रूस-अमेरिका के बीच बंधी रस्सी पर भारतीय संतुलन की परीक्षा

अमेरिका और चीन के साथ भारत का व्यापार रूस के मुकाबले कई गुना ज्यादा है. इस हिसाब को बिगाड़ना कोई सरकार क्यों चाहेगी?

WrittenBy:प्रकाश के रे
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अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उथल-पुथल के मौजूदा दौर में शुक्रवार को नई दिल्ली में होनेवाली रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सालाना शिखर बैठक कई वजहों से बहुत खास है. एक ओर जहां दोनों नेताओं के पांच बिलियन डॉलर की एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम के सौदे पर दस्तखत करने के आसार हैं, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ने इस पर एतराज जताते हुए भारत पर आर्थिक और सामरिक प्रतिबंधों की चेतावनी दे डाली है. खबरों की मानें, तो पिछले दिनों जब टू प्लस टू वार्ता के लिए अमेरिकी विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री भारत आये थे, तो उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल से सिर्फ इसी मुद्दे पर लंबी चर्चा की थी.

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इस दौरे का दूसरा अहम पहलू दोनों देशों के बीच ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग को मजबूती देना है. इस साल के शुरू में रूस से रसोई गैस की पहली खेप आ चुकी है और 2017 में ऊर्जा आयात में दस गुना बढ़ोत्तरी हुई थी. इस साल नवंबर में अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरानी तेल के आयात में या तो बड़ी कटौती हो सकती है, या उसे पूरी तरह से बंद करना पड़ सकता है. ऐसे में रूस से तेल आयात का नया रास्ता खोलना भी भारतीय पक्ष की प्रमुख कोशिश होगी.

पिछले साल तक द्विपक्षीय व्यापार 10.17 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था तथा परस्पर निवेश का आंकड़ा फिलहाल 30 बिलियन डॉलर के स्तर पर है जिसे 2025 तक 50 बिलियन डॉलर पहुंचाने का लक्ष्य दोनों देशों ने रखा है. इस साल स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने 2022 तक चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्षयात्री भेजने की महत्वाकांक्षी घोषणा की है. इस परियोजना में तथा अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण के लिए रूस मदद के लिए तैयार है. शुक्रवार को इस बाबत भी समझौता होने की उम्मीद है.

दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ने का एक संकेत यह भी है कि पिछले साल की बैठक के बाद से प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन की चार मुलाकातें हो चुकी हैं. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बीते 11 महीनों में तीन बार रूस जा चुकी हैं. कुछ और भी उच्चस्तरीय दौरे दोनों तरफ से हुए हैं. लेकिन रूसी राष्ट्रपति के इस दौरे और रक्षा खरीद को लेकर भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से में तथा विदेश मामलों के कई टिप्पणीकारों की ओर से जो कहा जा रहा है कि इस सौदे से भारत एक ही झटके में अमेरिका, चीन और पाकिस्तान को चिंता में डाल सकता है, यह एक अतिशयोक्ति है. यह बात सच है कि अमेरिका को भारी एतराज है और वह आंशिक प्रतिबंधों की घोषणा भी कर सकता है. लेकिन, इसका मुख्य कारण भारत का साहस नहीं है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप देशी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए संरक्षणवादी नीतियों पर चल रहे हैं. इसका एक नतीजा चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध और यूरोपीय संघ से तनातनी की शक्ल में हमारे सामने है. इसी क्रम में ट्रंप भारतीय शुल्क व्यवस्था की भी आलोचना करते हुए भारत के साथ व्यापार घाटे का उल्लेख करते रहे हैं. बीते दिनों उन्होंने यह भी दावा किया है कि अमेरिका भारत के साथ नया व्यापार समझौता करने का इच्छुक है.

अब यह बात सही हो या न हो, पर आगामी दिनों में ऐसे समझौते की जरूरत पड़ सकती है क्योंकि शुल्कों के मामले में अमेरिका का कोई भी नकारात्मक रवैया हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हो सकता है. निर्यात के स्तर पर फिलहाल हालत बहुत नाजुक है तथा निवेशक तेजी से अपना पैसा निकाल रहे हैं. भू-राजनीतिक लिहाज से देखें, तो चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर भारत को अमेरिका की जरूरत है. ऐसे में भारत के पास अमेरिका के साथ ज्यादा तनाव पैदा करने का विकल्प नहीं है. जो विकल्प हैं, वह है संतुलन साधने का.

