आरटीआई पार्ट-1: कैसे राजनेताओं ने पीएसयू को अपनी निजी टकसाल बना दिया संदीप पाई

विभिन्न पार्टियों के सांसद, मंत्री और पार्टियों के नेता अपने आधिकारिक पदों का इस्तेमाल कर संगठनों, प्रकाशनों या अन्य कार्यक्रमों के लिए पीएसयू से विज्ञापन या फंड के रूप में सहयोग लेते.

WrittenBy:संदीप पाई
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सार्वजनिक क्षेत्र (पीएसयू) की कोई कंपनी मसलन कोल इंडिया या नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन किसी मराठी पत्रिका ”ब्राह्मण मानस” को अपने विज्ञापन क्यों देंगे? आखिर एक पीएसयू केरल में नौका दौड़ या किसी पशु अधिकार संगठन के कार्यक्रमों को क्यों प्रायोजित करेगी?

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चार महीने लंबी एक पड़ताल में सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून से मिली जानकारी के जरिए यह बात सामने आई कि विभिन्न पार्टियों के सांसद, मंत्री और पार्टियों के नेता अपने आधिकारिक पदों का इस्तेमाल कर ऐसे संगठनों, प्रकाशनों या अन्य कार्यक्रमों के लिए पीएसयू से विज्ञापन या फंड के रूप में सहयोग लेते हैं जिनसे वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं.

पीएसयू केन्द्र या राज्य सरकारों के तहत आने वाली स्वतंत्र कंपनियां हैं: उनके पास वित्तीय फैसले लेने और कंपनी को चलाने की स्वतंत्रता है. जिसकी वजह से वे कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) या कारपोरेट संचार (सीसी) के तहत अपने पैसे कहीं भी खर्च कर सकती हैं. सीएसआर अथवा सी सी के तहत होने वाले खर्चों का फैसला सार्वजनिक रूप से पीएसयू अधिकारियों द्वारा स्वतंत्र रूप से लिया जाना चाहिए कि कोई  विज्ञापन या प्रायोजन पीएसयू को बदले में किस तरह से फायदा पहुंचाएगा. उससे कंपनी की तरक्की होगी या इससे कोई अन्य लाभ भी मिलेगा. लेकिन हमारी पड़ताल से ऐसा लगता है कि पीएसयू को वास्तव में अपने सीएसआर और सीसी खर्च को तय करने का अधिकार ना के बराबर है.

पांच भागों की इस श्रृंखला में न्यूज़लॉन्ड्री, एनटीपीसी, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, (एनएचएआई), गैस अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (गेल) और तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) जैसी जानी-मानी पीएसयू सहित आरटीआई के तहत 12 पीएसयू से मिले 2000 पेजों की पड़ताल करेगा. इनमें से कई पत्र साफ तौर पर हितों के टकराव और निजी फायदे का इशारा करते हैं.

जनवरी 2011 और अप्रैल 2015 के बीच, पीएसयू प्रमुखों से 10,000 रूपये से 70 लाख रुपये के बीच धन की मांग करने वाले ये पत्र, सांसदों और मोदी कैबिनेट मंत्रियों द्वारा लिखे हुए हैं. ये पत्र बाकायदा आधिकारिक लेटरहेड पर लिखे गए हैं और इन चुने हुए नुमाइंदों के आधिकारिक तौर पर संपर्क का एक हिस्सा हैं.

आरटीआई जांच से पता चलता है कि पीएसयू ने राजनेताओं की धन की मांग को पूरा करने के लिए हर साल जनता के पैसे का करोड़ो रुपया बर्बाद किया है: उदाहरण के लिए, सांसदों के अनुरोध करने पर ओएनजीसी ने 2012 से जनवरी 2015 के बीच 4.3 करोड़ रुपये खर्च किये. पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया (पीजीसीआईएल) ने जनवरी 2011 से अप्रैल 2015 तक 90 लाख रुपये खर्च किये; और गेल ने जनवरी 2012 से फरवरी 2015 तक करीब 80 लाख रुपये खर्च किये थे. इंडियन आयल कॉरपोरेशन ने जनवरी 2012 से फरवरी 2015 तक 71.4 लाख रुपये खर्च किये. यह पैसा प्रायोजित कार्यक्रमों के दौरान योगदान और प्रायोजकों, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में विज्ञापन, स्मृति चिन्हों, बैनर आदि के ऊपर खर्च किया गया था.

इस कड़ी के पहले हिस्से में हम उन पत्रों पर गौर करेंगे जो सांसदों ने पीएसयू प्रमुखों को लिखे थे.

