योजना क्रियान्वयन, अनिश्चतता और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ते गरीब

आंगनबाड़ी, पीडीएस जैसी व्यवस्थाओं में लगा घुन मानसी, शिखा और पारो जैसी अकाल मौतों को अनवरत जारी रखे हुए है.

WrittenBy:Rohin Kumar
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मंडावली में तीन बच्चियों की कथित तौर पर भुखमरी से हुई मौत ने सरकारी योजनाओं और उसके क्रियान्वयन पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. कुपोषण और भुखमरी भारत के लिए नए नहीं हैं. लिहाजा यह सवाल उठाना लाजिमी हो जाता है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) होते हुए भी कहां चूक रहा है?

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मानसी (8), शिखा (4) और पारो (2) की दोनों ही पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट इस बात को इंगित करती है कि उन्होंने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था. उनके पेट, मूत्राशय और मलाशय खाली थे. शरीर में जरा भी फैट की मात्रा नहीं थी. मजिस्ट्रेट जांच की प्रारंभिक रिपोर्ट बच्चियों की मौत में उनके पिता मंगल की भूमिका पर शक जता रही है. रिपोर्ट के अनुसार, मंगल ने बच्चियों को पानी में जानलेवा दवा दे दी होगी. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट जांच की प्रारंभिक रिपोर्ट दोनों ही मंगल की माली हालत दयनीय बताते हैं. गरीबी की वजह से बच्चियों का पालन-पोषण और परिवार चलाना मुश्किल था.

यह तथ्य हमारा ध्यान भारत में चल रही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं (सोशल सिक्योरिटी स्कीम) की तरफ ले जाता है. एक गरीब व्यक्ति जिसके पास पैसे नहीं हैं, उसकी मूलभूत जिम्मेदारियों को पूरी करने की जिम्मेदारी किसकी है? क्या गरीबी के अभाव में उसे अपनी हालत पर मरने के लिए छोड़ा जा सकता है?

न्यूज़लॉन्ड्री ने मंडावली में भुखमरी से जुड़ी अपनी पहली स्टोरी में बताया था कि तीन बच्चियों में सबसे बड़ी मानसी का नाम वर्ष 2013-14 के आंगनबाड़ी लाभार्थियों में शामिल था. क्षेत्र की ही आंगनबाड़ी सहायिका ने वे संभावित कारण भी बताए थे जिसकी वजह से बच्चियों को आंगनबाड़ी कार्यक्रमों का लाभ नहीं मिल सका. जैसे विस्थापित परिवारों का कोई स्थायी ठिकाना न होना, नियमित सर्वेक्षण में देरी आदि.
आंगनबाड़ी से जुड़े कई लोगों से न्यूज़लॉन्ड्री ने बात की. एक महत्वाकांक्षी सरकारी योजना की यह असफलता बड़े स्तर पर नीतियों की विफलता की ओर इशारा करती है.

आईसीडीएस और आंगनबाड़ी

इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज़ (आईसीडीएस) की शुरुआत 1975 में हुई थी. यह भारत सरकार की फ्लैगशिप योजना है. इसमें केन्द्र और राज्य सरकार की भागीदारी का अनुपात 60:40 का है. इसके क्रियान्वयन और अनुदान की व्यवस्था का जिम्मा महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय और राज्यों में समाज कल्याण विभाग के पास है. यह प्राथमिक स्वास्थ्य से जुड़ी विश्व की सबसे बड़ी योजना बताई जाती है. योजना के तहत आंगनबाड़ी संस्थाओं द्वारा बच्चों व गर्भवती महिलाओं के पोषण और स्वास्थ्य और 3-6 वर्ष के बच्चों की स्कूल पूर्व शिक्षा का ख्याल रखा जाता है.

बड़े शहरों में प्रत्येक 500-800 की जनसंख्या पर एक आंगनबाड़ी केन्द्र होता है. हर आंगनबाड़ी केन्द्र पर एक सेविका और एक सहायिका होती है. न्यूज़लॉन्ड्री ने आंगनबाड़ी केन्द्रों के कामकाज को समझने के लिए कुछ आंगनबाड़ी केन्द्रों का भ्रमण किया. मंत्रालय की वेबसाइट पर योजना के कायदे-कानून जितने आकर्षक हैं उनकी हक़ीकत में तस्वीर बेहद लचर है.

