इकतारे की धुन पर चलेगी मोदी-जिनपिंग शिखर बैठक

आगामी शिखर बैठक में भारत और चीन के पास हल करने को अनगिनत मुद्दे हैं पर इस बैठक का ध्यान व्यापार, व्यापार और सिर्फ व्यापार ही होगा.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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अमेरिकी कूटनीतिक विद्वान रिचर्ड होलब्रुक की प्रसिद्ध उक्ति है- “कूटनीति जैज संगीत की तरह है, इसमें एक धुन को बजाने के अनगिनत तरीके हो सकते हैं.”

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भारत और चीन के संबंध इस बात को समझने के लिए समुचित पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं. अधिक दिन नहीं बीते हैं, जब डोकलाम में दोनों देश अपनी सैन्य टुकड़ियों के साथ आमने-सामने खड़े थे और उनके मंत्री-अधिकारी तल्ख बयानबाजी कर रहे थे. यह बात भी पुरानी नहीं हुई है, जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज लोकसभा में दोनों देशों के साझा हितों और सहयोग का हवाला देते हुए बता रही थीं कि दोनों देश एक-दूसरे के आर्थिक विकास में भागीदार हैं. भाजपा के वैचारिक संगठन संघ द्वारा चीनी सामानों के बहिष्कार की अपीलें भी हाल ही की घटनाएं हैं.

भारत के टेलीविजन चैनलों और अखबारों में अक्सर चीन की आक्रामकता और उसकी काट में भारत के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों की चर्चा होती रहती है. चीन का सरकार नियंत्रित मीडिया भी बीच-बीच में तनातनी को हवा देता रहता है.

ऐसे माहौल में राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच 27-28 अप्रैल की सीधी बातचीत निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक घटना है. इस बैठक से ठीक पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण का चीन जाना भी शिखर सम्मेलन की विशिष्टता को सूचित करता है.

मोदी-जिनपिंग बैठक इसलिए भी खास है कि जून में शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में जाने से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी चीन जा रहे हैं. चीन और भारत जैसे बड़े देशों के नेताओं के बीच कोई भी बातचीत एक खास अवसर है, पर जब वे द्विपक्षीय और वैश्विक मसलों पर आमने-सामने बैठ कर खुले मन से चर्चा करें, तो ऐसे आयोजनों का महत्व बहुत बढ़ जाता है. भारत और चीन की मीडिया ने जिस प्रकार से इस बातचीत को रेखांकित किया है, वह भी यह संकेत देता है कि इस बैठक से दोनों देशों ने ढेरों उम्मीदें पाल रखी हैं.

अब सवाल यह उठता है कि क्या मोदी या जिनपिंग द्विपक्षीय संबंधों को दशकों से चले आ रहे सीमा-विवाद, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया में चीनी विस्तार जैसे तनावकारी कारकों की छाया से बाहर निकाल कर व्यापार एवं वाणिज्य की लाभदायक धूप में पहुंचने का प्रयास करने वाले व्यापक दृष्टिकोण के राजनेता हैं, या फिर बीते दिनों में अंतरराष्ट्रीय व क्षेत्रीय परिदृश्य में ऐसा कुछ हुआ है, जिसकी वजह से दोनों नेता इस तरह से बात करने के लिए तैयार हुए हैं?

इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए. सरकार में आने के बाद से प्रधानमंत्री मोदी लगातार विदेश यात्राएं कर रहे हैं तथा वैश्विक नेताओं और कॉरपोरेट जगत के धुरंधरों से मिल रहे हैं. इन सबके बावजूद उनकी महत्वाकांक्षी योजना ‘मेक इन इंडिया’ को निवेश के स्तर पर कोई खास फायदा नहीं हुआ है.

आंकड़े साफ इशारा करते हैं कि देश में वित्तीय निवेश की गति सामान्य ही रही है तथा इसे बढ़ाने के लिए उतावली सरकार द्वारा कई स्तरों पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा सौ फीसदी किये जाने का भी कोई संतोषजनक परिणाम निकलता नजर नहीं आ रहा है.

