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क्या मीडिया को मृत दादा के साथ मौजूद बच्चे की तस्वीर दिखानी चाहिए थी?

सोपोर कश्मीर में एक बच्चा जो अपने मरे हुए दादा के शरीर पर बैठा है, उसके फोटो पर सवाल उठाए जा रहे हैं. यह फोटो एक जुलाई को उस कस्बे में हुई सुरक्षाबलों और आतंकवादियों की मुठभेड़ के बाद सोशल मीडिया पर आई. सुरक्षा बलों के अनुसार उस आदमी की हत्या आतंकवादियों के हाथों हुई जबकि परिवार वाले कहते हैं कि ऐसा नहीं है क्योंकि कार के ऊपर गोलियों के निशान नहीं है और फोटो दिखाती है कि वह कार के बगल में जमीन पर पड़ा हुआ है.

मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने पूछा है कि बच्चे का नाम क्यों जारी किया गया और क्यों उसका चेहरा धुंधला नहीं किया गया, जोकि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के अंतर्गत करना जरूरी है.

सवाल एक और है, फोटो ली किसने? घटनास्थल पर कोई भी पत्रकार मौजूद नहीं था. फोटो किसी पेशेवर फोटोग्राफर के द्वारा नहीं लिया गया.

अगर यह फोटो सुरक्षा दल के किसी सदस्य ने अपने फोन से ली थी, तब भी क्यों इसे सोशल मीडिया पर सारी जानकारी जैसे के बच्चे के नाम के साथ जारी किया गया और किसने ऐसा किया? हम यह जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की आईटी सेल ने इस फोटो का भरपूर उपयोग टि्वटर पर किया. कश्मीर के संदर्भ में इसे देखें, तो बहुत से लोग यह मानते हैं कि यह उस सूचना की लड़ाई का भाग है जो गोलियों और मौतों के बीच जारी है.

हम मीडिया के लोगों के लिए इन सीमाओं का स्पष्ट निर्धारण होना बहुत जरूरी है. अगर कोई फोटोग्राफ हमारे पास किसी पेशेवर पत्रकार के बजाय किसी ऐसे व्यक्ति से आए जो प्रचार प्रसार के लिए उसका उपयोग करना चाहता है, तो किसी भी हालत में उसका उपयोग नहीं होना चाहिए. घटना के अगले दिन बहुत से अंग्रेजी अखबारों ने इस फोटो का उपयोग नहीं किया हांलाकि उन्होंने हुई मुठभेड़ और मौत की ख़बर जरूर दी है.

मेरी याद में ऐसे बहुत से पिछले मामले हैं जिसमें मुख्यधारा के मीडिया ने इस तरह के छायाचित्रों का बिना कोई प्रश्न पूछे उपयोग किया है. याद कीजिए 2004 की वह फोटो जिसमें इशरत जहां और उसके तीन साथियों का शरीर अहमदाबाद के पास सड़क पर पड़ा है. पुलिस के अनुसार वे लोग आतंकवादी थे और उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने जा रहे थे.

यह एक ऐसा विषय है जिस पर हम सभी मीडियाकर्मियों को बात करनी चाहिए पर सोपोर से आने वाली इस फोटो ने मीडिया से जुड़े कई प्रश्नों को सामने ला दिया है. पहला, किसी भी फोटो का इस्तेमाल करने से पहले यह देखना कि वह कहां से आई है और उसे किसने भेजी है. दूसरा, जीवित और मृतकों का सम्मान करते हुए जब तक हमारे पास व्यक्ति की इज़ाजत ना हो तो किसी भी आम नागरिक का चेहरा धुंधला होना चाहिए, खास तौर पर एक नाबालिग का. तीसरा, कश्मीर जैसी जगह जहां पर लगातार मुठभेड़ होती रहती हैं जीवन वैसे ही बहुत उथल-पुथल भरा है, ऐसे में किसी भी फोटो को चुनते वक्त और ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है.

कश्मीर से आए इस फोटो से उभरे विवाद ने और भी कई प्रमाणिक बिंदु उठाए हैं जिनका उल्लेख मैंने लेख में आगे किया है.

इस समय की परिस्थितियों में जब एक दो बड़े विषय ही हर समय समाचार चक्र का केंद्र बिंदु बने हुए हैं, नुकसान यह होता है कि उतने ही महत्वपूर्ण कुछ अन्य विषय या तो नजरअंदाज कर दिए जाते हैं या केवल उनके ऊपर सरसरी तरीके से बात करके उन्हें छोड़ दिया जाता है.