मृदुला आंगनबाड़ी सेविका हैं. वह उत्तमनगर के मोहन गार्डन क्षेत्र में स्थित आंगनबाड़ी सेविका हैं. वे योजना की बारीकियों को समझाती हैं,“सरकार दावा करती है कि हर 500 की आबादी पर एक आंगनबाड़ी केन्द्र है. जबकि जब हम जैसी सेविका को क्षेत्र के सर्वेक्षण के लिए वोटर लिस्ट दी जाती है तो उसमें लगभग 1000 की आबादी होती है. नियम यह भी है कि हर छह महीने के भीतर क्षेत्र का सर्वेक्षण किया जाना है. लेकिन संसाधनों की कमी के कारण अमूमन यह साल में एक बार ही हो पाता है. ज्यादातर जगहों पर सूची अपडेट होती रहती है.”

मृदुला ने जो बात कही, ठीक ऐसी ही बात मंडावली आंगनबाड़ी के कर्मचारी ने भी कहा था. उसने भी बताया था कि वर्षों से सर्वेक्षण नहीं हुआ. सूची अपडेट होती रही है.

सूची अपडेट होने का मतलब क्या है? जब सर्वेक्षण नहीं होता है तो सूची किस आधार पर अपडेट होती है? इसके जबाव में मृदुला ने बताया, “मान लीजिए, योजना के लाभार्थी की मृत्यु हो गई या बच्चे का जन्म हुआ तो उस हिसाब से सूची में नाम चढ़ा या काट दिया जाता है. लोग खुद आंगनबाड़ी केन्द्र पर आकर सूचित कर जाते हैं.”

“मंडावली के मामले में जिस तरह से बताया जा रहा है कि बच्चे कुपोषित थे. उनके घर में खाने को कुछ नहीं था. यह उनके मकान मालिक या पड़ोसियों की जिम्मेदारी थी, उन्हें आंगनबाड़ी केन्द्र को सूचित करना चाहिए था. इसके अलावा हमारे पास ट्रैक करने की और कोई व्यवस्था नहीं है. यह समस्या विस्थापित परिवारों के साथ आम है, जो बार-बार अपना घर बदलते रहते हैं. आंगनबाड़ी को कैसे मालूम चलता कि मंगल की बच्चियां फलां जगह पर भूखी हैं. योजना की दिशा के अनुसार भी देखें तो सर्वेक्षण कम से कम छह महीने पर ही होता,” मंडावली क्षेत्र के आंगनबाड़ी कर्मचारी ने बताया.

इसके साथ ही उसने जोड़ा, “सरकार के लिए आंगनबाड़ी केन्द्र के कर्मचारियों को दोषी बताना आसान है. सरकार भी नहीं चाहती है कि योजना के सभी पहलुओं की जानकारी लोगों को हो.”

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पिछले दस वर्षों में आईसीडीएस का बजट

2015-16 तक एक आंगनबाड़ी केन्द्र पर 96 लाभार्थी ही होने थे. इसमें 8 गर्भवती, 8 लैक्टेटिंग मदर, 28 कुपोषित बच्चे (0-6 साल), 12 अतिकुपोषित बच्चे (0-6 साल), 40 प्री-स्कूल के बच्चे (3 से 6 साल तक के बच्चे) शामिल थे. अगर किसी केन्द्र पर 96 से ज्यादा लाभार्थियों की संभावना बनती तो उन्हें योजना का लाभ बमुश्किल ही दिया जा सकता था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का इस संबंध में आदेश है कि क्षेत्र में जितने भी जरूरतमंद हों, उन सभी को योजना का लाभ दिया जाए.

पूर्वी दिल्ली क्षेत्र की डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम अफसर (डीपीओ) ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया, “सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जरूर दे दिया लेकिन योजना को फंड देने का काम मंत्रालय का है. हमने यूनिवर्सलाइजेशन (सभी लाभार्थियों को शामिल करने की योजना) की कोशिश की है. वहां यह दिक्कत आना शुरू हो गई कि कई आंगनबाड़ी केन्द्रों की सेविकाओं ने अपने परिवार सदस्यों का नाम सूची में जोड़ दिया था.”

इस तरह की शिकायतों का नतीजा यह हुआ कि पिछले साल आईसीडीएस ने दिशा निर्देश जारी कर सिर्फ एक्चुअल बेनिफिशियरी (वास्तविक लाभार्थी) को योजना का लाभ देने की बात कही. कई शहरी क्षेत्रों के आंगनबाड़ी में 96 लाभार्थी नहीं होते, संख्या बहुत कम होती हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या ज्यादा होती है. यह भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की भी एक कोशिश थी.

