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कन्नूर में एक बूढ़ी महिला राजनीति के फेर में मारे गए अपने पति और बेटे का शोक मना रही है
"मैं चाहती हूं कि वह आएं और मुझे मार दें".
विद्रोह के स्वर में यह केसी नारायणी के शब्द हैं. अपनी लंबी व जर्जर काया पर नारायणी पतली सी सूत की साड़ी लपेटे हुए हैं. वह अकेली रहती हैं और अपने घर की कुंडी अंदर से लगाना कभी नहीं भूलतीं. उन्हें अपनी बेटी के घर जाकर नातियों के साथ रहना भी अच्छा नहीं लगता. "मैं यही सोचती रहती हूं कि क्या पता मेरा बेटा घर आ जाए", वे समझाती हैं.
लेकिन नारायणी का बेटा अब कभी घर नहीं आएगा.
"एक आरएसएस समर्थक" 29 वर्षीय केसी रेमिद की कथित तौर पर 12 अक्टूबर 2016 के दिन, 8 सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं ने केरल के कन्नूर जिले के पिनाराई गांव में धारदार हथियारों से हमला कर नृशंस हत्या कर दी थी.
एक रक्तरंजित इतिहास
कई लोगों के द्वारा "केरल के खूनी खेत" कहे जाने वाले कन्नूर जिले में राजनीतिक विचारधारा के लिए मार दिया जाना कोई नई बात नहीं है. 1969 में दस्तावेजों पर पहली राजनीतिक हत्या के बाद से, राज्य में हुई 300 से अधिक राजनीतिक हत्याओं में से अधिकतर इसी जिले में हुई हैं. एनडीटीवी के द्वारा देखे गए पुलिस के दस्तावेजों के हिसाब से 2000 से 2017 के बीच केरल में 173 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. मारे गए लोगों में 85 सीपीआईएम के और 65 संघ या बीजेपी के कार्यकर्ता थे. कांग्रेस और आईयूएमएल, दोनों दलों से 11 लोग या तो सीपीआईएम या संघ परिवार के द्वारा मार दिए गए. 101reporters के द्वारा आरटीआई के जरिए 2016 में हासिल किए गए दस्तावेज़ बताते हैं कि कन्नूर में 2000 से 2016 के बीच 69 हत्याएं हुईं. मारे गए लोगों में से 30 सीपीआईएम और 31 संघ के कार्यकर्ता थे, बाकी के लोग आईयूएमएल और कांग्रेस से थे.
2016 में पिनाराई विजयन के मुख्यमंत्री बनने के बाद 2019 तक केरल में कम से कम 20 राजनीतिक हत्याएं हो चुकी थी और अधिकतर आरोपी सीपीआईएम के कार्यकर्ता थे.
इतना ही नहीं, जिस दिन लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट या एलडीएफ ने चुनाव जीता, उसी दिन 19 मई 2016 को कन्नूर में हिंसा हुई. हिंसा मुख्यमंत्री के पुश्तैनी गांव पिनाराई में भी हुई जहां पर सीपीआईएम भाजपा और आईयूएमएल के कार्यकर्ताओं के बीच झड़पें हुईं. तत्कालीन रिपोर्ट बताती हैं कि हिंसा तब शुरू हुई जब जीत की खुशी में रैली निकालते हुए सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं ने बीजेपी का झंडा तोड़ने की कोशिश की. इन झड़पों में एक सीपीआईएम के कार्यकर्ता की मृत्यु हो गई थी.
केरल के थाना शहरी कस्बे में हम 65 वर्षीय केपी मोहनन से मिले जिन्होंने जीवन भर केरल की राजनीति के बारे में लिखा है. जवानी में वह कांग्रेस की केरल स्टूडेंट यूनियन के साथ भी जुड़े रहे थे. 70 के दशक में इमरजेंसी के बाद वह जनता पार्टी में चले गए. आजकल वह पुनर्वायन अर्थात 'दोबारा पढ़ना' नाम की पत्रिका लिखते और संपादित करते हैं. मोहनन बताते हैं कि कैसे हिंसा एक विषैले चक्र में फस गई है और यह बताना व समझाना लगभग असंभव है कि गलती किसकी है. वे कहते हैं, "अगर बीजेपी-आरएसएस के कार्यकर्ताओं से कुछ गड़बड़ होती है, तो सीपीआईएम तथाकथित 'न्याय' करता है. यही बात आरएसएस-बीजेपी पर भी लागू होती है."
कन्नूर में राजनीतिक हिंसा का एक लंबा इतिहास है जो कम से कम 60 के दशक तक पीछे जाता है, जब बैंगलोर के व्यापारियों की मदद से आरएसएस ने क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अपना काम फैलाना शुरू किया. उनकी योजना कम्युनिस्टों का प्रतिरोध करने की थी जिन्होंने 40 के दशक में वहां अपना गढ़ बना लिया था.
