जहां इंटरनेट की पहुंच और लिटरेसी बेहद सीमित है उस असम में डिजिटल माध्यम से एनआरसी ने लोगों को नोटिस भेजे.
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के काम की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाते ऐसे एक नहीं हज़ारों मामले हैं। एनआरसी का तर्क है कि उसने इंटरनेट के ज़रिये जनता को वक़्त पर नोटिस भेजे हैं लेकिन जहां इंटरनेट की पहुंच और लिटरेसी बेहद सीमित है उस असम में डिजिटल माध्यम से एनआरसी द्वारा नोटिस भेजना कितना जायज़ है कहा नहीं जा सकता।
जनता को एनआरसी के नोटिस नहीं मिले या वक़्त पर नहीं मिले. इस वजह से वे अपने दस्तावेज जुटाकर फॉरनर्स ट्रिब्यूनल में पेश नहीं हो सके. इसका नतीजा यह रहा कि इन लोगों को विदेशी करार कर दिया गया. लाखों की तादाद में डी वोटर हुए लोग अपने दस्तावेज लिए घूम रहे हैं. जब वह वोट डालने गए या गिरफ्तार हुए तब उन्हें पता लगा कि उन्हें डी वोटर कर दिया गया है.
असम में ग़ैरकानूनी तरीक़े से दाखिल हुए प्रवासियों की पहचान के लिए अरसे से एनआरसी की मांग की जा रही थी. बेशक यह एक ज़रूरी प्रक्रिया है लेकिन इसकी ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है. असम के गांवों में घूमने के बाद इस रिपोर्टर ने पाया कि राजनीतिक पार्टियों खासकर भाजपा-आरएसएस के दबाव के चलते एनआरसी के ज़मीनी काम में न केवल धांधलियां हो रही हैं बल्कि जनता को प्रताड़ित भी किया जा रहा है.
एनआरसी के विचार का असम के अमूमन हर नागरिक ने स्वागत किया. चाहे वो बांग्लाभाषी रहा हो या असमिया. लोगों का मत था कि एक बार यह संपन्न हो जाएगा तो राज्य में भाषा के आधार पर 50 साल से जारी विवाद थम जाएगा.
लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और कहानी बयान करती है. असम में यह आखिरी पायदान पर खड़े हर उस नागरिक के लिए मौत का सामान साबित हो रहा है, जिसे भारत की नागरिकता साबित करनी है. इस प्रताड़ना की वजह से दो आत्महत्याएं हो भी चुकी हैं. दि ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) के पूर्व अध्यक्ष अज़िज़ुर रहमान का कहना है कि भारतीय होने के बावजूद अपने को भारतीय नागरिक साबित करने के इस दबाव और तनाव ने कई जानें ले ली हैं। उनके मुताबिक असम के उदलगुड़ी ज़िले के निसलामाड़ी गांव के 65 वर्षीय गोपाल दास ने आत्महत्या कर ली। गोपाल दास मज़दूरी किया करते थे और भारतीय नागरिकता साबित करने को लेकर उन्हें बहुत प्रताड़ित किया जा रहा था।
कछार ज़िले के 40 वर्षीय हनीफ खान को जब पता लगा कि एनआरसी के पहले ड्राफ्ट में उनका नाम नहीं आया है, वह बांग्लादेशी हैं तो उन्होंने काशीपुर में अपने घर के पास एक पेड़ से लटककर आत्महत्या कर ली। बोंगई गांव ज़िले के अबहर अली को विदेशी बताकर डिटेंशन कैंप में डाल दिया गया। पीछे से मानसिक तनाव के चलते उनकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली।
इस मसले पर जब हम राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत और तरूण गोगोई से बातचीत करते हैं तो वे भी मानते हैं कि निचले स्तर पर कर्मचारियों ने एनआरसी के काम में भारी लापरवाही बरती है.
एनआरसी की लापरवाही
देखने में आया है कि एनआरसी की तरफ से लोगों को नागरिकता साबित करने के लिए जो नोटिस आम लोगों को भेजे गए वह बहुतों को या तो मिले नहीं या फिर बहुत देर से मिले, जब वक्त निकल चुका था. इसी आधार पर एनआरसी ने अपनी आधी-अधूरी सूची फॉरनर्स ट्रिब्यूनल को भेज दी. ऐसे में जिन भी लोगों ने किसी कारणवश नोटिस का जवाब नहीं भेजा, या हाजिरी नहीं लगाई, उन्हें फॉरनर्स ट्रिब्यूनल ने एक्स पार्टी जजमेंट देकर विदेशी करार दे दिया. क्योंकि जिसे नोटिस भेजा गया उस तक तो नोटिस पहुंचा ही नहीं था.