आंगनबाड़ी केन्द्रों पर कुपोषित बच्चों को पोषाहार मुहैया कराया जाता है. हर दिन का मेन्यू अलग होता है. कभी खिचड़ी, कभी दलिया तो कभी हलवा. दिल्ली में पोषाहार का जिम्मा स्वयंसेवी संस्थाओं को दिया गया है. दूसरे राज्यों में आंगनबाड़ी केन्द्र पर सहायिका ही खाना बनाती हैं.
योजना का एक और प्रावधान है जिसे ‘टेक होम राशन’ कहा जाता है. हर महीने कुपोषित बच्चों, गर्भवती महिलाओं और प्री-स्कूल बच्चों को 25 दिन का राशन दिया जाता है. जैसे कुपोषित बच्चों को 4 किलो चावल, 2 किलो दाल. गर्भवती महिलाओं को 3 किलो चावल, डेढ़ किलो दाल. पूरे साल में लाभार्थियों को 300 दिनों का ही पोषाहार दिए जाने का प्रावधान है.

गर्भवती महिलाओं की देखरेख के लिए क्षेत्र में आशा (एक्रिडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) वर्कर भी होती हैं. आशा वर्कर्स नेशनल हेल्थ मिशन योजना के तहत बहाल की जाती हैं. यह आंगनबाड़ी केन्द्रों से भी जुड़ी होती हैं, जहां गर्भवती महिलाओं की देखरेख भी करती हैं. गौर करने वाली बात यह है कि आईसीडीएस की इस परियोजना का लाभ लेने के लिए किसी भी तरह के दस्तावेज की जरूरत नहीं होती. वह मंडावली क्षेत्र का बबलू (5) भी हो सकता है और वह मानसी, शिखा, पारो की तरह विस्थापित परिवार के बच्चे भी हो सकते हैं. सेविका बच्चों का वजन करती हैं, उन्हें जांचकर जच्चा-बच्चा कार्ड जारी करती हैं.

परेशानी में हैं आंगनबाड़ी कर्मचारी

कुपोषण मुक्त भारत बनाने में जिन्हें बदलाव का प्रतिनिधि बनाया गया है, वे खुद गंभीर अनिश्चितताओं से घिरे हैं. बातचीत के क्रम में आंगनबाड़ी कर्मचारियों ने अपनी समस्याओं का जिक्र किया. दिल्ली में सहायिका की तनख्वाह 5,000 और सेविका की तनख्वाह 10,000 रुपये है.

कुपोषण के मामले में बिहार बाकी राज्यों से बहुत आगे है, वहां सेविका को 6,000 और सहायिका को लगभग 3,000 रुपये ही मिलते हैं. यह तनख्वाह भी समय पर नहीं मिलती. कई राज्यों में साल-साल भर तक तनख्वाह नहीं मिलती. ये सेविका और सहायिका सरकारी परियोजना से जुड़ी जरूर हैं लेकिन वे सरकारी कमर्चारी नहीं हैं. उनकी नौकरी न निश्चित है, न ही उन्हें किसी तरह के सरकारी वेतन-भत्ते का लाभ मिलता है.

कंचन किरण छह वर्षों से पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी क्षेत्र में एक आंगनबाड़ी केन्द्र से जुड़ी हैं. वह बताती हैं कि सेविका और सहायिकाओं ने तनख्वाह बढ़ाने के लिए कई आंदोलन किए पर सरकार ने एक न सुनी. वह कहती हैं, “हमारे घर के चूल्हे कैसे जलेंगे? चूंकि नौकरियां हैं ही नहीं, आंगनबाड़ी में ही फंसे हैं. न हमें सलाना किसी तरह का कोई भत्ता मिलता है, न ही तनख्वाह बढ़ती है. आप मेरा घर देख लीजिए चलकर, मैं खुद झुग्गी में रहती हूं.”

आंगनबाड़ी ट्रेनिंग सेंटर के सूत्रों के मुताबिक सेविका की बहाली के लिए भी भारी-भरकम घूस देना पड़ता है. जहां कर्मचारी तनख्वाह की शिकायत कर रहे हैं, उसके लिए कोई घूस देकर क्यों आना चाहेगा? जबाव में आंगनबाड़ी ट्रेनिंग सेंटर की प्राचार्या ने बताया, “सेविका की तनख्वाह लगभग उतनी ही है जितनी बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) सूची के लाभार्थियों की होती है. वे वर्षों तक इस उम्मीद में काम करती हैं ताकि उनकी नौकरी सरकार पक्की कर दे. ऐसे में वे लाभार्थियों के अनाज और गुणवत्ता में कटौती करती हैं.”