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भाजपा के प्रवक्त और राज्यसभा के सांसद प्रकाश जावड़ेकर ने 2013 में ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (आरईसी) के प्रमुख को ब्राह्मण मानस पत्रिका के दिवाली अंक के लिए “कवर/बैक या पूरे पेज के रंगीन विज्ञापन” के लिए अनुरोध लिखा था. जावड़ेकर ने लिखा कि पुणे से निकलने वाली इस पत्रिका का संपादन “चालीस साल के एक प्रसिद्ध मराठी पत्रकार” रविकिरण साने कर रहे हैं.
साने अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ के राष्ट्रीय समिति के मेंबर भी हैं, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन को समर्थन दे रहे थे. महासंघ “पूरे ब्राह्मण समाज को एकजुट करने के नेक कार्य” के लिए काम करता है. साने के फेसबुक पेज पर ब्राह्मण मानस की जयंती समारोह में जावडेकर को सम्मान देते हुए एक तस्वीर भी है.

जावड़ेकर ने एनटीपीसी के प्रमुख को भी वही पत्र भेजा, और कंपनी के आरटीआई के जवाब में पता चलता है कि उन्होंने जावड़ेकर के अनुरोध पर ब्राह्मण मानस से जुड़े गौरा प्रकाशन को 25,000 रुपये का भुगतान किया.

जावड़ेकर ने 2013 में एनटीपीसी प्रमुख को संतकृपा नामक पत्रिका के लिए “कवर/बैक पेज/फुल पेज विज्ञापन” की मांग की थी, जो जावड़ेकर के अनुसार “महान संतों की शिक्षाओं के  आधार पर बेहतरीन शिक्षा प्रदान करता है”. उन्होंने पत्रिका के “दिवाली अंक” और अन्य “नियमित” मुद्दों के लिए विज्ञापन देने के लिए कहा.

हमने जावड़ेकर से इस बारे में जानना चाहा कि ब्राह्मण मानस के विज्ञापन के लिए उनका अनुरोध करने के पीछे क्या उनके और साने के निजी संबंधों का कुछ लेना-देना है. और क्या उन्हें लगा कि इससे हितों का टकराव होता है. जावड़ेकर को किये गये हमारे मेसेज, ईमेल और फ़ोन कॉल्स का कोई जवाब नहीं मिला.

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गेल से मिले आरटीआई के जवाब के अनुसार, मेनका गांधी के एनजीओ पीपल फ़ॉर एनिमल्स (पीएफ़ए) ने गेल से 2 लाख रुपये अगस्त, 2012 में और 5 लाख की राशि हासिल की जिसकी कोई तारीख नहीं है.

हमने मेनका गांधी द्वारा गेल के सीएमडी बीसी त्रिपाठी को भेजे गये इमेल्स में से एक ईमेल हासिल किया जिसमें उन्होंने त्रिपाठी को अगस्त, 2012 में नई दिल्ली के ललित होटल में संगठन के लिए धन और जागरुकता बढ़ाने के लिए आयोजित एक तीन दिन के कार्यक्रम को प्रायोजित करने के लिए कहा था.

उन्होंने ये ईमेल पीएफ़ए की चेयरपर्सन की हैसियत से लिखा था. गांधी ने जब ईमेल लिखा था, तब वो उत्तर प्रदेश के आंवला से सांसद थीं.

उन्होंने एनएचएआई के सीएमडी को भी एक ईमेल (प्रायोजन के रूपरेखा को अटैच करके) लिखा था जिसमें अगस्त 2012 में पांच सितारा होटल में तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित करने के लिए एनएचएआई के सहयोग की मांग की थी.

पीजीसीआईएल के  आरटीआई जवाब में यह नोट किया गया है कि उसने मई 2011 में पीएफ़ए को 5 लाख रुपये का भुगतान किया. इस संवाददाता द्वारा पेश किये गये नोट से पता चलता है कि एनएचएआई ने भी गांधी के अनुरोध को माना था.

हमने मेनका गांधी को ईमेल करके उनसे पूछा कि क्या वो अपने संगठन के लिए पैसा हासिल करने के लिए एक सांसद के रूप में अपने सरकारी पद का उपयोग करने को सही समझती हैं . हमने उन्हें कई ईमेल, मेसेज और कॉल किये, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

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मणिशंकर अय्यर ने राज्यसभा के सांसद रहते हुए अक्टूबर 2013 में भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) के अध्यक्ष को एक पत्र लिखा, जिसमें शेखर बासु रॉय को एक “उभरता हुआ प्रतिभाशाली पत्रकार” और न्यू अप्रोच के मुख्य-संपादक के रूप में परिचित करवाया. पत्र में लिखा था: “…श्री शेखर बासु रॉय को मैं दशकों से अच्छी तरह  जानता हूं…”. वास्तव में न्यू अप्रोच की वेबसाइट पर, अय्यर और रॉय की साथ में कई तस्वीरें मौजूद हैं. अय्यर ने बीसीसीएल के सीएमडी को सूचित किया कि न्यू अप्रोच के लिए विज्ञापन के रूप सहयोग की अपेक्षा की और कहा कि अगर सहयोग मिलता है तो उन्हें ख़ुशी होगी.

