आगरा जेल में बंद कश्मीरियों के परिजनों से बातचीत.
सुबह के आठ बज रहे हैं. रात में हुई तेज बारिश के बाद आगरा की सुबह थोड़ी ठंडी है. सड़कों पर जगह-जगह पानी जमा है. शहर के दूसरे छोर पर आगरा सेंट्रल जेल बना है. जेल में बंद अपने परिजनों से मिलने के लिए लोग धीरे-धीरे पहुंचने लगे है. तमाम लोग जेल परिसर में बने प्रतीक्षालय में बैठकर अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे होते है. साढ़े आठ बजे के करीब हाथ में सेब का पैकेट, बड़ा-सा बैग और लगभग 10 दर्जन केला लिए मोहम्मद शैफी, अपने बड़े बेटे शाहनवाज अहमद के साथ प्रतीक्षालय में दस्तक देते है.
मंगलवार और शुक्रवार को आगरा सेंट्रल जेल में ये अब आम नज़ारा होता है. धारा 370 समाप्त होने के बाद से घाटी के विभिन्न इलाकों से उठाए गए तमाम युवक इस जेल में रखे गए हैं, लिहाजा इनके परिजन अब यहां आधे घंटे की मुलाकाता के लिए हजारों किलोमीटर चल कर पहुंचते हैं.
उदास आंखें और अपने रंग रूप से पहली नजर में ही मोहम्मद शैफी उत्तर भारतीयों से अलग नजर आते हैं, इसलिए हमें उन्हें पहचानने में दिक्कत नहीं होती.
मोहम्मद शैफी अपने बेटे शाहनवाज के साथ
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 ख़त्म किए जाने के बाद सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कई लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इन गिरफ्तार लोगों में कुछ लोगों पर ‘जन सुरक्षा अधिनियम’ (पीएसए) लगाकर कश्मीर से बाहर अलग-अलग राज्यों की जेलों में बंद किया गया है. आगरा सेंट्रल जेल में भी ऐसे लगभग 86 कश्मीरी बंद हैं. उनमें से एक मोहम्मद शैफी का बेटा तुफैर अहमद जेलदार भी है. तुफैर को 16 अगस्त को गिरफ्तार किया गया था उसके दो दिन बाद उसे आगरा सेंट्रल जेल भेज दिया गया.
आगरा सेंट्रल जेल प्रशासन ने सप्ताह में दो दिन (मंगलवार और शुक्रवार) मुकर्रर किया है जब कश्मीरी लोग जेल में बंद अपने परिजनों से मिल सकते हैं. मिलने आए लोगों की जानकारी ले रहे जेल के एक अधिकारी बताते हैं कि हर सप्ताह तीन से चार कश्मीरी यहां आते हैं. ज्यादातर पुरुष ही होते हैं.
कम और धीमी आवाज़ में बात करने वाले मोहम्मद शैफी बातचीत की शुरुआत में ही कहते हैं, ‘‘आज सब कुछ ठीक रहा तो मैं अपने बेटे को दो महीने बाद देख पाऊंगा. न जाने किस हाल में होगा? कश्मीर पुलिस ने हमें उसे कपड़े देने तक का मौका नहीं दिया. उसके पास सिर्फ एक ही कपड़ा है जो उस दिन उसने पहना था. उसे सेब बहुत पसंद हैं, इसलिए कश्मीर से ही उसके लिए सेब लेकर आया हूं.’’ यह कहते हुए शैफी उदास हो जाते हैं. अपनी उदासी को छुपाने के लिए वे प्रतीक्षालय से बाहर जेल की मजबूत दीवारों की तरफ देखने लगते हैं जिनके पीछे उनका बेटा पिछले दो महीने से बंद है.
जेल में बंद बेटे के लिए कश्मीर से सेब लेकर आए हैं मोहम्मद शैफी
आगरा के सेंट्रल जेल में बंद कैदियों में से ज्यादातर कैदी वे हैं जो हत्या के मामले में उम्रकैद की सज़ा भुगत रहे हैं. यहां उत्तर प्रदेश के कई कुख्यात बदमाश भी बंद है जिस कारण से यहां की सुरक्षा व्यवस्था हमेशा मजबूत रहती है. लेकिन कश्मीरी युवाओं को जबसे इस जेल में लाया गया है तब से यहां की सुरक्षा और भी मजबूत कर दी गई है. सेंट्रल जेल के सामने ही स्थित जर्जर भवन में बैठे पीएससी के एक सीनियर अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि कश्मीरी कैदियों के आने के बाद सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक कंपनी पीएससी (लगभग 135 जवान) और कुछ सिविल पुलिसकर्मियों को यहां तैनात किया गया है. आये दिन यहां जिले के बड़े अधिकारी जांच के लिए आते रहते हैं. किसी तरह की ढील नहीं दी जा रही है.
