Newslaundry Hindi
लोकतंत्र के विषैले बघनख उग आए हैं
लखनऊ में एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी के कारिंदे की हत्या पुलिसवाले ने कर दी. जिस किसी ने भी उस पुलिसवाले की प्रेस कॉन्फ्रेंस का वीडियो देखा होगा वह समझ सकता है कि सत्ता अगर अपराधी हो जाय तो उसका चेहरा क्या होगा. उसका सिर तना हुआ होगा, मूंछें उठी हुई होंगी, चेहरे पर कोई शिकन नहीं, अपराध का कोई बोध नहीं और अपने कृत्य को जायज ठहराने की बेशर्मी. प्रशांत चौधरी अपराधी सत्ता का आदर्श चेहरा है.
हमारी सत्ता ने जिन लोगों को बंदूक चलाने का लाइंसेस दिया हुआ था, उत्तर प्रदेश में, उन लोगों ने उसे बहुत बदसूरत तरीके से चलाना शुरू भी कर दिया. बिना यह सोचे समझे कि इस लाइसेंस के साथ तमाम टर्म्स और कंडीशन भी जुड़ी हुई है. यह बहुत चिंताजनक स्थिति है. साल भर के भीतर 1200 से ज्यादा मुठभेड़ें. 100 के आसपास लोगों की पुलिस द्वारा हत्या. बिना किसी कानूनी कार्रवाई, बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया में पहुंचे, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने इसे अंजाम दिया.
यह पूरी व्यवस्था के ध्वस्त होते जाने की कहानी है, जहां पुलिस ने तथाकथित न्याय देने का शॉर्टकट खोज लिया. वह न्याय जिसे देने की सलाहियत हमारी व्यवस्था ने पुलिस के हक़ में दिया ही नहीं है. लेकिन यूपी की पुलिस न्याय के स्थापित मूल्यों और न्यायपालिका को बाईपास करके सीधे सजा देने का काम करने लगी. इस चलन का एक और घिनौना पक्ष रहा. इसके शिकार वे लोग रहे जो इस घोर जातिवादी समाज के निचले पायदान पर थे. समाज के वंचित पक्ष, जो अपनी बात उतनी ताकत और हिम्मत से नहीं रख सकते थे. ऐसे लोग लखनऊ, दिल्ली में रहने का सौभाग्य नहीं था. वे किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के कारिंदे नहीं थे. वे मारे गए और लोग निश्चिंत रहे. लखनऊ में मारे गए विवेक तिवारी किस्मत वाले थे कि उनकी चर्चा हो रही है, अलीगढ़ जिले के एक गांव से ले उठाकर मार दिए गए मुस्तकीम का गुमनाम रह जाना ही उसकी नियति थी.
लोग अपने-अपने छुद्र हितों में मशगूल होकर इस सरकारी हत्याकांड का लुत्फ उठा रहे थे. लोकतंत्र का हौसला बुलंद होता गया. यह संस्थानों की हैसियत कमतर होने का भी वक्त है, क्योंकि यह सरकारों के हद से ज्यादा ताकतवर होने का समय है. लिहाजा वे संस्थाएं जो इस लोकतंत्र में किसी भी एक पक्ष को बेकाबू होने से नियंत्रित करती हैं, उनकी हालत लचर हो चुकी है. मानवाधिकार संस्थाएं विकलांग हो गईं, न्यापालिका की साख ख़तरे में पड़ती दिखी, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर गहरा संदेह कायम है.
एक बार जब यह सब हो गया, लोकतंत्र के ज्यादातर सेफ्टी वॉल्व से थोड़ी-थोड़ी ताकत निकाल कर एक बेहद ताकतवर सरकार दिल्ली से लेकर लखनऊ तक काम करने लगी. तब उसने भय और हिंसा के अपने सबसे पुरातन हथियार यानि पुलिस का इस्तेमाल शुरू किया.
इसी दौर में आम लोगों की सामूहिक और सामाजिक चेतना की मौत का भी सुनियोजित उपक्रम रचा गया. इंटरनेट के जरिए फेक न्यूज़, तथ्यों से तोड़मरोड़ के जरिए. लोग अपने-अपने दड़बों में पड़ोसी का जलता घर देखते रहे. इस बात का एहसास किए बेगैर कि लपट उनके घरों तक भी पहुंचेगी. लोगों का विवेक इस कदर शून्य हो चुका था कि वे पुलिस की हर मुठभेड़ वाली थ्योरी पर ताली बजाते. ताली बजा-बजा कर उन्होंने परदे के पीछे आकार ले रही एक नई राजनीतिक संस्कृति की तरफ से अपनी आंखें मूंद ली, उसकी नृशंसता का उन्हें अहसास तक नहीं था. यह एक हिंसक संस्कृति, एक अपराधी संस्कृति थी.