असम में यूनाइटेड अगेंस्ट हेट की फैक्ट फाइंडिंग टीम के नदीम खान का कहना है कि इसमें कोई शक नहीं है कि एनआरसी का होना बहुत ज़रूरी है लेकिन निचले स्तर पर इसके काम से लोग प्रताड़ित महसूस कर रहे हैं. किसी के लिए भी नागरिकता जीवन मरण का सवाल होती है लेकिन यहां लोगों को पता ही नहीं कि करना क्या है, जाना कहां है, क्या दस्तावेज देने हैं, नोटिस का जवाब कैसे देना है आदि. दो जून की रोटी में मसरूफ गरीब, किसान, मज़दूर दस्तावेजों की गहन जानकारी नहीं रखता है.
असम के किसान नेता अखिल गोगोई बताते हैं कि एनआरसी तो सही है लेकिन राजनीतिक दबाव बहुत है, उसे सही तरीके से करने नहीं दिया जा रहा है. भाजपा और आरएसएस चाहते हैं कि किसी भी तरह एनआरसी विवाद में आ जाए और इसकी निष्पक्ष कारगुज़ारी पर सवालिया निशान लग जाय. गोगोई कहते हैं, “अगर असम में एनआरसी के आंकड़े ईमानदारी से आते तो सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता. ऐसी स्थिति में भाजपा-आरएसएस असम में जो हिंदुत्व का कार्ड खेलना चाहती हैं, वो नहीं कर पाएंगी. दूसरी तरफ एआईडीयूएफ भी अपना मुस्लिम कार्ड नहीं खेल पाएगा.”
नोटिस भेजने में बड़े पैमाने पर हुई गड़बड़ियों के बारे में पूछने पर एनआरसी अधिकारी अजूपी बरुआ ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सभी को इंटरनेट के ज़रिये नोटिस भेजे गए हैं और इस काम में कोई कोताही नहीं हुई है. उनका कहना है कि इतने नाजुक मसले पर किसी तरह की लापरवाही का सवाल ही पैदा नहीं होता. लेकिन सवाल यह है कि ग्रामीण असम में कितने फीसदी लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते होंगे.
बरपेटा ज़िले के गांव हाउली टाउन के रहने वाले राजमिस्त्री ज़ाकिर अली का परिवार एक वक़्त की रोटी मुश्किल से खा पा रहा है. घर में एकमात्र कमाने वाले ज़ाकिर अली थे. उन्हें और उनके भाई बशीर अली दोनों को नौ साल पहले डी वोटर का नोटिस आया. नोटिस के जवाब में दोनों भाईयों ने जो दस्तावेज लगाए उसे एनआरसी ने खारिज कर दिया. ज़ाकिर अली और उसके भाई ने इस फैसले को अलग-अलग स्तर पर अदालत में चुनौती दी. अदालत में आखिरी हाज़िरी के वक्त उन्हें बॉर्डर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. केस चलता रहा. लेकिन ज़ाकिरअली के भाई को भारतीय घोषित कर दिया गया और ज़ाकिरअली को विदेशी. हालांकि इसमें गलती वकील की थी. वकील ने दोनों के मामले में मां के परिवार (मदर लिगेसी) के दस्तावेज लगाए. जबकि लगाने पिता के चाहिए थे.
अब एनआरसी की सूची में बशीरअली तो हैं लेकिन ज़ाकिरअली नहीं हैं. वह तीन साल से डिटेंशन कैंप में रह रहे हैं. उनके चार बेटियां और एक बेटा है. जब घर में रोटी पकनी भी बंद हो गई तो इनका 17 साल का बेटा केरल कमाने के लिए गया. वहां उसे दस हज़ार रुपए प्रति महीने की एक नौकरी मिल गई. जिसमें घर का खर्च और वकील की फीस जाती है और वह अपना गुज़ारा भी इन्हीं पैसों से होता है.
एनआरसी का महत्व
दरअसल ईमानदार तरीके से एनआरसी सर्वेक्षण के जरिये ही असम में ग़ैरक़ानूनी तरीके से रह रहे बांग्लादेशी लोगों का सही आंकड़ा सामने आएगा. गृहमंत्रालय द्वारा एनआरसी को दिए गए आंकड़ों के अनुसार असम में 1950 से लेकर अब तक 80,000 बांग्लादेशी आए जिनमें से अब 4,000 रह गए हैं बाकी लोग या तो वापस जा चुके हैं या उनकी मौत हो चुकी है.
