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जानिए क्या हैं संविधान को चूना लगाने वाला 13 प्वाइंट का रोस्टर

केंद्रीय विश्वविद्यालय में अध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण को लेकर केंद्र सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बीते 22 जनवरी, 2019 को सरकार की याचिका को खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2017 के फैसले को बहाल कर दिया जिसमें कहा गया था कि आरक्षण के लिए यूनिवर्सिटी आधार न होकर, विभाग आधार होगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक बार फिर से 200 प्वाइंट रोस्टर बनाम 13 प्वाइंट रोस्टर को लेकर बहस तेज हो गई है.

रोस्टर सिस्टम क्या है?

यह रोस्टर क्या हैं. यह कैसे काम करते हैं और आरक्षण को किस तरह प्रभावित करता है, इस संबंध में जाकिर हुसैन कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर लक्ष्मण यादव ने बताया कि रोस्टर एक तरीका है, जिससे यह निर्धारित होता है कि किसी विभाग में निकलने वाला कौन सा पद आरक्षित वर्ग को दिया जाएगा और कौन सा सामान्य वर्ग को. प्रोफेसर यादव कहते हैं, “उच्च शिक्षा का चरित्र मूलतः जातिवादी है. इसे कई स्तरों पर समावेशी व सामाजिक न्याय परक होना था, जो कभी हुई ही नहीं. देश के वंचितों-शोषितों की बहुसंख्यक आबादी अव्वल तो उच्च शिक्षा तक कभी पहुंच ही नहीं पाई.”

सामाजिक प्रतिनिधित्व में 1931 की जाति-जनगणना के आंकड़ों की बुनियाद पर अनुसूचित जाति 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 7.5 प्रतिशत, और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 52 प्रतिशत आबादी का विभाजन किया गया. आज कम से कम 85 प्रतिशत आबादी इन तीनों वर्गों की है. अब इनके उच्च शिक्षा में हिस्सेदारी का आज 2018 का आंकड़ा कमोबेश कुछ इस प्रकार हैं- 


आरक्षण लागू होने के बाद पदों के क्रम-विभाजन को ही ‘रोस्टर’ कहा गया. अब पहली बार रोस्टर ऐसा बना, जिससे कुछ सीटें 85 प्रतिशत आबादी वाले आरक्षित वर्ग को मिलीं. इसके वितरण को ऐसे समझें. यदि कुल पदों की संख्या 100 है तो अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद रोस्टर का विभाजन इस प्रकार होगा.

संबंधित श्रेणी का रोस्टर में स्थान = कुल पदों की संख्या / संबंधित श्रेणी को देय आरक्षण

शिक्षक व साहित्यकार सुनील यादव बताते हैं कि केंद्र सरकार के निर्देश पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जब जेएनयू के वैज्ञानिक प्रोफेसर रावसाहब काले की अध्यक्षता में रिज़र्वेशन लागू करने के लिए एक नियत तरीका बनाने के लिए एक कमेटी बनाकर जिम्मेदारी दी. तब प्रोफेसर काले कमेटी ने रिज़र्वेशन लागू करने के लिए 200 प्वाइंट का रोस्टर बनाया.

उन्होंने इस रोस्टर को विभाग स्तर पर लागू ना करके विश्वविद्यालय स्तर पर लागू करने की सिफारिश की, क्योंकि नियोक्ता विश्वविद्यालय / कॉलेज होता है, ना कि उसका विभाग. इस 200 प्वाइंट रोस्टर के अनुसार यदि किसी विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए वैकेन्सी आती है, तो पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां, छठा आदि पद सभी वर्ग के लिए ओपेन होगा, जबकि चौथा, आठवा, बारहवां आदि ओबीसी के लिए, सातवां, पंद्रहवां आदि अनुसूचित जाति के लिए और चौदहवां, अट्ठाइसवां आदि पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होगा.

विभाग को इकाई मानने से क्या होगा नुकसान?

