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‘एक साल में कश्मीरी पत्रकारों में साइकोलॉजिकल टेरर पैदा किया गया है’
बीते साल 5 अगस्त को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अर्टिकल 370 निरस्त कर दिया. जिसके बाद राज्य को दो हिस्सों में बांटकर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया.
अर्टिकल 370 के हटने के एक साल बाद जहां शेष भारत में इसको लेकर और राम मंदिर के शिलान्यास को लेकर जश्न का माहौल हैं. वहीं कश्मीर में कर्फ्यू लगा हुआ है.
घाटी में 370 हटाने के बाद संचार माध्यमों पर लम्बे समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया जिसका असर वहां के आम लोगों पर पड़ा है इसके अलावा पत्रकारिता पर भी पड़ा है. संचार माध्यमों, खासकर इंटरनेट और फोन पर लगे प्रतिबंध के कारण अख़बारों और डिजिटल मीडिया का काम काफी प्रभावित हुआ है.
पत्रकारिता पर इस बंद का असर यह हुआ कि कई पत्रकारों को दूसरे रोज़गार के अवसर तलाशने पड़े. बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के अनुसार अनंतनाग में रहकर फोटो जर्नलिस्म करने वाले मुनीब को अपना परिवार चलाने और बीमार पत्नी के इलाज के लिए कैमरा छोड़ दिहाड़ी मजदूरी करने पर मजबूर होना पड़ा. जहां उन्हें रोजाना 500 रुपए मिलते थे. ऐसी कहानी सिर्फ मुनीब की नहीं है.
घाटी में सरकार द्वारा संचार माध्यमों पर लगे प्रतिबंधों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने वाली कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन कहती हैं, ‘‘इस बंद का जिले में या ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर पत्रकारिता कर रहे लोगों पर ज्यादा असर हुआ. एक रिपोर्ट भी आई थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर पत्रकारिता कर रहे लोगों को रोज़गार के नए अवसर तलाशने पड़े. कोई दिहाड़ी मजदूर का काम किया तो कोई सेल्स मैन का काम करने लगा. इस दौरान कई अख़बार और वेबसाइट बंद भी हुए है.’’
‘साइकोलॉजिकल टेरर में कश्मीरी पत्रकार’
कश्मीर टाइम्स, जम्मू और कश्मीर के प्रमुख अख़बारों में से एक है. आर्टिकल 370 हटने के बाद लगे प्रतिबंध के कारण इसका कश्मीर एडिशन दो महीने तक बंद रहा. जो 11 अक्टूबर से छपना शुरू हुआ. ऐसा ही ज्यादातर अख़बारों और वेबसाइट के साथ हुआ.
पत्रकारों के सिर्फ काम पर असर ही नहीं पड़ा इस दौरान कई पत्रकारों पर प्रशासन द्वारा कार्रवाई की गई. स्वतंत्र फोटो-जर्नलिस्ट मसरत जाहरा पर यूएपीए लगाया गया, वहीं द हिन्दू के पत्रकार पीरजादा आशिक की एक रिपोर्ट पर एफआईआर दर्ज किया गया है. प्रशासन की इस कार्रवाई पर एडिटर्स गिल्ड ने कठोर नाराज़गी दर्ज की थी.
बीते एक साल में कश्मीर में पत्रकारिता में क्या बदलाव आया इस सवाल के जवाब में अनुराधा भसीन कहती हैं, ‘‘यहां पत्रकारिता की स्थिति बद से बदतर हो गई है. लम्बे समय तक संचार माध्यमों पर लगे प्रतिबंध के कारण काम काफी प्रभावित हुआ. लोग काम नहीं कर पा रहे थे. बाद में सिर्फ श्रीनगर में एक मीडिया सेंटर बनाया गया जहां कुछ कम्प्यूटर रखा गया. जो कभी चलता था, कभी बंद रहता था. वहां घंटों 200 से 300 पत्रकारों को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था. वे आपस में लड़ते थे. यहां सब कुछ सर्विलांस पर था. जिससे एक डर का माहौल बन गया था. अभी भी संचार माध्यम पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ है.’’
