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अयोध्या विवाद : यात्रा वृत्तांत और ब्रिटिश गजेटियरों ने किस तरह निर्णय को प्रभावित किया

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोध्या पर दिए गए फ़ैसले का एक मुख्य आधार अंग्रेज़ों के ट्रेवलॉग्स यानी यात्रा वृत्तांत और गजेटियरों की प्रामाणिकता पर लंबी बहस हुई. मुग़ल काल में कई अंग्रेज़ विद्वान और अफ़सर हिंदुस्तान के दौरे पर आये थे. कुछ का मकसद इसाई धर्म का प्रचार करना था, तो कुछ इंग्लैंड की रानी द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान के साथ व्यापार करने की इजाज़त का हुक्मनामा लेकर आये थे.

कोर्ट में हुए मुबाहिसों में 1921 में छपी विलियम फ़ोस्टर की किताब ‘अर्ली ट्रेवल्स इन इंडिया, 1583-1619 को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना गया. इसके साथ ही कई अन्य ट्रैवेलॉग्स का भी हवाला दिया गया. यहीं नहीं, अंग्रेज़ी शासनकाल, जिसकी शुरुआत 1858 से होती है, और उसके पहले के कई सारे गजेटियर्स को भी निर्णय का एक आधार बनाया गया है.

‘अर्ली ट्रेवल्स इन इंडिया’ में ज़िक्र किये गए 17 पर्यटकों में से सबसे पहले सत्रहवीं सदी में आने मुख्य ट्रैवलर्स थे; राल्फ फ़िच, जॉन मिलडेन हॉल, विलियम हॉव्किंस, विलियम फ़िंच, निकोलस विथनंटन, थॉमस कोरियट और एडवर्ड टेरी के हवालों का ज़िक्र है.

आपको यहां बताना ज़रूरी है कि ये भूमि विवाद (टाइटल सूट) का मामला था. क़ानूनी भाषा में इसे दीवानी मुक़दमा कहते हैं, सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के मामलों में दख़ल नहीं देता. संविधान ने इसके लिए हाईकोर्ट और निचली अदालतें मुक़र्रर की हुई हैं. इस मामले की संवेदनशीलता के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायलय ने संविधान द्वारा प्रदत आर्टिकल 142 में निहित ग़ैरमामूली शक्तियों का इस्तेमाल कर बीच बचाव किया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में साफ तौर पर कहा कि हालांकि ये आस्था का प्रश्न था पर निर्णय पर पंहुचते वक़्त महज़ आस्था से जुड़े प्रमाणों को आधार नहीं माना है.

जैसा हमने कहा, यात्रा वृत्तांत एक महत्वपूर्ण साक्ष्य थे. विलियम फिंच, 1608 और 1611 के दौरान अयोध्या गए थे. अपने वृतांत में उन्होंने राम द्वारा निर्मित किले का ज़िक्र किया है. उसके अलावा, कई और यात्री जैसे जोसफ़ टिफ़ेनथेलर, रोबर्ट मोंटोगोमेरी मार्टिन आदि के वृतांतों का भी हवाला दिया गया जो कमोबेश राम मंदिर और उससे जुड़े कई साक्ष्यों तथा उन्हें बाबर या औरंगज़ेब द्वारा नष्ट किये जाने की बात करते हैं.

दूसरी तरफ़, फरियादी की तरफ से गवाही में अंग्रेज़ काल के गजेटियरों का भी उल्लेख किया गया जिनमें राम मंदिर के होने की बात लिखी गई है. मिसाल के तौर पर, हैमिल्टन ने ‘ईस्ट इंडियन गजेटियर ऑफ़ हिंदुस्तान’ में अवशेषों का ज़िक्र है जो कि संभवत: राम, सीता और हनुमान के मंदिरों के हो सकते हैं. इस पर भी कोर्ट ने कहा कि कोई ये संदर्भ तौर पर मंदिर के होने के प्रमाण नहीं हो सकते. एडवर्ड थॉर्टन के ‘गजेटियर ऑफ़ दी टेरीटरीज़ अंडर ईस्ट इंडियन गवर्नमेंट’ (1858) में राम द्वारा निर्मित किले से जुड़े हुए कई सारे अवशेष का ज़िक्र है. बावजूद इनके, कोर्ट ने कहा कि ट्रेवलॉग्स और गजेटियर्स को मुक़म्मल सुबूत नहीं माना जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने कई सारे पुराने विवादों और एविडेंस एक्ट(1872) का हवाला देते हुए कहा कि इतिहास और गजेटियर की अपनी एक महत्ता है, पर इतिहास को लिखे जाने के कारणों, हिस्ट्रीयोग्राफ़ी, का भी अध्ययन ज़रूरी है. कोर्ट ने ये भी कहा कि उस दौर के इतिहास और गजेटियर में लिखी गई बातों की अब पड़ताल करना संभव नहीं है.  लिहाज़ा, दो पार्टियों के बीच टाइटल विवाद में तारीख़ी बातों को मज़बूत साक्ष्य नहीं माना जा सकता, इसलिए कोर्ट को विश्वसनीय प्रमाणिक तथ्यों का सहारा लेना होता है.

