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सऊदी अरब में शहज़ादे का क़हर

बीते दस दिनों से सऊदी अरब के शाही अल-सऊद ख़ानदान के दर्ज़न भर प्रभावशाली शहज़ादे राजधानी रियाद के एक आलीशान होटल में बंदी हैं. हिरासत में लिये गये शहज़ादों में दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शुमार अल वालीद बिन तलाल, आतंरिक सुरक्षा बल नेशनल गार्ड के मुखिया मितेब बिन अब्दुल्लाह, और दो दशक से अधिक वक़्त तक अमेरिका में राजशाही के राजदूत रह चुके और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद को हटाने के लिए बनी सऊदी रणनीति के सूत्रधार बांदेर बिन सुल्तान जैसे लोग शामिल हैं. कई मंत्रियों को भी हिरासत में लिया गया है और कई लोगों को पदों से हटाया गया है.

एक शहज़ादे की मौत हेलीकॉप्टर दुर्घटना में हो चुकी है जिसे शक़ की नज़र से देखा जा रहा है. गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे एक शहज़ादे की मौत सुरक्षा बलों की गोलीबारी में हो चुकी है. एक शहज़ादे के देश से छोड़ कर ईरान में शरण लेने की अपुष्ट ख़बरें भी चर्चा में हैं. हिरासत में लिये गये लोगों की कुल संख्या का ठोस अनुमान लगाना संभव नहीं है, पर इतना अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि यह आंकड़ा सैकड़ों में हो सकता है. कुछ लोग देश के बाहर भी हो सकते हैं जिनकी चुप्पी से माहौल और भी रहस्यमय होता जा रहा है.

ये सभी शहज़ादे पूर्व बादशाहों और उनके बाद बादशाह बनने के लिए लाइन में खड़े प्रमुख शहज़ादों की संतान हैं. यह कार्रवाई अपने पिता बादशाह सलमान के नाम पर शासन चला रहे शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान के इशारे पर की जा रही है. अब्दुल अजीज द्वारा 1932 में स्थापित सऊदी अरब के इतिहास में यह पहली बार है कि इतने बड़े पैमाने पर शहज़ादों को ठिकाने लगाया जा रहा है तथा एक शहज़ादे के हाथ में राजशाही की पूरी कमान आ गयी है.

इसी साल जून में उनके पिता ने ख़ानदान के अन्य वारिसों को नाराज़ करते हुए शहज़ादा मोहम्मद को अपना वारिस घोषित कर दिया था. इसके लिए उन्होंने पहले से चयनित मुहम्मद बिन नायेफ़ को हटा दिया. इस घटना के बाद से ही ऐसी आशंका जतायी जा रही थीं कि बाप-बेटे की जोड़ी ने सऊदी सत्ता पर पूरी तरह दख़ल का इरादा कर लिया है. उल्लेखनीय है कि शाही ख़ानदान के भीतर बादशाहत और अन्य प्रमुख पदों के चयन के लिए एक स्थापित प्रक्रिया है तथा हर तरह के विवाद ख़ानदान के प्रभावशाली गुट के द्वारा अमूमन आराम से निपटा लिये जाते हैं. पर, ताज़ा घटनाक्रम ने इस समीकरण को पूरी तरह से सिर के बल खड़ा कर दिया है.

लेकिन सऊदी शाही ख़ानदान में चल रही उठापटक को सिर्फ़ सत्ता पर पकड़ बनाने या भ्रष्टाचार के ख़ात्मे के लिए किये जा रहे उपाय या सऊदी अरब के आधुनिकीकरण की कोशिश के रूप में देखना इस पूरे घटनाक्रम के संभावित असर को या फिर शहज़ादे मोहम्मद की रणनीति की जटिलता को कम करके देखना होगा. दरअसल, यह पूरा प्रकरण अरब की राजनीति और आर्थिकी से गहरे तक जुड़ा हुआ है.

बादशाह सलमान ने भले ही अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना दिया हो, पर परंपरा के मुताबिक बादशाह का चयन ख़ानदान को करना होता है. ऐसे में मोहम्मद बिन सुल्तान के लिए यह ज़रूरी था कि वे ताक़तवर शहज़ादों पर दबाव बनायें. लेकिन, वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति में सऊदी धन और प्रभाव का बहुत ज़ोर है. इस कारण बिना बड़े मुल्कों और कॉरपोरेशनों को भरोसे में लिये शहज़ादों के ख़िलाफ़ इतनी बड़ी कार्रवाई संभव ही नहीं थी. इस पर बाद में चर्चा करेंगे. अभी शाही ख़ानदान और सऊदी सियासत पर नज़र डालते हैं.