भसीन आगे कहती हैं, ‘‘प्रशासन हर पत्रकार पर बारीक़ नजर रख रहा है. जिससे पत्रकारों में डर भर गया. जो स्थानीय अख़बार थे उसमें संपादकीय आने बंद हो गए. जब लेख आने लगे तो उसमें सियासत पर कुछ नहीं लिखा जा रहा था. इधर-उधर की बातें की जा रही थी. अगर किसी की स्टोरी आती थी जो प्रशासन को लगता था हमारे खिलाफ है. तत्काल उस खबर को लिखने वाले पत्रकार को बुला लेते थे. कई घंटो तक बैठाकर डराते-धमकाते थे. स्टोरी और उसके सोर्स के बारे में जानकारी लेना चाहते थे. पूरे एक साल में पत्रकारों में साइकोलॉजिकल टेरर बनाया गया.’’
बीते 2 जून को जम्मू-कश्मीर में नई मीडिया नीति लागू हुई जिसके तहत सरकार खबरों की निगरानी करेगी. जिसमें अधिकारी तय करेंगे कि कौन-सी ख़बर फेक न्यूज़ या देश विरोधी है. सरकार की परिभाषा के अनुसार जो मीडिया संस्थान ऐसी ख़बरें करेगा उन्हें सरकारी विज्ञापन से वंचित कर दिया जाएगा और उन पर कार्रवाई भी होगी.
इसको लेकर भसीन कहती हैं, ‘‘अप्रैल महीने में तीन पत्रकारों पर मामले दर्ज हुए थे. हर पत्रकार पर प्रशासन की नजर है. और अब यह सरकार की नई मीडिया पॉलिसी जिसमें सरकारी अधिकारी जज बनकर खबरों को फेंक या देश विरोधी बतायेंगे. केस दर्ज करेंगे. यहां पहले भी पत्रकारिता करना आसान नहीं था, लेकिन अभी चुनौती बहुत बढ़ गई है. आहिस्ता-आहिस्ता सेंसरशिप का माहौल बढ़ता जा रहा है. यहां ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि पत्रकारिता बिलकुल खत्म हो जाए और जो बचे वो सरकार का पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेंट बनकर रह जाए.’’
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर क्या हुआ?
अनुराधा भसीन ने केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में संचार माध्यमों पर प्रतिबंध के कारण मीडिया के कामकाज में आ रही बाधा को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
याचिका दायर करने के बाद न्यूज़लॉन्ड्री को दिए अपने इंटरव्यू में भसीन ने सुप्रीम कोर्ट जाने के अपने फैसले को लेकर कहा था कि इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी की क्योंकि घाटी में जिस तरह का ‘इन्फॉर्मेशन ब्लॉकेड’ इस बार हुआ है वैसा पहले हमने कभी नहीं देखा. कश्मीर और जम्मू के कई इलाके हैं जहां पर हमारे अपने संवाददाताओं के साथ हमारा या हमारे ब्यूरो का कोई सम्पर्क नहीं है. ऐसा पहली बार हुआ है.’’
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर क्या हुआ इस पर भसीन कहती हैं, ‘‘मैंने सुप्रीम कोर्ट में अगस्त 2019 में याचिका दायर की थी जिसपर कोर्ट ने जनवरी 2020 में फैसला दिया. कोर्ट को याचिका को सुनने और अपना फैसला देने में पूरे पांच महीने लगे. कहा जाता है कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता है.’’
