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इस दशक का अंत, किसानों पर क्या बीती है?
2010 में जब भारत इस सदी के दूसरे दशक में प्रवेश कर रहा था, तब उसके सामने 2008 में शुरू हुई वैश्विक आर्थिक मंदी की बड़ी चुनौती थी. लेकिन उपभोग वाली वस्तुओं की मांग लगातार बने रहने के कारण इस मंदी का असर भारत पर नहीं पड़ा. खासकर ग्रामीणों ने इस दौरान अपने खर्च में कमी नहीं की और वे लगातार अपनी जरूरत की चीजें खरीदते रहे, जबकि वे लगभग पूरी तरह से कृषि पर निर्भर थे. इससे पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था के लिए ग्रामीण भारत कितना महत्व रखता है.
बीत रहे दशक के मध्य में देश में गंभीर कृषि संकट शुरू हुआ. इससे लगभग 44 करोड़ लोग दबाव में आ गए और इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा. अब यह दशक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी की वजह से याद किया जाएगा, जबकि देश में औपचारिक अर्थव्यवस्था काफी फली-फूली है. भारत एक बड़े संकट के दौर में प्रवेश कर रहा है. डाउन टू अर्थ, अंग्रेजी के 16-30 जून, 2015 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था, ‘क्यों विफल हो रहे हैं किसान?’
“भगवान से प्रार्थना कीजिए कि मौसम का जो पूर्वानुमान लगाया गया है, वह सच न हो,” 2 जून, 2015 को केंद्रीय विज्ञान एवं तकनीक व पृथ्वी विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने यह बात कही थी, जब यह अनुमान लगाया गया था कि मॉनसून में कमी आएगी और अल नीनो बड़ी मजबूती से सक्रिय होगा.
उस साल (2015) मॉनसून के निष्क्रिय रहने का मतलब था कि देश के कई हिस्सों में छठीं बार फसल को नुकसान. पिछले तीन सालों से लगातार ग्रीष्म मॉनसून कमजोर रहा था, सर्दियों में बेमौसमी बरसात और ओलावृष्टि भी हुई, जिस कारण कृषि विकास दर लगभग शून्य के आसपास रही.
यही पैटर्न जारी रहा तो देश को वर्तमान इतिहास के सबसे भयंकर सूखे का सामना करना पड़ सकता है. देश में अनाज की कमी और खाद्य वस्तुओं के महंगे होने का डर बढ़ रहा है, लेकिन इसका सबसे अधिक असर किसानों पर पड़ेगा. कृषि उत्पादकता में कमी की वजह से उनके पास नगदी का संकट बढ़ गया है. कृषि अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से अब ऋण से बनी है. ऐसी स्थिति में कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान हो सकता है. इससे देश की 60 प्रतिशत आबादी प्रभावित होगी, जो खेती पर निर्भर है और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर प्रभावित करती है.
बहुत अधिक या बहुत कम बारिश के कारण लगातार फसल को नुकसान पहुंच रहा है, जिसने कृषि विकास दर को 0.2 प्रतिशत तक पहुंचा दिया है, जो 2013-14 में 3.7 प्रतिशत तक होती थी. खाद्यान्न की कीमतें कम होने लगी हैं. आर्थिक सर्वेक्षण 2014 ने इस तथ्य का जिक्र किया था कि 2014 में ग्रामीण मजदूरी वृद्धि घटकर 3.6 प्रतिशत हो गई थी, जो 2011 में 20 प्रतिशत थी. लेकिन आर्थिक सर्वे इस तथ्य से अनभिज्ञ था कि इस गिरावट ने 40 करोड़ ग्रामीणों की आय में एक बड़ी गिरावट का संकेत दिया है.
फरवरी (2015) में जारी एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय) के 70वें राउंड से पता चला कि 2003-13 के दौरान कृषि ऋण में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इस अवधि में कृषि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में केवल 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यह चिंताजनक है क्योंकि यह इंगित करता है कि उत्पादन और खपत जैसे अन्य विकास कारक स्थिर हैं या घट रहे हैं और कृषि जीडीपी ऋण वृद्धि के कारण बढ़ रही है.
सभी स्रोतों जैसे कि सार्वजनिक क्षेत्र और सहकारी बैंकों द्वारा दिए कृषि ऋण का आकलन करने के बाद एमके ने कहा कि कृषि जीडीपी में कृषि ऋण की हिस्सेदारी लगभग 60 फीसदी है. यह एक ऋण का बुलबुला है, जो कभी भी फट सकता है.
इस दशक में और…
2010 में आंध्र प्रदेश में 54 लोगों ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली थी क्योंकि वे ऋण देने वाली माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के कारण सामाजिक दबाव महसूस कर रहे थे. ये माइक्रोफाइनेंस कंपनियां नियमों को नहीं मानती और सबसे अधिक परेशान करने वाली बात है इन माइक्रोफाइनेंस कंपनियों द्वारा वसूली जाने वाली उच्च ब्याज दर.
2004 से 2014 के बीच एक किसान परिवार की औसत कमाई 214 रुपए और व्यय 207 रुपए प्रति माह था. यानी कि एक किसान परिवार की एक दिन की कमाई 7 रुपए 13 पैसे थी, जबकि वह इसमें 6 रुपए 90 पैसा खर्च कर रहा था.
(डाउन टू अर्थ की फीचर सेवा से साभार)
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