ये वो संस्कृति थी जिसने हर पांच साल में चुनाव करवाने वाले देश में अगले पचास साल तक राज करने का बयान जारी कर दिया. और कोई भी इसे बड़बोला बयान न समझे. यह दरअसल एक सुनियोजित रणनीति के तहत ही कहा जा रहा हैं. जिस पचास साल के शासन की बात कही जा रही है उसमें इसी तरह की व्यवस्था की जरूरत है. पुलिस को छुट्टा छोड़ दिया जाय, न्यायपालिका को पिछलग्गू बना लिया जाय. जब-तब सुप्रीम कोर्ट या कैग जैसी कुछेक संस्थाएं इसके रास्ते में अड़ने की कोशिश करती दिखती हैं, आगे भी ऐसा ही होगा. 70 सालों की संस्कृति को एक झटके में ही तो समाप्त नहीं किया जा सकता ना. कुछ लोग होंगे जो तनकर खड़े हो जाएंगे. पर जीतेगा कौन, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता. फर्जी मुठभेड़ ही न्याय का प्राथमिक तरीका होंगे. ऐसी व्यवस्था के बीच पचास साल के शासन का स्वप्न देखा गया है.
लोगों की चेतना मरने और विवेक लुप्त होने का क्रम उस समय ही शुरू हो गया था जब लोगों ने, लोगों को गाय के नाम पर, लव जिहाद के नाम पर सड़कों पर पीट-पीटकर मारना शुरू किया था. पहलु, जुनैद, अखलाक, रकबर इस खेल में आहूति देते रहे, और मरी हुई चेतना, लुप्त हो चुके विवेक वालों ने ताली बजा-बजाकर इस पर अपनी खुशी का इजहार किया.
शुरुआती काम पूरा होने के बाद इस सोच का हौसला और बढ़ा. मुसलमानों के बाद दलित उनके दूसरे पसंदीदा शिकार थे. रोहित वेमुला से लेकर उना तक हमने इसमें भी एक पैटर्न देखा. लोग इस दौरान भी जमकर ताली बजा रहे थे.
इस नई हिंसक राजनीतिक संस्कृति ने अपराधियों को अपने बचाव के नए-नए तरीके मुहैया करवा दिए. अब उन्हें अपने कृत्य पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी, अपने अपराध का कोई पश्चाताप नहीं थी. ये अपराधी अब प्रेस कॉन्फ्रेंस करने लगे.
हमने देखा सेना के मेजर गोगोई ने कश्मीरी युवक को जीप के मुहाने पर बिठा दिया. और फिर अपने कृत्य को जायज ठहराने के लिए बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस की. सेना के आला अधिकारियों ने उसका समर्थन किया. बाद में उसी मेजर गोगोई को एक होटल में एक युवती के साथ संदिग्ध अवस्था में पाया गया. फिलहाल वो दोषी पाए जा चुके हैं. लखनऊ में भी हमने देखा आरोपी पुलिसकर्मी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहा है अपने बचाव में, बाकी पुलिस वाले उसे शह दे रहे थे.
ये लोकतंत्र के विषैले बघनख हैं जो अब पूरी कुरूपता में उग आए हैं. मरी हुई चेतना और लुप्त हो चुके विवेक वाले ताली बजा-बजाकर उस बघनख को धार दे रहे थे. विवेक तिवारी को मरना ही था. और यह अंत नहीं है. जब इन लोगों ने पूछना बंद कर दिया कि 1200 मुठभेड़ें पुलिस ने कैसे अंजाम दी? इन लोगों को अदालतों तक ले जाने की बजाय सीधे गोली मार देने का काम पुलिस ने क्यों किया?
ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें 2017 में योगी की सरकार बनने के तुरंत बाद के कुछ महीनों में पूछा जाना चाहिए था. लेकिन तब मृत चेतना वालों ने ताली बजाना श्रेयस्कर समझा. इनका विवेक अभी भी लुप्त है अन्यथा आप देख सकते हैं कि एक व्यक्ति की हत्या हुई, उसके बच्चे अनाथ हुए, पत्नी विधवा हुई, एक परिवार उजड़ गया, लेकिन बहस का दायरा उसकी जाति के इर्दगिर्द सिमटा हुआ है. इतना नृशंस और भावहीन कौन हो सकता है? मरी हुई चेतना और लुप्त हो चुके विवेक वाला व्यक्ति ही हो सकता है.
Also Read
-
Another Election Show: Hurdles to the BJP’s south plan, opposition narratives
-
‘Not a family issue for me’: NCP’s Supriya Sule on battle for Pawar legacy, Baramati fight
-
‘Top 1 percent will be affected by wealth redistribution’: Economist and prof R Ramakumar
-
Presenting NewsAble: The Newslaundry website and app are now accessible
-
Never insulted the women in Jagan’s life: TDP gen secy on Andhra calculus, BJP alliance