कोर्ट ने ये भी कहा कि इतिहास की व्याख्या करने में कई मुश्किलें हैं, बाबरनामा में कई जगह रिक्तता है, और फिर उसके अनुवाद की सत्यता पर भी सवाल हो सकते हैं. कोर्ट ने फ़ैसले में लिखा है कि इतिहास में अलिखित बातों से कोई नेगेटिव अनुमान नहीं लगाना चाहिए. वो (जजों की बेंच) न ही कोई क़ानून बना रहे हैं, और न ही कोई अनुमान लगा रहे हैं. वो बस महान लोगों के इर्द गिर्द बुनी गई कहानियों, रिवाज़ों और तथ्यों को देख रहे हैं.

कोर्ट ने कहा, ‘हालांकि गजेटियर सार्वजानिक इतिहास की झलक दिखाते हैं, पर इतिहास की व्याख्या पर कई विवादित मत हो सकते हैं. हालांकि कोर्ट को ऐतिहासिक तथ्यों पर यकीन करने से कोई रोक नहीं सकता, परंतु, न्यायिक निर्णय पर पंहुचने के लिए कोर्ट को उन तथ्यों के साथ  मौजूद प्रमाणों (एविडेंस ऑन रिकार्ड्स) को भी देखना होगा. और सबसे ऊपर, कोर्ट को सत्य की तह (कर्नेल ऑफ़ ट्रुथ) तक पंहुचने के लिए विवादित तथ्यों में से कही सुनी बातों को हटाकर देखना होगा.’

कोर्ट ने फ़ैसले में लिखा ‘ट्रैवेलॉग्स और गजेटियरों में लिखी गई बातें को पुख़्ता सुबूत नहीं कहा जा सकता. किसी भी निर्णय को लेने से पहले उनके तथ्यों की गहन जांच और उनके संदर्भ को भी समझना होगा. लिहाज़ा, कोर्ट इनको लेकर तटस्थ है. यानि न मनाता है और न ही नकारता है.’

पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती. एक जज, जिन्होंने गुमनाम रहते हुए अडेंडम अलग से लिखवाया, का मानना कुछ और था. उन्होंने एविडेंस एक्ट(1872) के सेक्शन 35 का हवाला देते हुए कहा कि बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गजेटियर जो 1879 में छपा था उसे एक साक्ष्य के तौर पर माना गया था. उपरोक्त को देखते हुए, गजेटियर को बतौर साक्ष्य मान सकता है. हालंकि, उसे निर्णायक नहीं माना जा सकता और उसमें निहित तथ्यों की जांच होनी चाहिए.

सुन्नी वक्फ़ बोर्ड की तरफ़ से पैरवी करते हुए वकील राजीव धवन ने कोर्ट में कहा था कि जिन गजेटियरों का हवाला दिया जा रहा है, वो ब्रिटिश इंडिया शासन काल में न होकर के ईस्ट इंडिया कंपनी के काल के हैं. ब्रिटिश शासन की शुरुआत तो 1858 के बाद ही हुई थी. इसलिए, उनको प्रमाण स्वरुप नहीं लिया जा सकता. इस पर उस अनाम जज ने अंडेंडम में लिखा कि 1805 के बाद ईस्ट इंडिया के कंपनी के कब्ज़े में अवध का ज़्यादातर इलाक़ा आ गया था और उसका वजूद महज़ ट्रेडिंग कंपनी तक ही महदूद नहीं रहा था. 1801 में ब्रिटिश संसद ने कंपनी को अवध के नवाब के साथ क़रार करने दिया. यानि उसके पास लगभग सरकार जैसी ही शक्तियां और हैसियत थी. लिहाज़ा, उस दौर के गजेटियरों को बतौर एविडेंस माना जा सकता है.