मौजूदा भारतीय विदेश नीति के लिए यह मुश्किल नहीं है. ईरान के मामले में अमेरिका की बात मानी जा सकती है और उसके बदले रूस से रक्षा खरीद पर उससे नरमी की मांग की जा सकती है.

इस स्थिति में प्रतिबंध की बातें बस मीडिया और लोगों के उपभोग के लिए कुछ दिन तक होती रहेंगी. ऐसा करना ट्रंप प्रशासन के लिए भी जरूरी है. नवंबर में वहां मध्यावधि चुनाव हैं. साल 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी दखल और डोनाल्ड ट्रंप को फायदा पहुंचाने के कथित आरोपों की जांच अभी चल रही है. इस माहौल में ट्रंप यह दिखाना चाहेंगे कि वे पुतिन या रूस पर कतई नरम नहीं हैं. ऐसा तो है नहीं कि अमेरिका को यह पता नहीं है कि भारत अपनी रक्षा जरूरतों का तकरीबन 60 फीसदी रूस से लेता है.

रही बात पाकिस्तान और चीन की, तो इन दोनों देशों के रूस से संबंध लगातार बेहतर हो रहे हैं. उन्हें इस सौदे पर गंभीर ऐतराज नहीं होगा. यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन के साथ हमारा व्यापार और निवेश भी गहराता जा रहा है. चीन के बेल्ट-रोड पहल का भी रूस समर्थक है तथा हिंद-प्रशांत में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के पहल पर उसे आपत्ति है. पाकिस्तान के साथ तनातनी तो चलती रही है और ऐसे ही चलती रहेगी. बहुत अधिक कुछ होना है, तो यही कि पाकिस्तान और चीन भी कुछ रक्षा सामान इधर-उधर से खरीदें.

यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि रक्षा से जुड़े साजो-सामान की खरीद-बिक्री सिर्फ सौदेबाजी नहीं होती, बल्कि उसके राजनीतिक और आर्थिक आयाम भी होते हैं. भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस की ओर देख रहा है, तो अमेरिका और यूरोप का प्रतिबंध झेल रहे रूस को भी अपने तेल और गैस के लिए बाजार की जरूरत है.

चाहे ट्रंप का अमेरिका अपनी हेठी दिखाये, जिनपिंग का चीन व्यवहार में आक्रामक हो या पुतिन का रूस वैश्विक मंच पर अपना दबदबा बढ़ाने की जुगत लगाये, अंतरराष्ट्रीय राजनीति महज एक या कुछ कारकों से संचालित नहीं हो सकती है. उसकी हलचलों को प्रभावित करने वाले कारकों की बहुलता है.

जहां रूस से हमारे रक्षा संबंध मजबूत हैं, तो अगले साल भारत और अमेरिका संयुक्त युद्धाभ्यास भी कर रहे हैं. चर्चा यह भी है कि राष्ट्रपति ट्रंप जल्दी ही भारत की यात्रा कर सकते हैं. एक ओर ट्रंप वैश्वीकरण के खुले विरोधी हैं, वहीं मोदी, पुतिन और जिनपिंग बहुध्रुवीय विश्व के पक्षधर हैं. कहने का अर्थ है कि मोदी-पुतिन शिखर बैठक को एक रूटीन मुलाकात और मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीद को एक रूटीन सौदे के रूप में देखा जाना चाहिए.

इस अवसर को अमेरिका, पाकिस्तान और चीन को धता बताने की बेमानी कोशिश से परहेज किया जाना चाहिए. यह नहीं भूला जाना चाहिए कि अमेरिका और चीन के साथ हमारा व्यापार रूस के साथ होने वाले व्यापार से कई गुना ज्यादा है. इस हिसाब को बिगाड़ना कोई सरकार क्यों चाहेगी?

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