भसीन आगे कहती हैं, ‘‘हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कई महत्वपूर्ण चीजें कहीं. कोर्ट ने कहा कि इंटरनेट की ज़रूरत आर्टिकल 19 (1) के तहत आता है, लेकिन पूरी तरह से इसे मौलिक अधिकार नहीं बताया. कोर्ट ने सरकार से कहा जितने भी प्रतिबंध लगाए गए हैं उन्हें पब्लिक डोमेन में लाने की ज़रूरत है. कोर्ट ने यह भी कहा कि लम्बे समय के लिए आप प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं, लेकिन यह नहीं बताया कि यह लम्बा समय कितना होता है. कोर्ट ने इंटरनेट बंद को गलत बताया, लेकिन यह नहीं बोला कि सरकार तत्काल इसे बहाल करे. उन्होंने सरकार से इसकी समीक्षा करने के लिए कहा तो सरकार ने अगले दो महीने लगा दिया. आज भी घाटी में पूरी तरह से इंटरनेट नहीं चल रहा है. यहां 2 जी सर्विस चल रहा है. ब्रॉडबैंड चल रहा है.’’
जम्मू-कश्मीर में एक साल बाद क्या बदला
जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने के बाद कई तरह के वादे किए गए. केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इस फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा था कि इससे स्थानीय नागरिकों को फायदा होगा. यह बताने की कोशिश की गई कि सरकार के इस फैसले से घाटी के लोग खुश है. इसके लिए एबीपी न्यूज़ की एंकर रुबिका लियाकत ने बीजेपी नेता की पहचान छुपाकर कश्मीर में शांति का दावा किया. भाजपा ने भी उसे एक न्यूट्रल व्यक्ति का बयान बताते हुए शेयर किया था.
एक तरफ जहां सरकार और सरकार समर्थक इस फैसले से घाटी के लोगों के खुश होने की बात कर रहे थे वहीं दूसरी तरह कश्मीर के कई बड़े नेताओं और स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया था. पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला अब बाहर हैं, लेकिन महबूबा मुफ़्ती अभी भी हिरासत में हैं. कई लोगों को गिरफ्तार करके आगरा के केन्द्रीय जेल में रखा गया था. अभी भी कई लोग अपने घरों में या अलग-अलग जेलों में बंद हैं.
एक साल बाद घाटी की क्या स्थिति है इस सवाल के जवाब में अनुराधा भसीन कहती है, ‘‘बदलाव... जब आज पूरा देश आर्टिकल 370 हटाने की और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने की पहली सालगिरह पर जश्न मना रहा है तब सुरक्षा के नाम कश्मीर में दो दिन का कर्फ्यू है. वहीं जम्मू में कोरोना के नाम पर लॉकडाउन रखा हुआ है. हालांकि जम्मू में कोरोना को लेकर जो स्थिति है वो देश के बाकी हिस्सों से बेहतर है. यह कोरोना का लॉकडाउन भी लोगों को बंद करने का एक माध्यम बन गया है. लोगों को बंद करने की आपको क्यों ज़रूरत पड़ रही है? इसका मतलब है कि यहां पर कुछ गलत हो रहा है. यहां पर लोग खुश नहीं है.’’
‘‘लद्दाख और जम्मू की अलग से बात करें तो लद्दाख के दो हिस्से हैं एक लेह है और दूसरा करगिल है. लेह में बौद्ध समुदाय के लोगों की संख्या ज्यादा है तो करगिल में मुस्लिम समुदाय के लोगों की. लेह के लोगों की एक अलग केंद्र शासित प्रदेश की बहुत पुरानी मांग थी. उनको लगता था कि कश्मीर के प्रभाव के कारण उन्हें फायदा नहीं मिल पा रहा है. इस फैसले के बाद शुरू में वहां पर ख़ुशी थी, लेकिन करगिल में थोड़ी नाराज़गी थी. उनको लगता था कि अब उनपर बौद्धों का प्रभाव ज्यादा होगा. इसी तरह जम्मू में हुआ. जम्मू में कुछ जिले हिन्दू प्रभाव वाले हैं तो कुछ मुस्लिम प्रभाव वाले. जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा हैं वहां थोड़ी खामोशी थी. जम्मू के बाकि हिस्सों में भी खामोशी थी लेकिन कुछ जगहों पर इसका स्वागत किया गया.’’ भसीन कहती है.