मोहम्मद शैफी ज्यादा बातचीत से इनकार कर देते हैं. वे कहते हैं कि हम आपसे बात करेंगे तो हमारी परेशानी और बढ़ जाएगी. लेकिन उनके बड़े बेटे शाहनवाज अहमद बातचीत के लिए राजी हो जाते हैं. शाहनवाज कहते हैं, ‘‘मेरे भाई पर पत्थरबाजी या किसी भी फसाद में पहले से कोई मामला दर्ज नहीं था. उसे इससे पहले कभी गिरफ्तार भी नहीं किया गया था. सरकार ने जब अनुच्छेद 370 खत्म किया उसके बाद कई लोगों को गिरफ्तार किया गया. चूंकि पांच अगस्त से पहले घाटी में अफरातफरी का महौल बन गया था. किसी को नहीं पता था कि होगा क्या. मेरा भाई पेट्रोल पंप से पेट्रोल खरीदकर खुदरा में बेचता था. साथ ही ऑटो भी चलाता था. 16 अगस्त की शाम उसे पुलिस वाले उठा ले गए. हमें इसकी जानकारी उसके साथ के लोगों से मिली. तब हम भागे-भागे पुलिस स्टेशन गए. वहां हमें उससे मिलने नहीं दिया गया. हम रोज-रोज पुलिस थाने जाते रहे. कुछ दिनों बाद हमें बताया गया कि मेरे भाई को आगरा जेल में भेज दिया गया है. ताजमहल के कारण हमने आगरा का नाम सुन रखा था. हमारे यहां से लोग ताजमहल देखने आते हैं, लेकिन हम यहां जेल में बंद अपने भाई से मिलने आए है. बदनसीबी ही तो है.’’
शाहनवाज से हमारी बातचीत हो रही होती है तभी बीच में मोहमद शैफी बोल पड़ते हैं, ‘‘ तुफैर (जो जेल में बंद है) की उम्र 27 साल है. उसकी पत्नी और बच्चे हैं. 27 साल में कई बार कश्मीर में बवाल हुआ. उसका नाम किसी भी मामले में नहीं आया. कभी गिरफ्तार नहीं हुआ. हमें तो 370 के खत्म होने से कोई मातम भी नहीं था. हम शिया हैं. बीजेपी के समर्थक भी हैं. हमारे बेटे को क्यों गिरफ्तार कर लिया गया? हालांकि घाटी में आज सब एक जैसे ही हैं. वहां गिरफ्तारी नाम की एक बिमारी फैली हुई है. हर कोई इसकी चपेट में आ रहा है. हजारों लोगों को जेल में रखा गया है. सरकार ने निर्दोष लड़कों को जेल में भेजकर गलत किया है. इससे लड़के गलत राह पर जा सकते हैं. हम कितना रोक पाएंगे.’’
हम मोहम्मद शैफी और शाहनवाज से बात कर रहे होते हैं तभी एक और कश्मीरी युवा कंधे पर एक छोटा सा बैग लेकर प्रतीक्षालय में घुसता है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाला ये युवा अपने जीजा से मिलने आया है. श्रीनगर के रहने वाले इस युवक ने अपना नाम बताने से इनकार करते हुए कहा, ‘‘हम यहां पढ़ने आए है. आपसे बात करने के कारण हमारा करियर बर्बाद हो सकता है. मैं आपको बस इतना ही बता सकता हूं कि यहां मेरे जीजा बंद हैं. उन्हें पुलिस ने यह कहकर गिरफ्तार किया कि दो दिन में छोड़ देंगे, लेकिन तीन दिन कश्मीर के जेल में रखने के बाद उन्हें आगरा भेज दिया गया. कश्मीर से आने में कम से कम दस हज़ार रुपए एक आदमी पर खर्च होगा जिस वजह से घर वाले आ नहीं सकते तो मैं ही मिलने आ गया.’’
लगभग चार घंटे इंतजार के बाद मोहम्मद शैफी को जेल के अंदर जाने का मौका मिलता है. जेल के मुख्य द्वारा से पहले जेल का एक सिपाही मोहम्मद शैफी और शाहनवाज अहमद की तलाशी लेता है. सेब के डब्बे को फाड़ एक-एक सेब को अलग करके देखा जाता है. केले को अलग करके देखा जाता है. बैग को खोलकर एक-एक कपड़े को सुरक्षाकर्मी जांच करते हैं. एक-एक करके कपड़े को शाहनवाज अपने कंधे पर रखते जाते हैं. बैग से अखरोट का एक पैकेट निकलता है. सुरक्षाकर्मी उसे बाहर निकालता है तभी सारा अखरोट जमीन पर फ़ैल जाता है. इसे देखकर आसपास खड़े सारे सुरक्षाकर्मी चौकना हो जाते हैं. लगभग 20 मिनट तक चली इस जांच के बाद उन्हें जेल की बड़ी सी गेट के एक छोटे से हिस्से से जेल के अंदर भेजा जाता है. जेल के एक अधिकारी बताते हैं कि इसके बाद भी इनकी दो जगहों पर जांच होगी तब जाकर वे अपने परिजन तक पहुंच पाएंगे.