मीडिया इन विषयों पर से अपनी दृष्टि हटा लेता है क्योंकि रोज की धमाकेदार खबर एक लंबा समय लगाकर की जाने वाली किसी रिपोर्ट से कहीं ज्यादा रोमांचक होती है.

पर्यावरण से जुड़े विषयों में तत्कालिक और दूरगामी परिणाम, दोनों होते हैं. कोई खबर जैसे कोई दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा कवर की जाती है खासतौर पर जब लोगों की जान गई हो. पर असली खबर उस दुर्घटना से पहले और बाद की घटनाओं में होती है, जिस को अधिकतर ढूंढ़ कर छापा नहीं जाता.

एक समय था जब ऐसी घटनाओं के पहले की खोजबीन और भविष्य में उसका फॉलोअप करने के लिए समय और जगह दी जाती थी. 80 के दशक के मध्य से सभी बड़े अखबारों में पर्यावरण रिपोर्टर थे जिनका काम केवल यही करना था. किसी त्रासदी के बाद क्या होता है और उसके पहले क्या हुआ था, लापरवाहियों और देरी की कहानियां, लोगों के जीवन से खेलना विस्थापित और चोटिल हुए लोगों की हालत, क्या उन तक समय रहते स्वास्थ्य सहायता पहुंची? यह सब भी त्रासदी के साथ जुड़ी हुई कहानियां होती हैं. यह सारी जानकारी कुछ ही दिनों में एकत्रित नहीं की जा सकती है. उसके लिए महीनों तक सूचना का पीछा करना पड़ता है जिसका संपादकों के द्वारा प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है

वह पर्यावरण त्रासदी जिसने इस तरह की खबरों में में रुचि और निवेश पैदा किया था वह शायद भोपाल गैस त्रासदी थी. 3 दिसंबर,1984 की रात को करीब 6 टन घातक मिथाइल आइसोसाइनेट, यूनियन कार्बाइड के प्लांट में एक टैंक से लीक हुआ जिससे हजारों लोग मारे गए या अपंग हो गए. इसे अभी भी विश्व के सबसे भयानक औद्योगिक हादसों में गिना जाता है.

यह कहानी एक दिन में नहीं खत्म हुई बल्कि सालों तक चलती रही. एक परिणाम और हुआ कि कई तरह के पर्यावरण कानून आने लगे जिन सबका समुच्चय पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के रूप में हुआ.

भोपाल गैस त्रासदी ने पर्यावरण पत्रकारिता में भी काफी लोगों की रुचि बढ़ाई जिससे बहुत से ऐसे पत्रकारों का उदय हुआ जो केवल इसी तरह की कहानियों का पीछा करते थे. मुझे अच्छे से याद है कि 80 के दशक के अंत में कई युवा पत्रकार इतने उत्साहित होते थे कि वह अपने पैसे खर्च करके घनी आबादी के आस-पास लगाए गए खतरनाक उद्योगों की निगरानी जैसी खबरों की खोजबीन करने को तैयार रहते थे, चाहे उनका अखबार इस बात पर उनका साथ न दे.

आज 2020 में विशुद्ध पर्यावरण वेबसाइटओं जैसे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और मोंगाबे इंडिया के अलावा आपको ऐसी पर्यावरण हादसों की कहानियां पढ़ने के लिए बहुत झक मारनी पड़ेगी.

7 मई को विशाखापट्टनम के बाहर एलजी पॉलीमर प्लांट में हुए स्टाईरीन गैस लीक को ही देखें. 12 लोगों की जान गई और सैकड़ों बीमार पड़ गए. बगल के आरआर वेंकटपुरम गांव से दो हजार से ज्यादा लोगों को सुरक्षा के लिए गांव से निकलना पड़ा.

घटना के तुरंत बाद प्लांट शहर के नज़दीक होने के कारण देश भर के मीडिया ने इसे कवर किया. इस तरह की कहानियों में भूत और भविष्य भी उतना ही जरूरी होता है, क्योंकि वह बताता है कि कैसे हमारे देश में पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन किया जा रहा है.

जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दुर्घटना का स्वत: संज्ञान लिया तो यह पता चला कि साउथ कोरियन एलजी केमिकल्स का यह प्लांट, 1997 से 2019 यानी पूरे 23 साल तक बिना किसी अनिवार्य पर्यावरण स्वीकृति के ही चल रहा था.

यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि पहला प्लांट जिसको 1961 में स्थापित किया गया था उसके आसपास कोई जनसंख्या नहीं थी. विशाखापट्टनम भी बाकी शहरों की तरह फैल गया है और यहां खतरनाक रसायनों का प्रयोग करने वाले प्लांट के आसपास करीब 40,000 लोग रह रहे हैं. जो‌ कि हिंदू में प्रकाशित हुई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण नियमों के खिलाफ है.