उस समय केरल के काफी भागों की तरह ही कन्नूर भी एक सख्त सामंती समाज था और कम्युनिस्ट, मजदूरों और कामगारों को जमींदारों और मुखियाओं के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए उकसा रहे थे. उनका प्रतिरोध करने के लिए क्षेत्र में कम्युनिस्टों के मुख्य प्रतिद्वंदी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने जनसंघ के साथ हाथ मिलाया जो आरएसएस का राजनैतिक प्रकोष्ठ और भाजपा का पूर्व संस्करण था. नया-नया जोश पाए हुए मजदूर और कामगार जो सीपीआईएम के सैनिक बने, और उखड़े हुए जमींदार जिन्हें आरएसएस से सहायता मिली, इनके बीच की तनातनी चरम पर पहुंच गई. 60 के दशक के ढलते-ढलते रक्तपात शुरू हो गया और कन्नूर की धरती पर यह अभी तक रुका नहीं है.
हाल के वर्षों में आरएसएस और सीपीआईएम दोनों शांति बनाए रखने के लिए सहमत होने के बावजूद राजनीतिक हिंसा को जारी रखने के लिए आगे आ गए हैं. 2017 में केरल के कांग्रेस अध्यक्ष वीएम श्रीधरन ने मांग की कि सीपीआईएम के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन इस्तीफा दें क्योंकि कानून व्यवस्था उनके हाथ से निकल गई है. उनके सत्ता में आने के बाद कई बार शांति वार्ता हो चुकी है लेकिन हिंसा जारी है.
जैसा कि कन्नूर में न्यूज़लॉन्ड्री को एक पुलिस अफसर ने 5 साल पहले बताया था, "यहां शांति तब कायम होती है जब मरने वालों की संख्या बराबर हो."
मोहनन इसके लिए राज्य के पुलिस को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. उनका कहना है, "आप यह देखिए कि कितने सारे मामलों की पड़ताल सीबीआई को करनी पड़ रही है, यह भी आपको पुलिस के बारे में कुछ बताता है." वह पुलिस पर राजनीतिक कारणों से मामलों की छानबीन ठीक से ना करने का आरोप भी लगाते हैं. "कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होती क्योंकि पुलिस के अंदर भी काफी दलगत राजनीति और यूनियनबाजी है."
इस परिस्थिति में इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि रेमिद की हत्या केवल एक आंकड़ा बनकर रह गई है.
आक्रोश, प्रतिशोध और प्रतिकार
62 वर्ष की हो चुकीं नारायणी को आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है. वह मुख्यमंत्री विजयन के घर से लगभग 1 किलोमीटर दूर ही अपने घर के आंगन में बैठी थीं. कुछ ही दिन पहले उनके नितंब का ऑपरेशन हुआ था और वह अपने आप न खड़ी हो पाती थीं ना चल पाती थीं. उनकी 8 महीने से गर्भवती बेटी भी घर पर थी. नारायणी ने उनकी दवाई लेने गए बेटे को वापस चलकर घर की तरफ आते हुए देखा. जैसे ही उसने उनके घर के बगल वाले पेट्रोल पंप को पार किया नारायणी ने देखा कि 8 आदमी एक वैन से तेजी से बाहर निकले और उन्होंने रेमिद पर चाकू और तलवारों से हमला कर दिया. ऑपरेशन की वजह से कहीं ना जा सकने की हालत में उन्होंने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही अपने बेटे की निर्मम हत्या होते हुए देखी.
वह अपने आंसुओं को रोकने की असफल कोशिश करते हुए बताती हैं, "मैं चिल्लाने लगी और मेरी बेटी उनकी तरफ दौड़ी. वह गर्भवती थी, गिर पड़ी और समय पर उसके पास नहीं पहुंच पाई."
एक महीने बाद, सीपीआईएम के दो कार्यकर्ताओं को इस हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया. 2017 में दाखिल हुए आरोप पत्र के अनुसार पुलिस को यह पता चला कि इस कांड में सीपीआईएम के 15 स्थानीय कार्यकर्ता शामिल थे. अंततः 9 की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन नारायणी कहती हैं कि वह सब जमानत पर बाहर हैं और अक्सर उसे घूमते हुए दिख जाते हैं.
आरोपपत्र के अनुसार रेमिद की हत्या, बदले के लिए की गई एक हत्या थी.
