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‘कोई लीडरशिप नहीं बची है लिहाजा मिलिटेंट इस जगह को भरेंगे’

पांच अगस्त के बाद कश्मीर घाटी में संचार तंत्र के पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिए जाने के बाद सिर्फ अफ़वाहों का बोलबाला है. सबसे पहली अफ़वाह सुनाई देती है कि दक्षिणी कश्मीर का सबसे अस्थिर ज़िला शोपियां हाथ से निकल गया है. लेकिन फिर हम टीवी पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल को कश्मीरियों के साथ ‘बिरयानी’ खाते देखते हैं.

अफ़वाहों और कश्मीर की बात पर सोपोर के एक रिटायर्ड सरकारी अफ़सर पूर्व रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के चीफ़ अमरजीत सिंह दुलत की किताब कश्मीर द वाजपेयी ईयर्स के पहले पन्ने पर उद्धृत शेक्सपियर की पंक्तियों का ज़िक्र करते हैं- ‘दिस अबव ऑल: टू दाइन ओन सेल्फ़ बी ट्रू, एंड इट मस्ट फ़ॉलो, एज़ नाइट द डे, दाउ कान्स्ट नॉट देन बी फ़ॉल्स टू एनी मैन.’  वे कहते हैं कश्मीर में कोई अफ़वाह झूठी नहीं होती.

14 अगस्त को हम पुलवामा होते हुए शोपियां पहुंचते हैं. यहां काफी सुरक्षाकर्मी तैनात हैं. लेकिन फिर भी श्रीनगर शहर से कम. ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि शोपियां हाथ से निकल गया है. उस जगह पर जहां डोवल ने ‘बिरयानी’ खाया था, सिवा सुरक्षाबलों के कोई नहीं दिखता. आगे बाज़ार की तरफ कुछ लोग बंद दुकानों के आगे बैठे हैं. एक आदमी डलिया में केले लिए बेचने के लिए बैठा है. उससे बात करने पर पता चलता है कि वह भी डोवल के कार्य़क्रम में मौजूद था. वह कैमरे पर बात नहीं करना चाहता. लेकिन बताता है कि उसे स्थानीय थानाध्यक्ष ने यह कहकर साथ लिया था कि कलेक्टर साहब ईद के मौक़े पर उसे कुछ देना चाहते हैं. फल बेचने वाला हमें बताता है, “जब हम डीबी ऑफ़िस पहुंचे तो वहां और भी लोग इकट्ठा किए गए थे. हम सबको उन्होंने गाड़ियों में डाला और इधर ले आए. वहां खाना और कैमरा सब पहले से तैयार था. हमें नहीं पता था कि हम किसके साथ खाना खाने वाले हैं.”

बाकी लोग कहते हैं कि आप खुद देख लीजिए कश्मीर के साथ क्या हो रहा है. शोपियां के हालात के बारे में पूछने पर लोग कहते हैं, “आप हिंदुस्तानी न्यूज़ चैनल देखिए और ख़ुश रहिए. क्या करना है आपको यहां के हालात जानकर. सच तो आप बोलेंगे नहीं.”

थोड़ी और बातचीत होने पर वे खुलते हैं और  370 के बारे में बात करते हैं. वे नेशनल कॉन्फ़्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं की गिरफ़्तारियों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि यहां अब तक जो इंडिया का झंडा उठाने वाले थे उनका हाल सबने देख लिया. अब हिंदुस्तान पर भरोसा करने वाला यहां कोई नहीं रहा.

मिलिटेंट भर सकते हैं नेताओं की ख़ाली जगह 

शोपियां में ही हम एक स्थानीय वकील से मिलते हैं. वे सबसे पहले इस बात की तसल्ली साझा करते हैं कि कम से कम लोगों ने कोई तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दी. और दूसरे अब तक ऐसे विरोध प्रदर्शन नहीं हुए जिसमें लोगों की जानें गई हों. हालांकि वे तुरंत कहते हैं कि इसकी बड़ी वजह पांच अगस्त से पहले बड़े पैमाने पर हुई गिरफ़्तारियां हैं. वे बताते हैं कि शोपियां के लोग इस बदलाव को उस तरह नहीं देख रहे जिस तरह बाकी लोग देख रहे हैं. यहां लोगों को फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भारत सरकार क्या कर रही है. लेकिन हां, लोग एनसी और पीडीपी के नेताओं की गिरफ़्तारियों से ख़ुश हैं. “आप देखिए कि अब तक हुर्रियत या मेनस्ट्रीम पार्टियां कश्मीर के लोगों और भारत सरकार के बीच दो अलग-अलग सेफ़्टी वॉल्व्स की तरह काम करती थीं. अब इन दोनों के न रहने से कोई मिडिल ग्राउंड नहीं बचा. अब सिर्फ मिलिटेंट ही हैं जो आज़ादी की बात कर रहे हैं. आने वाले वक्त में बहुत मुमकिन है कि वो लोग ही लीडरशिप के इस वैक्यूम को भरें. उनके अलावा अब किस पर भरोसा कर सकता है कश्मीरी?’

