वो जो हममें तुममें करार था…

अंकित चड्ढा की भरपाई हिंदुस्तानी कला-संस्कृति में शायद कभी न हो पाएगी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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बार-बार हमारी मुलाकात टल जा रही थी. महीनों ये सिलसिला चला. कभी तुम बाहर होते, कभी मैं नहीं होता. कुछ बार तुम्हारे पिताजी की नासाज तबीयत के चलते भी ऐसा हुआ. हौज़ख़ास में तुम्हारे घर से हमारे दफ्तर की दूरी महज एक से डेढ़ किलोमीटर की होगी. लेकिन ये छोटी सी दूरी खत्म नहीं हो रही थी. आखिरकार पिछली बरसात की एक दोपहर जब पूरी दिल्ली मूसलाधार बरिश से तर थी. सब कुछ स्थिर था. तुम अचानक से हमारे दफ्तर आ गए.

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बारिश की बाधा जीवन की तमाम चालों के साथ दफ्तर के भीतर भी एक उनींदापन, एक अमूर्त ठहराव लिए आती है. ख़बरों के दफ्तर में कोई गहमागहमी नहीं, लोग अपने रोजमर्रा के कामों में गर्त. अचानक से तुम्हारी आवाज़ गूंजी- अतुल चौरसिया. बारिश में लथपथ, टैंपो से निकल कर दफ्तर में दाखिल होने के बीच बारिश ने ये कर दिखाया था- घटाटोप.

अचानक से पूरा दफ्तर उनींदे से उठ गया. गर्मजोशी से मिलना और फिर घंटों बैठकर कॉफी पीते हुए तुम्हारी बातों का रस लेना. अब सब कल्पना लगता है. कितनी कहानियां तुमने अपने अंदाज में कही.

हमारी लंबे समय से अटकी हुई मुलाकात का एक मकसद न्यूज़लॉन्ड्री के लिए साथ मिलकर कुछ वीडियो शो बनाने की थी. तुमने जो विषय सुझाए वो भी बेहद दिलचस्प है. हम उस वक्त इन फैसलों पर आगे नहीं बढ़ पाए, इसकी एक वजह हमारी वित्तीय समस्याएं भी रहीं. फिर भी हमने इन पर समय और संसाधन मिलते ही आगे बढ़ने का करार किया.

बीते एक साल के दौरान तुम्हारे कुछ संदेशे मिले जो तुम करना चाहते थे. पर वे किन्हीं व्यस्तताओं में मुझसे अनदेखे रहे. इसका दुख अब कभी खत्म नहीं होगा. फिर हमने श्रीलाल शुक्ल की राजदरबारी के पचास साल पूरा होने पर एक दास्तान तैयार करने का वादा भी किया.

गोया हमारे वादों, तुम्हारे करारों की लिस्ट बढ़ती गई. और फिर ये सब. इतने सारे वादों से एक झटके में विरक्त हो जाना, मुंह मोड़ लेना. दुनिया तुमसे दास्तानें सुनती थी, अब तुम दास्तान हो गए. पर इस दास्तान का बोझ बहुत भारी है.

बार-बार मुझे वो दफ्तर की मुलाकात याद आ रही है. तुम्हारे आने तक घटाटोप काले बादल और बारिश का प्रकोप था. तुम्हारे साथ कुछ घंटे की मुलाकात में बहुत से काले बादल छंटने लगे, जब तुमने फिर से मिलना का वादा कर अलविदा कहा उस वक्त तक सूरज आसमान में खिलखिलाने लगा था, जीवन की ऊष्मा देता सूरज.

इस जहां के पार ग़र कोई और जहां है तो हमें पुरयकीं है कि तुम वहां भी एक बड़ी मंडली के बीच में बैठकर हर दिन एक नई दास्तान की महफिल सजाओगे. इस जहां में तुम्हारी दास्तान हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है.

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