अनुपम मिश्र को गुजरे एक बरस बीत गया. उनके कामकाज का असीमित विस्तार उन्हें सबके बीच में बनाए हुए है.
भगीरथ ने पितरों के उद्धार के लिए गंगा का धरती पर अवतरण कराया था. ऐसे में अगर अपने परिवार से इतर सोचते हुए एक व्यापक उद्देश्य की परिणति में कोई एक गंगा की जगह पानी की अनेक गंगाएं धरती पर उतार दे तो यही कहना होगा कि ऐसी शख्सियत भगीरथ से एक क़दम आगे है. तब उसे आधुनिक भगीरथ नहीं कहा जाएगा बल्कि भगीरथ को सतयुग का अनुपम मिश्र कहा जाएगा.
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Contributeअनुपम मिश्र की सदेह सांसारिक अनुपस्थिति को आज एक साल हो गए. पिछले साल आज ही के दिन सादगी, शांति और प्रकृति प्रेम की अद्भुत मूर्ति ने दबे पांव संसार को अलविदा कह दिया था. अनुपम मिश्र से मेरा पहला परिचय हुआ था जुलाई 2016 में, जब हम तालाब बचाओ आंदोलन से संबंधित एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे. इस दौरान उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ने को मिली. तालाबों का पूरा विज्ञान तब पहली बार मेरे सामने आया था. तालाब से जुड़े तमाम शब्द, उनकी परिभाषाएं, तालाब की संरचना, बनाने की तकनीकी आदि सब कुछ उस एक किताब में बड़े ही सरल भाषा में संकलित है.
हिंदी के अनन्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है- ‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख/ और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’. अनुपम को शायद कभी भवानी प्रसाद मिश्र से बड़ा नहीं होना था लेकिन अगर भवानी प्रसाद मिश्र के कहे पर जाएं तो अपनी इस किताब से अनुपम सच में भवानी प्रसाद मिश्र से बड़े हो गए थे. भवानी प्रसाद मिश्र, जो अनुपम के पिता थे और जिन्हें अनुपम मन्ना कहकर बुलाते थे.
हिंदी के विख्यात कवि का पुत्र होना अनुपम के लिए गर्व का विषय तो था लेकिन यह उनका परिचायक बनें यह उन्हें पसंद नहीं था. अनुपम के एक मित्र और सहपाठी रहे बनवारी बताते हैं कि जब उन्होंने अनुपम से इसका कारण पूछा था तो सरल सहज अनुपम ने जवाब दिया था कि भवानीजी के पुत्र होने के नाते मुझसे अनायास ही बहुत सी अपेक्षाएं कर ली जाती हैं और मेरी साहित्य में रूचि नहीं है. फिर मैं अनुपम के रूप में ही क्यों न पहचाना जाऊं.
लेकिन अपने पिता के प्रति निष्ठा को लेकर अनुपम की भावना को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है. अनुपम दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में संस्कृत विभाग के विद्यार्थी थे. अपने संस्कृत विभाग में प्रवेश लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि एक बार उन्होंने अपने पिता को किसी परिचित से बात करते हुए सुना था जिसमें वे कह रहे थे कि मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरा कोई पुत्र संस्कृत सीखता. अनुपम ने उसी दिन स्वयं संस्कृत सीखने का निश्चय कर लिया.
संस्कृत का विद्यार्थी, घर का साहित्यिक और पत्रकारीय माहौल और फोटोग्राफी के शौकीन अनुपम तालाब की खोज में क्यों निकल पड़े? पानी से उनका यह लगाव कब और क्यों पुष्पित-पल्लवित हुआ? इस सवाल का जवाब देते हैं दिलीप चिंचालकर अपने एक लेख में. दिलीप बताते हैं कि एक दिन अनुपम राधाकृष्णजी का पत्रवाहक बनकर वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी के यहां जाते हैं. थानवीजी के जवाब लिखने के दौरान अनुपम का ध्यान जमीन पर बनी जालियों की एक आकृति पर जाता है. जिज्ञासा उठती है कि यह क्या है? जवाब मिलता है कि प्रदेश में कम वर्षा की वजह से पानी को सहेजने का यह पुराना तरीका है. छत पर वर्षा के पानी को एकत्रित कर जमीन में सहेजने की यह व्यवस्था साल भर यहां के लोगों के लिए पानी का इंतजाम करती है.