वे हाल में शोपियां के पिंजूरा में हुई घटना के बारे में बताते हैं, “इस बार हुर्रियत की तरफ से हड़ताल की कॉल नहीं आई क्योंकि कोई ज़रिया नहीं है. लेकिन पिंजूरा में मिलिटेंटों ने बाहर आकर मुखबिरों को वॉर्निंग दी है. उन्होंने ये भी कहा कि दिन के वक्त दुकानें बंद रखें, सिर्फ शाम को उन्हीं चीज़ों की दुकानें खोलें जो बहुत ज़रूरी हैं.”

साथ में मौजूद लोगों में से एक व्यक्ति बताता है कि पुलवामा के लस्सीपोरा में भी ईद के दिन मिलिटेंट बाहर आए, उन्होंने फ़ायरिंग की और इसी तरह की बातें कहीं. वे कहते हैं कि फ़ोन और केबल टीवी बंद होने से क्या होगा, कोई बड़ी बात नहीं कि कल रेडियो पाकिस्तान से हमें हड़ताल की कॉल मिलने लगे.

प्रशासन करता है लोगों को हथियार उठाने पर मजबूर

बारामूला के सोपोर क़स्बे में हम एक व्यापारी से मिलते हैं जिन्हें पांच अगस्त की रात गिरफ़्तार किया गया था. सोपोर हाल में प्रतिबंधित कर दी गई इस्लामिक संस्था जमात-ए-इस्लामी का गढ़ है और उनके चाचा जमात के पुराने कार्यकर्ता हैं. पुलिस उनके चाचा के लिए आई थी.

वे बताते हैं, “चाचा घर पर नहीं थे तो पुलिस उनके बेटे को ले जाना चाहती थी. उनका बेटा बारहवीं क्लास में पढ़ता है, छोटा है. इसलिए मैंने कहा कि मैं आपके साथ चलूंगा.” वे बताते हैं कि अगले दिन उनके चाचा खुद पुलिस स्टेशन आ गए तो उन्हें छोड़ दिया गया. लेकिन जेल में उनकी मुलाक़ात ऐसे एक और लड़के से हुई जिसे उसके पिता की जगह गिरफ़्तार किया गया था. वे बताते हैं कि फ़ोन और इंटरनेट न होने की वजह से उस लड़के के पिता को तीन दिन बाद पता चला कि उनका बेटा जेल में है. तब तक उस लड़के पर बिना किसी अपराध के उसे पत्थरबाज़ घोषित कर उस पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट लगा दिया गया. “अब आप बताइए कि उस लड़के का तो पूरा करियर बर्बाद हो गया न. अब वो हथियार नहीं उठाएगा तो क्या करेगा?”

वे बुरहान और बाकी लड़कों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि लगभग हर उस लड़के का पुलिस के साथ कोई न कोई इतिहास रहा है जिसने भी यहां हथियार उठाए हैं. “अगर भारत वाक़ई कश्मीर में अमन चाहता तो यहां इस तरह की चीज़ें नहीं होतीं.”

वे याद दिलातें हैं कि नब्बे के दशक में मिलिटेंसी की शुरुआत उत्तरी कश्मीर से ही हुई थी. उन दिनों शुरुआत में ज़्यादातर आतंकवादी पाकिस्तानी होते थे. लेकिन जब पुलिस ने उन आतंकवादियों पर कार्रवाई करने के लिए गांवों और क़स्बों में क्रैकडाउन किए, लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया, तो स्थानीय लड़कों ने भी हथियार उठाना शुरु कर दिया. उसके बाद शुरु हुआ हिंसा का सिलसिला अब तक नहीं रुका है. वे कहते हैं, “यहां आप किसी भी घर में जाकर देखिए, सबके पास पुलिस के तशद्दुद की कहानियां होंगी.”

सोपोर के ही एक पुलिस अधिकारी बातचीत के दौरान कहते हैं कि हम पूरा ध्यान रख रहे हैं कि लोगों को किसी क़िस्म की दिक्कत न हो. लेकिन प्रशासन और आम लोगों के बयानात का अंतर घाटी की सड़कों पर साफ देखा जा सकता है. 15 अगस्त को सड़कों पर सुरक्षा बलों का नियंत्रण कम करने और कुछ जगहों पर लैंडलाइन फ़ोन सेवा दोबारा शुरू करने के बाद पूरी घाटी में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो चुका है. रिपोर्ट लिखे जाते वक्त एक स्थानीय पत्रकार फ़ोन पर बताते हैं कि लोग सुनियोजित ढंग से सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं.

वे यह भी बताते हैं कि भारतीय न्यूज़ चैनलों पर जिस तरह एंकर्स कश्मीर के सच पर पर्दा डाल कर पाकिस्तान से युद्ध की बात कर रहे हैं उससे लोगों में और नाराज़गी है. वे आशंका जताते हैं कि इस बार कश्मीरियों का अनिश्चितता भरा ग़ुस्सा उन्हें किस रास्ते ले जाएगा, कोई नहीं जानता.