प्रोफेसर सुनील यादव बताते हैं कि विभाग के आधार पर 13 प्वाइंट रोस्टर लागू करने के बाद:

1. किसी नए कॉलेज या विभाग में यदि कुल 3 पद ही होंगे, तो तीनों पद के रोस्टर में गैर आरक्षित यानी सामान्य वर्ग के होंगे. इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हर विभाग में 3 या 3 से कम पदों को विज्ञापित किया जाएगा और आरक्षित पदों का क्रम कभी आ ही नहीं सकेगा. अब जिन विश्वविद्यालयों में नए विज्ञापन आ रहे हैं, वे सब इसी विभागवार रोस्टर से आ रहे हैं.

2. यदि किसी विभाग में कुल 15 पद स्वीकृत होंगे, तब जाकर अनुसूचित जनजाति को 1, अनुसूचित जाति को 2, ओबीसी को 3 और सामान्य वर्ग के लिए 9 पद होंगे. इस प्रकार 15 में 6 पद आरक्षित हुए. यानी 40 प्रतिशत आरक्षण. इस लिहाज़ से कभी संवैधानिक आरक्षण तो लागू ही नहीं हो सकेगा. यदि कॉलेज/विश्वविद्यालय को एक इकाई माना जाता तो आरक्षण कमोबेश 50 प्रतिशत तक पहुंच जाता.

3. इसे ऐसे भी समझें. यदि किसी पुराने एक विभाग में कुल 11 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 8 पदों पर आरक्षण लागू होने का पहले ही नियुक्तियां हो चुकी हैं. अब आरक्षण लागू किया गया, तो इन आठ में से चौथा और आठवां पद ओबीसी को और सातवां पद अनुसूचित जाति को जाएगा, जिसपर पहले से कोई सवर्ण पढ़ा रहे हैं. अब नियमतः ये तीनों पद ‘शार्टफ़ॉल’ में गिने जाएंगे और आगामी विज्ञप्ति में नव-सृजित नवें, दसवें ग्यारहवें तीनों पद इस ‘शार्टफ़ॉल’ को पूरा करेंगे. लेकिन देश के किसी विश्वविद्यालय में शार्टफ़ॉल को लागू ही नहीं किया, और नियम बना दिया गया कि चौथे, सातवें और आठवें पदों पर काम करने वाले सवर्ण जब सेवानिवृत्त होंगे, तब जाकर इनपर आरक्षित वर्ग के कोटे की नियुक्ति होगी. यानी ‘शार्टफ़ॉल’ लागू ही नहीं किया गया, जिससे आरक्षण कभी पूरा होगा ही नहीं और सीधे हज़ारों आरक्षित पदों पर सवर्णों का ही कब्ज़ा होगा.

4. किसी विश्वविद्यालय / कॉलेज में अगर 1997 के बाद से एससी-एसटी की और 2007 के बाद से ओबीसी की कोई नियुक्ति नहीं हुई है और पहली बार 2018 में अगर विज्ञापन आयेगा, तो इस बीच के पदों में जो ‘बैकलाग’ होगा, उन्हें पहले भरा जाएगा. लेकिन जब रोस्टर ही विभागवार बनेगा, तो न तो ‘शार्टफ़ॉल’ लागू होगा और न ‘बैकलॉग’. यानी आज की तिथि में ही आरक्षण मिलेगा, जो कभी 49.5% भी पूरा नहीं हो पाएगा.

बहरहाल, उच्च शिक्षा में गैर आरक्षित कैटेगरी को हमेशा सामान्य माना गया, यानी साक्षात्कार के ज़रिए होने वाली नियुक्तियों में गैर-सवर्ण की नियुक्ति अपवाद ही रही. आसान भाषा में समझें तो 15 प्रतिशत सवर्णों के लिए 50.5 प्रतिशत आरक्षण. 1931 की जाति-जनगणना और 1980 के मंडल कमीशन के सैम्पल सर्वे के अनुसार, ओबीसी की जनसंख्या 52 प्रतिशत है, लेकिन इन्हें आरक्षण 27 प्रतिशत ही मिला है. ऐसे में पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व तो कभी पूरा हो ही नहीं सकेगा. ऐसे ही अगर विकलांग, अल्पसंख्यक और महिलाओं की स्थिति देखें नतीजे और भी भयावह होंगे. यह है उच्च शिक्षा का मूल चरित्र, जिसकी एक-एक परत और उघाड़ते चलेंगे तो और भी बदबू मिलेगी, और भी सड़ांध दिखेगी.

(फॉरवर्ड प्रेस से साभार)