मोदी का आंतरिक अर्थशास्त्र

नोटबंदी, जीएसटी तंत्र, कराधान में कॉरपोरेट सेक्टर को छूट देने जैसे उपाय भी कामयाब नहीं हो सके हैं, बल्कि इसके उलट नुकसान ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है. हालांकि ऐसे नतीजों के लिए पूरी तरह से मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करना ठीक नहीं होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था में मंदी के पीछे अनेक अंतरराष्ट्रीय कारक भी जिम्मेदार हैं. इन दिनों सरकारी वित्त प्रबंधन का सबसे बड़ा सरदर्द कच्चे तेल की बढ़ती कीमते हैं.

दबाव अगर थोड़ा भी बढ़ा, तो चालू खाता घाटे पर नकारात्मक असर होगा और मुद्रास्फीति में इजाफा होगा. चुनावी साल होने के नाते शुल्क घटा कर उपभोक्ताओं को राहत देने का भी प्रयास होगा जिससे राजस्व वसूली घटेगी. इसी के साथ विदेशी मुद्रा भंडार भी कम होगा.

अब इन आसन्न दिक्कतों के साथ आप बैंकिंग प्रणाली की मौजूदा मुसीबतों को रख दें, तो हालात का अंदाजा हो जायेगा. रोजगार के मोर्चे पर बुरी तरह से विफल रही सरकार को चुनावी साल में मतदाताओं को कुछ सब्जबाग फिर से दिखाने हैं. लेकिन निवेशक को आंकड़ों की बाजीगरी और मीडिया को मैनेज कर मनमाफिक नैरेटिव गढ़ने की सच्चाई का बखूबी पता है. इसका अंदाजा एअर इंडिया को बेचने में आ रही अड़चनों से लगाया जा सकता है.

व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में

ये तो आंतरिक कारण हैं जिनकी वजह से प्रधानमंत्री को शी जिनपिंग की ओर देखना पड़ा है. हालांकि वे इसकी शुरुआत साबरमती नदी के तट पर झूला झूलने से कर चुके हैं. यह महज संयोग की बात नहीं है कि दक्षिणपंथी संगठनों और मीडिया का चीन-विरोधी सुर पिछले कुछ दिनों से मद्धिम पड़ा है. दोनों देशों के बीच व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में झुका है, यानी हम निर्यात से अधिक चीन से विभिन्न वस्तुएं आयात करते हैं. चीन भी भरोसा दिलाता रहा है कि वह इस झुकाव को निवेश के जरिये कुछ संतुलित करने की कोशिश करेगा, पर अभी तक यह अपेक्षा से बहुत कम हुआ है.

चीन, जापान और दक्षिण कोरिया ही दुनिया के ऐसे देश हैं जिनके पास बहुत सारी नगदी है और वे तुरंत धन देने की स्थिति में हैं. प्रधानमंत्री गुजरात के अपने मुख्यमंत्रित्व काल से ही यह कहते रहे हैं कि मौजूदा दौर में विदेश नीति का मतलब वाणिज्य है. ऐसे में इस शिखर बैठक का मुख्य फोकस भारत में निवेश का आग्रह ही होगा या होना चाहिए.

कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन की यात्रा की थी और उस दौरे में दोनों देशों के विवादों को किनारे रख व्यापार बढ़ाने का फैसला हुआ था. वह 34 सालों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली चीन यात्रा थी. तब चीन को भी अपने आर्थिक उदारीकरण के लिए भारत जैसे बड़े पड़ोसी देश की दरकार थी और भारत भी व्यापार के खुलेपन की ओर अग्रसर हो रहा था और उसे चीन के भरोसे की जरूरत थी.

यह अकारण नहीं है कि चीनी मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा की तुलना राजीव गांधी के दौरे से कर रहा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों का सबसे अधिक असर चीनी अर्थव्यवस्था पर ही होना है. ऐसे में उसे भी अपने बाजार के विस्तार की जरूरत है. उल्लेखनीय है कि बीते साल दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक में राष्ट्रपति जिनपिंग ने वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार के पक्ष में जोरदार अपील की थी तथा दुनिया के अन्य देशों ने उसकी सराहना भी की थी.