भसीन आगे बताती हैं, ‘‘आहिस्ता-आहिस्ता लोगों को एहसास हुआ कि आर्टिकल 370 हटने से हमारा क्या नुकसान हो रहा है. जम्मू के हिंदुओं को और लेह के लोगों को लगा कि हम बीजेपी के समर्थक हैं. राष्ट्रवादी हैं. तो हमारे जो अधिकार है वो नहीं छीना जाएगा. हमें निराश नहीं करेंगे. लेकिन इस तरह का कुछ नहीं हुआ. उनके अधिकारों की रक्षा करने की बजाय इसके उल्टा हुआ. जमीन के अधिकार से जुड़े कानून में बदलाव किया गया जिससे कोई भी बाकी हिन्दुस्तानी यहां जमीन खरीद सकता है. यहां पर अपने पैसे लगा सकता है. और सरकारी नौकरियों के लिए डोमिसाइल कानून बनाया गया. इसमें हिंदुस्तान के बाकी हिस्से के लोगों को काफी अवसर मिलेगा. वहीं यहां के लोगों का एक अपना आरक्षित पद हुआ करता था वो चला गया. इसके बाद यहां के लोगों ने कहा कि जैसे उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों में और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में लोगों के जमीन खरीदने की या नौकरियां लेने पर पाबंदियां है वो दिए जाए. लेकिन वह नहीं दिया गया. यहां पर भी अब गुस्सा बढ़ रहा है.’’
क्या घाटी में आतंकवाद में कमी आई?
जुलाई महीने में ज़ी न्यूज़ ने गृह-मंत्रालय की एक रिपोर्ट के हवाले से दावा किया कि आर्टिकल 370 हटने के बाद घाटी में आतंकवाद की घटनाओं में करीब 36% की गिरावट आई है.
ज़ी ने अपनी रिपोर्ट में बताया, ‘‘पिछले साल (जनवरी से 15 जुलाई तक) घाटी में कुल 188 आतंकवाद से जुड़ी घटनाएं हुई हैं, वहीं इस साल इसी अवधि में 120 आतंकी घटनाएं हुई. वहीं इस अवधि में 2019 में 126 आतंकी मारे गए, जबकि इस साल इसी अवधि में 136 आतंकियों का खात्मा हुआ. पिछले साल 51 ग्रेनेड हमले हुए वहीं इस साल 15 जुलाई तक 21 ग्रेनेड हमले हुए.’’
क्या आर्टिकल 370 हटने का असर आतंकवादी गतिविधियों पर पड़ा है इस पर अनुराधा भसीन कहती हैं, ‘‘कितने मिलिटेंट मारे गए इससे पता नहीं चलता की आतंकवाद कम हुआ है. कितने मिलिटेंट मारे इससे यह भी पता नहीं चलता कि कितने नए मिलिटेंट बने है. सरकार का कहना है कि इस साल के पहले छह महीने में 120 से ज्यादा मिलिटेंस मारे गए. इन 120 मिलिटेंस में से ज्यादातर स्थानीय मिलिटेंस हैं. उनमें से ज्यादातर संख्या उन लड़कों की है जो पिछले छह महीने में ही मिलिटेंस बने है. तो इससे यह पता चलता है कि कश्मीर के युवक बंदूक पकड़ने के लिए तैयार है. मिलिटेंसी यहां से गई नहीं है. पहले मिलिटेंट स्थानीय लोगों को नहीं मारते थे, लेकिन अब ऐसी खबरें आती है कि स्थानीय लोगों को भी मारा जाता है. हाल ही में एक सरपंच की हत्या हुई है.’’