प्राचार्या ने इस रिपोर्टर से एक अनुभव साझा किया, “यूनिसेफ आईसीडीएस की योजनाओं का समय-समय पर पर्यवेक्षण करता है. मैं यूनिसेफ के एनीमिया प्रोजेक्ट का निरीक्षण कर रही थी. मैंने पाया कि लाभार्थियों के लिए जो आयरन की दवाइयां और टॉफियां आईं थी, वह बेच दी गईं थी. उसी तरह एड्स की जागरूकता के कॉन्डम और कॉपर-टी हर आंगनबाड़ी केंद्रों को दिए गए थे. वहां भी हमने गड़बड़ियां पाई थी.”

वहीं जब इस रिपोर्टर ने कंचन से इस संबंध में पूछा तो उन्होंने जो बताया वह और भी रोचक था. कंचन ने माना कि गड़बड़ियां होती हैं. “सोचिए इसकी जड़ कहां है? डीपीओ, सीडीपीओ और सुपरवाइजर इनके घालमेल से सेविका बहाली में घूस का लेनदेन होता है. अनाज की गुणवत्ता में कमी का जिम्मेदार एक सेविका को मान लेना, सरासर अज्ञानता है. बिना सीडीपीओ की संलिप्तता के कुछ नहीं होता,” कंचन ने कहा.

मॉनिटरिंग सिस्टम

बताते चलें कि एक आंगनबाड़ी परियोजना की पूरी जबावदेही सीडीपीओ की होती है. पर्यवेक्षण के लिए सुपरवाइजर होती हैं. जिला स्तर पर सीडीपीओ के कामकाज पर निगरानी डीपीओ रखते हैं. निगरानी के लिए नई तकनीक को भी इस्तेमाल में लाया जा रहा है. हर आंगनबाड़ी क्षेत्र का वॉट्सऐप ग्रुप बनाया गया है. सेविका अपने दिनभर के काम को वॉट्सऐप पर भेजती हैं. रीयल टाइम मोनिटरिंग की व्यवस्था की गई है. कुछ क्षेत्रों में सेविकाओं को एंड्रॉयड मोबाइल दिया गया है. उन्हें आंगनबाड़ी केन्द्र की रियल टाइम मॉनिटरिंग करके फोटो भेजना होता है.

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मंडावली चॉल का वह कमरा जहां तीन बच्चियां ने कथित तौर पर भुखमरी से दम तोड़ दिया

मंडावली मामले में आम आदमी पार्टी ने उपराज्यपाल पर आरोप लगाया कि उन्होंने राशन की घर-घर डिलीवरी को रोक रखा है. यह हादसा उपराज्यपाल की लापरवाही के चलते हुआ. कांग्रेस और भाजपा ने मोहल्ला क्लिनिक, जन वितरण प्रणाली व आंगनबाड़ी की लापरवाही के लिए दिल्ली सरकार को घेरा. जमीनी हकीकत यह है कि समस्या का नीतिगत हल किसी भी दल के पास नहीं है. मंत्रालय की वेबसाइट अनुशासित तरीके से योजनाओं और परियोजनाओं के विकेन्द्रीकरण की बात करती हैं जबकि लागू होने तक वह इतना ज्यादा उलझ चुका होता है कि जरूरतमंद ही व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं.

हंगर इंडेक्स में 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है. यहां तकरीबन 3 लाख बच्चे भुखमरी से मर जाते हैं. जिनके ऊपर यह जिम्मेदारी सौंपी गई है, उनकी स्थितियां खुद बेहतर नहीं हैं. दिखाने को निगरानी की सर्वोत्तम व्यवस्था है. पर व्यवस्था में मौजूद लोग मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार हो रहा है. ऊपर से नीचे तक हो रहा है. भ्रष्टाचार का अघोषित कारण भी समझ आ रहा है. ऐसी स्थितियां कैसे बनी हैं? एक सेविका की अनिश्चितता के लिए कौन जिम्मेदार है?

(दिल्ली के मंडावली क्षेत्र में तीन बच्चियों की कथित तौर पर भुखमरी से मौत पर न्यूज़लॉन्ड्री की ग्राउंड रिपोर्ट का पहला भाग यहां पढ़ें.)

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