असम में हिंदू-मुसलमान की बजाय विवाद असमी और बांग्लाभाषी लोगों के बीच है. असमिया लोग नहीं चाहते कि बांग्लाभाषी खासकर मुसलमान वहां रहें. यहां रहने वाले हर मुसलमान को हमेशा बांग्लादेशी घुसपैठिए की नज़र से देखा जाता है इसलिए मुसलमान भी चाहते हैं कि एनआरसी होना ही चाहिए. ताकि उनके माथे पर लगा 50 सालों से ज़्यादा का यह कलंक धुल जाए. एनआरसी ही एक ज़रिया है जिसकी सूची में शामिल लोगों को भारतीय नागरिक माना जाएगा.
एनआरसी से संबंधित अधिकारी अजूपी बरुआ का कहना है कि चुनाव आयोग के दिए आंकड़ों के अनुसार मात्र एक लाख 25 हज़ार लोग डी वोटर हैं. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 6 दिसंबर, 2013 को असम में एनआरसी का काम शुरू हुआ. कुल 1220 करोड़ रुपये के इस प्रॉजेक्ट में 50,000 कर्मचारी और स्वयं सेवी लगे हुए हैं.
वर्ष 2014 तक एनआरसी ने राज्य में अपना इंफ्रास्ट्रक्चर मज़बूत कर लिया था. साल 2010 में एक पायलय प्रोजेक्ट भी शुरू हुआ था जो असफल रहा. इसे लेकर असम के ज़िले बरपेटा में हिंसा भी हुई जिसमें चार लोग मारे गए थे.
वरिष्ठ आईएएस अधिकारी प्रतीक हजेला को इसका समन्वयक बनाया गया. राज्य में 2,500 एनआरसी सेवा केंद्र हैं. जिसका काम लोगों को नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेजों के साथ आमंत्रित करना और उनकी पहचान सुनिश्चित करना है. असम के लिए यह कानून अलग इसलिए है कि बाकी राज्यों में जनसंख्या या नागरिकता संबंधी जानकारी लेने के लिए संबंधित विभाग के लोग जनता के पास घर-घर जाते हैं लेकिन असम में लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए खुद जाना है.
हालांकि वर्ष 1951 की जनगणना को एनआरसी का पहला ड्राफ्ट माना गया लेकिन उसमें और मौजूदा दौर के एनआरसी के काम में ज़मीन आसमान का फ़र्क है. इस वक़्त यह सूची गहन छानबीन करके तैयार की जा रही है. हर ज़िले के डीसी ऑफिस को निर्देश दिए गए कि वह लोगों को वर्ष 1951 से लेकर 1971 तक की मतदाता सूची मुहैया करवाए.
आवेदकों की संख्या करोड़ों में होने की वजह से इतनी फोटोकॉपी होना मुश्किल था इसलिए सारे काम को डिजिटाइज़ किया गया. इसमें हर व्यक्ति को लिगेसी डेटा कोड के तहत 2.3 करोड़ यूनिक आईडी दिए गए. इन कामों के लिए विप्रो ने एनआरसी के लिए 80 सॉफ्टवेयर तैयार किए. आवेदक एनआरसी सेवा केंद्र जाता है जहां उसे ऑनलाइन अपने दस्तावेज मिल जाते हैं. फरवरी 2015 तक एनआरसी ने अपना यह काम खत्म किया. 31 अगस्त, 2015 से फॉर्म भरने का काम मई 2015 को खत्म हो गया. इसमें 68.29 लाख परिवारों के 3.39 करोड़ लोगों ने आवेदन किया.
एनआरसी अधिकारी बरुआ का कहना है कि हमारा अंदाज़ा था कि 64 लाख परिवार आवेदन करेंगे. यह वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार अंदाज़ा लगाया गया था. एनआरसी को 3.39 करोड़ लोगों के 6.6 करोड़ दस्तावेज मिले. दिए गए दस्तावेदों के मिलान (वेरिफकेशन) के लिए उन्हें 79,000 अलग-अलग ऑफिसों में भेजा गया. बरुआ का कहना है कि चुनाव आयोग की सूची के अनुसार डी वोटर करार लोगों का मामला जब तक फॉरनर्स ट्रिब्यूनल में हल नहीं होता है तब तक उनका स्टेट्स होल्ड पर रखा जाएगा.
एनआरसी के एक आला अधिकारी ने स्वीकार किया कि राजनीतिक अड़चनें हैं. क्योंकि एनआरसी की सूची आने से असम में इतने सालों से हो रही डर की राजनीति खत्म हो जाएगी.