प्रधानमंत्री की फिलीस्‍तीन यात्रा को इज़रायली मीडिया ने कैसे कवर किया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ दिनों पहले इज़रायल गए थे तब इसकी काफी चर्चा हुई थी. अबकी जब वे फिलीस्‍तीन की यात्रा से लौटे हैं तो मीडिया में इस यात्रा को उतनी तवज्‍जो नहीं मिली है. विदेशी मीडिया में मोदी की फिलीस्‍तीन यात्रा की कवरेज का एक विशद विश्‍लेषण.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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रविवार को इजरायली अखबार ‘इजरायल हायोम’ में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एक विशेष साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है जिसे मुख्य संपादक बोआज बिस्मुथ ने लिया है. इसमें एक सवाल यह है कि ट्रंप के कार्यकाल के पहले साल में सबसे खास बिंदु या उल्लेखनीय मामला क्या है. ट्रंप ने अपने जवाब में कहा है कि उनकी समझ से जेरूसलम एक बहुत बड़ा और अहम बिंदु रहा है.

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वे कहते हैं, ‘आपकी महान राजधानी के रूप में जेरूसलम का होना बहुत-से लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. मुझे सौ फीसदी ईमानदारी के लिए शुक्रिया अदा किया गया है और कुछ लोगों ने ऐसा नहीं भी किया है. पर यह मेरा अहम संकल्प था और इसे मैंने पूरा किया है.’

इसके बाद बिस्मुथ अगले सवाल के शुरू में समूचे इजरायली राष्ट्र की ओर से ट्रंप को शुक्रिया कहते हैं. जेरूसलम के बदले कुछ देने के सवाल पर ट्रंप कहते हैं कि दोनों पक्षों को शांति के लिए कड़े समझौते करने होंगे. यह साक्षात्कार दो कारणों से उल्लेखनीय है. एक तो यह कि जेरूसलम को इजरायली राजधानी मानने के फैसले के बाद किसी इजरायली अखबार को दिया गया ट्रंप का यह पहला साक्षात्कार है. दूसरी बात यह कि यह अखबार इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू का बेहद करीबी है.

साल 2007 में शुरू हुआ हिब्रू भाषा का ‘इजरायल हायोम’ मुफ्त में बांटा जाता है और देश में इसका वितरण सबसे अधिक है. इसके असर का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नेतन्याहू के विरोधी सांसदों ने मुफ्त में अखबार बांटने पर रोक लगाने के लिए कानून तक प्रस्तावित कर दिया था. यह सब उल्लिखित करने की वजह यह है कि इजरायल-फिलीस्तीन मसले में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है तथा इस मुद्दे पर जितनी गंभीरता से कूटनीति और दमन की बिसात पर खेला जाता है, उतनी ही तवज्जो मीडिया और छवि के दायरे में भी दी जाती है.

ट्रंप के जेरूसलम फैसले के पहले और बाद में भारत के इजरायल तथा फिलीस्तीन के संबंधों में भी कुछ नये अध्याय जुड़े हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति की घोषणा के कुछ ही समय पहले प्रधानमंत्री मोदी इजरायल गये थे जहां नेतन्याहू ने उनका जोरदार स्वागत किया था. उस दौरे से पहले फिलीस्तीनी राष्ट्रपति अब्बास दिल्ली आये थे.

जेरूसलम पर अमेरिकी फैसले के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत ने ट्रंप की घोषणा के विरोध में वोट डाला और फिर इजरायली प्रधानमंत्री ने भारत का दौरा किया. बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी फिलीस्तीन की यात्रा पर गये थे. राजनीतिक और व्यापारिक संबंधों तथा कूटनीतिक संपर्कों को कुछ देर के लिए किनारे रख कर यदि इजरायली अखबारों में मोदी के फिलीस्तीन दौरे की रिपोर्टों पर नजर डालें, तो यह साफ दिखता है कि इजरायली मीडिया इजरायल-भारत संबंधों की मजबूती को लेकर बहुत आश्वस्त दिखता है, बहुत कुछ हमारे देसी मीडिया की तरह.

दौरे से कुछ दिन पहले इस बाबत ‘इजरायल हायोम’ की एक रिपोर्ट में फिलीस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के वरिष्ठ सलाहकार मज्दी खाल्दी के हवाले से बताया गया था कि यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा है और यह ऐतिहासिक होगी. अखबार के अंग्रेजी वेबसाइट पर यह ख़बर बमुश्किल 150 शब्दों की है और इसके बाइलाइन में एसोसिएट प्रेस और इजरायल हायोम स्टाफ लिखा हुआ है तथा खाल्दी का बयान वायस ऑफ पैलेस्टिनियन रेडियो से लिया गया है.

