कौन हैं ये सुधा भारद्वाज?

अर्नब गोस्वामी अपने चैनल पर चीख-चीख कर ऐलान कर रहे थे कि सुधा भारद्वाज नक्सली हैं.

WrittenBy:महेंद्र दुबे
Date:
Article image

इस पोस्ट के जरिए मैं आपको एक ऐसे शख्स से परिचित कराना चाहता हूं जिसके जैसा होना हमारे आपके बस में मुश्किल होता है. ये हैं कोंकणी ब्राह्मण परिवार की एकलौती संतान. सुधा भारद्वाज. एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील. इन सब पुछल्ले नामों की बजाय आप इन्हें सिर्फ ‘इंसान’ ही कह दें तो यकीन करिये आप “इंसानियत” शब्द को उसके मयार तक पहुंचा देंगे.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

मैं 2005 से सुधा को जानता हूं मगर अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती इस महिला के भीतर की असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन एकादमिक योग्यता और अकूत ज्ञान से मेरा परिचय इनके साथ लगभग तीन साल तक काम करने के बाद भी न हो सका था. इसकी बड़ी वजह ये रही कि इनको खुद के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द ही नहीं था.

2008 में मैं कुछ काम से दिल्ली गया हुआ था उसी दौरान मेरे एक दोस्त को सुधा के विषय में एक अंग्रेजी दैनिक में पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्तमंत्री का लिखा लेख पढ़ने को मिला. लेख पढ़ने के बाद उसने फोन करके मुझे सुधा की पिछली जिंदगी के बारे में बताया तो मैं सुधा की अत्यंत साधारण और सादगी भरी जिंदगी से उनके इतिहास की तुलना करके दंग रह गया.

मैं ये जान के हैरान रह गया कि मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर है. जन्म से अमेरिकन सिटीजन थी, और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है. आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता है इस बैक ग्राउंड का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा.

सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी, बेहतरीन क्लासिकल सिंगर थी और अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी. आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में कृष्णा मेमोरियल लेक्चर होता है जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है. आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को करियर का आकर्षण खु से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वो 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के करिश्माई यूनियन लीडर शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया.

पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के पीएफ का सारा पैसा तक उड़ा दिया. उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है. मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है.

जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है बाई बर्थ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है.

हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी लक्जरी छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं. इधर सुधा हैं जो अमेरिकन सिटिजनशीप और आईआईटी टॉपर होने के गुमान को त्याग कर गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है.

बिना फ़ीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर जवाब देना चाहता है. 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है. उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है. मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं.

उनके घोर वामपंथी होने की वजह से उनसे मेरे वैचारिक मतभेद रहते है मगर उनके काम के प्रति समर्पण और जज्बे के आगे मैं हमेशा नतमस्तक रहा हूं. मैं दावे के साथ कहता हूं कि अगर उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता. सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है. सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही.

(महेंद्र दुबे की फेसबुक वाल से साभार)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like