Newslaundry Hindi
अयोध्या की आग में निरंतर उन्माद का घी डाल रहा टीवी मीडिया
सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के मामले में सुनवाई की अगली तारीख तय कर दी है, जिसमें वह 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली 14 याचिकाओं पर सुनवाई करेगा. 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया था कि उत्तर प्रदेश के अयोध्या में विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के प्रतिनिधियों (जो कि इस मामले में एक याची थे) के बीच बांट दिया जाए.
पिछले साल अक्टूबर में, भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले की सुनवाई 4 जनवरी तक के लिए टाल दिया था. शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि जनवरी में निर्धारित तारीख “सुनवाई के लिए नहीं बल्कि सुनवाई की तारीख तय करने के लिए है.” सीजेआई ने कहा था- हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं.
दिलचस्प बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी 1990 के दशक की शुरुआत में राम मंदिर आंदोलन की दम पर ही आज यहां तक पहुंची है. भाजपा ने 2014 के अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी यह वादा किया था कि वो राम मंदिर का निर्माण करेगी. सुनवाई में देरी का मतलब होगा कि 2019 के आम चुनावों से पहले इस विवाद पर फैसला नहीं आएगा. इसका मतलब यह है कि भाजपा अपना वादा पूरा नहीं कर पायेगी. ट्रिपल तलाक़ के अपराधीकरण- जिसे मुस्लिम महिला वोटबैंक को अपने पक्ष में लामबंद करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है- पर जोर देने वाली पार्टी के लिए शीर्ष अदालत से जल्द से जल्द निर्णय इसलिए जरूरी है ताकि वो अपने हिन्दू वोटों को साधने के प्रयास में सफल रहे.
इतना समझने के लिए काफी है कि शीर्ष अदालत की प्राथमिकताओं वाली बात क्यों किसी को सुनाई नहीं दे रही है. जबकि सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि अयोध्या विवाद उसकी प्राथमिकता नहीं है, बहुत से लोगों ने इस अलग तरह से समझा.
कुछ लोगों ने तो शीर्ष अदालत को सुनवाई में देरी पर सलाह भी दे डाली. 25 नवंबर को, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक महीने से भी कम समय के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में हुंकार सभा के दौरान, अदालत को जल्द से जल्द अपना फैसला देने की सलाह दी. भागवत के अनुसार, “यह साबित हो चुका है कि मंदिर वहां उपस्थित था. उन्होंने कहा कि ऐसे मामले में देरी से मिला हुआ न्याय का मतलब न्याय न मिलना है.”
उसी दिन, विश्व हिंदू परिषद ने एक “धर्म सभा” आयोजित की, जबकि शिवसेना ने अपने कार्यकर्ताओं को अयोध्या पहुंचने को कहा. यह सब राम मंदिर के लिए किया गया. और इस पूरी आपाधापी में हमारे समाचार चैनलों के एंकर भी बहुत पीछे नहीं रहे.
शुरुआत
29 अक्टूबर को, जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद की सुनवाई जनवरी तक के लिए टाल दिया था, आजतक की अंजना ओम कश्यप ने “हे राम! तारीख पर तारीख” नाम से एक शो होस्ट किया. शो में पांच मिनट से भी कम समय में कश्यप ने बताया कि कैसे अदालत का दख़ल राम भक्तों को उनके भगवान राम तक पहुंचने से रोकता है. कश्यप ने भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा से कहा, “राम मंदिर की चौखट पर तो इस देश का राम भक्त पहुंच नहीं पा रहा है.”
मंदिर के निर्माण को सुनिश्चित करने के लिए भाजपा अब आगे क्या करेगी? पात्रा से यह पूछते हुए कश्यप ने कहा, “आपके तमाम मन्त्री धमकी दे रहे थे कि जल्दी से जल्दी नहीं होगा तो सब्र का बांध टूट जायेगा, कुछ भी हो सकता है, अब कुछ भी करिये ना सर, क्या करियेगा…”
क्या लोगों को इस बात का अनुमान है कि इस उन्माद को कैसे उकसाया जा रहा है. अगस्त 2017 में, न्यूज़लॉन्ड्री ने बताया था कि कैसे टीवी मीडिया ने “चोटी काटने की घटना” को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया था. लेकिन बाद में, एक बुजुर्ग महिला की हत्या और दिल्ली पुलिस द्वारा एक तर्कसंगत अपील के बाद जाकर यह सर्कस थमा.
