता के साथ उनके रिश्तों को परिभाषित करती थी.

इन घटनाओं ने 80 और 90 के दशक में अनुपम खेर के लिए जो छवियां मैंने निर्मित की थी, उन्हें तोड़ना शुरू किया. उनके राजनीतिक बयान अक्सर घृणा और एक समुदाय के खिलाफ भय से भरे होते हैं. सारांश का वह मजबूर बाप जिसमें आधा हिंदुस्तान सिस्टम की निर्ममता से पीड़ित अपने-अपने बाप को देखता था उसी में अचानक से एक वर्ग को डॉ. डैंग की छवियां दिखनी शुरू हो गईं.

यह मौका एक सही व्यक्ति को सही सम्मान मिलने की खुशी का है लेकिन एक पत्रकार के तौर पर आलोचना की आदत से बाज न आते हुए, कुछ सवाल अनुपम खेर से पूछना ज़रूरी है. बिना किसी उत्तर की उम्मीद किए. यह पत्रकारिता का धर्म और मजबूरी दोनों है.

पहला, एफटीआईआई फिल्म निर्माण और निर्देशन के साथ-साथ अभिनय की शिक्षा भी देता है. अनुपम स्वयं मुंबई में ‘एक्टर प्रिपेयर्स’ नाम से अभिनय का निजी संस्थान चलाते हैं. इसकी शाखाएं लखनऊ और सिंगापुर में भी हैं. अपना खुद का अभिनय संस्थान चलाते हुए देश के सर्वोत्कृष्ट फिल्म संस्थान का मुखिया बनने में आपको किसी तरह की गड़बड़ी या नैतिकबोध होता है. अच्छा नैतिकता को छोड़ दीजिए. श्रीलाल शुक्ल ने बहुत पहले राग दरबारी में कह दिया है कि नैतिकता कोने में पड़ी चौकी है, जिसे समय आने पर झाड़ पोछकर चादर बिछा दीजिए और बाकी समय लात मारकर कोने में सरका दीजिए.

क्या यह हितों के टकराव का मामला नहीं है?

दूसरा, साल 2016 में झारखंड सरकार ने नवीन फिल्म निर्माण नीति के तहत बनाई गई टेक्निकल एडवाइज़री कमेटी का मुखिया आपको बनाया था. सबको यह बात पता है कि झारखंड से आपका रिश्ता उतना ही है जितना अमिताभ बच्चन का किसानी से या बाराबंकी से. पर चूंकि आप एक साथ दो-दो सरकारी पदों को सुशोभित करने की स्थिति में हैं तो यहां आपको यह बात साफ कर देनी चाहिए कि क्या आप ऐसा कर सकते हैं? लगे हाथ यह बात भी साफ कर दें कि इस सेवा के बदले क्या झारखंड सरकार आपको किसी तरह का आर्थिक लाभ देती है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आप हमेशा सरकारी (जनता के) पैसे की बंदरबांट के खिलाफ रहे हैं.

तीसरा, आप रांची डायरीज़ नामक फिल्म के को-प्रोड्यूसर हैं. झारखंड की पृष्ठभूमि पर झारखंड में फिल्में बनाने के बदले में झारखंड सरकार ने किस तरह की सुविधाएं या छूट आपको दीं? क्या टेक्निकल एडवाइज़री कमेटी के चेयरमैन रहते हुए खुद ही फिल्म प्रोड्यूस करने में किसी तरह हितों का आपसी टकराव होता है?

और आख़िर में, कई बार आपने ऐसे बयान दिए हैं जो कश्मीर के एक समुदाय के लिए बेहद आपत्तिजनक कहे जाएंगे. एफटीआईआई के चेयरमैन के रूप में आप यह भरोसा दे सकते हैं कि एक प्रतिभाशाली कश्मीरी मुसलमान के साथ एफटीआईआई में न्याय होगा, आपके व्यक्तिगत दुराग्रह इसमें आड़े नहीं आएंगे.

आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि इन सवालों का जवाब देकर अनुपम खेर एफटीआईआई के चेयरमैन के लिए सुयोग्य से भी ज्यादा योग्य हो जाएंगे.