अनुमान है कि अब्दुल अज़ीज़ के वारिसों की कुल तादाद दस हज़ार से अधिक है जिनमें आधे से अधिक पुरुष हैं. अब सवाल यह उठता है कि इन्हें पदों से हटा कर, इनको मिलनेवाली धन-राशि कम कर और हिरासत में लेकर मोहम्मद कितना बड़ा ख़तरा मोल ले रहे हैं. चूंकि अब इस क़दम से वापसी भी मुमकिन नहीं है लिहाजा उनकी राह की तमाम बाधाओं को उन्हें कुंद करना होगा.

रहस्यमय परिस्थितियों में दो शहज़ादों की मौत यही संकेत दे रही है कि मामला किसी भी हद तक जा सकता है तथा बुरी ख़बरों का अंदेशा लगातार बना रहेगा. यह बात भी आगामी दिनों में स्पष्ट होगी कि शहज़ादे को शाही ख़ानदान से बाहर कौन-से ताक़तवर गुटों का समर्थन हासिल है. आधुनिकीकरण की उनकी कोशिश वहाबी मुल्लों को नाराज़ कर सकती है. यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि देश के भीतर और इस्लामिक दुनिया में सऊदी अरब के प्रभाव का एक बड़ा आधार कट्टर वहाबी विचारधारा है. कई जानकार यहां तक कहते हैं कि वहाबी विचारधारा के बिना सऊदी राज्य टिक ही नहीं सकता है.

शहज़ादा की उम्मीद सऊदी युवाओं से है जो डगमगाते आर्थिक परिदृश्य में शाही और धनी लोगों की अय्याशी और शाहख़र्ची से नाराज़ हैं. महिलाओं को 2018 से गाड़ी चलाने का अधिकार देकर वे एक बड़ा संकेत दे चुके हैं. अभी मोहम्मद मुल्लाओं से भिड़ने से कतरा रहे हैं. ‘अधिक उदारवादी इस्लाम’ की ओर लौटने का उनका बयान भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है. स्वच्छ ऊर्जा के इस्तेमाल पर ज़ोर देकर अपने नज़रिये का एक हिस्सा उन्होंने जाहिर कर दिया है. संभवतः अपने ख़ानदान के लोगों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई कर वे पूरे देश में यह संदेश देना चाहते हैं कि उनका विरोध बहुत ख़तरनाक हो सकता है. इतिहास गवाह है कि ऐसी चेतावनियां अक्सर कारगर साबित होती हैं.

बहरहाल, अभी स्थिति यह है कि 32 वर्षीय मोहम्मद बिन सलमान के हाथ में सऊदी सेना, विदेश नीति, अर्थव्यवस्था और आंतरिक नीतियों का नियंत्रण है तथा वे एक शहज़ादे की तरह नहीं, बल्कि एक बादशाह की तरह हुकूमत चला रहे हैं.

इस खेल में सऊदी शहज़ादे को अमेरिका समेत पश्चिमी देशों, इज़रायल और रूस का समर्थन मिल रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दामाद और नजदीकी सलाहकार कुशनेर उनके मित्र हैं. अमेरिकी रक्षा सचिव जिम मैटिस से वे अनेक बार मिल चुके हैं. ट्रंप की पहली विदेश यात्रा सऊदी अरब की ही थी और उनके आतिथ्य की पूरी ज़िम्मेदारी मोहम्मद ने ही संभाली थी. इससे पहले भी वे राष्ट्रपति से मिल चुके थे. बराक ओबामा सऊदी मीडिया नेटवर्क अल-अरबिया से एक साक्षात्कार में मोहम्मद की भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुके हैं.