गेल के आरटीआई के जवाब में यह कहा गया कि उसने अय्यर के अनुरोध पर दिल्ली की एक पत्रिका जी फाइल्स को 6 लाख के विज्ञापन का भुगतान किया है. हमने अय्यर से संपर्क किया और पूछा कि क्या एक दोस्त द्वारा चलाई जा रही संस्था के लिए पीएसयू से पैसा हासिल करने के लिए एक सांसद के रूप में अपने सरकारी पद का इस्तेमाल करना  हितों का टकराव नहीं है.

अय्यर ने कहा कि वह न्यू अप्रोच का समर्थन करते हैं क्योंकि वह वास्तव में अच्छी पत्रिका है: “न्यू अप्रोच” पूरी तरह से असाधारण पत्रिका है और वे बहुत गहराई वाली स्टोरी करते हैं. मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि मैंने उनके लिए विज्ञापन की मांग की थी. मैं बस लिखता हूं (पत्र), मैं किसी को विज्ञापन देने के लिए मजबूर नहीं करता. बीसीसीएल या किसी अन्य पीएसयू ने विज्ञापन दिया या नहीं, मुझे नहीं पता. पीएसयू को तय करना होगा कि वे भुगतान करना चाहते हैं या नहीं. मैंने उन्हें, उनके भारत-पकिस्तान के मुद्दे के लिए तीन लोगों को लाने में भी सहायता की थी. मुझे जी फाइल्स मैगज़ीन के बारे में नहीं पता और मुझे इसके बारे में कुछ भी याद नहीं है.”

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एक ट्रेड यूनियन के लिए कारपोरेट स्पॉन्सरशिप बेतुकी बात लग सकती है, लेकिन दासगुप्ता ने, पश्चिम बंगाल के घाटल के लोकसभा सांसद के रूप में यह भी कर दिखाया.

27-30 नवंबर, 2012 को मुंबई में आयोजित ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के 40वें राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए दासगुप्ता के स्पांसरशिप मांगने पर सेल, गेल और एनएचपीसी ने कुल मिलाकर 35 लाख रुपये का भुगतान किया. इत्तेफाक से, दासगुप्ता एटक के महासचिव हैं जो कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया का ट्रेड यूनियन विंग है.

सेल और एनएमडीसी के अधिकारियों के लिखे पत्रों से पता चलता है कि वे दासगुप्ता के अनुरोध पर क्रमशः 20 लाख और 10 लाख रुपये देंगे.

हमने दासगुप्ता से पूछा कि एटक मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ने की उम्मीद कैसे करता है जब वह प्रबंधन से ही पैसा हासिल करता है और एक हद तक यह राजनीतिक चंदा है. उन्होंने हमसे कहा, “पीएसयू से विज्ञापन मांगने में कुछ भी गलत नहीं है. मुझे नहीं लगता कि इसमें कहीं भी टकराव की कोई बात है.” “ऐसा नहीं है कि हम हर बार पीएसयू से विज्ञापनों की मांग करते हैं. हम विज्ञापनों के लिए पूछ सकते हैं, उन्हें हासिल कर सकते हैं और इन सबके बावजूद भी प्रबंधन से कर्मचारियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ सकते हैं.”

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केरल से राज्यसभा के सांसद के रूप में पीजे कुरियन ने केरल के पथानामथित्ता जिले में आयोजित “उठरादम थिरूनल पम्बा नौका दौड़” के लिए फंड की मांग करते हुए अगस्त, 2013 में एनटीपीसी के अध्यक्ष अरूप रॉय चौधरी को पत्र लिखा था. अपने पत्र में वे कहते हैं, “इस मशहूर दौड़ को संचालित करने के लिए आयोजन समिति ने 70 लाख रूपये के खर्चे का अनुमान लगाया है. ऐसे शानदार कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने और बनाये रखने के लिए एनटीपीसी जैसे प्रतिष्ठित निगमों के प्रोत्साहन की हमेशा आवश्यकता रहती है. इसलिए, मैं इस वर्ष की पम्पा नौका दौड़ को शानदार सफ़लता दिलाने के लिए एनटीपीसी से खुले समर्थन, प्रायोजन और हर संभव सहायता का अनुरोध करता हूं.”