बहस में अन्य पैनलिस्टों ने चेताया कि कैसे अदालत को जल्द से जल्द अपना फैसला दे देना चाहिए. कार्यक्रम में सहभागी महंत सुरेश दास ने कहा, “जल्द से जल्द रामजन्मभूमि पर सुनवाई करके, सुप्रीम कोर्ट को फैसला दे देना चाहिए.” दिलचस्प बात है कि, वही बहस फिर से 12 नवंबर को नई पैकेजिंग के साथ शुरू हुई.
सिर्फ इतना ही नहीं. लगभग एक हफ्ते बाद, 6 नवंबर को, कश्यप ने एक और एपिसोड होस्ट किया- “राम मंदिर का दिया जलेगा”. इस एपिसोड में, उन्होंने पूछा कि क्या अयोध्या के राम मंदिर के भक्तों की इच्छा पूरी होगी? उन्होंने यह भी पूछा कि मंदिर का निर्माण कब होगा और क्या इसमें देरी भक्तों के धैर्य की परीक्षा ले रही थी?
भाजपा के घोषणापत्र से जुड़े हुए सवालों के साथ यह कोई आश्चर्य या छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि उसके कार्यकर्ताओं ने 1992 में विवादित ढांचे के विध्वंस में कार सेवकों का समर्थन किया. एक कार्यकर्ता ने इसे स्वीकार भी किया. पर कोई सवाल नहीं उठा. इन बयानों में बीजेपी नेता प्रेम शुक्ला का बयान शामिल है जिसमें उन्होंने कहा, “धर्माचार्यों के आदेश पर हमने कारसेवकों को समर्थन दिया था. धर्माचार्यों के आदेश पर हमने वहां पर बाबरी के कलंक को मिटाने में सक्रिय सहभागिता दी.”
कश्यप ने शुक्ला से उस आंदोलन के दौरान देश भर में हुए दंगों में लगभग 2,000 लोगों की मौत के मामले में और पार्टी की गलती पर सवाल पूछना उचित नहीं समझा जबकि शुक्ला ने यह स्वीकार किया था कि कारसेवकों को भाजपा की सरपरस्ती मिली हुई थी. यही नहीं अयोध्या में कारसेवकों के जुटने का आह्वान भी भाजपा ने ही किया था.
10 दिसंबर को, कश्यप ने उसी तर्ज पर एक और बहस को होस्ट किया. विडंबना यह है कि कश्यप ने शो की शुरुआत में ही यह स्वीकार किया कि इस मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा बहस हो चुकी है. लिहाजा कार्यक्रम को नया कलेवर देने के लिए नया तरीका यह निकाला गया कि पैनल में साधू-सन्यासियों को जोड़ दिया जाय. उन्होंने कहा, “इतने स्वामी जुड़ने वाले हैं आजतक पर, सीधे उनसे बात करते हैं. कितनी बार स्टूडियो में बैठ-बैठ कर अयोध्या में राम मंदिर बन पायेगा या नहीं, सीधा वार्तालाप हो, यही जरूरी है.” लेकिन कश्यप अकेली नहीं हैं.
आजतक से आगे बढ़ते हैं, रिपब्लिक पर आते हैं
रिपब्लिक टीवी पर, 26 नवंबर को अर्नब गोस्वामी “अयोध्या में सिर्फ मस्जिद चेतावनी” पर बहस कर रहे थे. हैशटैग #AyodhyaMasjidWarning स्क्रीन के ऊपरी और निचली पट्टियों पर लगातार फ़्लैश हो रही थी. कश्यप से आगे जाते हुए गोस्वामी ने एक सीधा एप्रोच किया और सुप्रीम कोर्ट को सलाह दी कि वो अयोध्या को अपनी प्राथमिकता बनाए. “सुप्रीम कोर्ट ये ना कहे कि ये मैटर हमारी प्राथमिकता नहीं है, देश की प्राथमिकता अगर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता होगी तो वो बहुत अच्छी बात होगी.”
गोस्वामी ने कथित रूप से दंगा भड़काने के लिए सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय सचिव डॉ तसलीम रहमानी को आड़े हाथों लिया और अन्य चैनलों का मजाक उड़ाया. गोस्वामी ने कहा- “इस देश में तसलीम रहमानी को बचाने वाले कई चैनल हैं, ये तक, वो तक, अभी तक, वभी तक… मगर रिपब्लिक कोई तक चैनल नहीं है” इसके बावजूद रहमानी रिपब्लिक टीवी पर एक पैनलिस्ट के रूप में मौजूद थे.