इन दिनों लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी सऊदी अरब में हैं. लेबनान का कहना है कि उन्हें बंधक बनाया गया है. उन्होंने कुछ दिन पहले रियाद से ही अपने इस्तीफ़े की घोषणा की थी. सऊदी अरब का कहना है कि हरीरी को ईरानी प्रभाव वाले शासन में मात्र ‘स्टांप पेपर’ की हैसियत है तथा ईरान को दख़ल देने से परहेज़ करना चाहिए. अब हरीरी ने अपनी ही सरकार से जान को ख़तरा बताया है और अपने इस्तीफ़े को वापस लेने की बात कही है. इस स्थिति में ईरान-सऊदी तनाव के गहन होने की आशंका बढ़ गयी है. पहले से ही दोनों देश यमन और सीरिया में अपने समर्थक गुटों के साथ आमने-सामने हैं. यमन के राष्ट्रपति को भी परिवार-समेत सऊदी अरब में रखा गया है और उनकी वापसी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. ईरान को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और इज़रायली प्रधानमंत्री की कटुता के कारण सऊदी शासन को इनका पूरा समर्थन है तथा गाहे-ब-गाहे दोनों देशों ने इस बात का इज़हार भी किया है. क़तर को हाशिये पर डालने और इसमें खाड़ी देशों का समर्थन जुटाने में भी मोहम्मद की बड़ी भूमिका मानी जाती है. पिछले दिनों फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रां की अचानक सऊदी यात्रा को इस पूरी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है. अरब में अपने हितों की रक्षा के लिए ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देश भी सऊदी शाही ख़ानदान की घटनाओं में दख़ल देने से बचने की कोशिश करेंगे.

हालांकि सीरियाई राष्ट्रपति को मिल रहा रूसी समर्थन सऊदी अरब के लिए नाराज़गी की वज़ह हो सकता है, पर तेल की क़ीमतों का गणित राजनीति पर हावी है. तेल की क़ीमतों में हालिया बढ़ोत्तरी का बड़ा कारण दोनों देशों की साझेदारी है. बाज़ार पर नज़र रखनेवाले बता रहे हैं कि अगर यह रिश्ता ख़राब होता है तो क़ीमतें गिर जायेंगी, और यह दोनों देशों के लिए घाटे का सौदा होगा. प्रतिबंधों के कारण रूस तेल की कमाई पर अधिक निर्भर है तथा सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था में कमी का सबसे बड़ा कारण क़ीमतों में गिरावट ही रही है. बीते महीने बादशाह सलमान ने रूस का दौरा भी किया. ऐसा करनेवाले वे पहले सऊदी शाह हैं.

अभी के घटनाक्रम के हिसाब से संभावित परिणामों के बारे में दावे से कुछ कह पाना संभव नहीं है. लेकिन, कुछ बातें घटित होती दिख रही हैं. इस्लामिक स्टेट की हार तथा शहज़ादा बांदेर की गिरफ़्तारी के बाद विद्रोही गुटों के कमज़ोर पड़ने से सीरिया में सऊदी दख़ल कम होगा. इसमें रूस की भी भूमिका होगी. इसके बदले यमन में सऊदी अरब और ईरान को भिड़ने के लिए छोड़ दिया जायेगा. लीबिया में स्थिरता की कोशिशें कमज़ोर पड़ेंगी क्योंकि वहां से तेल की कम और सस्ती आपूर्ति सभी बड़े खिलाड़ियों के लिए मुफ़ीद है. तेल की क़ीमते बढ़ेंगी.

पहले से ही फ़िलीस्तीन के लिए अरब समर्थन लगभग ख़त्म हो चुका है. अब इज़रायली दख़ल और दबाव को लेकर चुप्पी अधिक सघन होगी. कुर्द जनमत-संग्रह, इस्लामिक स्टेट और अन्य आतंकी तथा विद्रोही गुटों के तितर-बितर होने, ईरान-सऊदी संघर्ष तेज़ होने तथा फ़िलीस्तीन में इज़रायली दमन बढ़ने जैसे तत्व पहले से युद्ध और हिंसा में तपते अरब में अस्थिरता को और हवा देंगे.

सऊदी अरब में जो हो रहा है, वह एक शहज़ादे की बादशाह बनने की इच्छा का नहीं, बल्कि एक व्यापक प्लॉट के कुछेक दृश्य भर हैं. और, जो लोग यह समझ रहे हैं कि सऊदी अरब में कोई क्रांति जैसी चीज़ होगी, उन्हें मक्का में भीख मांगते सीरियाई शरणार्थियों की तस्वीरें देखनी चाहिए. ऐसा इसलिए किया गया था कि सऊदी लोगों को एक संकेत दिया जा सके कि विद्रोह की नियति भयावह हो सकती है.