इस साल फोरम की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने भी कमोबेश चीनी राष्ट्रपति के आह्वान को ही आगे बढ़ाया था. उसी बैठक में राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनी नीतियों का बचाव कर संरक्षणवाद की चिंताओं को बढ़ाया ही था.

अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों का असर भारत पर

भारत के सामने एक दिक्कत यह भी है कि अमेरिकी नीतियों के कारण वहां के बाजार में नहीं पहुंच सकने वाली वस्तुएं (खासकर, चीन में बनी) भारतीय बाजार का रुख कर सकती हैं जिससे भारत के देशी उत्पादन और विपणन को भारी झटका लग सकता है. यह स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक हो सकती है. अन्य मुद्दों के साथ इस बिंदु पर भी दोनों नेताओं की बैठक में बात होगी.

साथ ही, यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस बैठक में पाकिस्तान, आतंकवाद, दक्षिण एशिया, साउथ चाइना सागर जैसे मसलों पर कोई खास बातचीत नहीं होगी. एक बड़ा और लंबे समय से उलझा हुआ मसला दोनों देशों के बीच सीमा का है. लेकिन इस पर भी कुछ निर्णायक होने की उम्मीद इस बैठक में कर पाना फिजूल है.

संभावनाएं यही हैं कि इन सभी दिक्कतों को परे रख कर वाणिज्यिक हितों पर रूप-रेखा बनाने की कोशिश दोनों नेता करेंगे. इस बार कूटनीतिक जैज की धुन इकतारे के आवाज की तरह होगी. अमेरिकी नीतियों का मुकाबला करने के लिए चीन विभिन्न देशों- जापान, यूरोपीय संघ और लैटिन अमेरिकी देशों- के साथ साझीदारी बढ़ाने पर विचार कर रहा है. भारत भी ब्रिटेन समेत यूरोप में संभावनाओं को विस्तार देने की कोशिश में है.

मध्य-पूर्व में अमेरिका और रूस के बीच खींचतान बढ़ने की स्थिति में चीन और भारत के दूसरे सहयोगी इनकी अर्थव्यवस्था के लिए रामबाण हो सकते हैं. भले ही अमेरिका अभी चीन के साथ व्यापार-युद्ध कर रहा है, पर भारत के साथ व्यापार संतुलन को लेकर अमेरिका लगातार बयानबाजी कर रहा है. वीजा, बैद्धिक संपदा और मोटरसाइकिल के आयात शुल्क पर भारत के प्रति अमेरिका का रवैया तल्ख होता जा रहा है तथा आनेवाले दिनों में यह एक तरह के व्यापार-युद्ध में तब्दील हो सकता है. ऐसी स्थिति में चीन और भारत के पास आपसी वाणिज्य को मजबूत करने की बड़ी मजबूरी है.

जिनपिंग की अंतहीन सत्ता

चीनी कायदे-क़ानून में बदलाव के बाद शी जिनपिंग लंबे समय तक राष्ट्रपति बने रह सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी को अगले साल चुनाव में जाना है, पर यह कारक कोई खास मायने नहीं रखता है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी बनें या कोई और चीन के बरक्स नीतियों में बदलाव की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. इससे चीनी राष्ट्रपति भी निश्चिंत होंगे. मोदी और जिनपिंग बीते सालों में अनेक दफे एक-दूसरे से मिल चुके हैं तथा दोनों देशों के शीर्ष अधिकारियों का आना-जाना लगा रहता है. व्यापारिक संबंध तो ठोस हैं ही.

दोनों नेताओं के बीच खुलकर बातचीत के लिए ये तत्व आधार देंगे. चूंकि इस ‘हार्ट-टू-हार्ट’ बातचीत में कोई समझौता नहीं होना है और न ही कोई बयान जारी होना है. इसलिए इसके नतीजों के बारे में कुछ ठीक से जानने के लिए हमें थोड़ा इंतजार करना होगा, कम-से-कम जून में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक तक.

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