उसकी हत्या से 2 दिन पहले, एक कम्युनिस्ट लीडर की कुथुपरम्बा में इसी तरह हत्या हो गई थी जिसका शक आरएसएस कार्यकर्ताओं पर था, यह गांव रेमिद के घर से बस से 20 मिनट की दूरी पर है. रेमिद की हत्या इसी हत्या के प्रतिकार रूप में हुई.
नारायणी समझाती हैं कि उनके गांव में आमतौर पर कम्युनिस्ट विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों के बीच, भाजपा को वोट करने वाले गिने-चुने परिवारों में से एक उनका भी है. वे दावा करती हैं, "लेकिन मेरा बेटा तो बस आरएसएस से सहानुभूति रखता था. उसने कभी उनके साथ काम नहीं किया न ही कभी उनकी बैठकों में गया. उन्होंने मेरे बेटे को बस बदला लेने के लिए मार दिया."
नारायणी के प्रियजनों में केवल रेमिद ही राजनीतिक हिंसा की भेंट नहीं चढ़ा है.
2002 में कथित तौर पर उनके पति सी उन्नीथन को भी इसी तरह नृशंसता से सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं ने मार दिया था. वे बताती हैं, "एक मामला दाखिल हुआ था लेकिन मुझे नहीं पता कि किसी की गिरफ्तारी हुई या नहीं. उस समय मैं 31 साल की थी और दो छोटे बच्चों की मां थी. इसीलिए मैं मामले पर नज़र और न्याय के लिए नहीं लड़ पाई. मैं अपना सारा ध्यान केवल अपने बच्चों पर केंद्रित कर उन्हें ठीक से बड़ा करना चाहती थी."
आज नारायणी अपना गुस्सा, संभवत: इससे बेहतर तरीके से नहीं दिखा सकती थीं. उन्होंने कहा, "सब को एक दूसरे को मार लेने दो, सब तबाह हो जाने दो, बन जाने दो इसे सही में नर्क, केवल उसके बाद ही शांति कायम होगी."
अब वोट नहीं करेंगे
धर्म डोम चुनाव क्षेत्र में जहां से मुख्यमंत्री विजयन चुनाव लड़ रहे हैं नारायणी के घर के बाहर मिजाज बिल्कुल अलग है.
हर तरफ मुख्यमंत्री के पोस्टर और चित्र लगे हुए हैं जिसमें से एक 20 फुट का फ्लेक्स पोस्टर नारायणी के घर के सामने दूसरी तरफ लगा है. रोजाना उनके घर के बाहर से लाउडस्पीकर पर बजते सीपीआईएम के चुनावी गाने और भाषण गुजरते हैं.
यह पूछने पर क्या वे वोट डालेंगी, उन्होंने तुरंत इंकार कर दिया. उन्होंने कहा, "मेरी अब राजनीति और जीवन में ही कोई रुचि नहीं है. मैं इन जानवरों को सत्ता में लाने के लिए और वोट नहीं करूंगी."
नारायणी के दिल में केवल पीड़ा ही नहीं है, वह एक बड़े असमंजस में भी हैं. वह बार-बार पुराने और नए समय को याद करती हैं, और स्मृति से ताना-बाना बुनने की कोशिश करती हैं की चीजें पहले कैसी थी और अब कैसी हो गई हैं.
वह याद करती हैं कि जब वह एक छोटी लड़की थीं, उनकी छोटी बहन और विजयन साथ ही में स्कूल में पढ़ते थे और भविष्य का वह राजनेता अक्सर ही नारायणी के परिवार के बच्चों के साथ खाता और खेलता था. उनका कहना है, "एक कुत्ता जिसे आपने खाना खिलाया हो उसके मन में भी आपके लिए कृतज्ञता होती है. लेकिन यह आदमी, मैं आपको बता नहीं सकती कि मैं उससे कितना गुस्सा हूं और उसने इस पार्टी को किस तरह से बदल दिया है."
अपने पति और बेटे की मृत्यु के बाद नारायणी ने कभी इस घर को छोड़कर जाने के बारे में नहीं सोचा. उन्होंने इतना समय अकेले रहकर ही बिताया है. क्या उन्हें कभी डर लगा?
नारायणी इस सवाल के जवाब में कहती हैं, "किसका डर? मौत का? मुझे अब केवल मौत ही बचा सकती है. तब कम-से-कम मैं अपने बेटे और पति के पास स्वर्ग में तो जा पाऊंगी. कम से कम अब तो हम फिर से परिवार बन पाएंगे."
चुनाव प्रचार, मामले से जुड़े दस्तावेज, अदालत, वकील उनके लिए कोई मायने नहीं रखते. वह कहती हैं, "मैंने सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है. केवल ईश्वर की अदालत में ही मुझे कुछ चैन मिलने की उम्मीद है."
तस्वीरें: आदित्य वारियर.
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