तीन तलाक़: जहां रफ़ू की ज़रुरत थी वहां तलवार चला दी

तीन तलाक पर पीड़िताओं की स्थिति उन भेड़ों सरीखी हो गई है जो चरवाहे से नाराज होकर कसाई के पास चली गईं.

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भारत में रह रहे शिया, मेमन, बोहरा, आग़ाख़ानी, अहले हदीस फ़िरक़े के मुसलमान एक बैठक की तीन तलाक़ नहीं मानते. इसके लिए उन्होंने ‘द मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन मैरिज बिल 2017’ जैसा कोई क़ानून नहीं बनाया. बस ये तय कर लिया कि क्योंकि ये क़ुरआन सम्मत तरीक़ा ही मानेंगे और तीन तलाक़ क़ुरआन सम्मत नहीं है, तो इसे नहीं मानेंगे. बा-रास्ते क़ुरआन इन सबने एक बेहतर व्यवस्था बनाई और कितने आसान और तार्किक तरीक़े से अपने समाज में एक बुराई को फैलने से बचा लिया.

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इन फ़िरक़ों में एक बैठक में कोई पति तीन बार तलाक दे या हज़ार बार, उसे सिर्फ ‘एक’ ही माना जाता है, और बाक़ी की प्रक्रिया अगले तीन महीने में पूरी होती है. इस बीच दोनों पक्षों को पूरा समय मिल जाता है अपने फ़ैसले के अच्छे-बुरे पक्ष को समझने का. बच्चों के भविष्य पर भी सोच समझ के फ़ैसला हो जाता है. हलाला जैसे चोर दरवाज़े से पुनः वापसी की ज़रुरत नहीं पड़ती.

महिला भी दूसरी शादी करने के लिए उतनी ही आज़ाद हो जाती है जितना पति और इस पूरी प्रक्रिया में कोर्ट-कचहरी का खर्चा-झंझट भी नहीं रहता. सुन्नी समाज में भी तीन तलाक़ पर प्रतिबन्ध में रोड़ा अटकाने वाले क़ाज़ी के विरुद्ध, अदालत की अवहेलना और नारी उत्पीड़न का मौजूदा क़ानून ही काफ़ी था उन्हें एक बैठक की तीन तलाक़ को मान्यता देने से रोकने के लिए.

क्या बस इतना काम नहीं कर सकता था आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड? सारी दुनिया में एक ही क़ुरआन है, लेकिन उससे उपजे क़ानून इतने अलग अलग इसलिए हैं की व्याख्या करनेवाले मर्द अपनी-अपनी संकीर्ण समझ और कबीलाई नैतिकता को क़ानून का आधार बनाते हैं ना कि क़ुरआन को.

बहरहाल अब ये बिल आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वजूद पर ही सवालिया निशान खड़ा करता है. मुस्लिम समाज को ऐसे बोर्ड की ज़रुरत क्या है जो ना वक़्त शनास है, ना अद्ल-शनास और ना ही क़ुरआन का ताबेदार. बोर्ड के मेंबर्स में ज़रा भी ग़ैरत बची है तो उन्हें इस बोर्ड को तुरंत भंग कर देना चाहिए और मुसलमान मर्दों से ख़ासकर मुआफ़ी मांगनी चाहिए की उनकी ही वजह से मर्दों के ख़िलाफ़ एक ऐसा क़ानून बन गया जो की गौरक्षा और लव जिहाद के क़ानूनों से ज़्यादा घिनौना माहौल बनाने की ताक़त रखता है, और वो भी परिवारों के अंदर.

याद रखिये की बोर्ड के ये मेंबर अदालत में एफिडेविट देते हैं की महिलाऐं ‘नीच बुद्धि’ की होती हैं, कि इनके फ़ैसलों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, कि मुसलमान समुदाय को बाल विवाह विरोधी क़ानून से बाहर रखा जाए वग़ैरह.

ये कौन लोग हैं जो खुद को पूरी क़ौम का प्रतिनिधि भी कहते हैं और इक्कीसवीं सदी में इस्लाम के नाम पर ये जहालत करते फिरते हैं? इस बोर्ड को फ़ौरन अपनी समाजी-सियासी मौत का ऐलान कर देना चाहिए अब. इस बिल के बाद साफ़ है कि बोर्ड की मर्दवादी जहालत अब मुस्लिम समाज पर बहुत भारी पड़ रही है.

‘द मुस्लिम वीमेन प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन मैरिज बिल 2017’ जैसा ख़राब क़ानून क्या अल्लाह का क़हर है इन मर्दवादियों पर जिन्होंने परिवार के अंदर पितृसत्ता को बनाए रखने के लिए सुन्नी महिलाओं को तीन तलाक़ के आतंक के साये में रखा?

आप अंदाज़ा कीजिये कि इस बिल के मुताबिक़ तीन तलाक़ देने पर शादी पर कोई असर नहीं पड़ेगा, बीवी बीवी ही रहेगी, उसके हक़ और अधिकार पहले जैसे ही रहेंगे, तलाक़ शब्द कोई गाली या अपशब्द भी नहीं, इस शब्द से बीवी की आलोचना या निरादर भी नहीं होता की उसका मानसिक उत्पीड़न हो गया हो, इस शब्द का उच्चारण करने से देश का कोई क़ानून भी नहीं टूटता, इस शब्द का उच्चारण राष्ट्रद्रोह भी नहीं है, फिर भी पति जेल चला जाएगा, यानी केस लड़ा जाएगा, दुश्मनी होगी, सज़ा होगी, ज़ुर्माना होगा, लेकिन बीवी को आज़ादी नहीं मिलेगी.

तो फिर तीन साल जेल काटने के बाद पति कैसे सम्बन्ध रखेगा बीवी से? ऐसे में पूरा परिवार एक विषाक्त माहौल में ज़िंदगी नहीं गुज़रेगा क्या?

उधर बोर्ड की धुर विरोधी ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ (बम्मा), राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ, मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठनों को हो क्या गया है आख़िर? उन्हें बदला चाहिए या इंसाफ़? कल एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम में संघ से जुड़ी फ़राह फैज़ ने कहा की तीन साल की सज़ा कम है, सात साल की होनी चाहिए (मानो पिछले जन्म की कोई अदावत है).

बम्मा की ज़ाकिआ सोमन और नूरजहां मुबारकबाद और जीत की ख़ुशी मना रहीं हैं. महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की शाइस्ता अम्बर कैमरे पर मिठाई खा-खिला रही हैं. ये सभी तीन साल की सज़ा को लेकर उत्साहित हैं. क्या वाक़ई किसी को नहीं दिख रहा की ये शैतानी चाल चली गयी है? एक ग़लत क़ानून बन जाने देंगी आप लोग? हमें तीन तलाक पर सिर्फ़ प्रतिबन्ध की ज़रुरत थी, तलाक़ में क़ुरआन की बताई प्रक्रिया अपनाने की ज़रुरत थी, ना की बदले की ग़रज़ से पति, बच्चों, आश्रितों को तबाह-बर्बाद करने का हथियार चाहिए था?

अब विशुद्ध सिविल के मामले को अपराध के दायरे में डाल कर ख़ानदानों के भविष्य बिगाड़े जाएंगे. एक तरफ़ चरवाहे से नाराज़ भेड़ें, क़साई के पास चली गयीं, दूसरी तरफ़ चरवाहों ने भी साबित कर दिया कि उनकी अक़्ल वाक़ई घास ही चर रही है.

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