जीवन के आधार को इतनी अहमियत देने की यह व्यवस्था अनुपम के संकल्पों में नए युग के एक जल-पुरुष का बीज वपन करती है और आज के समाज को देशज तकनीकी से जल के परंपरागत स्रोतों को पुनर्जीवित करने वाली एक अनुपम संजीवन मिल जाती है. फिर क्या था, यात्राएं, सामाजिक अनुसंधान और परंपरागत तकनीकों का पुनर्लेखन और सबकी परिणति के रूप में एक रत्न निकलकर आता है, जिसका नाम है- ‘आज भी खरे हैं तालाब’.
आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र की पहली कृति है. यह किसी भी तरह के कॉपीराइट के अधीन नहीं है. कोई भी इस पुस्तक को छाप सकता है. तालाबों के लिए लगभग विश्वकोष जैसी यह पुस्तक आधुनिक तकनीकी से मदांध मानवजाति के लिए आंखें खोलने वाली कृति है.
अनुपम के लिए तालाब केवल जल-स्रोत नहीं थे बल्कि वह सामाजिक आस्था, परंपरागत कला-कौशल और संस्कारशीलता के उदाहरण थे. किताब की शुरुआत होती है कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौंराई नाम के चार भाइयों से. कूड़न की बेटी को पत्थर से चोट लग जाती है और वह अपनी दरांती से पत्थर को उखाड़ने की कोशिश करती है. पर यह क्या! उसकी दरांती तो सोने में बदल गई. दरअसल वह पत्थर नहीं पारस था. कूड़न बेटी के साथ पत्थर को लेकर राजदरबार पहुंचता है लेकिन राजा पारस लेने से इंकार कर देता है और कहता है- ” जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना.”
अनुपम किताबी शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा मानते थे. आधुनिक शिक्षा के पर्यावरणीय अनपढ़पने पर तंज कसते हुए अपनी किताब में अनुपम लिखते हैं – ‘सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे. इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की. ये इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हज़ार बनाती थीं. पिछले दो-सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया.’
आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है. यह तो उनकी उपलब्धियों के महान कोष का एक छोटा सा हिस्सा है. दरअसल अनुपम की उपलब्धियों को तो गिना भी नहीं जा सकता है. खुद अनुपम को यह चीज पसंद नहीं थी. अपनी उपलब्धियों के प्रति किसी भी तरह की प्रशंसा की शून्य आकांक्षा और अपने पास आए सुविधा के तमाम अवसरों को अपने अलावा किसी सुयोग्य को सौंप देने की उनकी आदत उनके व्यक्तित्व को वास्तविक अनुपमता सौंपती है.
हम अनुपम मिश्र को कभी देख नहीं पाए. ऐसे में दिल में इस टीस को रोकना बिल्कुल भी संभव नहीं कि कम से कम एक बार उनसे मिल लेते. इसलिए भी कि उन्हें धन्यवाद दे सकें कि हमारी सांस के साथ हमारे खून में घुलने वाली हवाओं में उन तालाबों के पालों से उठने वाली खुश्बू है जो धरती पर जीवन का फूल खिलाने की तब सबसे बड़ी जरूरत होंगी जब सारे विकल्प खत्म हो चुके होंगे.
अनुपम मिश्र के लिए दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने 1993 के अपने एक लेख में जो लिखा था वह आज उनके जाने के बाद और भी प्रासंगिक हो उठा है कि – ‘पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है. उसके जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं. यह उसका और हमारा, दोनों का सौभाग्य है.
अपने एक लेख में अनुपम विनोबा भावे की एक उक्ति दोहराते हैं जिसमें बिनोबा कहते हैं- ‘पानी जब बहता है तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य, बड़ा नारा नहीं रखता, कि मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है. वह बहता चलता है. सामने छोटा–सा गड्ढा आ जाए तो पहले उसे भरता है. बच गया तो उसे भर कर आगे बढ़ चलता है. छोटे–छोटे ऐसे अनेक गड्ढों को भरते–भरते वह महासागर तक पहुंच जाए तो ठीक. नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को भर कर ही संतोष पा लेता है. ऐसी विनम्रता हम में आ जाए तो शायद हमें महासागर तक पहुंचने की शिक्षा भी मिल जाएगी.’ अनुपम का जीवन बिनोबा भावे की इसी उक्ति का प्रायोगिक संस्करण है.
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