यानी आर्टिकल 370 हटने के बाद घाटी के युवाओं में मिलिटेंसी में जाने वालों की संख्या में इज़ाफा हुआ है? इसपर भसीन कहती हैं, ‘‘इसके पीछे 370 हटना कई कारणों में से एक कारण है. 370 हटने के बाद जिस तरह पाबंदियों का माहौल बना. लोगों को हिरासत में लिया गया. जो लोग यहां भारत का झंडा उठाते थे उन्हें हिरासत में बंद कर दिया गया. जो लोग हिंदुस्तान के साथ चलते थे उनको अगर हिरासत में ले लिया गया तो बाकी कौन सुरक्षित है. यहां किसी के भी घर में जाकर आप तोड़-फोड़ कर सकते है. ये सब यहां के युवक देखते हैं जिसका उनपर असर पड़ता है. उनके पास कोई और रास्ता बचता नहीं है. बातचीत आप कर नहीं सकते है. लोकतांत्रिक माहौल आपने खत्म कर दिया है.’’
50 हज़ार नए रोजगार?
जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाकर उसे दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फैसले के समय वहां के राज्यपाल सत्यपाल मलिक थे. मलिक ने अगस्त 2019 में घोषणा की थी कि आने वाले दो से तीन महीने में 50 हज़ार कश्मीरी युवाओं को सरकारी नौकरी दी जाएगी.
सत्यपाल मलिक ने कहा था, ‘‘यहां के लोग देश की तुलना में पीछे छूट रहे थे. यहां कुछ हो नहीं रहा था. कोई इनवेस्टमेंट नहीं आ रहा था. हमें जम्मू कश्मीर और लद्दाख में इतना काम करना है कि लोग इसका उदाहरण दें. अगले 2 से तीन महीने में 50 हजार से अधिक युवाओं को नौकरी दी जाएगी. केंद्र सरकार इस पर काम कर रही है.’’
क्या युवाओं को रोज़गार मिला इस सवाल के जवाब में अनुराधा भसीन कहती है, ‘‘रोज़गार मिलने की बात दूर है जिनका रोज़गार था उनका भी छिन गया. व्यवसाय बंद पड़ा हुआ है. सरकारी सेवाओं में यहां कर्मचारी कॉन्ट्रेक्ट पर रखे जाते थे जिन्हें आगे चलकर स्थायी कर दिया जाता था, लेकिन अभी इसमें से ज्यादातर को नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है. जितनी भर्ती की प्रक्रिया थी उन्हें बंद कर दिया गया. अब नए डोमिसाइल कानून बनने के बाद दोबारा से शुरू कर रहे हैं. जो लोग पुरानी भर्ती प्रक्रियाओं में पहले राउंड में सफल हो गए थे उनको लगता है कि उनके साथ ज़्यादती हुई है.’’
द प्रिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार ने 50 हज़ार रोज़गार का वादा किया था. लेकिन एक साल में महज 4,300 युवाओं को रोज़गार मिल पाया है. यानी वादे का महज आठ प्रतिशत.
कश्मीर की स्थिति कब बेहतर होगी?
सरकार भले ही सबकुछ बेहतर होने का दावा कर रही हो, लेकिन पांच अगस्त के पहले दो दिन का लगा कर्फ्यू बताता है कि वहां सब कुछ ठीक नहीं है. ऐसे में स्थिति कब बेहतर होगी इस सवाल के जवाब में अनुराधा भसीन कहती हैं, ‘‘मुझे तो अभी कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है. अगर स्थिति बेहतर करनी है तो उसके लिए कदम उठाना पड़ता है. आपने यहां के लोगों के अधिकार को खत्म कर दिया. उनके रोज़गार के अवसर खत्म कर दिए गए. इससे उनको लगता है कि वे दोयम दर्जे के नागरिक बन गए है. जब तक आप लोगों की बात नहीं करेंगे. आप ये सोचोंगे की हमें इन पर शासन करना है तब तक कोई बेहतरी नहीं हो सकती है.’’
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