भोपाल हादसे से मिलती जुलती परिस्थितियां चौंकाने वाली हैं. यूनियन कार्बाइड का प्लांट भी ऐसे क्षेत्र में लगाया गया था जहां आस पास बहुत कम घर थे. हादसे के समय तक आते-आते यहां आबादी इतनी बढ़ गई थी कि लोगों के घर प्लांट के गेट के पास तक आ गए थे. जो लोग भी वहां रहते थे वे बच नहीं पाए और इस घातक गैस की चपेट में आकर या तो मारे गए या लंबे समय तक दर्दनाक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेलते रहे. आज भी दुर्घटना के 36 साल बाद ऐसी खबरें हैं कि जो लोग बच गए थे उन पर कोविड-19 का असर ज्यादा हुआ है क्योंकि जहरीली रासायनिक गैस में सांस लेने के कारण उनके फेफड़े हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त हो गए हैं.

बड़े औद्योगिक हादसों की रिपोर्टिंग होती है खासतौर पर जब किसी की जान गई हो. पर अगर आप मीडिया में आने वाली खबरों को ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि नियमित रूप से किसी गैस लीक, बॉयलर फटने की या अदृश्य रसायनों को साफ पानी में फेंक देने की खबरें आती रहती हैं.

जैसा कि 1 जुलाई को कुड्डालोर जिला तमिलनाडु के नेवेली लिग्नाइट कारपोरेशन के थर्मल प्लांट में बॉयलर फटने पर हुआ. ख़बर लिखे जाने तक इससे 6 कर्मियों की जान जा चुकी थी और 17 घायल थे.

जबकि 7 मई को जब मीडिया की निगाह विशाखापट्टनम स्थित एलजी पॉलीमर प्लांट पर थी तब इसी एनएलसी थर्मल प्लांट में एक और बॉयलर फट गया था जिससे 8 कर्मचारी घायल हो गए थे. क्या यह केवल एक संयोग है या इसके पीछे कोई गहरी कहानी छिपी है जिसकी पड़ताल की जानी चाहिए? इस बार तो शायद पड़ताल हो भी जाए क्योंकि बिजली की सप्लाई शहरों में हड़कंप मच आती है जहां मीडिया स्थित है. अगर यह प्लांट किसी सुदूर जगह पर होता और इतना बड़ा ना होता तो शायद इस खबर को भी थोड़े समय बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता.

इस तरह का एक और उदाहरण है 9 जून को बाघजान असम में ऑयल इंडिया लिमिटेड के गैस की कुएं में लगी आग. इसके पीछे की सारी जानकारी जिसे यहां पर लिखित किया गया है हमें फिर से बताती है कि कैसे पर्यावरण नियमों का माखौल उड़ाया जा रहा है. उसके बाद की कहानियां यह होंगी कि अब वह लोग जो विस्थापित हो गए हैं उनका क्या होगा और यह सब एक नेशनल पार्क के 10 किलोमीटर के दायरे में होने के कारण, जैव विविधता को जो भयंकर नुकसान पहुंचा है क्या उस नुकसान की भरपाई के लिए कुछ कदम उठाए जाएंगे.

इस तरह की पत्रकारिता से भारत के मीडिया में जो परिस्थितियां उभर रही हैं उन को देखते हुए और भी विकट चुनौती होगा. इस आर्टिकल के लिखे जाते समय बड़े-बड़े मीडिया संस्थान बड़ी संख्या में पत्रकारों को नौकरी से निकाल रहे हैं. समाचार पत्र सिकुड़ कर बहुत छोटे हो चुके हैं जिनके प्रकाशित समाचारपत्र अपने 3 महीने पुराने प्रारूप से जरा भी मेल नहीं खाते. अधिकतर संस्थान अब केवल न्यूनतम स्टाफ से काम चला रहे हैं जिनमें से सभी एक से ज्यादा कहानियों पर काम कर रहे हैं. पत्रकार की किसी एक विषय पर विशेषज्ञता तो दूर की बात है अब तो इस तरह की कहानियों की खोजी पड़ताल के लिए भी जगह नहीं है.

एक समय पर कहा जाता था कि "अखबार इतिहास का पहला ड्राफ्ट होता है". बदकिस्मती से भारत के इस समय के पर्यावरण का इतिहास जब लिखा जाएगा उसमें बहुत सी खाली जगह होंगी जिन्हें दोबारा कभी नहीं भरा जा सकता.

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