जेल के अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘कश्मीरी कैदियों से मुलाकात के लिए अलग से सेल बनाया गया है. जहां कई सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं. यही नहीं कश्मीरी जब मिल रहे होते हैं तो उस वक़्त आईबी और लोकल इंटेलिजेंस यूनिट के अधिकारी मौजूद रहते हैं. उनकी मौजूदगी के बगैर इनकी मुलाकात नहीं कराई जा सकती है. इनकी सारी बातें रिकॉर्ड की जाती है.’’
जेल अधिकारी के बगल में खड़े उनके एक सहकर्मी कहते हैं, ‘‘अपने बेटों को पत्थरबाज बनाएंगे तो भुगतेंगे ही. कश्मीर से आगरा दौड़ना पड़ रहा है. यहां जो लोग मिलने आते हैं उनसे कभी-कभार बातचीत में हम पूछते है कि अनुच्छेद 370 हटाकर सही हुआ कि गलत तो वे कहते हैं कि सरकार ने बहुत गलत फैसला लिया है. तब हमें लगता है कि इनके साथ जो हो रहा है वह सही हो रहा है. (कुछ अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए) ये हमारे सैनिको को जूता मारते हैं. कभी-कभी तो गुस्सा बहुत आता है लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते.’’
जेल का कोई भी अधिकारी नाम छापने की इजाजत नहीं देता है. जेलर शिव प्रताप मिश्र अपने कमरे में हमसे मिले. दीवार पर लगे बड़े से एक टीवी स्क्रीन पर कई विंडो में अलग-अलग सेल में चल रहे सीसीटीवी कैमरे के फूटेज को देखते हुए वे कहते हैं, ‘‘यहां हर सप्ताह लगभग तीन से चार कैदियों के परिजन आते हैं. उन्हें मिलने में कोई परेशानी नहीं होती है. इसके अलावा हम आपको कोई जानकारी नहीं दे सकते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है.’’
5 अगस्त को अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद कितने लोगों की गिरफ्तारी हुई इसको लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा सरकार की तरफ से मुहैया नहीं करवाया गया है.
अलग-अलग स्रोतों से अलग-अलग जानकारी मिलती है. हाल ही में जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट की जुवेनाइल जस्टिस (जेजे) समिति ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी कि 5 अगस्त के बाद से 9 से 17 साल के 144 नाबालिगों को सुरक्षा कारणों से हिरासत में लिया गया था. रिपोर्ट्स के अनुसार इसमें से 142 बच्चों को छोड़ दिया गया है.
वहीं हाल ही में योजना आयोग की पूर्व सदस्य सईदा हमीद ने पांच महिला कार्यकर्ताओं के साथ कश्मीर से लौटकर वहां के हालात को लेकर रिपोर्ट जारी किया था. महिलाओं की ये टीम 17 सितम्बर से 21 सितंबर तक कश्मीर के अलग-अलग जिलों का दौरा करने के बाद अपनी जांच रिपोर्ट जारी किया.
न्यूज़-प्लेटफॉर्म वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू कश्मीर में डर और दहशत का माहौल बन गया. कश्मीर में कुछ भी ठीकठाक नहीं है. 10 से 22 साल के उम्र के लड़कों को पुलिस या सेना कभी भी कहीं से उठा लेती है और उनका पता तक नहीं चल पाता कि वो कौन से जेल में हैं.
रिपोर्ट जारी करते हुए सईदा हमीद ने बताया, ‘‘हम यहां आज कश्मीरियों को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं ये उन्हें नहीं पता, क्योंकि वो लोग लोहे के पिंजरे में बंद हैं. टीवी इंटरनेट सब बंद है. केवल कुछ लोकल अखबार निकलते हैं वो भी छपने से पहले उस अखबार को सरकारी निगरानी से गुजरना पड़ता है. 13 हजार से ज्यादा बच्चे उठा लिए गए उनका कुछ पता नहीं कि कहां हैं.’’