इत्तेफाक से, कुरियन, पूर्व मंत्रियों कोदिकुंनिल सुरेश और शशि थरूर के साथ इस नौका दौड़ संगठन के प्रमुख संरक्षक हैं. आरटीआई के तहत मिली जानकारी में एनटीपीसी के एक आंतरिक नोट से पता चलता है कि पीएसयू ने कुरियन की सिफारिश पर महात्मा गांधी नौका क्लब (50,000 रूपये) जैसी अन्य नौका दौड़ संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान की है. हमारे सवालों के जवाब में कुरियन ने हमें बताया कि एक नौका दौड़ के लिए पीएसयू से धन लेने से हितों में कोई टकराव नहीं होता. उन्होंने कहा, “सभी नौका दौड़ कंपनियों के स्पोंसर करने से ही हो पाती हैं, यह एक सार्वजनिक आयोजन है. मुझे इससे कोई फायदा नहीं हुआ है.”

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जनवरी 2015 में, पीजीसीआईएल ने वरिष्ठ भाजपा सांसद और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, शान्ता कुमार के अनुरोध पर दैनिक भास्कर अख़बार के एक खास सप्लीमेंट् के लिए 5 लाख रूपये के विज्ञापन दिए. जब हमने उनसे पूछा कि उन्होंने मीडिया संगठन के लिए पैसा पाने के लिए अपने सरकारी पद का इस्तेमाल क्यों किया? तो कुमार ने कहा  “मैंने केवल इसलिए सुझाव दिया क्योंकि मैंने सोचा कि दैनिक भास्कर के लिए ये एक अच्छा काम है. उन्होंने मुझसे बात की थी और फिर मैंने पीजीसीआईएल को पत्र लिखा था. सांसद और मंत्री केवल सुझाव देते हैं, सब कुछ तय पीएसयू ही करता है.”

लेकिन पीएसयू  इनके अनुरोध क्यों मानता है? यूपीए सरकार के तहत कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग द्वारा जारी दिसम्बर 2011 के एक परिपत्र में कहा गया है कि पीएसयू को जो पत्र सांसद लिखते हैं उन्हें “वीआईपी सन्दर्भों” के रूप में मानना पड़ता है. परिपत्र में यह भी कहा गया है कि पावती की तारीख से 15 दिनों के भीतर इन पत्रों का “विनम्रतापूर्वक” उत्तर देना भी ज़रूरी होता है.

नियम में आगे कहा गया है, “सरकारी कर्मचारियों को संसद और राज्य के विधानसभा सदस्यों के प्रति शिष्टाचार और महत्व दिखाना चाहिए”.

आदेश में कहा गया है, “इस संबंध में तय दिशानिर्देशों में किसी भी तरह की गड़बड़ी जो कि जांच प्रक्रिया में सामने आएगी, उस पर सरकारी कर्मचारी को तय सजा भुगतनी होगी.”
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के बोर्ड सदस्य एके जैन ने कहा, “देश भर में कुल 250 पीएसयू हैं. इनमें कुल मिलाकर हमने पाया कि औसतन हर पीएसयू सालाना 40 लाख रुपए नेताओं के निवेदन पर खर्च करता है. इसका मतलब यह है कि सांसदों की सिफारिश पर हर साल जनता के पैसों का 100 करोड़ ऐसे ही खर्च होता है.”

आरटीआई अधिनियम के सहारे ऐसे दस्तावेजों तक पहुंच पाना संभव है जिससे हम यह जान सकें कि जनता के पैसे का किस तरह से दुरुपयोग या उपयोग हो रहा है. लिहाजा  यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि मौजूदा सरकार भी अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह ही आरटीआई को निष्प्रभावी करने की हरसंभव कोशिश कर रही है.

(संदीप पाई एक स्वतन्त्र पत्रकार है, आपने पांच सालों तक जी मिडिया, डीएनए , और हिंदुस्तान टाइम्स की दिल्ली और मुंबई में पत्रकारिता की है, अब आप सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी से पर्यावरण विज्ञान, नीति और प्रबंधन में “एरामस मंड्स मास्टर्स प्रोग्राम” कर रहे हैं .)

साथ में मनीषा पांडे

इस स्टोरी के दूसरे भाग में हम आपको विस्तार से बताएंगे कि किस तरह से एक कांग्रेसी सांसद ने, अपने मीडिया समूह के लिए विज्ञापन पाने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया. तीसरे भाग में मोदी कैबिनेट के मंत्रियों की चिट्ठियों का ब्यौरा और यूपीए सरकार की पीएसयू से फंड मांगने की पड़ताल करेंगे.

अनुवाद:  बाल किशन बाली

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