रिपोर्ट दो बातें बताना नहीं भूलती- एक तो यह कि कुछ ही हफ्ते पहले नेतन्याहू का भारत में ‘गर्मजोशी से स्वागत’ हुआ था, तथा दूसरे यह कि दशकों तक गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अगुवा रहे भारत ने हाल के सालों में इजरायल से बढ़िया रिश्ते बनाये हैं.

यह दिलचस्प है कि इजरायली प्रधानमंत्री और उनकी लिकुड पार्टी का यह नजदीकी अखबार मोदी की फिलीस्तीन यात्रा को सामान्य घटना की तरह रिपोर्ट कर रहा है. इस अखबार पर यह आरोप लगता रहा है कि यह वैसी खबरें बहुत कम ही छापता है जिनसे नेतन्याहू को नुकसान हो. तो, फिर क्या माना जाये कि इजरायली दक्षिणपंथी मोदी के वेस्ट बैंक जाने से खुश नहीं हैं!

इसी अखबार ने 11 फरवरी को दौरे की रिपोर्ट में कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने फिलीस्तीनी राष्ट्रीय अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता दोहरायी, लेकिन उन्होंने अब्बास के राजनीतिक एजेंडे के लिए समर्थन नहीं दिया. एसोसिएट प्रेस और अखबार के स्टाफ के बाइलाइन से बनी इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वेस्ट बैंक की यह यात्रा कुछ हद तक प्रधानमंत्री नेतन्याहू को छह दिनों के लिए मेहमान करने के बदले फिलीस्तीनियों को कम्पंसेट करने के लिए थी. भारत की मेजबानी को रिपोर्ट में दोनों देशों के बेहतर होते संबंध के प्रमाण के रूप में उल्लिखित किया गया है.

आम तौर पर कुछ उदारवादी माने जानेवाले अखबार हारेट्ज की रिपोर्टिंग सबसे दिलचस्प है. मुख्य रूप से पत्रकार नोआ लंदाऊ ने मोदी की वेस्ट बैंक यात्रा पर रिपोर्टिंग की है. एक रिपोर्ट में वे हेडलाइन बनाती हैं कि ‘ऐतिहासिक यात्रा में’ भारत के मोदी ने अराफात को ‘विश्व के महानतम नेताओं में एक’ बताया.

ऐसी हेडलाइन बनाने का सीधा मतलब एक तरह की सनसनी पैदा करना है क्योंकि बहुत से इजरायली यासिर अराफात को ‘आतंकवादी’ मानते हैं. इस रिपोर्ट का आधा हिस्सा नेतन्याहू और मोदी की मुलाकातों के बारे में हैं. इससे पहले पांच फरवरी को इसी रिपोर्टर ने मोदी के दौरे की खबर देते हुए हेडलाइन में अराफात को श्रद्धांजलि देने की बात को उल्लिखित किया था.

पूरी रिपोर्ट भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारी के हवाले से तैयार की गयी है. वैचारिक रूप से अलग-अलग खेमों में खड़े इन दो अखबारों की मिलती-जुलती रिपोर्टिंग यही बताती है कि इजरायली मीडिया ने मोदी की फिलीस्तीन यात्रा को एक सामान्य खबर की तरह ही लिया है तथा उसका ध्यान मुख्य रूप से यह जताने पर है कि इजरायल-भारत के संबंध बेहतर हो रहे हैं.

‘हारेट्ज’ के दो ऑपिनियन लेखों से इस बात को समझने में मदद मिल सकती है. पिछले साल पांच जुलाई को प्रकाशित डेविड रोजेनबर्ग के लेख का शीर्षक ही था- ‘क्यों भारत के मोदी फिलीस्तीनियों को नजरअंदाज कर सकते हैं?’ शीर्षक के ठीक नीचे हाइलाइटर में लिखा है कि ‘भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की इजरायल यात्रा का मतलब यह नहीं है कि उन्होंने फिलीस्तीनी मुद्दे से मुंह मोड़ लिया है, बल्कि यह है कि शीत युद्ध समाप्त हो चुका है और उन्हें एक अरब लोगों का पेट भरना है.’