24 दिसंबर को रिपब्लिक टीवी ने इसे एक पायदान ऊपर ले जाने का फैसला किया. सबसे पहले, गोस्वामी ने रहमानी- जो अपने राजनीतिक जीवन को राजनीति की शालीनता पर स्थापित करने के लिए वापस आये थे- को आड़े हाथों लिया. इस बीच, मंदिर के निर्माण में देरी के बारे में बोलते हुए, उनके अन्य पैनलिस्ट आचार्य डॉ विक्रमादित्य, विवेकानंद सेवा सदन के संयोजक, ने कहा, “देर की भी अंधेर ना हो जाये इस बात का भी हमें ध्यान रखना है. धैर्य एक सीमा तक होना चाहिए, और अगर वो धैर्य सीमा से बाहर होगा, धैर्य टूटने लगता है, तो सैलाब आता है, कुछ नहीं बचता है… सैलाब आ सकता है… 500 साल से धीर रखे हुए हैं, सैलाब आ सकता है.”
सैलाब के खतरे को गोस्वामी ने चलने दिया.
टाइम्स नाउ ने हैशटैग #SenaMandirProvocation के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया. यह बहस इस बात पर केंद्रित थी कि क्या भाजपा “सेना” का साथ देगी या “संविधान” का. केंद्र में बीजेपी शासन करने वाली पार्टी है तो क्या इस सवाल का डिफ़ॉल्ट जवाब संविधान नहीं होना चाहिए? इस बहस की फ्रेमिंग पर जो थोड़ा विचार किया गया वो इस बारे में काफी कुछ बयां करता है कि आगे क्या हुआ.
शिवसेना के संतोष दुबे ने कहा कि अगर मंदिर का निर्माण नहीं हुआ तो 6 दिसंबर की घटना फिर से होगी. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इसे बनाने के लिए हिंदू एक साथ आएंगे. एंकर ने दुबे को इस बात पर टोकने का कोई प्रयास नहीं किया कि इस तरह का उकसावा हिंसा को बढ़ावा दे सकता है, यह परवाह किये बिना कि इसका फैसला अदालत में लंबित था. टाइम्स नाउ की बहस में किसी कानूनी विशेषज्ञ की मौजूदगी को भी जरूरी नहीं समझा गया.
न्यूज़18 के अमीश देवगन को दरकिनार नहीं किया जा सकता, जिन्होंने “कौन राम मंदिर के साथ और कौन राम मंदिर के खिलाफ” पर बहस शुरू की- जो कि पिछली बहस पर संबित पात्रा के सुझाव से प्रेरित थी जिसमें उन्होंने सलाह दी थी कि देवगन को इस तरह की एक लिस्ट बनानी चाहिए. एपिसोड में, देवगन ने पैनलिस्टों से 100 करोड़ हिंदुओं के विश्वास पर विचार करने को कहा. हाथ जोड़ कर देवगन ने उन लोगों से अनुरोध किया कि वे लोगों को उकसाएं नहीं जो पैनलिस्टों ने पहले दिए थे.
ज़ी न्यूज़ पर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, सुधीर चौधरी ने “अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के अन्य तरीकों” पर चर्चा की. यह भी बताया कि आम चुनाव अप्रैल-मई 2019 में हैं. “वक़्त बहुत कम है… इतने कम समय में राम मंदिर बनाने के लिए विशेष प्रयासों की जरूरत है.”
कई अन्य एंकरों ने इस मुद्दे पर अंतहीन चर्चा की. इसमें रोहित सरदाना, सचिन अरोड़ा और कई ऐसे ही एंकर शामिल थे. ना भूलने वालों में से एक नाम अमन चोपड़ा का भी हैं. इसके अलावा ज़ी न्यूज़ और एबीपी न्यूज़ के अन्य बुलेटिन भी हैं.
राम मंदिर पर चर्चा के लिए टीवी वाले कितना वक्त बिताते हैं, उसको अगर जोड़ा जाय, तो यह आसानी से यह बॉलीवुड की एक दो फिल्मों के बराबर हो सकता है, हालांकि वह कितनी सफल होगी इस पर संदेह है. न्यूसैंस के इस एपिसोड में आप और भी नमूने देख सकते हैं जहां एंकर रामलला को लेकर चिंतातुर हुए जा रहे हैं.
(यह अयोध्या मुद्दे पर टेलीविज़न न्यूज़ कवरेज की दो हिस्सों वाली श्रृंखला का पहला भाग है. दूसरे भाग में हम यह बताएंगे कि 1992 में अखबारों और पत्रकारों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को कैसे कवर किया और आज वे इस कवरेज के बारे में क्या सोचते हैं.)
Also Read
-
TV Newsance 304: Anchors add spin to bland diplomacy and the Kanwar Yatra outrage
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
Reporters Without Orders Ep 375: Four deaths and no answers in Kashmir and reclaiming Buddha in Bihar
-
Lights, camera, liberation: Kalighat’s sex workers debut on global stage