श्रीनगर के रहने वाले आरटीआई कार्यकर्ता डॉ. शेख गुलाम रसूल न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए हुए कहते हैं, ‘‘आंकड़े किसी के भी सही नहीं क्योंकि किसी को आंकड़े पता ही नहीं हैं. आंकड़े सिर्फ सरकार को पता है. सरकार कोई आंकड़ा जारी नहीं कर रही है. हर कोई अंदाजा लगाकर कुछ-कुछ नम्बर बता रहा है. कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है, कुछ को हिरासत में लिया गया है, कुछ को नजरबंद कर दिया गया है. कुछ को सुबह उठाते हैं और शाम को छोड़ देते हैं. लेकिन फील्ड में जाने के बाद पता चलता है कि यहां से इस गांव से बीस लोगों को उठाया गया है तो इस गांव से 60 लोगों को. इसलिए मैं आंकड़ों को लेकर कोई बात नहीं कह सकता हूं. लेकिन घाटी में जो भी बोल सकता है उसको गिरफ्तार कर लिया गया है. निर्दोष लोगों को भी गिरफ्तार किया गया है. ये कैसी डेमोक्रेसी है. यह चुनी गई तानाशाही है. 80 लाख लोगों को बंद करके रखा है. अलोकतांत्रिक फैसला वहां के लोगों पर थोपा जा रहा है. घाटी आज दुनिया का सबसे बड़ा मिलिट्री जोन बन गया है.’’
डॉ. शेख गुलाम रसूल
डॉ. शेख गुलाम रसूल आगे कहते हैं, ‘‘घाटी में न मीडिया आज़ाद है और ना ही आम लोग. लोगों को एक-दूसरे से मिलने नहीं दिया जा रहा है. 80 लाख लोगों के लिए 36 हज़ार सरकारी लैंड-लाइन है उसमें से 20 हज़ार से ज्यादा सरकारी अधिकारी इस्तेमाल कर रहे हैं. सरकार की इस मनमानी की वजह से घाटी के युवाओं में गुस्सा बढ़ चुका है. गुस्सा हद पार कर चुका है. लोग कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं है. लोगों को पता ही नहीं है कि उनके रिश्तेदार किस जेल में बंद है. उनके बच्चे कहां बंद है. प्रशासन कुछ दिनों बाद बताता है कि उनके बच्चे किस जेल में हैं. जब वे उस जेल पहुंचते हैं तो वहां उन्हें मिलने नहीं दिया जाता है. इस तरह से उनकी मेहनत की कमाई बर्बाद हो जाती है. वहां के किसी के कुछ पता नहीं है.”
अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद कश्मीर के अलग-अलग इलाकों से रिपोर्ट करने वाले पत्रकार राहुल कोटियाल बताते हैं, ‘‘घाटी में रिपोर्टिंग के दौरान मैं चार-पांच परिवारों से मिला जिनके बच्चों को पीएसए के तहत उठाया गया था. जिन युवाओं को पीएसए के तहत गिरफ्तार किया जाता है उनका पूरा एक डोजियर बनता जिसमें उन मामलों का जिक्र होता है जो उनपर पूर्व में लगा होता है. उस डोजियर में पूर्व में दर्ज अपराधिक मामलों का विवरण होता है. ये सारी जानकारी थाने से जिलाधिकारी को भेजी जाती है. उसके बाद जिलाधिकारी तय करते हैं कि उनपर पीएसए लगना चाहिए या नहीं. लेकिन मुझसे मिले कई परिजनों का यह कहना है कि कई लड़कों के ऊपर पुलिस द्वारा बैक डेट में एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है. वहां के कई वकील कहते हैं कि अगर पूर्व में केस दर्ज हुआ है तो उसके संबंध में कोर्ट के कागजात भी होंगे क्योंकि जमानत तो कोर्ट से ही ली जा सकती है. लेकिन कुछ ऐसे भी मामले सामने आए है जिसमें कोर्ट से मिली जमानत का कोई जिक्र ही नहीं है. अगर उस आदमी ने कभी जमानत नहीं ली तो बाहर कैसे है? ये तमाम कारण है जिनसे वकीलों की बात को वजन मिलता है कि एफआईआर बैक डेट में दर्ज करके लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है.’’
कैदियों और उनके परिजनों को यहां आधे घंटे का समय मिलने के लिए दिया जाता है. जेल में अपने भाई से मिलकर लौटने के बाद शाहनवाज कहते हैं कि यहां के कैदियों और परिजनों को भी आधे घंटे का समय दिया जाता है और हमें भी. हमें कम से कम थोड़ा ज्यादा समय दिया जाता. हम अपने भाई से दो महीने बाद मिले थे.
जेल से लौटते मोहम्मद शैफी
जेल से बाहर निकलने के बाद जेल की दीवारों को देखते हुए बस स्टॉप की तरफ लौट रहे मोहम्मद शैफी बेटे से मुलाकात को लेकर कहते हैं, ‘‘मेरे बेटे को गलत उठाया गया. उठाकर इतना दूर रखा गया है. हिंदुस्तान की सरकार के हम खिलाफ भी नहीं फिर भी हमें धोखा मिला है. हम तकलीफ में हैं.’’