रोजेनबर्ग का कहना है कि मोदी की इजरायल यात्रा दोनों देशों के अब तक के गुपचुप रिश्ते का सामने आना है, जैसे कि किसी संगीत आयोजन में दो जोड़े कैमरों के फ्लैश की चमक के बीच आ रहे हों. इस लेख में कहा गया है कि इजरायल और भारत के व्यापारिक संबंधों के कारण फिलीस्तीनी हाशिये पर जा रहे हैं. मध्य-पूर्व में भारत का बेहद कम प्रभाव होने को रेखांकित करते हुए लेखक ने कहा है कि इजरायल-फिलीस्तीन विवाद में भारत के लिए बहुत-कुछ करने के लिए बचा नहीं है.

भाजपा और दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के लंबे समय से चले आ रहे इजरायल-प्रेम का संदर्भ देते हुए लेख में कहा गया है कि अब्बास की भारत यात्रा एक सामान्य दौरा भर ही था. इसमें यह भी उल्लिखित है कि मध्य-पूर्व में अगर हालात खराब होते हैं और भारतीय मतदाताओं का मन बदलता है, तो दोनों देशों के संबंध भी इसके असर से बच नहीं सकते हैं.

इस साल 15 जनवरी को इसी अखबार में मद्रास कूरियर के प्रमुख संपादक श्रेणिक राव का एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने सवाल उठाया है कि क्या भारत एक ही साथ इजरायल, फिलीस्तीन और ईरान का ‘बहुत अच्छा दोस्त’ हो सकता है.

‘द जेरूसलम पोस्ट’ में हर्ब कीनोन ने 13 फरवरी को एक रिपोर्ट का शीर्षक बनाया है कि नेतन्याहू से मुलाकात और फिर अराफात की प्रशंसा के बाद अब मोदी ईरानी राष्ट्रपति रूहानी की मेजबानी करेंगे. इसमें मोदी की विदेश नीति की बड़ाई करते हुए कहा गया है कि वे भारत के फायदे के लिए आपस में बैर रखनेवाले देशों के साथ अलग-अलग संबंध स्थापित कर सकते हैं.

इस अखबार में प्रधानमंत्री मोदी के वेस्ट बैंक जाने पर सामान्य खबरें ही बनायी गयी हैं. तीन जनवरी के एक लेख में कीनोन मोदी की इसी नीति को संतुलन साधने की कवायद बता रहे थे. कीनोन की एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान में भी ऐसी आवाजें उठने लगी हैं जो भारत की तरह इजरायल और फिलीस्तीनी अथॉरिटी के साथ संबध बनाने के पक्ष में हैं. इस रिपोर्ट में पाकिस्तान के अखबार ‘द डेली टाइम्स’ में मोहसिन सलीम उल्लाह और मुहम्मद ताहिर इकबाल तथा ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ में कामरान यूसुफ के लेखों का हवाला दिया गया है.

‘द टाइम्स ऑफ इजरायल’ ने जॉर्डन के शाह के साथ प्रधानमंत्री मोदी के इजरायल-फिलीस्तीन मुद्दे पर बातचीत को खबर बनाया था. जॉर्डन के शाह जेरूसलम के महत्वपूर्ण मुस्लिम और ईसाई धार्मिक स्थलों के संरक्षक हैं. इस अखबार की ज्यादातर रिपोर्ट एजेंसियों की रिपोर्ट पर आधारित हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि लगभग सभी अखबारों ने इस बात का उल्लेख किया है कि प्रधानमंत्री मोदी, जॉर्डन के जहाज से वेस्ट बैंक गये तथा उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी इजरायली एजेंसियों की थी.

इजरायल-फिलीस्तीन मुद्दे पर बहुराष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए कोशिश करने का मोदी से अब्बास के आग्रह को भी सभी अखबारों ने जगह दी है. इजरायल ऐसी कोशिश का विरोधी है और वह सिर्फ अमेरिकी मध्यस्थता के पक्ष में हैं, जबकि जेरूसलम पर ट्रंप के फैसले के बाद फिलीस्तीनी नेतृत्व ने अमेरिका की मध्यस्थता को सिरे से नकार दिया है.

इस सरसरी आकलन से स्पष्ट है कि इजरायल के अखबार भी इजरायल-फिलीस्तीन मुद्दे और व्यापारिक संबंधों पर आधिकारिक चर्चा से आगे बहस को नहीं ले जा सके हैं. यह भी संभव है कि हमारी देसी मीडिया की तरह उन्हें भी किसी गंभीर मुद्दे पर गंभीर चर्चा से परहेज हो. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि आम तौर पर मीडिया सत्ता और कारोबार के स्वार्थ से अब अलग भी नहीं है.

(यह लेख मूल रूप से मीडियाविजिल डॉट कॉम में प्रकाशित हुआ है)

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