अनाम जज ने आइना-ए-अकबरी में निहित रामजन्म और अयोध्या के वजूद को भी स्वीकारा. उन्होंने स्कन्द पुराण, मिर्ज़ा जान का ‘हदीत-ए-सेहबा’ में हुए राम के ज़िक्र को भी मानते हुए फ़ैसला लिखा. पर जिस विलियम फ़ोस्टर की ‘अर्ली ट्रेवल्स इन इंडिया’ का बहुतेरा ज़िक्र इस फ़ैसले में आता है, उसी के प्राक्कथन में फ़ोस्टर 9वें पन्ने पर लिखते हैं, ‘…इस किताब में जो कथानक (लेखकों द्वारा) दिये गए हैं, वो व्यक्तिगत रूप से पार्शियल (आंशिक या फिर प्रभावित) और अधूरे हैं…’ वो लोग किस कदर पूर्वाग्रह से ग्रसित थे ये विलियम फ़िच के वृतांत से ज़ाहिर होता है. पेज 9 पर वो लिखते हैं, ‘ये हिंदू यहूदियों से भी ज़्यादा चालाक हैं और कईयों की 7 बीवियां हैं.’

जहां तक ब्रिटिश गजेटियर्स की प्रमाणिकता का सवाल है, तो उनकी निरपेक्षता को पूर्णतया भी संशय के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता. ब्रिटिशर्स का अपना ‘सेंस ऑफ़ जस्टिस’ था और वो पूरी तरह भारतीय परिपेक्ष्य में सटीक लागू हो, ये बहस का मुद्दा है. ऐसी कई किताबें जो उस काल में अंग्रेज़ों द्वारा लिखी गईं, वो विवादस्पद थीं और उनके ज़रिये अंग्रेज़ों के निहित स्वार्थों की पूर्ति भी अनदेखी नहीं रही है. जिस दौरान वो ग़ैर इस्लामिक ईमारत गिराई गई और उसकी जगह नयी तामीर की गई उनमें से कोई भी घटनास्थल पर मौजूद नहीं था. तो जो उन्होंने लिखा है, वो कही सुनी ही तो है.

इतिहास के देखने के कई तरीक़े हो सकते हैं क्या? जो लिखा और पढ़ा गया वही केवल इतिहास है? या जो बोला गया, सुना गया और फिर लिखा गया वो भी एक इतिहास है? क्या किवदंतियां इतिहास हैं? संभव है कि हम कहें कि पहली वाली बात ही इतिहास की परिभाषा की कसौटी पर फ़िट बैठती है.

ऐसा है, तो कई राजाओं ने सुल्तानों ने तलवारों और संगीनों के साए में जो कुछ भी लिखवाया क्या वो मान्य हो सकता है? क्या दरबारियों द्वारा लिखे गए को भी इतिहास कहा जा सकता है? और क्या वो एविडेंस माना जा सकता है. क्या भविष्य में रानी पद्मावती की जौहर की कथा सत्य मान ली जाएगी? क्या हिरामन तोता द्वारा रानी का वर्णन सच माना जाएगा? क्या आल्हा उदल द्वारा आसमान में हाथी उछाले जाने का सत्यापन होगा. जिस राधा का ज़िक्र महाभारत में कहीं नहीं है, वो तेरहवीं सदी में जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ में पहली बार नमूदार होती हैं. क्या मंदिरों और आरतियों के फलस्वरूप उन्हें कृष्ण की प्रेयसी माना जा सकता है?

ऐसी कई सारी बातों का ज़हन में उठना लाज़मी है. बहुत सारे पेंच हैं इन सब बातों में. इतिहास लिखवाने के भी मसकद होते हैं. हम ये कतई नहीं कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इतिहास की ग़लत व्याख्या की है और ना ही हम निर्णय पर कोई ऊंगली उठा रहे हैं. हम बस समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आख़िर एतेहासिक तथ्यों की सत्यता जांचने की सीमा क्या होगी?